भाग - एक से पाँच / दिनकर कुमार

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रंगाली बिहू। प्रथम वैशाख। असमिया नववर्ष का पहला दिन। गुवाहाटी के चांदमारी इलाके में रात के डेढ़ बजे हजारों लोग बेसब्री के साथ अपने प्रिय गायक डॉ. भूपेन हजारिका की एक झलक पाने के लिए इंतजार कर रहे हैं। बिहू मण्डप में कहीं सूई रखने की भी जगह नहीं है। लोग सड़कों पर, फ्लाई ओवर पर खड़े हैं। दर्शकों में मुख्यमंत्री और अन्य कई मंत्री भी उपस्थित हैं।

भूपेन हजारिका मंच पर आते हैं। जनता को प्रणाम करते हैं। सबको बिहू की शुभकामनाएं देते हैं। फिर मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि मैं अपने मोहल्ले के बिहू उत्सव में गाने के लिए आया हूं।' चूंकि चांदमारी इलाके में ही उन्होंने संघर्षपूर्ण जीवन के कई साल गुजारे हैं।

वे गाना शुरू करते हैं - ‘बरदै शिला ने सरू दै शिला ...' बिहू की परम्परा पर आधारित गीत। आवाज में वही गम्भीरता, वही खनक, वही दिल को छू लेने वाली मिठास है, केवल उम्र का प्रभाव नजर आने लगा है। पहले वे बिहू उत्सवों में रात-रात भर गाते रह जाते थे, परन्तु अब स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता।

वे गाना शुरू करते हैं - ‘मानुहे मानुहर बावे, यदिउ अकनो ने भावे ...' इसी गीत को वे बांग्ला में भी गाते हैं, असमिया में भी गाते हैं, हिन्दी में भी गाते हैं। फिर वे कहते हैं, ‘मैं एक प्रेमगीत सुनाना चाहता हूं।' वे गाने लगते हैं - ‘शैशवते धेमालिते ...' गीत का भाव है - ‘बचपन में हम साथ-साथ खेलते थे। वैशाख में ब्रह्मपुत्र में तैरते थे। तुमने मुझसे वादा किया था कि साथ-साथ जिएंगे। तुमने कहा था कि तुम्हारे बिना जी नहीं सकूंगी, जान दे दूंगी। मगर मेरे पास धन नहीं था। तुम अपना वादा भूल गयी और एक धनवान के साथ ब्याह कर चली गयीं। एक दिन मैंने तुम्हें महंगी पोशाकों में देखा। क्या तुम सोच रही थी कि तुम्हारे बिना मैं अपनी जान दे दूंगा ? मैं जान नहीं दूंगा, बल्कि जीता रहूंगा, ताकि एक नये समाज का निर्माण कर सकूं। युवावस्था में उन्होंने यह गीत लिखा था, जो आज भी सुनने वालों के हृदय को स्पर्श करता है।

फिर वे गाने लगे ‘जीवन बूहलिषलै आह ...' इसी गीत को उन्होंने बांग्ला में भी गाया। वे थक गए थे। उन्होंने एक नवोदित गायिका की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘घर की लड़की है। दो गाने सुनाएगी। फिर मैं गाऊंगा। ‘दमन' फिल्म का एक गाना भी सुनाएगी।' ‘दमन' में भूपेन हजारिका ने अपने पुराने लोकप्रिय गीतों को नये अन्दाज में पेश किया है। गायिका ने गाना शुरी किया ‘बिजुलीर पोहर मोट नाई', फिर गाया - ‘ओ राम-राम आलता लगाऊंगी ...' भूपेन हजारिका ने ताली बजाकर गायिका की प्रशंसा की। अब उन्होंने फिर गाना शुरू किया - ‘सागर संग मत कतना सातूरिलो, तथापितो हुआ नाई क्लान्त ...' यह गीत उन्हें बहुत पसन्द है। इस गीत में उनका जीवन दर्शन छिपा हुआ है - सागर संगम में कितना तैरा मैं, फिर भी मैं थका नहीं। निरन्तर जूझते रहने का जीवन दर्शन।

अब वे गाने लगे - ‘बूकू हूम-हूम करे, घन घम-घम करे ओ आई ...।' गुलजार ने फिल्म ‘रूदाली' के लिए इसका अनुवाद किया है। हिन्दी में भी उन्होंने गाया - ‘दिल हूम-हूम करे ...।' यह गीत जब खत्म हुआ तो उन्होंने कहा-- ‘एब्सट्रेक्ट पेंटिंग्स हो सकती है, एब्सट्रेक्ट फिल्म हो सकती है तो एब्सट्रेक्ट गीत क्यों नहीं हो सकता ...।' इसके साथ ही अपना मशहूर गीत गाने लगे--‘विमूर्त मोर निशाति जेन मौनतार सूतारे बोवपा एखनि नीला चादर ...' मेरी विमूर्त रात मानो मौन के धागे से बुनी हुई एक नीली चादर है ...।

उन्होंने कहा - ‘मुझे पता चला है कि आज के इस कार्यक्रम को इण्टरनेट के जरिए दुनिया भर में प्रसारित किया जा रहा है। मैं बाहर बसे असम के लोगों के लिए, भारतवासियों के लिए, विश्ववासियों के लिए गाना चाहता हूं' -- वे गाने लगे -- ‘वी आर इन द सेम बोट ब्रदर, वी आर इन द सेम बोट ब्रदर ...' फिर इसी गीत को असमिया में और बांग्ला में भी गाकर सुनाया - ‘आमि एखनरे नावरे यात्री, आमि यात्री एखनरे नावरे ...'।

उन्होंने विनीत होकर दर्शकों को प्रणाम किया। एक घण्टे तक मंत्रमुग्ध दर्शक उन्हें देख रहे थे - सुन रहे थे। इन दर्शकों में चार पीढ़ियां थीं-- असम की चार पीढ़ियों के दिल में भूपेन हजारिका बसते हैं। प्रेम, विषाद, विरह, करुणा --हर रस के गीत को उन्होंने रचा है, जनमानस के मन में घुल-मिल गये हैं। यही कारण है कि केवल उन्हें एक बार देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।


दो


8 सितम्बर, 1926 को भूपेन हजारिका का जन्म शदिया में हुआ। नाजिरा निवासी नीलकान्त हजारिका गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में पढ़ते थे और अपने सहपाठी अनाथबन्धु दास के घर में रहते थे। अनाथबन्धु अच्छे गायक और संगीतकार थे। सितार बजाते थे। टाइफाइड की वजह से केवल 23 वर्ष की उम्र में अनाथबन्धु की मौत हो गयी। अनाथबन्धु की मां ने अपनी बेटी शान्तिप्रिया का विवाह नीलकान्त हजारिका से करवा दिया। बी. ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद नीलकान्त हजारिका को शदिया के एम. ई. स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। विवाह के दो वर्ष बाद ही भूपेन पैदा हुए।

तब शदिया अंचल ब्रिटिश पोलटिकल एजेण्ट के अधीन था। भूपेन के पिता पोलटिकट एजेण्ट के घर में ट्यूशन पढ़ाते थे। प्रसव के समय शान्तिप्रिया को काफी तकलीफ हुई थी। वहां के एकमात्र मेडिकल ऑफिसर को बुलाया गया। उसने कहा कि ‘फोरसेप डिलीवरी' करनी होगी। इसका मतलब था कि शिशु के सिर का आकार बड़ा था और सिर को तोड़कर प्रसव किया जाना था। डॉक्टर ने नीलकान्त हजारिका से पूछा था, ‘आपको बच्चा चाहिए या पत्नी ?' ‘सम्भव हो तो दोनों को बचा लें, नहीं तो बच्चे की मां को बचा लें।' नीलकान्त हजारिका ने जवाब दिया था। परन्तु सिर तोड़ने की जरूरत नहीं हुई। भूपेन हजारिका इस तरह दुनिया में आये।

असम के पूर्वी छोर में स्थित शदिया उस समय एक दुर्गम क्षेत्र था, जहां आदिवासी जनजाति के लोग रहते थे। भोले-भाले जनजातीय लोगों के साथ शिक्षक नीलकान्त हजारिका का आत्मीय सम्बन्ध था। सामान्य उपहारों के बदले जनजातीय लड़कियां शान्तिप्रिया के साथ घरेलू कार्यों में हाथ बंटाया करती थीं। लड़कियां बालक भूपेन को बहुत प्यार करती थीं।

पोलटिकल एजेंट को जब पता चला कि शिक्षक नीलकान्त हजारिका के घर पुत्र ने जन्म लिया है तो उसने लकड़ी की गाड़ी बच्चे को घुमाने के लिए उपहार के रूप में दिया। जनजातीय लड़कियां उस गाड़ी पर बालक भूपेन को घुमाती फिरतीं। एक दिन वे बालक को घुमाने ले गयीं तो शाम को लौटकर नहीं आयीं। रात हो गयी। नीलकान्त और शान्तिप्रिया चिन्तित और परेशान हो उठे। अगली सुबह लड़कियां बालक भूपेन को लेकर लौटीं। उन्होंने बताया कि बस्ती की औरतें उसे अपने पास रखना चाहती थीं। शान्तिप्रिया ने पूछा - ‘वह तो मां का दूध पीता है। दूध के बिना वह रात भर कैसे रह पाया ?' लड़कियों ने खिलखिलाकर उत्तर दिया - ‘बस्ती की कई औरतों ने भूपेन को अपना दूध पिलाया।'

भूपेन हजारिका की नानी ने एक दिन सपना देखा। नानी ने बताया - ‘मैंने एक सपना देखा है। मेरा पुत्र अनाथबन्धु दुबारा शान्ति के गर्भ में लौट आया है। सपने में उसने मुझसे कहा - मां, तू क्यों रो रही है, मैं फिर तुम्हारे परिवार में लौटकर आ रहा हूं। अपनी बहन के गर्भ में आ रहा हूं। नानी जब तक जीवित रहीं, वह भूपेन को अनाथबन्धु कहकर पुकारती रहीं।


तीन


एम. ई. स्कूल के शिक्षक नीलकान्त हजारिका बाद में सरकारी अधिकारी बन गये थे और उनका तबादला असम के कई शहरों में होता रहा था। बचपन के शुरुआती कुछ साल भूपेन हजारिका ने गुवाहाटी में अपने ननिहाल में गुजारे थे। गुवाहाटी के भरलुमुख इलाके में नाना का घर था। विभिन्न भाषा-भाषी लोग रहते थे। बंगाली लोगों का कीर्तन कार्यक्रम देखने भूपेन जाते। वहीं थाने में बिहारी सिपाही रहते थे, जो भोजपुरी में गाया करते थे। उनके गीतों को भी भूपेन मन लगाकर सुना करते थे। मां के साथ ‘ओजापाली' (महापुरुष शंकरदेव द्वारा प्रारम्भ की गयी नृत्यनाटिका की परम्परा) देखने जाते थे।

नाना के घर के पास से छोटी नदी ‘भरलू' बहती थी, जो ब्रह्मपुत्र में मिलती थी। सबको तैरते हुए देख भूपेन का जी चाहता कि वह भी तैरें, मगर तैरना नहीं आता था। एक दिन भूपेन ने देखा कि एक छोटी लड़की नदी में नहा रही है। किनारे पर खड़े किसी आदमी ने कहा कि वह डूब जाएगी। भूपेन फौरन नदी में कूद गये। बच्ची ने उन्हें जकड़ लिया। दोनों डूबने लगे। तभी एक बिहारी पुलिसवाले ने उन्हें पानी से बाहर निकाला। बाहर निकालने के बाद पुलिस वाले ने भूपेन को धमकाया कि आइन्दा इस तरह की हरकत नहीं करे। उसकी डांट सुनने के बाद बालक भूपेन ने तय कर लिया कि वह तैरना अवश्य सीखेगा। अगले दिन वह एक बांस की सहायता से तैरना सीखने लगा। एक घण्टे तक कोशिश करने के बाद वह तैरना सीख गया। जब तैरना आ गया तो भूपेन ने तय किया कि रेलवे के पुल पर उस समय खड़ा होकर पानी में छलांग लगाने में बड़ा मजा आएगा, जब रेलगाड़ी आ रही होगी। उसने वैसा ही किया। कामाख्या स्टेशन से रेलगाड़ी गुवाहाटी की तरफ आ रही थी। तभी भूपेन पानी में कूद गया। तैरते हुए किनारे के एक पेड़ के पास पहुंचा। रेलगाड़ी आगे जाकर रुक गयी। गार्ड ने उतर कर फटकारा, ‘मरना चाहता है क्या ?' भूपेन भागता हुआ नानी के पास पहुंच गया और सारा हाल कह सुनाया।

गार्ड ने जो फटकारा था, उससे बालक भूपेन नाराज हो गया था। उसने तय किया कि रेलगाड़ी को पटरी से गिराना होगा, तब उस गार्ड को सजा मिल जाएगी। अगले दिन भूपेन ने रेल की पटरी पर पत्थरों को ढेर के रूप में रख दिया। इसके बाद घर में आकर खाट के नीचे छिप गया और बेसब्री के साथ रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। रेलगाड़ी की आवाज सुनाई पडी। भूपेन के दिल की धड़कन तेज हो गयी। रेलगाड़ी तेजी से गुजर गयी। पटरी से रेलगाड़ी उतरी नहीं। बालक भूपेन ने दुबारा वैसी कोशिश नहीं की।


चार


नीलकान्त हजारिका का जल्दी-जल्दी तबादला होने का प्रभाव बालक भूपेन की पढ़ाई पर पड़ना स्वाभाविक था। 1933 में गुवाहाटी के सोनाराम स्कूल की तीसरी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1935 में धुबड़ी के प्राइमरी स्कूल में भूपेन का दाखिला हुआ। छह महीने बाद ही भूपेन का दाखिला गुवाहाटी के काटन कॉलेजिएट स्कूल में करवाया गया। जहां से पांचवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद भूपेन को पिता के साथ तेजपुर जाना पड़ा। तेजपुर हाई स्कूल की छठी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1936 से 194॰ तक भूपेन तेजपुर में रहा और ये चार वर्ष उसके जीवन के अत्यन्त ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुए, क्योंकि इन्हीं चार वर्षों में भूपेन के भीतर की प्रतिभा को उजागर होने का मौका मिला।

तेजपुर में उस समय असमिया साहित्य-संस्कृति के दो युग पुरुष ज्योतिप्रसाद अग्रवाल और विष्णु राभा सक्रिय थे। उनके प्रयासों से तेजपुर में सांस्कृतिक वातावरण बन गया था। पद्मधर चालिहा, पार्वती प्रसाद बरुवा जैसे गीतकार-संगीतकार थे। इन सबके सम्पर्क में आने के साथ ही भूपेन के भीतर का कलाकार पल्लवित-पुष्पित होने लगा। बंगाली मंच पर रवीन्द्र संगीत प्रतियोगिता हुई। तब भूपेन को केवल एक रवीन्द्र गीत गाना आता था, जिसे गाकर भूपेन ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। पुरस्कार के रूप में सोने का पदक मिला। पांच वर्ष की उम्र से भूपेन हारमोनियम बजाना सीखने लगा था। तेजपुर में विष्णुराभा ने शास्त्रीय संगीत की बुनियादी बातें सिखाई।

असम में तब लोकगीतों एवं सत्रों के नृत्य-संगीत को प्रचारित करने का कोई प्रयास नहीं हुआ था। बांग्ला भाषा के तर्ज पर फूहड़ और सस्ते गीतों का प्रचलन हो गया था। ज्योतिप्रसाद और विष्णुराभा इस माहौल को बदलने की कोशिश कर रहे थे। वे असमिया लोकगीतों को जनप्रिय बनाने का आन्दोलन चला रहे थे। संगीत के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहे थे। विष्णु राभा गजल के अंदाज में असमिया में गीत लिखते थे और भूपेन को सिखाते थे। एक ऐसा ही गीत था ‘आजली हियार माजे बिजुली कण मारे, पूवर दुवार भेलि आहे ताई किरण ढालि, हिया जे मोर चमके ...' (भोले दिन में बिजली की तरह वाण मारती है, पूरब का दरवाजा खोलकर वह किरणें फैलाती है, मेरे दिल में रोशनी फैल जाती है)। भूपेन छोटा था और ऐसे गीतों का भावार्थ समझ पाने में असमर्थ था। इसके बावजूद मंच पर वह गाने लगा था। भविष्य के कलाकार को खाद-पानी मिलने लगा था। भूपेन बचपन में ही सोचने लगा था कि क्या गीत से समाज का कुछ उपकार किया जा सकता है ? स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ते हुए उसने पहला गीत लिखा - ‘कुसुम्बर पुत्र श्रीशंकर गुरु'। 1939 में एक और गीत लिखा - मई अग्निकुमार फिरिंगीत'। फिर लिखा - ‘कंपि उठे किय ताजमहल'।

तेजपुर के वाण रंगमंच पर आये दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। भूपेन के पिता भी नाटकों में अभिनय करते थे। ज्योतिप्रसाद पिआनो बजाते थे। भूपेन मां के साथ कार्यक्रम देखने जाता और महिलाओं की गैलरी में बैठकर कार्यक्रम देखता। ज्योतिप्रसाद के व्यक्तित्व का उस पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। तभी भूपेन को पता चला कि ज्योतिप्रसाद ने असमिया की पहली फिल्म ‘जयमती' बनायी थी, हालांकि तब तक फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पायी थी। ज्योतिप्रसाद ने वाण रंगमंच को जीवन्त रूप प्रदान किया था। अधिकतर लोग केवल उनकी एक झलक देखने के लिए आते थे। जब तक ज्योतिप्रसाद से परिचय नहीं हुआ था तब तक भूपेन के मन में बड़ी इच्छा थी कि किसी तरह ज्योतिप्रसाद के करीब पहुंच जाए।

महापुरुष शंकरदेव (असम के प्रख्यात वैष्णव सन्त) की जयन्ती के अवसर पर भूपेन की मां ने उसे धोती-कुर्ता पहनाकर जयन्ती कार्यक्रम में एक ‘बरगीत' गाने के लिए भेज दिया। मां ने भूपेन को ‘बरगीत' गाना सिखाया था - ‘जय जय यादव जलनिधि यादव धाता'। इससे पहले केवल पांच साल की उम्र में भूपेन ने गुवाहाटी में मंच पर पहली बार गीत गाया था। तब असमिया साहित्य के जनक लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा ने मंत्रमुग्ध होकर उसे चूम लिया था। दूसरी बार धुबड़ी में भूपेन ने गाया था। तीसरी बार तेजपुर में बरगीत का गायन प्रस्तुत कर भूपेन ने भूरि-भूरि प्रशंसा अर्जित की। लोग कहने लगे कि नीलकान्त हजारिका का लड़का मीठे सुर में बरगीत गाता है।

तेजपुर के घर में गुवाहाटी से आने वाले मेहमान ठहरते थे। भूपेन तब आठवीं के छात्र थे, जब उनका परिचय गुवाहाटी से आये कमलनारायण चौधरी से हुआ। कमल बहुत अच्छे गायक थे। उन्होंने भूपेन को एक गजल गाना सिखा दिया।

भूपेन तब छठी में था, जब एक दिन ज्योतिप्रसाद अग्रवाल, विष्णु राभा और फणि शर्मा भूपेन के पिता से मिलने आये। ये तीनों व्यक्ति तेजपुर के सांस्कृतिक आकाश के झिलमिलाने वाले सितारे थे। उन्होंने बताया कि भूपेन को कलकत्ता ले जाना चाहते हैं और उसकी आवाज में रिकार्ड तैयार करना चाहते हैं।

दो दिन दो रात का सफर तय कर भूपेन कलकत्ता गये। रिकार्डिंग कम्पनी एचएमवी के स्टुडियो में भूपेन ने गाया। बालक भूपेन के कद के हिसाब से माइक ऊंची थी, इसलिए दो लकड़ी के बक्से जोड़कर भूपेन को उस पर खड़ा कर दिया गया था। ‘जयमती' और ‘शोणित कुंवरी' फिल्म के लिए नायिका की आवाज में भूपेन ने गीत रिकार्ड करवाए। भूपेन को ‘यंगेस्ट आर्टिस्ट ऑफ हिज मास्टर्स व्यॉइस ऑफ इण्डिया रिकार्ड संगीत' का सम्मान मिला। गले में सोने का मेडल पहनकर भूपेन ने जो तस्वीर खिंचवाई उसे बंगाल की ‘रिकार्ड संगीत' पत्रिका ने आवरण पर प्रकाशित किया। इससे पहले मास्टर मदन ने कम उम्र में गाने का कीर्तिमान स्थापित किया था। फिल्मों में गाने रिकार्ड हो गये तो ज्योतिप्रसाद ने तय किया कि दो गाने स्वतंत्र रूप से भूपेन की आवाज में रिकार्ड किए जाएं। विष्णु राभा ने गीत रचा और आधे घण्टे में धुन तैयार की और रिकार्डिंग करवा दी। इससे पहले असमिया गानों के इक्के-दुक्के रिकार्ड निकले थे। पहला रिकार्ड अच्छा लगा तो ज्योतिप्रसाद ने भूपेन की आवाज में दूसरा रिकार्ड भी तैयार करवा दिया।

कलकत्ता से लौटकर भूपेन ने परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। गणित में खराब नम्बर मिले। शिक्षकगण भी भूपेन को अजीब नजरों से देखने लगे - कैसा लड़का है, जो पढ़ाई-लिखाई छोडकर गाने रिकार्ड करवा रहा है। भूपेन के पिता स्वयं शिक्षक थे, इसलिए घर पर भूपेन को पढ़ाते थे। घर में साहित्यिक पत्रिका ‘जयन्ती' और ‘असमिया' आती थी। भूपेन उन पत्रिकाओं को पढ़ते थे और कुछ लिखने की छटपटाहट उनके भीतर होने लगी थी। तेजपुर गवर्नमेण्ट हाई स्कूल की हस्तलिखित पत्रिका के लिए भूपेन ने ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गीत की रचना की। भूपेन के पिता ने चार हजार दो सौ रुपए में एक फोर्ड कार खरीदी थी और एक गैरेज बनाया था। भूपेन उसी गैरेज में बैठकर आरम्भिक साहित्य साधना करने लगे। घर में एक विशाल पलंग पर माता-पिता और भाई-बहनों के साथ भूपेन सोते थे। जब पिता को पता चला कि भूपेन गैरेज में बैठकर पढ़ता-लिखता है तो उन्होंने भूपेन के लिए एक अलग कमरे की व्यवस्था कर दी। भूपेन ने पिता से वादा किया कि एकान्त पाकर वह मन लगाकर पढ़ाई करेंगे। मगर पिता ने भांप लिया कि अलार्म बजने पर भूपेन मां का उबला हुआ अण्डा खा लेते हैं और फिर रजाई में दुबक कर सो जाते हैं। पिता ने भूपेन को रात में उबला हुआ अण्डा देने पर रोक लगा दी।

शुरू में भूपेन का प्रिय विषय इतिहास था। इतिहासकार पद्मनाथ गोहाईंबरुवा से मिलने के लिए भूपेन अक्सर जाते थे। इसी तरह इतिहास के मर्मज्ञ राजमोहन नाथ भूपेन के पिता से मिलने के लिए आते थे। उन्होंने भूपेन से कहा था - एक पत्थर को उठाना, पूछना, पत्थर तुमसे ढेर सारी बातें करेगा। वह बताएगा - मेरे सीने से ह्वेनसांग गुजरा था, मेरे सीने में उषा ने स्नान किया था। पिता ने भूपेन को ‘बुक ऑफ नॉलेज' के दस खण्ड खरीद कर दिये थे। इसके अलावा हिटलर की आत्मकथा का बांग्ला अनुवाद का बांग्ला अनुवाद पढ़कर काफी प्रभावित हुए थे। बालक भूपेन पर जिस व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव पड़ा था, वह थे ज्योतिप्रसाद। जीवन के प्रति एक सर्वांगीण दृष्टिकोण विकसित करने में ज्योतिप्रसाद ने उल्लेखनीय योगदान किया। तेजपुर में भूपेन चार साल रहे। इन चार सालों में भविष्य के भूपेन के निर्माण के लिए ठोस बुनियाद रखी जा चुकी थी।


पांच


1940 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी कर भूपेन ने तेजपुर को अलविदा कर दिया। गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में भूपेन को दाखिला मिला। तब भूपेन मामा के घर में रहकर पढ़ाई करने लगे। भूपेन ने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वास्तव में उनकी पढ़ाई तीसरी कक्षा से शुरू हुई थी और उनके पिता ने उनकी उम्र एक वर्ष बढ़ाकर लिखवाई थी। हाफ पैंट पहनकर जब भूपेन कॉलेज गए तो चौकीदार ने पूछा-- ‘क्या तुम कॉटन कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ते हो ?' भूपेन ने कहा-- ‘मैं कॉलेज में पढ़ने आया हूं।' चकित होकर चौकीदार ने पूछा-- ‘क्या तुमने मैट्रिक पास कर लिया है ?' भूपेन ने कहा-- ‘हां !' इसी तरह कक्षा में अध्यापक पी. सी. राय ने नन्हें भूपेन को देखकर वही सवाल पूछा। फिर जब भूपेन ने दृढ़ता के साथ बताया कि वह मैट्रिक उत्तीर्ण कर कॉलेज में पढ़ने आये हैं, तब जाकर पी. सी. राय को यकीन हुआ।

कॉलेज में नवागत विद्यार्थियों के लिए स्वागत समारोह आयोजित हुआ। भूपेन को पिता ने एक भाषण अंग्रेजी में लिखकर दिया था। जब भूपेन को मंच पर बुलाया गया तो भाषण भूलकर उन्होंने गाना सुनाया -

दुरनिर हरिणी सरू गांवखनि

तार एटि पंजाते सरू बांधेर मुखबनि ...

विद्यार्थियों के साथ ही अध्यापकगण भी भूपेन का गायन सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। पी. सी. राय, वाणीकान्त काकती, लक्ष्मी चटर्जी, डॉ. सूर्य कुमार भुइयां आदि अध्यापकों ने भूपेन को आशीर्वाद दिया। भूपेन कॉलेज में लोकप्रिय हो गये।

भूपेन संगीत विषयक पुस्तकें ढूंढ-ढूंढकर पढ़ते थे। भातखण्डे की पुस्तक का बांग्ला अनुवाद उन्होंने पढ़ा। इसके अलावा लक्ष्मीराय बरुवा लिखित ‘संगीत कोष' का भी उन्होंने अध्ययन किया। साहित्यिक पत्रिका ‘आवाहन' में प्रकाशित होने वाले संगीत विषयक लेखों को भी वह गौर से पढ़ते थे।


भूपेन के पिता गुवाहाटी आ गये थे और एक छोटे से किराये के घर में भूपेन अपने माता-पिता के साथ रहने लगे थे। उसी समय द्वितीय विश्वयुद्घ छिड गया था और कॉटन कॉलेज अमेरिकी सैनिकों का अड्डा बन गया था। अचानक महंगाई बढ़ गयी थी। चावल पांच रुपए प्रति सेर बिकने लगा था। उधर पिता सेवानिवृत्त होने वाले थे और पेंशन के रूप में उन्हें 145 रुपये प्रतिमाह मिलने वाले थे। तब भूपेन आठ भाई-बहन थे। इतने बड़े परिवार के भविष्य का प्रश्न था। पिता ने जीवन भर दूसरों की मदद की थी। कभी अपने परिवार के सुरक्षित भविष्य के लिए कोई बचत नहीं की थी, न ही जमीन-जायदाद खरीदी थी।

युद्घ के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। 1942 में भूपेन के पिता सेवानिवृत्त हुए। परिवार का गुजारा चलना मुश्किल हो गया। उस दौरान भूपेन को भयंकर अभाव की स्थिति का सामना करना पड़ा। गोपीनाथ बरदलै को भी फाकाकशी की स्थिति से गुजरना पड़ रहा था। भूपेन के पिता के साथ उनकी दोस्ती थी। वे आपस में चावल बांटते थे, ताकि दोनों के परिवार के चूल्हे जलते रहें। पिता ने भूपेन से कहा कि उसे बनारस जाकर आगे की पढ़ाई करनी होगी। कलकत्ता में बम गिराया गया था और वहां के हालात ठीक नहीं थे। इसीलिए पिता ने भूपेन को बनारस भेजने का फैसला किया। पिता ने कहा कि वह प्रतिमाह भूपेन को 6॰ रुपये भेजेंगे। 6॰ रुपये से ही भूपेन को अपने रहने, खाने और पढ़ने का खर्च चलाना पड़ेगा।

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