बीते शहर से फिर गुज़रना / तरूण भटनागर / पृष्ठ 5

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रिलेटिविटी

छायायें पीछे की ओर भाग रही थीं।पर उनसे जी उकता गया था। अब उन्हें पकडकर छोडने का मन नहीं कर रहा था।मैंने काले आकाष की ओर देखा और उसे पकडकर छोडना चाहा।पर वह छूट नहीं पाया।एक बार पकड में आया काला आकाष छूटता नहीं है।वह ट्रेन के साथ-साथ चलता है। उसके चा¡द-तारे और उसका अंधेरा ट्रेन के साथ चलते हैं।वह बीतते अंधेरों में नहीं छूटने की अपनी जिद पर अडा रहता है।वह ट्रेन के साथ ही रुकता है,ट्रेन के साथ ही चलता है और ट्रेन के साथ ही दौडता है।ना एक कदम आगे और ना पीछे। ऐसा क्यों है?क्यों पेड,घर,पहाड,पुल,रेल्वे स्टेषन,षहर, गा¡व,ण्ण्ण्सब तेजी के साथ पीछे चले जाते हैं और चा¡द तारे,आकाष,ण्ण्ण्भागती ट्रेन के साथ-साथ चलते रहते हैं।स्कूल में फिजिक्स में पढ़ा था,कि ऐसा ´प्रिंसिपल ऑफ रिलेटिविटी´(सापेक्षवाद का सिद्धांत) के कारण होता है। चा¡द-तारे प्ृाथ्वी से बहुत दूर हैं।इसलिए ट्रेन के चलने पर भी प्ृाथ्वी के रिलेटिव उनका डिस्प्लेसमेंण्ट(विस्थापन) बहुत कम याने लगभग षून्य होता है,जबकी पेड,जंगल,पहाड,घर,ण्ण्ण्वगैरा का डिस्प्लेसमेंण्ट बहुत ज्यादा होता है।इसलिए चा¡द तारे साथ-साथ चलते हैं।पर बात षायद इससे भी आगे जाती है।जो जितना निकट होता है,वह उतने ही तेज झटके के साथ बीत जाता है।

वह भी जब निकट हो गई,झटके के साथ बीत गयी।मैं उसे ठीक से विदा भी नहीं कर पाया।बहुत सी बातें हमेशा-हमेशा के लिए मिट गईं।आज सोचता हूं तो लगता है,कि कितना कुछ किया जा सकता था,जो नहीं हो पाया।लगता है अगर वह मिल गई।बीत चुके पूरे पंद्रह सालों के बाद तो मैं आज भी उससे कह सकता हूं,वह सब जो कहना था।मैं उसके सामने चुप भी रह सकता हूं।ठीक उसी तरह जैसे मैंने उसके सामने चुप होना सोचा था,कभी उसे निहारते हुए,कभी उसके कामों को देखते हुए उनमें इनवाल्व होते हुए,कभी उसे मुझमें डूबने के लिए गिरते हुएण्ण्ण्ण्ण्ण्तरह-तरह की चुिप्पयां।लगता है जो छूट गया है उसे आज पूरा किया जा सकता है।कोई अंतर नहीं अगर पंद्रह साल बीत गये।

जब वह जा रही थी,मैंने उससे कहा था कि मैं आ सकता हूं।वह जब भी बुलायेगी, मैं आउंगा।पर फिर कभी उससे बात नहीं हुई।ना कोई फोन आया,ना कोई मैसेजण्ण्ण्बाद में कुछ दिन मैंने उसे तलाशा भी।कालेज के पुराने फ्रैण्ड्स जिनसे मेरे कान्टेक्ट थे,उसकी वह फ्रैण्ड जो उसकी रुम मेट थी उसे मैंने ढूंढ निकाला था,पर उसेे भी पता नहीं थाण्ण्ण्यहां तक की मैंने इंटरनेट पर भी उसे तलाशा-ओल्ड फ्रैण्ड्स डाट काम।पर वह कहीं नहीं थी।

मैं ट्रेन के बाहर दिखते आकाश को फिर से ताकने लगा। काला आकाश हमेशा साथ चलता है। हां, हमेशा...।