बंद कमरा / भाग 12 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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"किसका है यह संसार, अनिकेत? मेरा या तुम्हारा?" शफीक और रुखसाना का? अनिकेत और कूकी का? वास्तव में कूकी की दो दुनिया है। अनिकेत जब उसका त्याग करता है तो शफीक उसे स्वीकार करता है। शफीक चाहता है कि रुखसाना उसके प्रत्येक निर्णय में अपनी राय दे और समस्याओं के समाधान के लिए सही रास्ता दिखाए।

जबकि इधर अनिकेत कूकी को कुछ भी नहीं गिनता है। उसको ऐसी कूकी की आवश्यकता है, जो घर की कालिंग बेल बजते ही नंगे पाँव दोड़ी चली आए, हँसकर दरवाजा खोले, उसके जूते-मोजे खोलकर अलग रखे, ठन्डे पानी का गिलास सामने रखकर ड्राइंग रुम में बैठकर उसकी बातों में हुंकारा भरे। अनिकेत जब घर लौटता है और यदि संयोगवश उसे घर पर कूकी नहीं मिलती है तो अनिकेत को खाली घर काटने को दौड़ता है। यही वजह थी कि कूकी अगर अनिकेत के घर आने के वक्त पास-पड़ोस में होती तो तुरंत अपने घर लौट आती थी।अनिकेत घर पर उसको ना पाकर कहने लगता था, "मैं बाहर जाने के लिए तुम्हे मना नहीं कर रहा हूँ।तुम दिन भर बाहर घूम सकती हो। मगर मेरे वापिस आने के वक्त तुम घर में रहा करो वर्ना, जब कॉलिंग बेल बजाने पर भी दरवाजे नहीं खुले तो मुझे बहुत खराब लगता है।"

"मिसेज दास दिन-रात इधर-उधर घूमती रहती हैं। कभी क्लब में तो कभी किट्टी पार्टी में जाती है। दास साहब खुद अपना नाश्ता बनाकर अपने आफिस चले जाते हैं और तुम?"

"तब तुम दास साहब से शादी क्यों नहीं कर लेती?"

"अंट-शंट क्यों बक रहे हो? क्या मैं रोज घर से बाहर जाती हूँ? कभी-कभार घर से बाहर चली जाती हूँ तो आपका पारा क्यों चढ़ जाता है? ठीक है अगली बार तुम्हारे घर आने के वक्त मैं दरवाजे पर खड़ी रहूँगी और सिक्यूरिटी की तरह तुम्हे सेल्यूट मारूँगी।"

अनिकेत यह सुनते ही पलटकर फुफकारने लगा मानो किसी ने गलती से साप की पूँछ पर पाँव रख दिया हो।

"अपनी मर्यादा में रहकर बात किया करो। अपने पति को सेल्यूट मारना कोई खराब बात है क्या?"

कूकी को ऐसा लग रहा था मानो अनिकेत के हृदय में उसके लिए बिल्कुल भी प्यार नहीं है। इतने बड़े- बड़े आक्षेप उसके चरित्र पर? क्या उसने ये सारे आक्षेप अपने मन में छुपा कर रखे थे और उसके जीवन में शफीक के आते ही अनिकेत के व्यवहार में तेजी से बदलाव आया।

लेकिन कूकी यह तुलना क्यों कर रही है? अनिकेत अनिकेत है और शफीक शफीक। शफीक की तरह अनिकेत ने बहुत सारी औरतों के साथ अपने संबंध नहीं बनाए थे। कूकी के प्रति वह पूरी तरह वफादार भी था। कूकी के विश्वास को उसने कभी भी ठेस नहीं पहुंचाई थी। मगर शफीक ने भी तो अपने अतीत की सारी दास्तानों को कूकी के सामने ज्यों का त्यों रख दिया था। वह भी धोखेबाज आदमी नहीं है। तब तो सारा दोष कूकी का है। वह जैसी है, वैसी है। जिसकी मर्जी है चाहे तो रखें या फेंक दे। शफीक जितना आग में जलता है, उतना ही सोने की भाँति देदीप्यमान हो रहा है।

कूकी मन ही मन सोच रही थी कि वह आइन्दा अनिकेत और शफीक की तुलना नहीं करेगी। मगर उसके बावजूद भी वह फिर से दोनों की तुलना करने लगी। दोनो अपनी- अपनी जगह ठीक हैं। शफीक कूकी के होठों की मुस्कराहट और उसके रात-दिन का सपना है। यस, ही इज द ड्रीम मेकर। कूकी को वह सपने दिखाता है और उसके अधरों पर मुस्कान बिखेरता है। जिंदगी कहीं रुकती नहीं है, किसी भी समय एक नए जीवन की शुरुआत हो सकती है।

अधेड़ावस्था में कूकी के एक नए जीवन की शुरुआत हुई थी। उसके जीवन में एक नए संबंध ने जन्म लिया था जैसे कि वह उसका प्रारब्ध हो। उसका संबंध एक ऐसे आदमी के साथ बन गया था, जिसको उसने देखा तक नहीं था, फिर भी दोनो के बीच में किसी तरह का कोई अविश्वास नहीं, कोई अनास्था नहीं थी।

कूकी पहली बार नगमा और तबस्सुम के लिए अपनी शुभ कामनाएँ प्रेषित करते हुए ई-मेल कर रही थी।।वह आज तक उनके बारे में केवल शफीक के ई-मेल में पढ़ती आ रही थी। कभी उन लोगों से सीधी बात नहीं हुई थी। क्या लिखेगी वह? एक ऐसी लड़की जिसने कूकी को कभी देखा नहीं, मगर फिर भी वह उसे खूब प्यार करती है। इंडिया वाली अम्मीजान कहकर पुकारती है। कूकी ने बहुत हिचकिचाहट के साथ कुछ लाइनें टाइप की। उसके बाद उसने राहत की सांस ली।

अंत में उसने शफीक के आई.डी. पर उस ई-मेल को भेज दिया।शफीक पता नहीं, नगमा और तबस्सुम को इस ई-मेल के बारे में बताएगा अथवा नहीं। उसे बताना तो चाहिए क्योंकि शफीक के परिवार वाले उसे अपने घर का सदस्य मानते हैं। लेकिन नगमा की प्रतिक्रिया के बारे में कूकी को कैसे पता चलेगा? शफीक कल भोर होते ही अपने परिवार के साथ गाँव चला जाएगा। उसको फिर से तीन-चार दिन के लिए अकेले रहना पडेगा। उसे ऐसा लगने लगा मानो उसके जीवन के संगीत के छंद बिखर गए हो और कुछ पल के लिए समय मानो थम-सा गया हो।कूकी भी इसी तरह एक बार शफीक को छोड़कर चार-पाँच दिन के लिए बाहर चली गई थी। जब वह घर वापस लौटी तो मेल बॉक्स में उसके नाम शफीक की एक लंबी कविता इंतजार कर रही थी।

चार दिन बीत गए
तुमसे बिछुडे हुए
मैं हर पल तुम्हें याद करता हूँ
तुम मेरे दिल के दरवाजे में धीरे से दस्तक देती हो
तुम्हारी मुसकान
अल्लाह की कसम
मेरी एक चाहत
दिल-ए-तमन्ना
जन्नत में आग लगाने की
भाव तरंगों को भड़काने की
तुम्हारे अधरों के रसपान का प्यासा
तुम्हारे नाजुक हाथ जैसे ही मेरे दिल को छूते हैं
मुझे एक अजीबो गरीब रुहानी अह्सास होता है
रुखसाना, तुम मेरे जीवन के सूर्योदय की लालिमा हो
और हर सुबह तुम मुझे ओस की बूंदों से नहलाती हो।
इसमें कोई अचरज नहीं, मुझे तुमसे प्यार है
जब भी तुम मुझसे दूर जाती हो
मेरा दिल खून उगलने लगता है
और मेरी आँखें आँसुओं से पथरा जाती है।
मेरा जीवन सूना हो जाता है
जब तुम मुझसे दूर जाती हो
मैं एक निबुज कोठरी
मेरे दिल की हर धड़कन
बेकाबू
हवा की साँसों में हर वक्त मेरा मन
प्रकृति की शरद मौत में मेरा जीवन
जब अम्बर में सूरज न चमके
तब तुम मुझे याद करना
कभी तुम मेरी थी
यही बात याद करना।

शफीक को गाँव गए हुए दो दिन भी नहीं हुए थे कि अचानक कूकी के पास शफीक का फोन आया। यह तो कूकी की खुशकिस्मती थी कि वह उस समय घर में अकेली थी। कूकी ने शफीक से पूछा "क्या हुआ शफीक! फोन क्यों किया? मैने तुम्हें फोन नहीं करने के लिए कहा था, मगर तुम मानने वाले कहाँ हो? देखना कभी न कभी हमें इस वजह से परेशान होना पडेगा।"

शफीक ने सिर झुकाकर कूकी की डाँट को सहन कर लिया। कूकी ने शफीक को ऊपरी मन से फटकार तो दिया था मगर खुशी से फूली नहीं समा रही थी। उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसके वक्षस्थल पर चमेली के फूलों का ढेर लगा दिया हो। और उसकी मनमोहक खुशवू से चारो दिशाएँ सुवासित हो उठी हो। उसका मन पुलकित हो गया था तथा तन उत्तेजनावश काँपने लगा था।

शफीक उदास स्वर में कहने लगा था, "रुखसाना, मैं और सब्र नहीं कर सका। इस छोटे से कस्बे में कहीं भी साइबर कैफे नहीं है कि तुम्हें दो लाइन लिखकर ई-मेल कर सकूँ। चार घंटे से तुम्हे फोन लगाने की कोशिश कर रहा था। यह तो अल्लाह का शुक्र है कि अभी लाइन मिल गई। टेलीफोन बूथ वाला भी मुझसे खफा हो रहा था। मैं उसके टेलिफोन बूथ में काफी समय से दखलंदाजी कर रहा हूँ और उसको काफी कुछ सुना भी चुका हूँ। इसलिए हम जल्दी-जल्दी बात चीत करेंगे। तुम कैसी हो? क्या तुम्हें मेरी याद सताती है? तुम्हारे बिना मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। मेरी इच्छा हो रही है कि जितनी जल्दी हो सके लाहौर लौट जाऊँ। लाहौर लौटते ही मैं तुम्हारी बाहों में समा जाऊँगा। मेरा सही मायने में यहाँ कुछ भी काम नहीं है। केवल बोर हो रहा हूँ।"

"काम क्यों नहीं है? नगमा के शगुन का काम हो गया?"

"आज ही तो उसका शगुन होने वाला है।"

"आज जब शगुन की रस्म अदा होने वाली है और तुम चार घंटे से टेलीफोन बूथ में बैठे हो। मजनू कहीं के।"

"हाँ, मैं मँजनू हूँ। रुखसाना का मँजनू। तुम्हारी मधुर आवाज सुनने के लिए तरस गया हूँ। तुम मुझे विरह वेदना में क्यों जला रही हो? आ जाओ, मेरी बाहों में समा जाओ।"

इस उम्र में भी शफीक मानो एक नवयुवक बन गया हो।

"सही में तुम बहुत बड़े पागल हो। अब सीधे से घर चले जाओ। सारे घर वाले वहाँ पर तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे।"

शफीक कुछ और बोलना ही चाह रहा था, कि अचानक उसी समय टेलीफोन की लाइन कट गई।कूकी काफी देर तक उसके टेलीफोन का इंतजार करती रही, मगर शफीक का और कोई फोन नहीं आया।

कूकी उस आदमी की दीवानगी की हद को देखकर अचरज में पड़ गई। यह तो उसने सुन रखा था कि आर्टिस्ट, कवि, साहित्यकार लोग दीवाने होते हैं, मगर इस कदर कि उन्हें अपने हित-अहित की बातों की भी जानकारी नहीं हो, यह उसे पता नहीं था। दुनिया में ऐसा कौनसा बाप होगा, जो अपनी बेटी के शगुन की रस्मों को आधा- अधूरा छोड़कर एस.टी.डी बूथ में चार-चार घंटे तक अपना समय बिताएगा?

कूकी के लिए शफीक की यह दिवानगी काफी सुखदायक थी। तो क्या सुख की अनुभूति ही प्रेम है? वह अनिकेत से ज्यादा शफीक को अपने नजदीक पाती थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसके दिल की हर धड़कन में शफीक की साँस चल रही हो, और घर के अंदर बिना शरीर का शफीक उसके साथ- साथ उसके इर्द-गिर्द घूम रहा हो।

शफीक का फोन पाकर कूकी जितनी खुश हुई थी उतनी बेचैन भी। कूकी की अंतरात्मा शफीक को फोन करने की गवाही नहीं देती थी। दोनो देशों के बीच सम्बन्ध अच्छे नहीं चल रहे हैं। चारों तरफ गुप्तचर संस्थाएँ सक्रियता से काम कर रही है। वे लोग बिना किसी कारण के ही हैरानी में पड़ सकते हैं। अगर ऐसी कुछ बातें लीक हो जाती है, तो वह अनिकेत को, अपने बच्चों को, सगे-संबंधियों और अपने देश-वासियों को क्या जवाब देगी। उस समय कौन उस पर विश्वास करेगा कि उन दोनों में केवल प्रेम ही था। प्रेम, वह भी इस उम्र में? छिः! इतना जलील होने से पहले तो उसके लिए मर जाना उचित रहता। वह भी कोई इंसान है जो केवल अपने स्वार्थ की खातिर जिंदा रहता है? क्या अपनी खुद की संतुष्टि ही सर्वोपरि है? क्या इस तुच्छ प्रवृत्ति को अपने परिवार और देश की खातिर काबू में नहीं रखा जा सकता था?

कूकी कभी-कभी इधर-उधर की खूब सारी बातें सोचकर डर जाती थी, मगर वह अपनी चंचल इंद्रियों की गुलाम थी। वह उसे अपना प्रारब्ध मानती थी मानो वह शफीक से सम्मोहित हो गई हो। चार दिन के बाद लौटकर शफीक ने ई-मेल लिखा था, "रुखसाना, मैं अपने घर लौट आया हूँ। मै अपने स्टूडियों में आँखें बंद करके भी तुम्हें देख पाता हूँ। मुझे हर समय तुम्हारा हँसता मुस्कराता चेहरा स्टूडियो की दीवारों पर तथा कम्प्यूटर के मोनिटर पर नजर आता है। मेरे लिए तुमको भुलाना कष्टदायक है। तुम ही मेरी सबकुछ हो। तुम ही मेरा अस्तित्व हो। पिछले आठ सालों से हमारा सम्बंध आज भी गुलाब की पंखुडियों की भाँति खिला हुआ हैं। तब से तुम्हारी जगह मेरे दिल में है।"

"आठ साल?" ई-मेल पढ़ते ही कूकी आठ साल के पास आकर रुक गई। उनका संबंध तो पिछले एक साल से हुआ है मगर शफीक ने आठ साल क्यों लिखा? कहीं किसी दूसरे का ई-मेल तो उसके पास फॉरवर्ड नहीं कर दिया। किसने आठ साल से उसके दिल पर कब्जा किया हुआ है? वह कूकी तो नहीं हो सकती है, जरुर कोई दूसरा होगा? लिंडा जानसन होगी शायद? इसका मतलब कूकी के प्रेम की इतनी तड़प, व्याकुलता और बेचैनी महज एक धोखा थी? कूकी का यह मानना था कि शफीक उसका प्यार पाकर धीरे-धीरे अपने आप को नरक से उबार रहा है। वह अपनी पुरानी आदतों को छोड़ रहा है। धीरे-धीरे उसका आवारापन भी कम होता जा रहा है। मगर अब भी वह आदमी जरा सा भी नहीं बदला है।

कूकी अपने आप को बहुत जलील अनुभव कर रही थी। उसे अपने आप पर तरस आ रहा था कि वह किस लंपट आदमी के हाथों में बुरी तरह फँस गई है। शायद नेट की इस अनोखी दुनिया में शफीक न केवल उसके साथ बल्कि दुनिया की हजारों औरतों के साथ उस की तरह ही फ्लैटरी करता होगा। कूकी भी कोई खास नहीं है बल्कि उन अनगिनत औरतों में से एक है।

कूकी अपने आप पर फक्र अनुभव करती थी कि जैसे शफीक पर केवल उसी का अधिकार है। शफीक को उसके अलावा कोई भी छू तक नहीं सकता। उसे आज समझ में आ रहा था कि कभी-कभी राधा कृष्ण से क्यों रुठ जाती थी? क्यों उसका मन दुखी हो जाता था?

शफीक के ऊपर ना तो उसने किसी तरह की कोई पाबंदी लगाई थी और ना ही कोई शर्त रखी थी।उसने तो अपने मुँह से कभी भी उसको अपनी जीवन शैली बदलने के लिए कुछ भी नहीं बोला था। कभी उसने यह भी नहीं कहा था कि अगर मुझे तुम पाना चाहते हो तो तुम्हें अपनी जीवन शैली बदलनी होगी। मगर आज किसने उसे यह अधिकार दिया कि वह शफीक के जीवन को अपने काबू में रखे?

उसका मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा था। ऐसे आदमी के सामने उसका पूरी तरह समर्पण कर देना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसे मन ही मन लिंडा से जलन होने लगी थी और शफीक के ऊपर बहुत गुस्सा आ रहा था।

उसने घर में खाली समय पाकर आवेश में आकर शफीक को एक ई-मेल किया था। "तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि हमारा सम्बंध बने अभी एक साल ही हुआ है। मगर तुमने आठ साल क्यों लिखा? क्या तुम नशे की हालत में थे या फिर किसी दूसरे का ई-मेल मेरी तरफ फारवर्ड कर दिया है। मगर तुमने ऐसा करने का दुस्साहस कैसे किया? मै इस बारे में तुमसे तत्काल बात करना चाहती हूँ। अगर संभव है तो ई-मेल पाते ही मुझसे फोन पर बात करो।"

ई-मेल किए हुए एक घंटा भी नहीं हुआ था कि शफीक का फोन आ गया। शफीक उस बात को बड़े हल्के से लेते हुए हँस रहा था। हँसते-हँसते वह कहने लगा, "मैने ई-मेल में आठ साल लिख दिए हैं?" वह फिर से खिलखिलाकर हँसने लगा।

उसका हँसना मानो कूकी के शरीर में आग लगा रहा हो। क्रोधित होकर कूकी बोली, "किसी दूसरे का बासी गुलाब मुझे देते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?"

कूकी के इस तरह के रुखे उत्तर से शफीक चुप हो गया। कूकी अपनी भड़ास निकालती जा रही थी, "तुम्हें लिंडा से अभी भी प्यार है तो कम से कम मुझे बताना तो चाहिए था। उसे ई-मेल किया, उसमें मुझे कोई तकलीफ नहीं है। तुम्हारी जैसी मर्जी, वैसा करो। मैं कौन होती हूँ तुम्हारी आजादी पर प्रतिबंध लगाने वाली? मगर दूसरे का ई-मेल मुझे क्यों भेजा? मुझे इस बात से बहुत दुख लगा है। "

शफीक सहमकर बड़े धीरे से बोला, "रुखसाना, आजकल मेरा लिन्डा के साथ कोई सम्बंध नहीं है। मैं तो यह भी नहीं जानता, वह आजकल कहाँ पर रहती है और क्या करती है? मैं किस प्रकार तुम्हें यकीन कराऊँ? कैसे समझाऊँ? रियली, आई लव यू रुखसाना।" कहते-कहते उसने रिसीवर पर ही कूकी का चुम्बन कर लिया।

"तुम अब भी मुझ पर गुस्सा करती हो। बार-बार मेरे ऊपर संदेह करती हो। मेरी लाड़ली, रुखसाना, इसलिए कि मैं पाकिस्तानी हूँ, इसलिए कि मैं हिन्दू नहीं हूँ।"

कूकी ने शफीक की इस बात का कोई जवाब नही दिया। शफीक समझ गया था कि फोन पर कूकी को समझाना नामुमकिन है। इसलिए वह कहने लगा, "अच्छा, रुखसाना मैं फोन रख रहा हूँ। बाद में ई-मेल करूँगा।"

शफीक ने कुछ ही घंटों के बाद पाँच पन्नों वाला एक ई-मेल भेजा था जिसमें उसने अपनी भावनाओं को पूरी तरह से उडेल दिया था। उसने कूकी के बारे में बहुत कुछ लिखा था। जैसे कूकी उसका जीवन है। उसके बिना उसका जीना व्यर्थ है। वह कूकी को कितना प्यार करता है। इन सारी बातों पर उसने पैरॉग्राफ के ऊपर पैरॉग्राफ लिखा था। कूकी के नाम उसने एक लंबी कविता भी अटैच करके भेजी थी।

तुम्हें अभी तक पता नहीं
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ?
तुम्हें कैसे दिखाऊँ
मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ?
रोशनी की किसी परछाई के पीछे
जहाँ सर्पिल नदी बहती हो
गरमी के दिनों में भी,
जहाँ लहलहाते खेतों में तेज हवा चलती हो
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
तुम्हें अभी तक पता नहीं?
जी हाँ, मेरा प्यार
मंत्र की तरह पवित्र
नमाज की तरह पाकीजा
बाइबिल की तरह एक प्रार्थना है।
मेरा प्यार
किसी फुसफुसाहट से लेकर
लहरों की गर्जना तक
फैला ही फैला है।
मेरा प्यार
उससे भी ज्यादा
और बहुत ज्यादा

कूकी के मन में संदेह की जमी हुई बर्फ धीरे-धीरे पिघलनी शुरु हो गई। शफीक की कविता पढ़कर उसका मन पुलकित हो उठा था।

वह एक अनोखे आनंद से तरोताजा अनुभव करने लगी थी मानो उसकी कोई बहुत बड़ी पुरानी बीमारी ठीक हो गई हो। दो-चार दिन बीतने के बाद वह अपने आपको पहले की तरह सामान्य अनुभव करने लगी। घर गृहस्थी के झगड़े प्रायः ऐसे ही होते है जैसे शरद ऋतु में कोई बारिश होती हो। अचानक कुछ बूँदें बरसने के बाद आकाश एकदम पहले की भाँति साफ, निर्मल और सुंदर हो जाता है। अगले दिन फिर शफीक ने फोन किया, "अब क्या हो गया, शफीक? इतना मना करने के बाद भी तुम मेरी बात क्यों नहीं मानते हो? एक दिन जरुर मुझे भी फँसाकर रहोगे। जानते हो न, मुंबई पुलिस बहुत खतरनाक है। बिना किसी वजह के ही मेरी हालत खराब कर देगी।"

"तुम तो मुझसे ऐसी बात कर रही हो, जैसे कि मैं कोई आतंकवादी हूँ।"

शफीक की बात सुनते ही कूकी एकदम चुप हो गई।

"रुखसाना, मैं इस्लामाबाद से बात कर रहा हूँ। मैं अपने वीसा के काम से यहाँ आया था। आने वाली पन्द्रह तारीख को पेरिस में मेरा इंटरव्यू होगा। पता नहीं समय पर मुझे वीसा मिलेगा भी या नहीं। फ्रांसिसी दूतावास के अधिकारी मुझसे अजीबो गरीब सवाल पूछ रहे थे मानो मैं कोई दहशतगर्द हूँ। उनको मुझ पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। वे मुझे घर लौट जाने के लिए कह रहे थे। वे यह भी कह रहे थे जब भी पैनल अपना निर्णय देगा, तुम्हें सूचित कर दिया जाएगा। सोच रहा हूँ पैनल का निर्णय आने तक यही बैठकर दो-तीन दिन इंतजार कर लूँ। हाँ, तुमको फोन करने की दो वजह थीं। मगर तुम तो इतना गुस्सा हो गई कि मैं कुछ बोल भी नहीं पाया।"

"शफीक, क्या कहना चाहते हो? कहो, प्लीज।" कूकी ने उत्तर दिया "तुम मेरे साथ पेरिस चलोगी न? मैं एक चक्कर में पड़ गया हूँ। कभी सोचता हूँ मैं तुम्हें अपने साथ ही ले जाऊँगा। वहाँ हम दोनो पेरिस घूमेंगे और खूब मजे करेंगे। कभी सोचता हूँ मैं अगर अभी तुम्हें अपने साथ ले जाता हूँ तो हो सकता है तुम बाद में मेरे साथ यहाँ आना न चाहो। मैं चाहता हूँ कि जीवन भर तुम मेरे साथ रहो। दो साल वहाँ रुकने के बाद मैं किसी परमानेन्ट नौकरी की तलाश करूँगा। मगर असली बात क्या है, जानती हो?" खुदा न खास्ता, मैं अगर इंटरव्यू में फेल हो जाता हूँ तो तुम्हें पाने का एक अच्छा मौका मेरे हाथ से चला जाएगा। रुखसाना, अब तुम्हीं बताओ, कि मेरे साथ अभी चलोगी या बाद में?

"पूरे पागल हो। अच्छा, अब बताओ दूसरी वजह क्या है?" कूकी ने कहा।

"मैं इस्लामाबाद में हूँ, इसलिए यहाँ से फोन करने या ई-मेल करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।मैंने यही बताने के लिए तुम्हें फोन किया था। मगर तुमने तो मेरे पहले सवाल का अभी तक जवाब नहीं दिया। चलोगी न मेरे साथ पेरिस?"

"तुम जाओ, शफीक। सफल होकर लौटना। मेरी दुआ तुम्हारे साथ है।"

"तुम कुछ तो बोलो? मैं बाहर से फोन कर रहा हूँ इसलिए मेरे लिए कुछ खुलकर बोलना सम्भव नहीं हो रहा है।"

"क्या बोलूँ?" कूकी ने जवाब दिया।

"बुद्धू कहीं की!" कहते हुए शफीक ने रिसीवर पर ही कूकी का चुंबन ले लिया और फोन नीचे रख दिया।

शफीक वास्तव में उसको तहे दिल से प्यार करता था अन्यथा वह क्यों कूकी के लिए इतना परेशान होता? वह चाहे अपने गाँव में हो या राजधानी में, क्यों वह कूकी के लिए इतने खतरों से खेलता? काश! वह अपने ऐसे प्रेमी से एक बार मिल पाती। हाय! क्या यह सम्भव हो सकेगा? एक तरफ सपनों की अनोखी दुनिया तो दूसरी तरफ निष्ठुर वास्तविकता।

पता नहीं, इस तरह का दोहरा जीवन दुनिया में किसी और का होगा?