भाग - छह से दस / दिनकर कुमार

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छह

सन् 1942 में भूपेन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आ गये। तब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की ख्याति दुनिया भर में फैली हुई थी। सर्वपल्ली राधकृष्णन विश्वविद्यालय के कुलपति थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के वरिष्ठ नेता अक्सर भाषण देने के लिए आते थे। समावर्तन समारोहों में आचार्य कृपलानी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि नेताओं का वक्तव्य भूपेन ने सुना था। जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय में छिपकर रहते थे। आचार्य नरेन्द्रदेव ने विश्वविद्यालय में सोशलिज्म फोरम का गठन किया था। देशप्रेम की जो लहर चल रही थी, भूपेन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। बनारस पहुंचकर भूपेन का हिन्दी और उर्दू साहित्य के साथ परिचय हुआ था। मुंशी प्रेमचन्द, फिराक गोरखपुरी आदि की रचनाएं भूपेन पढ़ने लगे थे। शास्त्रीय संगीत के नये रूप से भूपेन का साक्षात्कार हुआ था, भूपेन गजल गाने लगे थे।

विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को मासिक शुल्क नहीं देना पड़ता था। भूपेन चाहते तो आवेदन पत्र देकर मासिक सात रुपये बचा सकते थे। पर उन्होंने वैसा नहीं किया। उनके मन में जिद थी कि किसी प्रकार की अनुकम्पा लेकर आगे नहीं बढ़ना है। जो भी पाना है, अपनी प्रतिभा और मेहनत के सहारे ही पाना है।

उसी दौरान बनारस की एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए गोपीनाथ बरदलै ने हिन्दी में कहा था - हमारे असम को अगर लेना चाहते हैं जिन्ना साहब, पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते हैं तो हम कहते हैं कि वे आसमान का चांद भी ला सकते हैं, लेकिन असम को कभी भारत से अलग नहीं कर सकते।

बनारस में पढ़ रहे असमिया विद्यार्थियों ने ‘असम एसोसिएशन' का गठन किया था, जिसकी बैठकों में भूपेन शामिल होते थे। एसोसिएशन की वार्षिक पत्रिका में भूपेन का लेख प्रकाशित हुआ था।

बनारस में भूपेन चार वर्षों तक रहे। 1946 में राजनीतिशास्त्र विषय से उन्होंने एम.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भूपेन से कहा-- यू आर दी यंगेस्ट इट सिम्स ! भूपेन ने कहा-- यस सर। बीस साल की उम्र में भूपेन ने एम.ए.की पढ़ाई पूरी कर ली थी।

बनारस की दालमण्डी गली में कोठे पर अक्सर तवायफों का गायन सुनने के लिए जाते थे। कोठे पर जाने के लिए पच्चीस रुपये देने पड़ते थे। भूपेन अपने साथियों के साथ पांच-पांच रुपये का चन्दा देकर इस राशि का इन्तजाम करते थे। भूपेन की उम्र कम थी और तवायफें अक्सर उनका मजाक उडाती थीं - देवर, तू क्यों आया ! भूपेन कजरी और गजल सुनने के लिए उनके मजाक की तरफ ध्यान नहीं देते थे।

इसी दौरान भूपेन के मन में तूफान मचा हुआ था - भविष्य को लेकर। दस भाई-बहन का परिवार। पिता को 145 रुपये पेंशन मिल रहा था। भूपेन सोचते थे कि एम. ए. पढ़ने के बाद पत्रकारिता करेंगे। कानून की पढ़ाई करेंगे। यह सोचकर भूपेन ने हार्डिंग यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था। अर्ल लॉ कॉलेज में भी दाखिला लिया था। कलकत्ता गये तो वहां भी लॉ कॉलेज में दाखिला लिया था। शुरू से मन में इच्छा थी - नौकरी नहीं करनी है, गाते रहना है। भूपेन सोचते थे कि ‘नतून असमिया' या ‘असम ट्रिब्यून' में पत्रकारिता करेंगे। कभी यह नहीं सोचा था कि केवल संगीत उनकी जीविका का आधार बनेगा।

परिवार में अभाव की स्थिति गम्भीर होती जा रही थी। जब भूपेन एम.ए.में पढ़ रहे थे तब उनके सबसे छोटे भाई समर हजारिका का जन्म हुआ था। भूपेन ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नहाते हुए शेक्सपीयर की भाषा में चिल्लाकर कहा था - दस फार एण्ड नो फर्दर। बदले में भूपेन को पिता का चांटा खाना पड़ा था। भाई अमर हजारिका रेडियो इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए पूना जाना चाहता था। एक भाई बॉटनी की पढ़ाई कर रहा था। खर्च का इन्तजाम भूपेन को करना था। बहन सुदक्षिणा का विवाह करवाना था।

उस समय देश स्वतंत्रता की प्रसव पीड़ा से गुजर रहा था। भूपेन पर कार्ल माक्र्स, महात्मा गांधी का प्रभाव पड़ रहा था, दूसरी तरफ असम के शंकरदेव, ज्योतिप्रसाद आगरवाला और विष्णुप्रसाद राभा का प्रभाव पड़ रहा था। धरती को सुन्दर बनाने का सपना दिमाग में कौंध रहा था। कला को समाज परिवर्तन का हथियार बनाने का संकल्प दृढ़ होता जा रहा था। आगरा में ताजमहल देखकर उसी दौरान भूपेन ने लिखा था - ‘कांपि उठे किय ताजमहल ...'।

सन् 1948 में असम में भारतीय गण नाट्य संघ की स्थापना हुई। भूपेन संघ के साथ जुड गये। ज्योतिप्रसाद आगरवाला, हेमांग विश्वास, विष्णुप्रसाद राभा आदि सांस्कृतिक कर्मियों के साथ भूपेन समाज परिवर्तन के लिए संस्कृति के हथियार का इस्तेमाल करने में जुट गये थे।

गुवाहाटी लौटकर परिवार की तंगहाली को देखते हुए सन् 1947 में भूपेन गुवाहाटी के बी. बरुवा कॉलेज में अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इसके बाद उन्हें आकाशवाणी में नौकरी मिल गयी थी। डेढ साल तक आकाशवाणी में नौकरी करने के बाद भूपेन को अमेरिका में मास कम्युनिकेशन विषय में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिल गयी थी। माता-पिता ने प्रोत्साहन दिया था - जाओ, शोध करके लौट आओ। फिर जो करना होगा, करना। भूपेन अमेरिका जाने के लिए तैयार हो गये थे।


सात


स्वतंत्रता के बाद गोपीनाथ बरदलै असम के प्रथम प्रधानमंत्री (उस समय असम में मुख्यमंत्री नहीं प्रधानमंत्री होते थे) बने थे। उनके प्रयास से भूपेन को अमेरिका जाने के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। सितम्बर 1949 में भूपेन की यात्रा शुरू हुई। गुवाहाटी से डेकोटा जहाज में सवार होकर भूपेन कलकत्ता पहुंचे। फिर समुद्र के मार्ग से तेरह दिन की यात्रा कर मार्स बन्दरगाह तक पहुंचे। जहां से रेलगाड़ी में सवार होकर पेरिस पहुंचे। पेरिस दर्शन करते हुए भूपेन कोलम्बिया विश्वविद्यालय पहुंच गये।

कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भी भूपेन ने संगीत के जरिए सहपाठियों का दिल जीत लिया। भारतीय विद्यार्थियों के बीच भूपेन काफी लोकप्रिय हो गये। भूपेन ने देखा कि अधिकांश भारतीय विद्यार्थी अमीर परिवारों से ताल्लुक रखते थे। अमेरिका के मुक्त जीवन के साथ भूपेन का परिचय हुआ।

भूपेन के युवा जीवन में एक लड़की आयी थी, जो शिलांग में रहती थी। अमेरिका में भी भूपेन को उस लड़की की याद आती थी। अपने साथ भूपेन उसके खत लेकर गये थे। बीच-बीच में खत खोलकर पढ़ते थे। दिल में टीस होती थी। माता-पिता की भी याद आती थी।

इण्डियन स्टूडेण्ट एसोसिएशन का चुनाव हुआ और भूपेन को सचिव चुन लिया गया। दाखिला लेने से पहले अंग्रेजी ज्ञान का एक टेस्ट देना पड़ता था। भूपेन उस समय टेस्ट में प्रथम आये। अध्यापकों को आश्चर्य हुआ था कि जिस टेस्ट में फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया आदि देशों के विद्यार्थी शामिल हुए थे, उसमें भूपेन किस तरह प्रथम आ गये थे। पढ़ाई करते हुए भूपेन को इण्टरनेशनल हाउस में एक घण्टा लिफ्ट चलाने का काम मिल गया, जिसके बदले उन्हें चार डॉलर मिलते थे। इसके साथ ही भूपेन स्विमिंग पुल के बाहर कपड़ों की पहरेदारी का भी काम करते थे। गर्मी की छुट्टियों में हॉलीवुड जाकर पार्ट टाइम नौकरी करते थे।

भूपेन की दोस्ती केरल के छात्र राव से हुई थी, जो कम्युनिस्ट था। तब भारत में तेलंगाना कृषि विद्रोह चल रहा था। राव विद्यार्थियों से चन्दा लेकर तेलंगाना भेजता था। भूपेन गीत गाकर पैसे जुटाने लगे और राव के उद्देश्य की सहायता करने लगे।

भूपेन को केवल दो साल के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। राजनीतिशास्त्र में एम. ए. होने के कारण उन्हें नये सिरे से मास कम्युनिकेशन विषय में एम.ए.की पढ़ाई करनी पड़ी थी। पी.एच.डी करने का अर्थ था ज्यादा समय अमेरिका में ठहरना। वैसी स्थिति में उन्हें छात्रवृत्ति का पैसा नहीं मिलने वाला था। उन्हें प्रतिमाह दो सौ पचास डॉलर मिलता था। फिर भी किल्लत की स्थिति बनी रहती थी। उसी दौरान भूपेन ने एक गीत की रचना की थी - ‘शतिकार रूपकथा किबा जेन विसारि ...'।

जाकिर हुसैन की सिफारिश पर भूपेन संयुक्त राष्ट्र संघ के रॉबर्ट ट्रेस से मिले। रॉबर्ट ट्रेस ने दस महीने तक भूपेन को अपने सहायक का काम दिया। बदले में प्रतिमाह भूपेन को सौ डॉलर मिल रहे थे। अतिरिक्त डॉलर को भूपेन जमा कर रहे थे ताकि छात्रवृत्ति खत्म हो जाने पर उनकी पढ़ाई जारी रह सके।

विजयलक्ष्मी पण्डित राजदूत बनकर अमेरिका गयी थीं। भारतीय छात्र संघ के सचिव होने के नाते भारतीय दूतावास के कार्यक्रमों में भूपेन को आमंत्रित किया जाता था। 26 जनवरी के अवसर पर भारतीय दूतावास में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उसमें भूपेन से एक कार्यक्रम पेश करने के लिए कहा गया। कार्यक्रम की तैयारी करने में प्रियंवदा पटेल नामक एक गुजराती युवती ने भूपेन की मदद की। प्रियंवदा सरदार वल्लभ भाई पटेल के परिवार से ताल्लुक रखती थी। इण्टरनेशनल रिलेशंस विषय की पढ़ाई कर रही थी। वह अपने माता-पिता के साथ अफ्रीका में रहती थी। एम. ए. की पढ़ाई पूरी कर वह अफ्रीका लौटने वाली थी। कुछ दिनों तक शान्ति निकेतन में रही थी। नृत्य में पारंगत थी। बांग्ला बोलना जानती थी। भूपेन गीत गाने वाले थे और प्रियंवदा नाचने वाली थी। रिहर्सल शुरू हो गया। भूपेन ने गीत चुना था - ‘ए जय रघुर नंदन ...' इस गीत पर प्रियंवदा को भावाभिनय करना था। इसके अलावा गरबा, रवीन्द्र संगीत आदि की तैयारी की गयी थी। भूपेन ने एक असमिया परिवार से मेखला-चादर का जुगाड किया ताकि कार्यक्रम के दिन प्रियंवदा मेखला-चादर पहनकर नृत्य पेश कर सके। धूप-अगरबत्ती जलाकर भूपेन ने बरगीत का गायन शुरू किया और प्रियंवदा नाचने लगी। दोनों प्रथम स्थान पर रहे। दोनों के नाम की धूम मच गयी। भारत में ‘इलस्ट्रेटेड वीकली' ने सचित्र समाचार प्रकाशित किया।

एक दिन बर्फ गिर रहा था। पैदल चलते हुए भूपेन गिर पड़े और बेहोश हो गये। चेहरे की हड्डी टूट गयी थी। अस्पताल में प्रियंवदा लगातार भूपेन की देखभाल करती रही थी। उसी दौरान भूपेन ने महसूस किया कि प्रियंवदा उनके प्रति लगाव अनुभव कर रही थी। प्रियंवदा के पिता डॉ. एम. एम. पटेल अमीर डॉक्टर थे। कम्पाला में उनका अस्पताल था। भूपेन जब स्वस्थ होकर लौटे तो सहपाठियों ने उन्हें प्रियंवदा के नाम पर छेड़ना शुरू कर दिया।

भूपेन बीच-बीच में रामकृष्ण मिशन जाते थे। प्रियंवदा भी मिशन जाने लगी। इसी दौरान भूपेन ने प्रियंवदा का ‘प्रियम' कहना शुरू कर दिया था और उसे असमिया बोलना सिखा दिया था।

अचानक एक दिन प्रियम ने भूपेन से कहा -

‘मैं एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए चार साल के लिए यहां आयी थी। अब पापा ने वापस बुलाया है। जाने से पहले तुमसे विवाह करना चाहती हूं।'

भूपेन ने कहा,

‘मेरे भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। तुम चली जाओगी। मुझे तीन साल और पढ़ना होगा।'

इसके अलावा भूपेन ने प्रियम को अपने खस्ताहाल परिवार के बारे में बताया। तीस रुपये के किराये के घर में दस भाई-बहनों का परिवार गुजारा करता है। पिताजी को 145 रुपये पेंशन के रूप में मिलते हैं।

प्रियम ने पूछा, ‘और कोई रुकावट है ?'

मैं एक लड़की को चाहता था। ये रहे उसके खत' - भूपेन ने खत प्रियम को पढ़ने के लिए दिया।

‘वह कहां है ?'

‘उसका विवाह हो चुका है।'

प्रियम ने कहा कि भूपेन गम्भीरता पूर्वक उसके विवाह के प्रस्ताव पर विचार करे।


आठ


प्रियम ने भूपेन को बताया कि एक-एक हजार की दस साड़ियां लेकर एक अमीर युवक उसे विवाह का प्रस्ताव देने आया था। लड़का बम्बई में संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यालय में काम करता था। प्रियम ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। रॉबर्ट केनेडी की पत्नी एथोलो प्रियम के साथ कोलम्बिया में पढ़ती थी। गर्मी की छुट्टियों में एथोलो हेलीकॉप्टर में प्रियम को बिठाकर अपने घर ले जाती थी। प्रियम विजय लक्ष्मी पण्डित के घर भी आती-जाती थी।

भूपेन ने प्रियम से कहा कि वह पढ़ाई कर चुकी है, इसीलिए अपने घर लौटकर जा सकती है।

प्रियम ने कहा, ‘तुम अगर आज भी उस लड़की को नहीं भूल पाये हो, वह तुम्हें मिलने वाली भी नहीं है। मैं किसी और से शादी नहीं करूंगी।'

भूपेन दुविधा में फंस गये। भूपेन को अपनी प्रेमिका की याद आ रही थी, जिसने एक अमीर लड़के से विवाह कर लिया था और हावड़ा में रह रही थी। अपने दिल के दर्द को भूपेन ने ‘शैशवते धेमालीते ...' गीत रचकर व्यक्त किया था।

भूपेन ने प्रियम को स्पष्ट बता दिया कि भूपेन उसे सुख-सुविधाओं से भरपूर जीवन नहीं दे पाएंगे, न ही आर्थिक सुरक्षा दे पाएंगे। प्रियम को कोई एतराज नहीं था। इस तरह दोनों विवाह करने के लिए तत्पर हुए। भारतीय विद्यार्थियों ने टेपरिकार्डर पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई बजाई, बंगाली लड़कियों ने अल्पना अंकित की, गुजराती लड़कियों ने गरबा नृत्य पेश किया। एक ब्राह्मण बंगाली अध्यापक ने मंत्रोच्चारण किया। फिर सिटी कोर्ट में जाकर दोनों ने कानूनी रूप से एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लिया। इस विवाह के लिए न तो भूपेन के माता-पिता तैयार थे न ही प्रियम के माता-पिता।


प्रियम ने कहा, ‘मैं एक सन्तान गर्भ में लेकर चली जाऊंगी।' प्रियम की इच्छा पूरी हुई। वह कम्पाला लौट गयी। प्रियम के पिता का घर बड़ौदा में भी था। प्रियम कम्पाला से बड़ौदा गयी।

भूपेन मेस छोडकर एक किराये के घर में रहने लगे और पढ़ाई पूरी करने में जुट गये। इसी बीच प्रियम के मामा एच. एम. पटेल भूपेन से मिलने आये। मामा ने लौटकर प्रियम को बताया कि भूपेन रात-रात भर घर से गायब रहते हैं। प्रियम ने फोन कर भूपेन से कैफियत पूछी। कहीं-न-कहीं सन्देह का भाव प्रियम के मन में पैदा होने लगा। चार दिनों का दाम्पत्य जीवन गुजारने के बाद दोनों के बीच ढाई साल का अन्तराल था।

इसी दौरान भूपेन का पॉल राबसन से परिचय हुआ। पॉल राबसन रात्रिकालीन गोष्ठियां चलाते थे, जिसमें माक्र्सवाद पर विचार प्रकट किया जाता था। भूपेन माक्र्सवाद से काफी प्रभावित थे और नियमित रूप से पॉल राबसन की गोष्ठी में भाग लेते थे।

भूपेन को सूचना मिली की प्रियम ने एक पुत्र को जन्म दिया है। भूपेन को पिता के पत्र से पता चला कि गोपीनाथ बरदलै भूपेन को लौटते ही डी. पी. आई. की नौकरी देने वाले थे। कोलम्बिया में भी यूनेस्को की तरफ से भूपेन को नौकरी का प्रस्ताव मिला था। पी. एच. डी. पूरा करने के साथ ही भूपेन ने प्रियम को सूचित किया कि अब वे असम लौटने वाले हैं। प्रियम ने जवाब दिया कि भूपेन अफ्रीका के रास्ते भारत लौटने का टिकट लें, ताकि प्रियम के माता-पिता भूपेन से मिल सकें। पॉल राबसन ने भूपेन से कहा कि लन्दन में रजनीपाम दत्त रहते हैं, जो घोर साम्यवादी हैं, भूपेन जरूर मुलाकात करें।

लन्दन पहुंचकर भूपेन रजनीपाम दत्त से मिले। भूपेन ने उनसे पूछा -

‘असम लौटकर एक पतनशील समाज के साथ मैं किस तरह तालमेल कायम कर पाऊंगा ? मैं निम्न मध्यवर्ग का हूं। मेरा मन टूट रहा है। मैं ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनना नहीं चाहता। विश्वविद्यालय में काम मिले तो करूंगा।'

दत्त ने कहा, ‘तुम निराश क्यों हो रहे हो ? निराश नहीं होना चाहिए। तुम जिस बिन्दु पर रहोगे, उसी बिन्दु पर रहकर अगर दस लोगों के विचार बदल सकोगे तो वही तुम्हारी सार्थकता होगी। मान लो, तुम लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर बनकर एक पुल का निर्माण कर रहे हो। वैसी स्थिति में तुम्हें यह नहीं देखना है कि पुल किसके लिए बना रहे हो, बल्कि पुल का निर्माण ठीक से हो, इस बात का ध्यान रखना है। तुम वहां जाकर पढ़ाओगे, विद्यार्थियों को अपने विचार से बदलने की कोशिश करोगे। लड़कों का हृदय परिवर्तन कर तुम समाज का परिवर्तन कर सकते हो।'

असम लौटते समय भूपेन काफी चिन्तित थे। नौ भाई-बहनों की देखभाल करनी होगी। एक अमीरजादी पत्नी के साथ गृहस्थी बसानी होगी। फिलहाल परिवार जिस किराये के घर में था, उसमें बहुत कम जगह थी।

भूपेन अफ्रीका पहुंचे। अफ्रीका में प्रियम के पिता ने अपने दामाद की खूब आवभगत की। भूपेन को नये-नये स्थानों की सैर करवाई गयी। अफ्रीका से भूपेन बम्बई पहुंचे। फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से अमेरिका में परिचय हुआ था। भूपेन बम्बई में अशोक कुमार से मिले। तब अशोक कुमार ‘परिणीता' की शूटिंग कर रहे थे। अशोक कुमार ने भूपेन से पूछा कि क्या वे फिल्म उद्योग में आना चाहेंगे ? भूपेन ने कहा कि फिल्म में रुचि तो है, पर अभी कुछ तय नहीं किया है। भूपेन बलराज साहनी से मिले।

भूपेन और प्रियम का एक अन्तराल पर मिलन हुआ। दो साल के अपने बेटे को भूपेन ने पहली बार देखा। बड़ौदा में भूपेन का शाही स्वागत हुआ। शहर के नामी-गिरामी लोगों के साथ भूपेन का परिचय करवाया गया।

भूपेन प्रियम और बेटे के साथ कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता से गुवाहाटी तक का सफर रेलगाड़ी से तय किया गया। गुवाहाटी स्टेशन पर काफी आत्मीय लोग स्वागत करने के लिए आये थे। किराये के घर के एक कमरे को माता-पिता ने सजाकर नवदम्पति के लिए रखा था। पिताजी ने एक नौकरानी भी रख ली थी। मगर भूपेन ने देखा कि इतने बड़े परिवार के लिए किराये का घर बहुत छोटा था। पिता कर्ज में डूबे थे। भाई-बहनों की सेहत भी ठीक नहीं लग रही थी।

भूपेन ने रेडियो में काम करना शुरू कर दिया। अलग से 5॰ रुपये मासिक किराये वाला घर ले लिया। गीत लिखकर गाने लगे। गणनाट्य संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। प्रियम ने भी अपने-आप को असम की बहू के रूप में परिवर्तित कर लिया। कई तरह के प्रलोभन आ रहे थे। प्रियम के पिता भूपेन को घर जमाई बनाना चाहते थे। असम सरकार भूपेन को कोई बड़ा पद देना चाहती थी, मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री विष्णुराम मेधी को इस बात पर एतराज था कि भूपेन ‘कम्युनिस्ट' बन गए थे।


नौ


गुवाहाटी लौटने के दो साल बाद बिरंचि कुमार बरुवा के प्रयास से भूपेन को विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर की नौकरी मिल गयी। शैक्षणिक माहौल में भूपेन का मन रमने लगा।

सन् 1954 में गणनाट्य संघ के आमंत्रण पर भूपेन मघाई ओझा के साथ कलकत्ता गये। वेलिंग्टन स्क्वायर पर भूपेन ने गीत गाया और मघाई ओझा ने ढोल वादन प्रस्तुत किया। कलकत्ता में भूपेन की जबर्दस्त प्रशंसा हुई। पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी तारीफ में काफी कुछ लिखा। सुचित्रा मित्र ने भूपेन को घर बुलाकर उनका अभिनंदन किया।

हेमांग विश्वास के साथ मिलकर भूपेन ने गणनाट्य संघ का अधिवेशन आयोजित किया, जिसमें बाइस हजार लोगों को आमंत्रित किया। बम्बई से अधिवेशन में शामिल होने के लिए बलराज साहनी आये। उस समय असम के एक दैनिक पत्र ने भूपेन की रचनाधर्मिता पर साम्यवादी दर्शन का प्रभाव बताते हुए आरोप लगाया कि उनकी रचनाओं से कुछ और गन्ध आ रही है।

‘असम ट्रिब्यून' के संस्थापक राधा गोविन्द बरुवा के प्रोत्साहन से गुवाहाटी के उजान बाजार इलाके में भूपेन ने पहली बार मंच पर बिहू कार्यक्रम आयोजित करने का सिलसिला शुरू किया था। मजेदार बात यह थी कि उस कार्यक्रम में भूपेन को गाने नहीं दिया गया क्योंकि कार्यक्रम में सरकार के मंत्री उपस्थित थे। अगले दिन भूपेन के गीतों को छापकर दर्शकों के बीच बांट दिया गया।

वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य अक्सर भूपेन के घर आते थे। वे थाह लेना चाहते थे कि भूपेन सोशलिस्ट हैं या नहीं। भूपेन ने कहा कि पहले वे समाज को ठीक से पहचान लेना चाहते हैं।

गुवाहाटी का अभिजात वर्ग शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम आयोजित करता था। भूपेन उसके पास ही लोकसंगीत कार्यक्रम आयोजित करते थे और लोगों से कहते थे कि यही जनता का संगीत है।

सन् 1954 में भूपेन कृश्न चन्दर, एम. एम. हुसैन, बालचन्दर, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनन्द के साथ फिनलैण्ड गये। उससे पहले असम के प्रगतिशील कलाकार दिलीप शर्मा चीन गये थे, तब भूपेन ने उनके लिए एक गीत लिखा था - ‘प्रतिध्वनि शुनू, नतून चीनर प्रतिध्वनि शुनू'। इस गीत का बांग्ला अनुवाद हुआ और यह गीत बंगाल में बहुत लोकप्रिय हुआ।

फिनलैण्ड में युद्घविरोधी सम्मेलन में ज्यां पाल सार्त्र समेत दुनिया भर के बुद्घिजीवी शामिल हुए थे। फिनलैण्ड से लेनिनग्राड, मास्को, काबुल होते हुए जब भूपेन गुवाहाटी लौटे तो उन्हें पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लौटने में तीन दिन देर हो गया। तार भेजकर उन्होंने इसकी सूचना विश्वविद्यालय प्रशासन को दे दी थी। मगर प्रशासन ने उनके नाम ‘कारण बताओ' नोटिस जारी कर दिया। भूपेन के भावुक दिल पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया। पिता एवं दूसरे शुभचिन्तकों ने भूपेन को समझाने की कोशिश की, पर भूपेन अपने फैसले पर अटल थे। जिस दिन भूपेन ने त्याग-पत्र दिया, उसी दिन तेजपुर से गंगा प्रसाद अग्रवाल और फणि शर्मा भूपेन से मिलने आये। वे ‘पियली फुकन' नामक फिल्म बनाना चाहते थे और भूपेन को संगीतकार की भूमिका निभाने के लिए कहने आये थे। अग्रिम राशि के रूप में उन्होंने सौ रुपये भूपेन को दिये और अनुबन्ध पत्र पर दस्तखत करवा लिया। भूपेन ने इस्तीफा दे दिया। फिल्म का संगीत तैयार करने के लिए भूपेन कलकत्ता आ गये और एक किराये का घर लेकर संगीत सृजन में जुट गये। प्रियम और बेटे को भूपेन ने बड़ौदा भेज दिया था। जाते समय प्रियम ने कहा था -

‘भूपेन, इस कठिन वक्त को गुजर जाने दो, तुम्हें खुद ही रास्ता ढूंढना होगा। हम कभी तुम्हारी मदद नहीं करेंगे, क्योंकि तुम मदद स्वीकार नहीं करोगे।'

‘पियली फुकन' से पहले भूपेन ‘सती बेउला' में संगीत दे चुके थे। ‘पियली फुकन' को स्वर्ण पदक मिला। भूपेन को बांग्ला फिल्म में संगीत देने का प्रस्ताव मिलने लगा। असम के नगांव शहर के निवासी असित सेन उस समय बांग्ला फिल्में बना रहे थे। उसी दौरान सत्यजीत राय की फिल्म ‘पथेर पांचाली' बनी थी। भूपेन के मन में एक फिल्म बनाने की योजना पनपने लगी थी।

भूपेन को एक साथ चार बांग्ला फिल्मों में संगीत देने का प्रस्ताव मिला था। ‘पियली फुकन' में संगीत देने के लिए उन्हें छह सौ रुपये मिले थे।

भूपेन ने कलकत्ता में घर खरीद लिया। पचीस हजार रुपये का प्रबन्ध किया और ‘एरा बाटर सुर' नामक फिल्म बनाने में जुट गये। पटकथा लिखते समय प्रियम ने उनकी सहायता की थी। फिल्म के लिए भूपेन ने कई नये कलाकारों की खोज की। फिल्म का नायक जयन्त निशा नामक लड़की से प्रेम करता है, पर निशा उसकी नहीं हो पाती। अन्त में नायक असम छोडता है और कहता है - ‘असम की धरती मुझे गलत तो नहीं समझेगी।' भूपेन ने बाद में स्वीकार किया कि इस फिल्म के जरिए उन्होंने अपने जीवन के एक हिस्से को सेल्यूलाइड पर उतारने की कोशिश की थी।

भूपेन अपनी फिल्म के दो गाने लता मंगेशकर की आवाज में रिकार्ड करना चाहते थे। लता के साथ उनका परिचय नहीं था। हेमन्त कुमार के साथ भूपेन का परिचय था। हेमन्त कुमार ने ही भूपेन का परिचय एच. एम. वी. कम्पनी के साथ करवाया था।

भूपेन ने हेमन्त कुमार को पत्र लिखा कि वे लता मंगेशकर से बात करें। हेमन्त कुमार ने जवाब दिया कि लता तैयार हैं। भूपेन बम्बई गये और हेमन्त कुमार के घर में ठहरे। लता के साथ पहली बार परिचय हुआ। लता ने कहा, ‘मैं आपको दादा कहकर पुकारूंगी।' पहला गाना था ‘जोनाकर राति ...' और दूसरा गाना भूपेन व हेमन्त के साथ था। गाना रिकार्ड होने के बाद धूम मच गयी। ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने गाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

खुद लता मंगेशकर ने अभिभूत होकर भूपेन से कहा, ‘आज तक मैंने ऐसा सुर नहीं सुना था दादा!'


दस


‘एरा बाटर सुर' बनाने के बाद भूपेन ने निश्चय किया कि ‘नील आकाशेर नीचे' नामक बांग्ला फिल्म बनाएंगे। बनारस में पढ़ते समय भूपेन का परिचय महादेवी वर्मा से हुआ था। महादेवी वर्मा की एक कहानी के आधार पर भूपेन इस फिल्म का निर्माण करना चाहते थे। उसी समय डेलू नाग नामक व्यक्ति ने आकर भूपेन को बताया कि इस कहानी पर फिल्म बनाने का अधिकार वह महादेवी वर्मा से खरीद चुका है। कहानी एक चीन देश के फेरीवाले के जीवन पर आधारित थी जो एक बंगाली लड़की को बहन बनाता है। बाद में फेरीवाले की मौत हो जाती है।

भूपेन ने डेलू नाग से कहा कि वह कहानी का अधिकार उनको बेच दे। नाग तैयार हो गया। भूपेन ने सोचा कि पटकथा ऋत्विक घटक से लिखवानी चाहिए। उन दिनों घटक ‘अयांत्रिक' बना रहे थे और उनके पास समय नहीं था। भूपेन ने मृणाल सेन से बात की। पन्द्रह सौ रुपये लेकर मृणाल सेन ने पटकथा लिखी। भूपेन हेमन्त कुमार से मिले। हेमन्त कुमार ने आश्वासन दिया कि फिल्म के लिए रुपये वे देंगे। संगीतकार के रूप में हेमन्त-भूपेन का नाम जाएगा। इसी दौरान भूपेन को किसी ने बताया कि डेलू नाग ने कहानी का अधिकार खरीदने के बारे में झूठी जानकारी दी थी। वास्तव में कहानी का अधिकार उसके पास नहीं था।

भूपेन महादेवी वर्मा से मिलने रानीखेत गये। महादेवी उनको पहचान नहीं पायीं। भूपेन ने बनारस की मुलाकात के बारे में बताया। अपना ‘सागर संगमत' गीत गाकर सुनाया और हिन्दी में उसका अर्थ बताया। महादेवी प्रसन्न हुईं। भूपेन को उन्होंने खाना खिलाया। भूपेन ने उनसे पूछा कि चीनी फेरीवाले की कहानी उन्होंने बेच दी है क्या ? महादेवी ने बताया कि एक लड़का आया था, जो खरीदना चाहता था, मगर वह दुबारा नहीं आया। भूपेन ने उनसे अपनी योजना के बारे में बताया। महादेवी ने उनको अपनी कहानी का अधिकार दे दिया। उस समय देश में हिन्दी- चीनी भाई-भाई का माहौल था। चीन के काउंसलर को बुलाकर भूपेन ने मुहुर्त करवाया था। लता मंगेशकर को क्लैपिस्टिक देने के लिए आमंत्रित किया था। लता ने मजाक में कहा था -

‘भूपेन दा, मैं जिस फिल्म के लिए क्लैपिस्टिक देती हूं, वह फिल्म बनती नहीं है।'

लता का मजाक सच साबित हुआ। रातोंरात भूपेन-हेमन्त प्रोडक्शन की जगह हेमन्त-बेला प्रोडक्शन बन गया और मृणाल सेन फिल्म के निर्देशक बन गये। एक तरह से लंगडी मारी गयी थी और फिल्म के प्रोजेक्ट से भूपेन को बाहर कर दिया गया। मृणाल सेन ने फिल्म बनायी। जिस दिन फिल्म कलकत्ता में रिलीज हुई, उसी दिन चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और फिल्म बुरी तरह पिट गयी।

भूपेन हताश नहीं हुए। उन्होंने ग्वालपाडा के लोकजीवन को पृष्ठभूमि में रखकर ‘माहुत बन्धुरे' का निर्माण किया। इस फिल्म में ग्वालपाडा की बोली का प्रयोग किया गया था और ग्वालपडिया लोकगीत की गायिका प्रतिमा पाण्डेय के गीतों का इस्तेमाल किया गया था। ‘माहुत बन्धुरे' को जबर्दस्त सफलता मिली। फिल्म की प्रशंसा जवाहरलाल नेहरू ने की। उन्होंने सभी दूतावासों को यह फिल्म भिजवाई।

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