बांसगांव की मुनमुन / भाग - 11 / दयानंद पाण्डेय

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तय कार्यक्रम के मुताबिक़ रमेश बांसगांव एक दिन पहले ही पहुंच गया। तरुण भी आ गया था सपत्नीक। यह उस ने अच्छा किया था। मुनमुन को समझाने में आसानी रहेगी। ऐसा उस ने सोचा। पर जब मुनमुन की ससुराल और उस के पति की तफ़सील अम्मा ने रोते बिलखते बताई तो उस के पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गई। वह हिल सा गया। सोचा कि दुनिया भर को न्याय का पाठ पढ़ाने वाला वह कैसे तो अपनी ही बहन के साथ ही अन्याय कर बैठा। ज़रा सी आलस, ज़रा से अहंकार और ज़रा सी व्यस्तता ने घनश्याम राय के परिवार की थाह नहीं लेने दी। बहन के वर की जांच पड़ताल नहीं करने दी। वृद्ध बाबू जी के भरोसे सब छोड़ दिया। और इस चार सौ बीस घनश्याम राय के झांसे में सब आ गए। सारे भाई सबल हो कर भी कैसे तो अपनी बहन को अबला बना बैठे? सोच कर उस ने अपने को धिक्कारा। पर अब क्या हो सकता था इस पर उस ने सोचना शुरू किया। आख़िर इसी में ही कोई विकल्प तलाशना था। और कोई चारा नहीं था। रात भर वह ठीक से सो नहीं सका। सुबह उठ कर उस ने सोचा कि क्यों न घनश्याम राय को अभी आने के लिए मना कर दे और कह दे कि वर्तमान हालात में बातचीत मुमकिन नहीं। फिर कुछ सोच कर टाल गया। बाबू जी से इस बारे में बात की तो वह बिलख कर रो पड़े। बोले, ‘बेटा हमारी बुद्धि कुछ काम नहीं कर रही। बूढ़ा हो गया हूं। ग़लती हो गई जो मुनमुन को उस नरक में ब्याह दिया। उस वक्त ब्याह तय कर देने के दबाव में आंख पर जल्दी की पट्टी बंध गई थी। कुछ जांच-पड़ताल भी नहीं कर पाया। लड़का इतना नाकारा निकल गया। मैं घनश्याम राय की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। तुम्हीं लोगों से तभी कह दिए होता कि मेरे वश का नहीं है शादी-ब्याह ढूंढना तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता। मैं भी बेटों के साथ अहंकार की तकरार में ज़िद में आ बैठा। भूल गया कि परिवार में और वह भी बेटों के साथ अहंकार की गठरी बांधने से क्या फ़ायदा? छोटा थोड़े ही हो जाता? पर मति मारी गई थी, आज तो छोटा हो ही गया हूं। फूल सी बेटी की जिंदगी नरक बना कर।’ वह रोते हुए बोले, ‘अरे नरक में भी मुझे जगह नहीं मिलेगी!’

‘ऐसा मत कहिए बाबू जी!’ कह कर रमेश की आंखें भी भींग गईं, ‘हम सभी इस पाप के भागीदार हैं।’ वह बोला, ‘आप अनुभवी हैं कोई रास्ता तो निकालने की सोचिए ही।’

‘मुझे तो कुछ सुझाई नहीं पड़ता। न सोच पा रहा हूं। तुम बड़े बेटे हो, तुम्हीं सोचो।’

‘चलिए घनश्याम राय को आज बुलाया हुआ है। बातचीत करते हैं। शायद कोई रास्ता निकल जाए!’

‘अरे उस नालायक़, चार सौ बीस को बुलाने की क्या ज़रूरत थी?’ मुनक्का राय बोले, ‘उस पापी को तो मैं ने फिर घर आने से ही मना कर दिया था। वह भला क्या आएगा चोर कहीं का!’

‘आएगा, आएगा!’ रमेश बोला, ‘उस ने मुझे फ़ोन किया था और गिड़गिड़ा रहा था। तो मैं ने बातचीत के लिए उसे और राधेश्याम को बुला लिया है। बाप बेटे दोनों को।’

‘चलो अब तुम ने बुला लिया है तो और बात है। नहीं पिछली बार आया था तो मैं ने तो उसे फिर आने के लिए मना कर दिया था।’ रमेश ने फिर अम्मा और मुनमुन को भी समझाया कि, ‘रास्ता तो देखो कोई न कोई निकालना ही पड़ेगा।’ फिर उस ने बताया कि, ‘घनश्याम राय और राधेश्याम राय को बातचीत के लिए बुलाया है। थोड़ी देर में दोनों आते ही होंगे।’

मुनमुन और अम्मा दोनों ही चुप रहीं। कुछ बोलीं नहीं। घनश्याम राय तय समय पर आए और अपनी योजना के मुताबिक़ अकेले ही आए। बेटे को नहीं लाए। रमेश ने पूछा भी कि, ‘राधेश्याम कहां रह गए?’

‘असल में उस की तबीयत ख़राब हो गई है।’ घनश्याम राय ने बहानेबाज़ी की।

‘फिर तो बात नहीं हो पाएगी घनश्याम जी!’ रमेश बोला, ‘मूल समस्या तो राधेश्याम से ही थी, वही नहीं है तो बात क्या होगी?’

‘आप को जो कुछ पूछना हो वह फ़ोन से ही पूछ लीजिएगा उस से।’ घनश्याम राय ने चिरौरी की।

‘फ़ोन से ही जो बात निपटने वाली होती तो मैं बांसगांव क्यों आता?’ रमेश ने तल्ख़ हो कर कहा।

‘अब क्या करें उस की तबीयत ख़राब हो गई अचानक।’ घनश्याम रिरियाये, ‘आप बस बहू को विदा कर दीजिए अब कोई समस्या नहीं आएगी। मैं वचन देता हूं।’

‘आप के वचन की कोई क़ीमत भी है? कोई मतलब भी है?’ रमेश ने पूछा, ‘आप तो बता चुके हैं कि वह पी.सी.एस. की तैयारी कर रहा है? कैसे यक़ीन करें आप के वचन पर?’

‘देखिए जज साहब जो बात बीत गई उस को बार-बार दुहराने से कोई फ़ायदा तो अब है नहीं। आगे की सुधि लीजिए।’ घनश्याम राय ने फिर मनुहार की। बातचीत शुरू हुई। तय हुआ कि घनश्याम राय मुनमुन पर हुई ज़्यादतियों पर सफ़ाई दें और कि मुनमुन से जो भी शिकायत हो वह भी बताएं। घनश्याम राय ने पहले तो कहा कि, ‘इन सब विवादों को सिरे से भूल कर नए सिरे से बात शुरू करें और हमारी बहू को हमारे साथ विदा करें। आगे कोई तकलीफ़ नहीं होगी। न ही कोई शिकायत।’

‘नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता घनश्याम जी!’ रमेश ने कहा, ‘आप को बिंदुवार जवाब देना होगा।’

‘देखिए यह कोई अदालत नहीं है जज साहब कि गवाही, जिरह और बहस हो। पारिवारिक मामला है और इसे पारिवारिक ढंग से हल करना चाहिए।’

‘मैं ने कब कहा कि अदालत है?’ रमेश ने कहा, ‘अगर आप का बेटा लुक्कड़ और पियक्कड़ है, आप के घर में हमारी बहन को भरपेट भोजन नहीं मिल सकता, आप की पत्नी और बेटी मेरी बहन से उचित व्यवहार करने के बजाए तंग करेंगी, ताने मारेंगी तो ऐसे में इन समस्याओं का कोई हल निकाले बगै़र आप के साथ हम अपनी बहन को विदा नहीं कर सकते।’

‘देखिए जज साहब आप लोग बार-बार भोजन-भोजन का पहाड़ा पढ़ रहे हैं तो यह बताइए कि अगर सगी पट्टीदारी में आप के यहां गमी हो जाए तो आप के यहां क्या दोनों टाइम भोजन बनेगा? नहीं न?’ घनश्याम राय बोले, ‘तो दुर्भाग्य से उन दिनों गौने के दो दिन बाद ही हमारे चाचा का निधन हो गया। इस लिए यह दिक्क़त आई।’

‘चलिए माना पर फलाहार आदि की व्यवस्था तो होनी चाहिए थी?’

‘वह तो हुई ही थी।’

‘और राधेश्याम की लुक्कड़ई-पियक्कड़ई?’

‘यह एक ऐब उस में आ गया है। उस को हम सुधार रहे हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘कहीं उस को रोज़ी रोज़गार दिलवा देते आप लोग तो थोड़ी आसानी होती।’

‘और आप के घर में महिलाओं का व्यवहार?’

‘मैं उन को भी समझाऊंगा।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर आप भी ज़रा कुछ हमारी बहू को समझा दीजिए।’

‘जैसे?’ रमेश ने पूछा।

‘कि अब वहां से शिक्षा मित्र की नौकरी नहीं चलेगी।’ घनश्याम राय बोले, ‘वह चाहती है कि रोज़ हमारे गांव से आप के गांव पढ़ाने जाए। यानी रोज़ ससुराल से मायके जाए। यह शोभा देगा भला?’

‘और?’

‘हमारे परिवार की महिलाओं को धौंसियाना बंद करे। कि हमारे भैया लोग तो ये, हमारे भैया लोग तो वो। हम यह करवा देंगे, हम वह करवा देंगे।?!’

‘और?’

‘यह भी बता दीजिए कि हमारी बहू को बीमारी क्या है जो संदूक़ भर के दवाई रखती है?’

‘और?’

‘और बस विदा कर दीजिए!’ घनश्याम राय हाथ जोड़ कर बोले, ‘बड़ी बदनामी हो रही है, पट्टीदारी, नातेदारी में। सिर उठा कर चलना मुश्किल हो गया है। जो मन सो कोई सवाल पूछ लेता है बहू के बारे में तो जवाब देते नहीं बनता।’

‘अच्छा, ज़रा राधेश्याम से फ़ोन पर बात करवाइए।’ रमेश ने घनश्याम राय से कहा, ‘और हां, मोबाइल का स्पीकर आन कर लीजिए ताकि बातचीत सभी लोग पूरी तरह सुन सकें।’

‘जी जज साहब!’ घनश्याम राय बोले। हालां कि मोबाइल का स्पीकर आन करने की बात पर वह थोड़ा सकपकाए। पर मोबाइल से राधेश्याम का फ़ोन मिलाया, स्पीकर आन किया। उधर से फ़ोन घनश्याम राय की पत्नी ने उठाया। घनश्याम राय ने कहा कि, ‘राधेश्याम से ज़रा बात कराओ। जज साहब बात करेंगे।’

‘पर उस की तो तबीयत ख़राब है न?’

‘हां, है। पर बात कराओ!’

‘आप तो जानते हैं कि......।’ घनश्याम राय की पत्नी थोड़ा लटपटाईं।

‘मैं कह रहा हूं कि बात कराओ!’ डपटते हुए घनश्याम राय बोले।

‘जी कराती हूं।’ कह कर फ़ोन उन्हों ने राधेश्याम को दे दिया। वह बोला, ‘हलो कौन?’

‘हां, बेटा तुम्हारा बाबू जी बोल रहा हूं लो तुम से जज साहब बात करना चाहते हैं?’ कह कर मोबाइल उन्हों ने जज साहब के हाथ में दे दिया।

‘कौन जज?’ उधर से राधेश्याम पूछ रहा था।

‘अरे भइया राधेश्याम जी मैं बांसगांव से रमेश बोल रहा हूं।’

‘अच्छा-अच्छा मेरा साला जज!’ उधर से बहकी-बहकी आवाज़ में राधेश्याम बोला, ‘आई लव यू जज साहब! आई लव यू!’

‘क्या?’ रमेश बिदका।

‘आई लव यू। आई लव मुनमुन। आई लव बांसगांव। आल आफ़ बांसगाव। लव-लव-लव!’

‘क्या बक रहे हो?’ रमेश फिर बिदका।

‘चोप्प साले!’ राधेश्याम लड़खड़ाई आवाज़ में मां बहन की गालियां भी उच्चारने लगा। और बोला, ‘लव यू आल मादर..।’

‘लीजिए घनश्याम जी अब आप ही बात कीजिए!’ कह कर रमेश ने मोबाइल घनश्याम राय को देते हुए हाथ जोड़ लिया।

राधेश्याम उधर से लगातार लड़खड़ाती आवाज़ में गालियों और लव यू का प्रलाप जारी रखे था। घनश्याम राय ने हड़बड़ा कर फ़ोन काट दिया। और माथे पर हाथ रख कर बैठ गए।

‘कुछ और बाक़ी रह गया हो तो बताएं घनश्याम जी!’ रमेश ने तल्ख़ी और नफ़रत से पूछा।

‘कुछ नहीं जज साहब।’ घनश्याम राय ने अपने माथे पर हाथ फेरा और बोले, ‘जब अपना ही सिक्का खोटा है तो क्या करूं?’

‘तो फिर?’

‘अब आज्ञा दीजिए!’ घनश्याम राय हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब जब उस को पूरी तरह सुधार लूंगा तब ही बात करूंगा।’ कह कर घनश्याम राय घर से बाहर आ गए। पर घर का एक भी सदस्य उन्हें सी आफ़ करने घर से बाहर नहीं आया। न ही चलते समय किसी ने उन्हें नमस्कार किया। अपमानित घनश्याम राय मुनक्का राय के घर से बाहर निकल कर अपनी जीप में बैठे और ड्राइवर को चलने को कह कर अपने घर फ़ोन मिलाया। उधर से उन की पत्नी थीं। पत्नी की पहले तो उन्हों ने मां बहन की। फिर कहा कि, ‘इतना समझा कर आया था। बात पटरी पर आ कर गुड़ गोबर हो गई।’

‘अब मैं क्या बताऊं?’

‘इस ने कब शराब पी ली दिन दहाड़े?

‘पता नहीं।’ पत्नी बोलीं, ‘मैं ने देखा नहीं।’

‘तो जब शराब पी कर अनाप शनाप बक रहा था तभी फ़ोन काट नहीं सकती थी?’

‘वह बिलकुल बहका हुआ था, मैं मना करती तो हमारे ऊपर हाथ उठा देता तो?’

‘मना क्या करना था, चुपचाप फोन काट दी होती।’

‘वह तो आप भी काट सकते थे।’

‘बेवकूफ़ औरत फ़ोन मेरे हाथ में नहीं जज साहब के हाथ में था।’ वह बोले, ‘और फिर स्पीकर आन था। सभी लोग उस की ऊटपटांग बात सुन रहे थे। इतनी बेइज़्ज़ती हुई कि अब क्या बताएं।?’

पत्नी कुछ बोलने के बजाय चुप रहीं।

‘अभी कहां है?’ घनश्याम राय ने भड़क कर पूछा।

‘कौन?’

‘नालायक़ अभागा राधेश्याम और कौन?’

‘मोटरसाइकिल ले कर कहीं निकला है?’

‘कहां?’

‘पता नहीं।’

‘इस तरह वह पिए था।’ घनश्याम राय तड़के, ‘ऐसे में मोटरसाइकिल ले कर जाने क्यों दिया उसे?’

‘हमारे मान का था रोकना उस को?’ पत्नी भी बिलबिलायी।

‘चलो आता हूं तो देखता हूं।’ कह कर घनश्याम राय ने फ़ोन काट दिया। इधर रमेश और घनश्याम राय की बातचीत के बीच मोबाइल के स्पीकर पर राधेश्याम की बातचीत दरवाज़े की आड़ से मुनमुन और उस की अम्मा ने भी सुनी। मुनमुन का रो-रो कर बुरा हाल था। घनश्याम राय के जाने के बाद रमेश मुनमुन के पास गया। उसे चुप कराते हुए दुखी मन से बोला, ‘माफ़ करना मुनमुन हम लोगों के रहते हुए भी तुम्हारे साथ भारी अन्याय हो गया। शायद क़िस्मत में यही बदा था।’ रमेश बोला, ‘फिर भी घबराओ नहीं। कुछ सोचते हैं और देखते हैं।’ मुनमुन और ज़्यादा रोने लगी। और मुनमुन की अम्मा भी। इतना कि रुलाई सुन कर अड़ोस-पड़ोस की औरतें इकट्ठी हो गईं। इधर मुनक्का राय भी रो रहे थे। पर निःशब्द। औरतों को आता देख उन्हों ने अपनी आंखें पोछीं और चादर ओढ़ कर, मुंह ढंक कर लेट गए।

तरुण और तरुण की बीवी कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें? तरुण की बीवी ने मुनमुन के पति और ससुर के लिए बढ़िया सा नाश्ता बनाया था, भोजन की भी तैयारी थी। पर सब धरा का धरा रह गया। तरुण की बीवी अब आ कर पछता रही थी। और आंखों ही आंखों में तरुण को इशारा कर रही थी कि अब बांसगांव से निकला जाए। बहुत हो गया। लेकिन तरुण ने उस से खुसफुसा कर कह दिया, ‘आज नहीं। माहौल नहीं देख रही हो?’

‘मगर माहौल तो कल भी यही रहेगा?’ तरुण की बीवी भी खुसफुसाई।

‘तो भी आज नहीं।’ तरुण ने पूरी सख़्ती से कहा। लेकिन रमेश ने जाने की तैयारी कर ली। पर अम्मा ने कहा कि, ‘बाबू खाना खा लेते तब जाते!’

‘अब अम्मा खाना अच्छा नहीं लगेगा।’

‘तो भी बिना खाए हम नहीं जाने देंगे।’ अम्मा बोलीं, ‘ख़ाली पेट जाना ठीक नहीं है।’

‘चलो ठीक है।’ कह कर रमेश थोड़ी देर के लिए रुक गया। फिर धीरज को फ़ोन कर रमेश ने सारा डिटेल बताया और कहा कि, ‘मेरी अक़ल तो काम नहीं कर रही। तुम्हीं कुछ सोचो।’ यही बात उस ने राहुल को भी फ़ोन कर कही। तरुण को भी बुला कर पूछा, ‘तुम क्या सोचते हो? क्या किया जाए आखि़र?’

‘क्या बताऊं भइया कुछ समझ नहीं आ रहा।’ तरुण हताश हो कर बोला।

‘फिर भी कुछ सोचो।’ रमेश बोला, ‘अक़ल तो मेरी भी काम नहीं कर रही है।’ कह कर रमेश सोफे़ पर ही बैठे-बैठे लेट गया। थोड़ी देर में खाना बन गया तो तरुण ने आ कर बताया कि,

‘भइया खाना बन गया है ले आऊं?’

‘हां, बस थोड़ा ही ले आना।’ रमेश बोला, ‘नाम मात्र का।’

खाना खा कर रमेश चलने लगा तो फिर मुनमुन को समझाया, ‘घबराओ नहीं, कुछ न कुछ उपाय सोचते हैं।’ मुनमुन फिर रो पड़ी। अम्मा भी। बाबू जी और अम्मा के पांव छूते हुए रमेश की भी आंखें भर आईं। पर बिना कुछ बोले वह घर से बाहर आ गया। पीछे-पीछे तरुण भी आ गया। पैर छू कर घर में लौट गया। कार बांसगांव पार कर ही रही थी कि रमेश के ड्राइवर ने गाना लगा दिया, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी!’ रमेश को सुन कर अच्छा लगा। इस गाने से जुड़ी मीठी यादों में वह खो सा गया। उसे याद आया कि जब मुनमुन छोटी सी थी, तब वह उसे गोद में ले कर खिलाता था और गाता था, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी, चांदनी के हसीन रथ पे सवार.....।’ और वही क्यों घर के लगभग सारे लोग मुनमुन को खिलाते और यह गाना गाते। पर चांदनी के रथ पे सवार इस नन्हीं परी के इतने बुरे दिन आएंगे तब यह कोई नहीं जानता था। अब यह गाना अचानक उसे ख़राब लगने लगा। उस ने ड्राइवर से ज़रा तल्ख़ी से कहा,‘गाना बंद करो।’

ड्राइवर ने सकपका कर गाना बंद कर दिया। वह समझ ही नहीं पाया कि ग़लती क्या हुई है? दूसरे दिन तरुण और उस की पत्नी भी चले गए। अम्मा ने हालां कि तरुण की पत्नी से कहा था कि, ‘हो सके तो कुछ दिन के लिए मुनमुन को अपने साथ लेती जाती। थोड़ा सा उस का मन बदल जाता। यहां बांसगांव में तानेबाज़ी से उस का दिल टूट जाएगा।’

‘कहां अम्मा जी, आप तो जानती हैं कि मकान हमारा छोटा है। दूसरे, बच्चों की पढ़ाई। तीसरे, इन के ट्रांसफर का भी टाइम हो गया है। पता नहीं कहां जाना पड़े।’ तरुण की पत्नी बोली, ‘न हो तो बड़े भइया या छोटे भइया के यहां भेज दीजिए।’