बांसगांव की मुनमुन / भाग - 12 / दयानंद पाण्डेय

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‘ठीक है देखती हूं।’ अम्मा ने बात ख़त्म कर दी।

जब तरुण और उस की पत्नी चले गए तो मुनमुन ने अम्मा से कहा, ‘अम्मा एक बात कहूं?’

‘कहो?’

‘आगे से कभी भी किसी भइया या भाभी से मुझे साथ ले जाने के लिए मत कहिएगा। क्यों कि मुनमुन के लिए सब का घर छोटा है। उस के लिए किसी के पास जगह नहीं है। और तुम जानती हो कि मुझे टी.बी. है फिर कोई क्यों अपने घर ले जाएगा?’ मुनमुन बोली, ‘जिन भाइयों ने पट्टीदारी और अहंकार में, अपने पद और पैसे के मद में चूर हो कर एक बहन की शादी ढूंढना गवारा नहीं किया, उन का बहनोई कैसा है, शादी के पहले जानने की कोशिश नहीं की उन भाइयों से तुम उम्मीद करती हो कि वह मुझे ले जाएंगे अपने साथ और अपने घर में रखेंगे?’

‘तो बेटी आखि़र किस से उम्मीद करें?’ अम्मा बोलीं।

‘किसी से नहीं। सिर्फ़ अपने आप से उम्मीद रखिए।’ मुनमुन ज़रा कसक के साथ बोली, ‘सोचो अम्मा जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’

अम्मा चुप रहीं।

‘नहीं न?’ मुनमुन बोली, ‘फिर ऐसे जल्लाद और कसाई भाइयों से फिर कभी मदद या भीख का कटोरा मत फैलाना।’

‘अब मैं क्या करूं फिर?’

‘चलो मैं तो बहन हूं। तुम और बाबू जी भी क्या भइया लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं हो? इतने बड़े जज हैं, अफ़सर हैं, बैंक मैनेजर हैं। एन.आर.आई. हैं। थाईलैंड में हैं; चार-चार खाते कमाते ऐश करते बेटे हैं। क्या मां बाप के लिए एक-एक या दो-दो हज़ार रुपए भी हर महीने लोग रुटीन ख़र्च के लिए नहीं भेज सकते? या फिर साथ रख सकते? तो फिर मैं तो वैसे भी अभागी हूं। मेरा क्या?’

अम्मा रोने लगीं। चुपचाप। पर मुनमुन नहीं रोई। उस ने अम्मा से भी कहा, ‘अम्मा अब मत रोओ। मैं भी नहीं रोऊंगी अब। अपने हालात अब हम ख़ुद बदलेंगे। ख़ुद के भरोसे, दूसरे के भरोसे नहीं।’

लेकिन अम्मा फिर भी रोती रहीं। उन की देह पहले ही हैंगर पर टंगे कपड़े जैसी कृशकाय हो चली थी पर अब वह मन से भी टूट गई थीं। बेटी के दुख ने इस बुढ़ापे में उन पर जैसे वज्रपात कर दिया था। मुनमुन फिर से अपने गांव के स्कूल में शिक्षामित्र की नौकरी पर जाने लगी। मुनक्का राय कचहरी जाने लगे। दोनों का दिन कट जाता था। पर अम्मा क्या करें? उन का दिन कटना मुश्किल पड़ गया। दूसरे, आस पड़ोस की औरतें दुपहरिया में आतीं। बात ही बात में पहले तो सहानुभूति जतातीं मुनमुन के हालात पर। फिर कटाक्ष करतीं और पूछतीं कि, ‘ऐसे कब तक जवान जहान बेटी को घर पर बिठाए रखेंगी बहन जी?’

अब बहन जी क्या जवाब देतीं सो चुप ही रहतीं। एक दिन एक पड़ोसन दूसरी पड़ोसन से खड़ी बतिया रही थी। मुनमुन की अम्मा को सुनाती हुई बोली, ‘लड़के तो कुछ भेजते नहीं, वकील साहब की प्रैक्टिस चलती नहीं हां, बेटी का रोज़गार ज़रूर चल रहा है सो घर का ख़र्चा चल रहा है।’ ‘रोज़गार’ शब्द पर उस पड़ोसन का ज़ोर ज़रा ज़्यादा था। ऐसे जैसे मुनमुन नौकरी कर के नहीं देह का धंधा कर के घर चला रही हो। तिस पर दूसरी पड़ोसन बोली, ‘हमारे यहां तो बहन जी बेटी की कमाई खाना हराम होता है, पाप पड़ता है। हम तो बेटी की कमाई का पानी भी न छुएं।’

मुनमुन की अम्मा का कलेजा छलनी हो गया। मुनमुन की अम्मा का कलेजा भले छलनी हो रहा था पर मुनमुन का कलेजा मज़बूत हो रहा था। वह जान गई थी कि अब उसे ज़माने से लड़ना है। और इस लड़ने के लिए पहले अपने को मज़बूत बनाना होगा। तभी इस पुरुष प्रधान समाज से, इस के बनाए पाखंड से वह लड़ सकेगी। जिस चुटकी भर सिंदूर से उस की चाल, उस की बाडी लैंगवेज बदल गई थी, सब से पहले उस ने इसी सिंदूर को तिलांजलि दी। चूड़ी छोड़ कंगन पहनने लगी। बिछिया छोड़ी। इस पर सब से पहले अम्मा ने टोका, ‘बेटी सुहाग के चिन्ह ऐसे मत छोड़ो। लोग क्या कहेंगे?’ और उस का हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं, ‘ये डंडा जैसा हाथ अच्छा नहीं लगता। चलो पहले चूड़ी पहनो, सिंदूर लगाओ।’

‘नहीं अम्मा नहीं!’ कह कर मुनमुन पूरी सख़्ती से बोली, ‘जब हमारा सुहाग ही हमारा नहीं रहा तो यह सुहाग-फुहाग का चिन्ह और सिंदूर-चूड़ी हमारे किस काम का? मैं अब नहीं पहनने वाली यह बेव़कूफ़ी की चीज़ें।’

‘नहीं बेटी! राम-राम!’ मुनमुन की अम्मा मुंह बा कर, मुंह पर हाथ रखती हुई बोलीं, ‘ऐसी अशुभ बातें मत बोलो अपने मुंह से।’

‘अच्छा अम्मा यह बताओ वह गांव वाला घर गिर गया न?’ वह बेधड़क बोली, ‘पर वह जगह तो है न? हम लोग क्यों नहीं चल कर वहां रहते हैं? आखि़र हमारे पुरखों का घर था वहां?’

‘अब वहां कैसे रह सकते हैं?’ मुनमुन की अम्मा बोलीं, ‘न छांह, न सुरक्षा। न दीवार, न छत।’

‘बिलकुल अम्मा!’ मुनमुन बोली, ‘यही बात, बिलकुल यही बात मैं भी कह रही हूं कि इस चूड़ी, इस सिंदूर की न तो छत है, न दीवार है, न छांह है, न सुरक्षा तो मैं कैसे लगाऊं इसे? कैसे पहनूं इसे? जब सुहाग ही हमारा हमारे लायक़ या हमारे लिए नहीं रहा तो ये सुहाग चिन्ह हमारा कैसे रहा? हमारे किस काम का रहा?’

‘इन सब बातों में इस तरह के तर्क या मनमानी नहीं चलती।’

‘मत चलती हो पर मैं जानती हूं कि अब मेरे लिए इन सब बातों का न तो कोई अर्थ है न कोई मायने?’

‘पर लोग क्या कहेंगे?’

‘मैं ने लोगों का कोई ठेका नहीं लिया है। लोग अपनी जानें, मैं अपनी जानती हूं।’

‘बाद में पछताओगी बेटी।’

‘बाद में?’ मुनमुन बोली, ‘अरे अम्मा मैं तो अभी ही से पछता रही हूं। कि क्यों नहीं शादी के पहले ही मैं ने बिगुल बजाया। जो शादी के पहले ही भइया लोगों से तन कर बोल दी होती कि पहले मेरे दुल्हे की जांच पड़ताल ठीक से कर लीजिए तब शादी कीजिए। पर मैं तो लोक लाज की मारी राहुल भइया से मनुहार करती रही। और वह मेरी शादी में अपने पैसे ख़र्च कर के ही अपने आप पर इतना मुग्ध था कि उसे मेरा कुछ कहा सुनाई ही नहीं दिया। मेरा मर्म उसे समझ में ही नहीं आया। वह तो पैसा ख़र्च कर ऐसे ख़ुश था जैसे बहन की शादी नहीं कर रहा हो, भिखारी के कटोरे में पैसे डाल रहा हो। भले बुरे की परवाह किए बिना। बस यह सोचता रहा कि इस पुण्य का उसे अगले जनम में लाभ मिलेगा। और इस जनम में उस की वाहवाही होगी कि देखो तो अकेले दम पर बहन के लिए कितना पैसा ख़र्च कर रहा है। और नाते-रिश्तेदारों, पट्टीदारों में उस की वाहवाही हुई। मैं ख़ुद धन्य-धन्य हो गई थी। पर राहुल भइया ने यह नहीं देखा कि भिखारी के कटोरे में जो पैसा वह पुण्य के लिए डाल रहा था, वह पैसा नाबदान में बहता जा रहा था, भिखारी के कटोरे में तो वह रुका ही नहीं। अंधा था राहुल और उस की भिखारी बहन भी, जो नहीं देख पाए कि कटोरे में छेद है और कटोरा नाबदान के ऊपर है!’

‘तुम्हारा भाषण मेरे समझ में तो आ नहीं रहा मुनमुन और तुम्हें मेरी बात नहीं समझ में आ रही। हे राम मैं क्या करूं?’ अम्मा दोनों हाथ से अपना माथा पकड़ कर बोलीं।

मुनमुन अब बांसगांव में मशहूर हो रही थी। बात-बात में सब को चुनौती देने के लिए। वह लोगों से तर्क पर तर्क करती। लोग कहते यह बांसगांव की विद्योत्तमा है। विद्योत्तमा की विद्वता और हेकड़ी जिस डाल पर बैठा था, उसी डाल को काटने वाले मूर्ख कालिदास ने शास्त्रार्थ में हरा कर शादी कर के उतारी थी। उसी तरह यह बांसगांव की विद्योत्तमा अपने लुक्कड़ और पियक्कड़ पति के प्रतिरोध में शादी के बाद ऐसे खड़ी थी गोया राधेश्याम और घनश्याम ही नहीं समूचा पुरुष समाज ही उस की जिंदगी नष्ट कर गया हो, सारा पुरुष समाज ही उस का दुश्मन हो। वह अब लगभग पुरुष विरोधी हो चली थी। पुरुषों की तरह पुरुषों को वह बस मां बहन की गालियां भर नहीं बकती थी, बाक़ी सब करती थी।

उस का साथी भी अब बदल गया था। विवेक की जगह प्रकाश मिश्रा अब उस का नया साथी था। विवेक अपने मुक़दमे में पैसा-वैसा ख़र्च-वर्च कर के फ़ाइनल रिपोर्ट लगवा कर पासपोर्ट वीजा बनवा कर अपने बडे़ भाई के पास थाईलैंड चला गया था। बल्कि कहें तो एक तरह से उस के बड़े भाई ने ही उसे योजना बना कर थाईलैंड बुला लिया था। एक तो मुनमुन के साथ उस के संबंध, दूसरे, आर्म्स एक्ट में उस की गिऱफ्तारी, तीसरे बांसगांव की आबोहवा। उस के भाई ने सोचा कि कहीं उस की ज़िंदगी न नष्ट हो जाए सो उसे बांसगांव से हटाना ही श्रेयस्कर लगा और उस ने विवेक को थाईलैंड बुलवा लिया।

प्रकाश मिश्रा बांसगांव के पास ही एक गांव का रहने वाला था। वह भी शिक्षा मित्र था। शिक्षा मित्र की एक ट्रेनिंग में ही मुनमुन से उस का परिचय हुआ था। फिर परिचय दोस्ती में और दोस्ती प्रगाढ़ता में तब्दील हो गई। प्रकाश मिश्रा हालां कि शादीशुदा था और दो बच्चों का पिता भी था फिर भी उम्र उस की मुनमुन के आस पास की ही थी। विवेक की तरह प्रकाश-मुनमुन कथा भी बांसगांव में लोग जान गए और फ़ोन के मार्फ़त मुनमुन के भाइयों को भी इस प्रकाश-मुनमुन कथा का ज्ञान हुआ। सब कसमसा कर रह गए। पर मुनक्का राय और उन की पत्नी ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान नहीं लिया। लोगों द्वारा लाख ज्ञान कारवाने के बावजूद। लेकिन घनश्याम राय ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान लिया। और गंभीरता से लिया। उन्हों ने बारी-बारी मुनक्का राय और मुनमुन राय को फ़ोन कर के बाक़ायदा इस पर प्रतिरोध जताया और कहा कि, ‘मुनमुन हमारे घर की इज्ज़त है, इस पर इस तरह आंच नहीं आने देंगे!’

मुनक्का राय तो चुप रहे। प्रतिवाद में कुछ भी नहीं बोले। तो घनश्याम राय ने उन्हें दुत्कारते हुए कहा भी कि, ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्।’ फिर भी मुनक्का राय चुप रहे। पर जब घनश्याम राय ने मुनमुन से भी वही बात दुहराई कि, ‘तुम हमारे घर की इज़्ज़त हो और हम अपने घर की इज़्ज़त पर आंच नहीं आने देंगे।’ तो मुनमुन राय चुप नहीं रही। उस ने बेलाग कहा, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’

घनश्याम राय को मुनमुन से ऐसे जवाब की उम्मीद हरगिज़ नहीं थी। वह हड़बड़ा गए और रमेश को फ़ोन किया। सारा हाल बताया और मुनमुन का जवाब भी। रमेश भी यह सब सुन कर सन्न रह गया। पर बोला, ‘घनश्याम जी अब मैं क्या कहूं। सिर शर्म से झुक गया है यह सब सुन कर। पर अब किया ही क्या जा सकता है?’ रमेश बोला, ‘कुछ हो सकता है तो बस यही कि आप अपने बेटे को सुधारिए और हमारी बहन को अपने घर ले जाइए। यही एक रास्ता है। बाक़ी तो मुझे कुछ सूझता नहीं।’

‘इलाज तो हम करवा रहे हैं बेटे का। डाक्टर का कहना है कि बहू आ जाए तो इस का सुधार जल्दी हो जाएगा।’

‘देखिए अब इस में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।’

‘पर विचार तो कर ही सकते हैं।’

‘बिलकुल। ज़रूर।’ रमेश ने कहा।

फिर घनश्याम राय का फ़ोन काट कर रमेश ने धीरज को फ़ोन मिलाया। सारा हाल बताया तो धीरज ने कहा कि हां, उसे भी बांसगांव से फलां ने फ़ोन कर के बताया था। फिर जब रमेश ने धीरज को घनश्याम राय और मुनमुन की बातचीत ख़ास कर मुनमुन के जवाब को बताया कि, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’ तो धीरज बौखला गया। बोला, ‘तो भइया अब मेरा तो बांसगांव से संबंध अब ख़त्म समझिए और यह भी समझिए कि मुनमुन अब मेरे लिए मर गई है। आप को जो करना हो करिए मैं कुछ नहीं जानता। आखि़र इसी समाज में रहना है। सार्वजनिक जीवन जीना है। किस-किस को क्या-क्या सफ़ाई दूंगा?’ वह बोला, ‘घनश्याम आप का पुराना मुवक्किल है, आप ही जानिए। और भइया हम को इस मामले में क़तई क्षमा कीजिए!’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।

मुनमुन और उस की आंच लेकिन बढ़ती ही जा रही थी। उसे इस बात की बिलकुल परवाह नहीं थी कि कौन इस आंच में झुलस रहा है और कि कौन इस आंच को ताप रहा है या इस आंच में अपनी रोटी सेंक रहा है। वह तो किसी बढ़ियाई नदी की तरह चल रही थी, जी रही थी जिस को आना हो उस के बहाव में आए, किनारे लग जाए या डूब जाए। इस सब की उसे परवाह नहीं थी। इसी बीच एक घटना घट गई। मुनमुन के आंगन में गेहूं धो कर सूखने के लिए पसारा गया था। दुपहरिया में पड़ोसी का बछड़ा आया और काफ़ी गेहूं चट कर गया। मुनमुन की अम्मा हमेशा की तरह तब अकेली थीं। जब उन्हों ने देखा तो बछड़े को हांक कर आंगन से बाहर किया और पड़ोसन से जा कर बछड़े की शिकायत भी की। पर पड़ोसन शिकायत सुनने की बजाय मुनमुन की अम्मा से उलझ गई। और ताने देने लग गई। बात बेटों की उपेक्षा से होती हुई मुनमुन के चरित्र तक आ गई। मुनमुन की अम्मा ने इस का कड़ा प्रतिरोध किया। भला-बुरा कहते हुए कहा कि, ‘आइंदा ऐसा कहा तो राख लगा कर जीभ खींच लूंगी। फिर बोलने लायक़ नहीं रहोगी।’ ऐसा कहते ही पड़ोसन न सिर्फ़ भड़क गई बल्कि मुनमुन की अम्मा की तरफ़ झपटी, ‘देखूं कैसे ज़बान खींचती हो?’ कह कर उस ने मुनमुन की अम्मा के बाल पकड़ कर खींचा और उन्हें ज़मीन पर गिरा कर मारने लगी। कहने लगी, ‘बड़का भारी कलक्टर और जज की महतारी बनी घूमती हैं। बेटी क्या गुल खिला रही है। आंख पर पट्टी बांधे बैठी हैं जैसे कुछ पता ही नहीं। आई हैं हमारा बछड़ा बंधवाने। अपनी बेटी बांध नहीं पा रहीं, बछड़ा बंधवाएंगी!’

इस मार पीट में मुनमुन की अम्मा का मुंह फूट गया। हाथ पांव में भी चोट आ गई। सारी देह छिल गई थी। देह में वैसे ही दम नहीं था, बुढ़ापा अलग से! तिस पर ताना और ये मारपीट। अपमान और लांछन से लदी मुनमुन की अम्मा ने बिस्तर पकड़ लिया। शाम को जब मुनमुन घर लौटी तो कोहराम मच गया। मुनमुन से मां का घाव और तकलीफ़ देखी नहीं गई। तमतमाई हुई वह पड़ोसन के घर गई। और पड़ोसन को देखते ही आव देखा न ताव, न कोई सवाल न कोई जवाब तड़ातड़ चप्पल निकाल कर मारना शुरू कर दिया। बाल खींच कर पड़ोसन को ज़मीन पर पटका और घसीटती हुई अपने घर खींच लाई। कहा कि, ‘मेरी मां के पैर छू कर माफ़ी मांग डायन नहीं तो अभी मार डालूंगी तूम्हें।’ घबराई पड़ोसन ने झट से मुनमुन की अम्मा के पांव छू कर माफ़ी मांगी और कहा कि, ‘माफ़ कर दीजिए बहन जी!’ फिर मुनमुन ने एक लात उसे और मारी और कहा, ‘भाग जा डायन और फिर कभी मेरे घर की तरफ़ आंख भी उठा कर देखा तो आंखें नोच लूंगी।’

मुनक्का राय इसी बीच घर आए और पूरा वाक़या सुना तो घबरा गए। बोले, ‘अभी जब उस के घर के लड़के और मर्द आएंगे तो वह भी मार पीट करेंगे। क्या ज़रूरत थी इस मार पीट की?’

‘कुछ नहीं बाबू जी आप घवबराइए मत अभी मैं उस का इंतज़ाम भी करती हूं।’ कह कर उस ने एस.डी.एम. बांसगांव को फ़ोन मिलाया और रमेश भइया तथा धीरज भइया का रेफरेंस दे कर पड़ोस से झगड़े का डिटेल दिया और कहा कि, ‘जैसे रमेश भइया, धीरज भइया हमारे भइया, वैसे ही आप भी हमारे भइया, मैं आप की छोटी बहन हुई। हमारी इज़्ज़त बचाना और हमारी सुरक्षा करना आप का धर्म हुआ। फिर मेरे घर में सिर्फ़ मैं और मेरे वृद्ध माता पिता भर ही हैं। काइंडली हमें सुरक्षा दीजिए और हमें सेव कीजिए। हमारे सम्मान का यह सवाल है।’ उस ने जोड़ा, ‘आखि़र आप के भी माता पिता आप के होम टाउन या विलेज में होंगे। उन पर कुछ गुज़रेगी तो क्या आप उन की मदद नहीं करेंगे?’

एस.डी.एम. मुनमुन की बातों से कनविंस हुआ और कहा कि, ‘घबराओ नहीं मैं अभी थाने से कहता हूं। फ़ोर्स पहुंच जाएगी।’

और सचमुच थोड़ी देर में बांसगांव का थानेदार मय फ़ोर्स के आ गया। मुनमुन से पूरी बात सुनी और पड़ोसी के घर जा कर उन की मां बहन कर पूरे परिवार को ‘टाइट’ कर दिया और कहा कि ज़रा भी दुबारा शिकायत मिली तो पूरे घर को उठा कर बंद कर दूंगा।’

पड़ोसी का परिवार सकते में आ गया। पड़ोसन ने जवाब में कुछ कहना चाहा पर थानेदार ने, ‘चौप्प!’ कह के भद्दी गाली बकी और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। बोला, ‘कलक्टर और जज का परिवार है तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई उधर आंख उठाने की?’

‘पर सर....!’ पड़ोसन का लड़का कुछ बोलना चाहा लेकिन थानेदार ने उस को भी, ‘चौप्प!’ कह कर भद्दी सी गाली दी और डपट दिया।

मुनमुन ने थानेदार से कहा कि, ‘कहीं रात में सब ख़ुराफ़ात करें?’

‘कुछ नहीं करेंगे। आप निश्चिंत रहिए।’ थानेदार बोला, ‘रात में दो सिपाहियों की यहां एहतियातन गश्त लगा देता हूं। थोड़ी-थोड़ी देर में आते-जाते रहेंगे। घबराने की ज़रूरत नहीं है।’

फिर मुनमुन ने सोचा कि अम्मा को किसी डाक्टर को ले जा कर दिखा दे। लेकिन सोचा कि जो नहीं देखे होगा वह भी अम्मा के घाव देखेगा, बात फैलेगी और बदनामी होगी। सो उस ने लगे हाथ थानेदार से कहा कि, ‘भइया एक फ़ेवर आप और कर देते तो अच्छा होता।’

‘हां-हां बोलिए।’

‘ज़रा कोई एक डाक्टर अपनी जीप से बुलवा लेते तो अम्मा का चेक-अप कर लेता। वैसे ले जाने, ले आने में दिक्क़त होगी।’ मुनमुन की यह बात सुन कर थानेदार थोड़ा बिदका तो लेकिन चूंकि एस.डी.एम. साहब का सीधा आदेश था, जज और कलक्टर का परिवार था सो विवशता में ही सही वह, ‘बिलकुल-बिलकुल’ कहते हुए जीप में बैठ गया और बोला, ‘अभी ले आता हूं।’

फिर थोड़ी देर में वह सचमुच एक डाक्टर को लेकर आया। डाक्टर ने मुनमुन की अम्मा को देखा। घाव पर दवाई लगाई, पट्टी किया। ए.टी.एस. की सुई लगाई। पेन किलर दिए। और बिना पैसा या फ़ीस लिए हाथ जोड़ कर थानेदार के साथ ही जाने लगा। मुनक्का राय से बोला, ‘और यह भी अपना ही परिवार है। क्या पैसा लेना? भइया लोगों से कह कर कभी मेरा भी कोई काम करवा दीजिएगा। बस!’

और सचमुच फिर उस पड़ोसी परिवार ने मुनक्का राय के परिवार की ओर आंख उठा कर नहीं देखा। उन का बछड़ा भी बंधा रहने लगा। मुनमुन को इस से बड़ी ताक़त मिली। वह समझ गई कि प्रशासन में ताक़त बहुत है। सो वह भी क्यों न किसी प्रशासनिक नौकरी के लिए तैयारी करे। भइया लोग तैयारी कर सकते हैं, सेलेक्ट हो सकते हैं तो वह भी क्यों नहीं हो सकती? उस ने बाबू जी से एक रात खाना खाने के बाद उन के सिर पर तेल लगाते समय यह बात कही भी। और जोड़ा भी कि, ‘आखि़र आप का ही खून हूं।’

‘वो तो ठीक है बेटी पर भइया लोगों की पढ़ाई और तुम्हारी पढ़ाई में थोड़ा फ़र्क़ है।’

‘क्या फ़र्क़ है?’ वह उखड़ती हुई बोली।

‘एक तो वह सब साइंस स्टूडेंट थे। दूसरे इंगलिश भी उन की ठीक थी। पर तम्हारे पास न तो साइंस है न इंगलिश। हाई स्कूल से ही बिना मैथ, इंगलिश और साइंस से तुम्हारी पढ़ाई हुई है। दूसरे, तुम्हारा पढ़ाई का अभ्यास भी छूट गया है। और फिर प्रशासनिक नौकरी कोई हलवा पूरी नहीं है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है।’

‘वो तो मैं करूंगी बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘इंगलिश, साइंस कोई बपौती नहीं है प्रशासनिक सेवा की। हिंदी मीडियम से भी उस की तैयारी हो सकती है। मैं ने पता कर लिया है। रही बात इंगलिश की तो उस की भी पढ़ाई फिर से करूंगी। बस आप अब की जब अनाज बेचिएगा तो थोड़ा पैसा उस में से हमारे लिए भी निकाल लीजिएगा।’

‘वह किस लिए?’

‘वही कोचिंग और किताबों के लिए।’ मुनमुन बोली, ‘जब रमेश भैया इतने लंबे गैप के बाद कंपटीशन कंपलीट कर सकते हैं तो मैं भी कर सकती हूं।’

‘अगर बेटी ऐसी बात है तो तुम तैयारी करो। अनाज क्या है मैं इस के लिए खेत बेच दूंगा, अपने आप को बेच दूंगा। पैसे की कमी नहीं होने दूंगा। अगर तुम में जज़्बा है तो कुछ भी कर सकती हो। करो मैं तुम्हारे साथ हूं।’ कहते-कहते मुनक्का राय लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए। उठ कर बेटी का माथा चूम लिया, ‘तुम कुछ बन जाओ तो सारी चिंता मेरी दूर हो जाए!’ कह कर वह अनायास रोने लगे। सिसक-सिसक कर।