भाग 1 / स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

Gadya Kosh से
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बुढ़ापा आ गया है, बीमार भी हूं और अब मेरे विचार अक्‍सर मृत्यु की ओर ही जाया करते हैं जो दिन-ब-दिन मेरे पास आ रही है। कदाचित् ही मैं भूतकाल के संबंध में सोचता हूं और शायद ही कभी मैंने अपनी आत्मा- की आखों से अपने अतीत के जीवन की ओर मुड़कर देखा है। सिर्फ, समय-समय पर, जाड़े में जब मैं दहकती आग के सामने निश्चल भाव से बैठता हूं, या गर्मी में जब छायादार वृक्षों की पंक्ति के नीचे धीर-गति से टहला करता हूं तब मुझे अतीतकाल के दिन, घटनाएं और परिचित चेहरे याद आ जाते हैं, किन्तुा ऐसे समय में भी मेरे विचार, मेरी जवानी या पकी उमर पर नहीं जाते, वे मुझे बचपन के प्रारम्भ, की या छुटपन के शुरू के वर्षों की ही याद दिलाते हैं। मसलन मुझे उन दिनों की याद आ जाती है, जब मैं देहात में अपनी कठोर तथा गुस्सैल दादी के साथ रहा करता था, उस समय मेरी उम्र सिर्फ बारह साल की थी, और मेरी कल्पोना के आगे दो मूर्तियां आकर खड़ी हो जाती हैं। किन्तु अब मैं अपनी कहानी का सिलसिले के साथ, ठीक-ठीक, वर्णन करूंगा।

1830

बूढ़ा नौकर फिलिप्पिच दबे पांव, जैसी कि उसकी आदत थी, गले में रूमाल बांधे वहां पहुंचा। उसके होंठ खूब कसकर दबे हुए थे, जिससे उसकी सांस की गंध महसूस न हो और पेशानी के ठीक बीच में सफेद रंग के बालों का गुच्छाम पड़ा हुआ था। उसने अन्दनर दाखिल होकर सलाम किया और मेरी दादी के हाथ में एक लम्बी चिट्ठी रख दी, जिस पर मुहर लगी हुई थी। मेरी दादी ने चश्माा उठाया और उस पत्र को शुरू से आखिर तक पढ़ डाला।

“क्याक वह यहां मौजूद है? “ मेरी दादी ने पूछा।

“जी, क्या फरमाया?” फिलिप्पि ने दबी जबान में डरते-डरते पूछा।

“बेहूदे कहीं के! मैं पूछती हूं, जिस आदमी ने यह खत दिया है, क्या वह यहां मौजूद है?”

“जी, वह यही है। दीवान खाने में बैठा हुआ है।”

मेरी दादी ने माला के दाने खड़खड़ाते हुए कहा, “उसे मेरे पास आने को कहो।” और फिर मेरी ओर मुखाति‍ब होकर बोलीं, “देखो, तुम यहीं चुपचाप बैठे रहना।”

मैं तो इस समय भी पहले की तरह ही एक कोने में तिपाई पर बिल्कुल चुपचाप बैठा हुआ था। मेरी दादी ने मुझ पर पूरी तौर से रौब जमा रखा था।

पांच मिनट के बाद कमरे में पैंतीस वर्ष की उमर का एक सांवला आदमी दाखिल हुआ। उसके बाल काले थे, गाल की हड्डियां चौड़ी थीं, चेहरे पर चेचक के दाग थे, नाक कुछ तिरछी और भौंहें घनी थीं, जिनके अन्दकर से उसकी भूरे रंग की छोटी-छोटी उदास आंखें दीख पड़ती थीं। उसकी आंखों का रंग और उनकी अभिव्याक्ति उसके चेहरे की पूर्वी ढंग की बनावट से मेल नहीं खाती थी। वह एक भद्र व्यउक्ति की भांति लम्बार कोट पहने हुए था। आते-आते वह दरवाजे पर ठिठक गया और सिर झुकाकर सलाम किया।

“तुम्हारा ही नाम बैबूरिन है?” मेरी दादी ने पूछा, और फिर मन-ही-मन कहने लगीं-देखने में तो आरमेनियन जैसा मालूम पड़ता है।

“जी हां", उस व्य।क्ति ने गम्भीएर और निश्चाल स्व र में उत्तरर दिया ।

मेरी दादी के कंठ-स्वडर की पहली कड़कती आवाज पर उसकी भौंहें कुछ सिकुड़ सी गईं। कहीं उसने यह आशा तो नहीं की थी कि मेरी दादी उसे अपनी बराबरी का समझकर सम्बोकधन करेंगीं ?

“क्या तुम रूस के रहने वाले हो और कट्टर धर्मावलम्बी हो?”

“जी हां।”

मेरी दादी ने अपनी आंखों से चश्मान उतारकर बैबूरिन को सिर से पांव तक गौर से देखा। उस व्यीक्ति ने अपनी निगाह नी‍ची नहीं की, सिर्फ अपने हाथ उसने अपनी पीठ की तरफ मोड़ लिए। मेरा ध्यायन खासकर उसकी दाढ़ी की ओर गया जो खूब घुटी-मुड़ी थी। लेकिन उसके जैसे नीले गाल और ठोड़ी मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखे थे।

“जेकोव पेट्रोविच ने”, मेरी दादी बोलीं, “अपनी चिट्ठी में तुम्हांरी जोरदार सिफारिश की है। लिखा है कि तुम बड़े गंभीर और परिश्रमी आदमी हो लेकिन यह तो कहो कि तुमने उसकी नौकरी क्यों छोड़ी?”

“उनकी? उन्हेंभ अपनी जमीदारी के प्रबंध के लिए दूसरे ही ढंग के आदमी की जरूरत है।”

“दूसरे ढंग के आदमी की! मतलब?”

मेरी दादी फिर आनी माला फेरने लगीं, “जेकोव पेट्रोविच लिखता है कि तुममें दो-दो विशेषताएं हैं। वे क्या हैं?”

बैबूरिन ने अपने कंधे को धीरे से हिलाते हुए कहा, “मैं नहीं बता सकता कि मुझमें ऐसी कौन-सी बातें हैं, जिन्हें वह मेरी विशेषताएं कहना पसन्द“ करते हैं। शायद इसलिए कि मुझे.... शारीरिक दण्ड असह्य है।”

मेरी दादी को यह सुनकर आश्यरर्च हुआ, “क्या“ तुम्हांरे कहने का अभिप्राय यह है कि जेकोव पेट्रोविच तुम्हेंद कोड़े मारना चाहता था?”

बैबूरिन का काला चेहरा एकदम लाल हो आया, बोला, “श्रीमती जी, आपने मेरे कहने का मतलब ठीक नहीं समझा। मैंने यह नियम बना लिया है कि मैं किसानों के साथ शारीरिक दण्डी का प्रयोग नहीं करूंगा।”

मेरी दादी ने पहले से भी अधिक आश्चर्य में आकर अपने हाथों को ऊपर की ओर फैला दिया और फिर वह अपने सिर को एक तरफ कुछ झुकाकर और एक बार फिर गौर से बैबूरिन को देखती हुई बोलीं, “अच्छा , तुम्हा रा यह नियम है! खैर, इससे हमें कोई सरोकार नहीं! हमें किसी ओवरसियर की जरूरत नहीं है। हमें तो चाहिए हिसाब रखने के लिए एक क्लार्क, सेक्रेटरी। तुम्हाहरी लिखावट कैसी है?”

“जी, मैं अच्छी तरह लिख लेता हॅू, हिज्जे में कोई गलती नहीं होती।”

“इससे मुझे कोई मतलब नहीं। मेरे लिए सबसे जरूरी बात यह है कि लिखना साफ होना चाहिए और नए ढंग के पूछ लगे अक्षर नहीं होने चाहिए। मैं उन्हेंत पसन्दन नहीं करती। तुम्हाहरी दूसरी विशेषता क्यार है?”

बैबूरिन कुछ अनमना-सा होकर खांसने लगा, फिर बोला, “शायद... उन महाशय का आशय इस बात से है कि मैं अकेला नहीं हूं।”

“तुम विवाहित हो?”

“जी नहीं, यह बात नहीं है... लेकिन...”

मेरी दादी ने अपनी भौंहें कुछ टेढ़ी कर लीं।

“मेरे साथ एक व्‍‍यक्ति रहता है... वह पुरूष है...मेरा साथी, गरीब दोस्त।

उससे मैं कभी अलग नहीं हुआ... वह दस बरस से साथ है।”

“वह तुम्हारा कोई संबंधी है?”

“जी नहीं, संबंधी नहीं, दोस्त है। मेरे काम में उसकी वजह से किसी प्रकार की बाधा पड़ने की संभावना नहीं है।”

बैबूरिन ने यह बात इस ख्यांल से कही कि कहीं मेरी दादी इस विषय में आपत्ति न कर बैठें। फिर बोला, “वह मेरे खर्चे पर और मेरे साथ एक कमरे में ही रहता है। उससे बहुत कुछ काम भी निकल सकता है, क्योंरकि वह खूब पढ़ा-लिखा है... और यह सब मैं उसके बारे में शान मारने के लिए नहीं कह रहा हूं, असल में बात ऐसी ही है, और उसका चरित्र तो एकदम आदर्श है।”

मेरी दादी अपनी होंठों को चबाती हुई अधमुंदी आंखों से बैबूरिन की बातें सुनती रहीं, फिर बोलीं, “वह तुम्हाारे खर्चे पर रहता है?”

“जी हां।”

“तुम उसे अपनी दरियादिली के कारण रखते हो?”

“जी नहीं, न्याय के कारण, क्योंतकि एक गरीब आदमी का यह कर्तव्य, है कि वह दूसरे गरीब की मदद करे।”

“सचमुच ! यह पहला मौका है, जब मैंने यह बात सुनी है। अब तक तो मेरा भी ख्यारल था कि यह काम अमीर आदमियों का है।”

“अगर धृष्टयता न समझी जाए तो मैं कहूंगा कि अमीर आदमियों के लिए यह एक मनोरंजन का साधन है, किंतु हमारे जैसे लोगों के लिए तो...”

“अच्छा-अच्छा, बहुत हो चुका, अब ज्यारदा कहने की जरूरत नहीं।”

मेरी दादी ने उसकी बात को बीच में काटकर कहा। फिर क्षण भर सोचने के बाद उन्होंिने नाक के स्वीर से, जो कुलक्षण समझा जाता था, पूछा, “तुम्हाहरे उस आश्रित की उमर क्यार है?”

“मेरी जितनी ही होगी।”

“ओह, मैंने तो यह अंदाज किया था कि वह कोई बच्चा होगा और तुम उसका पालन-पोषण कर रहे हेागे।”

“जी नहीं, यह बात नहीं है! वह मेरा साथी है और इसके सिवा...”

“अच्छा, इतना ही काफी है।” एक बार फिर मेरी दादी ने उसकी बातों को बीच में ही काटकर कहा, “तुम परोपकारी आदमी मालूम पड़ते हो। जेकोव पेट्रोविच का कहना दुरूस्तर है कि तुम्हारी जैसी स्थिति के आदमी के लिए यह एक अजीब बात है। अच्छाट, अब हम लोग काम की बातें करें। मैं तुम्हेंक समझाये देती हूं कि तुम्हें क्या-क्या करना होगा। तुम्हारी मजदूरी की निस्बत... (मेरी दादी ने अपने सूखे पीले चेहरे को एकाएक मेरी तरफ करके कहा ) तुम यहां क्या कर रहे हो? जाओ, अपनी पौराणिक कथाओं का पाठ याद करो।”

मैं उछल पड़ा और अपनी दादी के पास पहुंचकर उसका हाथ चूम लिया। फिर बाहर चला आया, पौराणिक कथाओं का अध्यदयन करने के लिए नहीं, बल्कि बगीचे में सैर-सपाटे के लिए।

मेरी दादी की जमींदारी में एक बगीचा था, जो बहुत पुराना और बड़ा था। उसके एक तरफ पानी से लबालब तालाब था, जिसमें कई प्रकार की मछलियां बहुतायत से पाई जाती थीं। एक प्रकार की खास मछली भी उसमें थी, जो अब प्राय: लुप्तु सी हो गई है। इस तालाब के एक सिरे पर बेंत की एक घनी निकुंज थी। इससे कुछ दूर ऊंचे पर एक ढालू जमीन के दोनों तरफ नाना प्रकार के सघन वृक्ष थे, जिनके नीचे कई प्रकार के फूल फूले हुए थे। इधर-उधर झाड़ियों के बीच में छोटे-छोटे जमीन के टुकड़ों पर हरे रंग की मखमली घास जमी हुई थी और उसके बीच में तरह-तरह के कुकुरमुत्तेच उग आये थे। बसन्ते ऋतु में यहां बुलबुलें गाती थीं, कोयल कुहू-कुहू करती थी और सारिकाओं का मोहक स्व र सुनाई पड़ता था। ग्रीष्मब में यह स्था न हमेशा ठंडा रहा करता था और मैं जंगल और झाड़ियों के बीच अपने किसी प्याारे गुप्ती स्थामन में, जिन्हेंर मेरा ख्या ल था कि मैं ही जानता था, जाकर बैठ जाया करता था।

अपनी दादी के कमरे से बाहर निकलकर मैं सीधा इसी तरह के एक गुप्तह स्थानन की ओर, जिसका नाम मैंने 'स्विट्जरलैण्डम' रख छोड़ा था, गया । किन्तुर 'स्विट्जरलैण्डज' तक पहुंचने के पहले ही मुझे अधसूखी टहनियों और हरी शाखाओं की कोमल जाली के अंदर से यह देखकर बड़ा आश्च्र्य हुआ कि मेरे सिवा और किसी ने भी इस स्था न का पता पा लिया है। जिस स्थाआन को मैं सबसे अधिक पसंद करता था, उसी स्था्न पर मैंने एक ऊॅचे कद के आदमी को एक लम्बाम ढीला कोट और उसके पास एक लम्बीा टोपी पहने हुए खड़ा देखा। मैंने चुपके-से उसके पास जाकर उसके चेहरे पर निगाह डाली। उसका चेहरा जो मेरे लिए बिल्कुहल अजनबी था, बहुत लम्बाे और कोमल मालूम पड़ता था। उसकी आंखे छोटी-छोटी और सुर्ख थीं। भोंड़ी नाक, मटर की फली जैसी, उसके होंठों तक लटक रही थी, जिसे देखते ही हंसी आये बिना नहीं रह सकती थी। उसके कांपते हुए होंठ गोल से थे और उनसे तेज सीटी जैसी आवाज निकल रही थी। वह अपने मजबूत हाथों की बड़ी-बड़ी अंगुलियों को अपनी छाती के ऊपरी हिस्सेि पर तेजी से फेर रहा था। रह-रह कि उसके हाथों की गति रूक जाती थी, होंठों की सीटी जैसी आवाज बन्द हो जाती थी और सर आगे की ओर झुक जाता था, मानों वह कुछ ध्याननपूर्वक सुन रहा हो। मैं उसके और भी पास गया और उसे पहले से भी अधिक ध्या न के साथ देखा। उस आगन्तुाक के दोनों हाथों में एक-एक छोटा कटोरा था, जिसका उपयोग लोग कनेरी चिडि़यों को हैरान करने और उनसे गाना गवाने के लिए किया करते हैं। मेरे पांव के नीचे दबकर एक टहनी टूट गई, जिससे वह आगन्तुनक चौंक पड़ा। उसने अपनी धुंधली छोटी आंखों से झाड़ी की ओर फेरा और वह चल पड़ा। वह लड़खड़ाकर गिरना ही चाहता था कि एक वृक्ष से ठोकर खाकर रूक गया। उसके मुंह से चीख निकल पड़ी और वह चुपचाप खड़ा हो गया।

मैं झाड़ के अंदर से निकलकर खुली जगह में चला आया। मुझे देखकर वह मुस्कुगराने लगा।

मैंने उसका अभिवादन किया।

उत्तेर में उसने भी मुझे 'छोटे बाबू' कहकर मेरा अभिवादन किया।

'छोटे बाबू' कहकर इस प्रकार घनिष्ठोतापूर्वक उसका संबोधन करना मुझे अच्छार नहीं लगा।

“तुम यहां क्या कर रहो?” मैंने कठोर स्वउर में उससे पूछा।

“मैं? इधर देखा” उसने मुस्कंराते हुए जवाब दिया, “मैं छोटी-छोटी चिडि़यों को गाने के लिए पुकार रहा हूं।” उसने मुझे अपने हाथ के छोटे कटोरे दिखलाए। “चैफिंची चिडियां मेरे बुलाने पर खूब बोलती है। तुम बच्चेह हो, इसलिए जरूर ही गाने वाली चिडि़यों का गाना सुनकर खुश होते होंगे। ध्याबन देकर सुनो, मैं चिडियों की तरह चहचहाना शुरू करता हूं और वे फौरन उसके जवाब में चहचहाने लगेंगी। इसमें मुझे बड़ा मजा आता है।”

उसने अपने छोटे कटोरों को बजाना शुरू किया। इसके जवाब में पास के एक वृक्ष से एक चिड़िया सचमुच चहचहाने लगी। इस पर उस आगंतुक ने मूक हंसी हंसते हुए मेरी ओर आंख का इशारा किया। उसकी हंसी, उसका वह इशारा उसकी भाव-भंगिमा, उसकी कमजोर और हकलाती आवाज, उसके झुके हुए घुटने और दुबले-पतले हाथ, उसकी टोपी और लम्बा कोट, उसकी हरेक चीज से उसके भले स्वेभाव का, उसकी निश्च्छलता तथा उसकी विनोदी वृत्ति का आभास मिलता था।

“क्या‍ तुम यहां बहुत दिनों से हो?” मैंने पूछा।

“नहीं, मैं आज ही आया हूं।”

“क्योंघ, क्यां तुम वही आदमी तो नहीं हो, जिसके बारे में...”

“मि. बैबूरिन ने यहां उस महिला से जिक्र किया था। जी हां, वही, वही।”

“तुम्हाुरे दोस्तन का नाम बैबूरिन है। और तुम्हा रा?”

“मुझे पूनिन कहते हैं, पूनिन। वह बैबूरिन है और मैं पूनिन।”

फिर उसने अपने छोटे-छोटे कटोरों को बजाना शुरू किया, “सुनो, ध्यावन देकर चैफिंची का गाना सुनो। देखो तो वह किस तरह आनंद का गीत गा रही है!”

उस अजीब आदमी ने मेरे हृदय को एकाएक अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अन्यर लड़कों की भांति मैं भी अपरिचित व्यरक्तियों को देखकर या तो सहम जाता था, या अपनी शान-शौकत दिखलाने लगता था, किन्तुृ उस आदमी के साथ तो मुझे ऐसा मालूम पड़ने लगा, मानो मैं वर्षों से उसे जानता हूं।

मैंने उससे कहा, “आओ, मेरे साथ चलो। मैं इससे भी अच्छी एक जगह जानता हूं। वहां हम लोगों के बैठने के लिए एक स्थान है। वहां बैठकर हम बांध भी देख सकते हैं।”

“अच्छील बात है।” मेरे उस नवपरिचित मित्र ने अपनी सुरीली आवाज में जवाब दिया। मैंने उसे आगे-आगे चलने दिया। वह झूमता हुआ और सिर पीछे झुकाये हुए चलता रहा। मैंने उसके कोट की पीठ पर कालर के नीचे लटकता हुए एक छोटा झब्बा देखा।

“यह क्यान लटक रहा है?” मैंने पूछा।

“कहां?” उसने प्रश्नब किया, और कालर पर अपना हाथ रखा। “ओह, झब्बे के बारे में तुम पूछते हो? मैं समझता हूं कि शोभा के लिए यह वहां लगा दिया गया होगा। पर शायद यह ठीक तरह से लगाया हुआ नहीं है।”

बैठने के स्थाशन पर पहुंच कर हम लोग बैठ गए। वह भी मेरी बगल में बैठा। “यह स्था न बड़ा मनोहर है।” यह कहते हुए उसने एक गहरी सांस ली, “वाह, कैसी सुन्दार जगह है! तुम्हांरा यह बगीचा तो बहुत बढ़िया है। वाह-वाह !”

मैंने उसे एक तरफ से ध्याननपूर्वक देखा। “तुम्हाहरी यह टोपी तो अजीब ढंग की है।” इतना कहे बिना मैं नहीं रह सका। “जरा दिखाओ तो।”

“जरूर मेरे छोटे बाबू, लो, खूब अच्छीु तरह देखो।” उसने अपनी टोपी उतार ली। मैं अपना हाथ फैलाये हुए था। मैंने अपनी आंखें उठाईं और वह खिलखिलाकर हंस पड़ा। पूनिन का सिर बिल्कु।ल गंजा था। उसकी ऊंची उठी खोपड़ी पर, जो चिकनी सफेद खाल से ढकी हुई थी, एक भी बाल नजर नहीं आता था।

उसने अपने हाथ को खोपड़ी पर फिराया और वह खुद भी हंसने लगा। हंसते समय ऐसा मालूम पड़ा, मानो वह किसी वस्तुो को लील जाना चाहता हो। उसका मुंह खुला हुआ था, आंखें बन्दन थीं और माथे पर तीन सलवटें पड़ी थीं, मानों तीन लहरें हों। आखिर वह बोला, “क्योंं, मेरी यह खोपड़ी अंडे की शक्लच की-सी नहीं है?”

“हां-हां, ठीक अंडे की शक्लर-जैसी!” मैंने बड़े उत्सा‍ह के साथ उसके कथन का समर्थन किया, “तुम्हांरा ऐसा सिर बहुत दिनों से है?”

“हां, बहुत दिनों से। पर जब मेरे बाल थे, उन दिनों का क्या कहना!

बिल्कुंल सुनहले ऊन जैसे। ठीक उसी तरह के, जिस तरह के बालों के लिए आरगोनेट्स को पाताल की यात्रा करनी पड़ती थी।”

यद्यपि मेरी अवस्थात सिर्फ बारह वर्ष की थी, तथापि पौराणिक कथाओं का मैंने अध्य यन किया था, इससे मैं आरगोनेट्स के नाम से परिचित था। फटी चिथड़ी पोशाक पहने हुए उस व्यकक्ति के मुंह से आरगोनेट्स का नाम सुनकर मुझे बड़ा आश्चार्य हुआ।

“मालूम होता है कि तुमने पौराणिक कथाएं पढ़ी हैं?” मैंने उससे प्रश्न किया और उसकी टोपी को अपने हाथों में लेकर इधर-उधर मोड़कर देखने लगा।

“मैंने इस विषय का अध्येयन किया है, मेरे प्या रे छोटेबाबू! मुझे अपने जीवन में हरेक बात के लिए काफी समय मिला है। किन्तुय अब मेरी टोपी मुझे दे दो। यह मेरे सिर की नग्नूता को बचाने के लिए है।”

उसने टोपी पहन ली और अपनी सफेद भौंहों को कुछ नीचे की ओर झुकाकर मुझसे मेरा और मेरे माता-पिता का परिचय पूछा।

“मैं उस महिला का नाती हॅू, जो यहां की मालकिन है।” मैंने जवाब दिया, “मैं उसके साथ अकेला रहता हूं। मेरे मां-बाप मर चुके हैं!”

पूनिन ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, “भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति दे। अच्छाु, तो तुम बे मां-बाप के एक अनाथ बालक हो और साथ ही वारिस भी हो। भले घर के जान पड़ते हो। तुम्हाारे नेत्रों में भलेपन की ज्यो ति जगमगा रही है और उसकी धारा भी बह रही है।” उसने अपनी अंगुलियों से मेरी आंखों की ओर इशारा किया, “ अच्छा , यह तो बताओ कि तुम्हाीरी दादी से मेरे मित्र की बातें तय हो चुकी हैं? क्याश उसे वह नौकरी मिल गयी है, जिसके लिए उसे वचन दिया गया था?”

“मैं नहीं जानता।”

पूनिन ने अपना गला साफ करते हुए कहा, “अहा, यदि थोड़े समय के लिए भी कोई इस स्थान को अपना निवास-स्थरल बना सके! नहीं तो कहां-कहां भटकना पड़ेगा, और फिर भी शायद ही पैर रखने को कोई जगह मिले। जीवन में अशान्ति के भय निरंतर लगे ही रहते हैं, आत्माभ विभ्रान्त् बनी रहती है...।”

“मुझे यह तो बताओ,” मैं उसकी बात काटकर बीच में ही बोल उठा, “क्याि तुम्हा रा पेशा पादरी का है?”

पूनिन ने मेरी तरफ मुखातिब होकर अपनी पलकों को आधा मूंद लिया, “तुम्हाटरे इस सवाल पूछने का क्यान कारण है, भले आदमी?”

“क्योंम, तुम्हाेरे बातें करने का ढंग ऐसा है, जैसे कि पादरी लोग गिरजाघरों में बोला करते हैं।”

“क्योंमकि मैं प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों के वाक्योंा और पदों का बातचीत में व्य वहार करता हूँ? किन्तु इस पर तुम्हेंे चकित नहीं होना चाहिए। मैं यह मानता हूं कि साधारण बातचीत में इस प्रकार के वाक्यों का सादा प्रयोग नहीं होता, किंतु जब कोई व्यक्ति बनावट से विहृल होकर बातें करने लगता है, उस समय उसकी भाषा भी अधिकाधिक प्रांजल हो उठती है। तुम्हाकरे जो अध्याोपक तुम्हें रूसी भाषा पढ़ाते हैं, उन्होंधने तो तुम्हेै यह बात बतलाई होगी। क्याक तुम्हेंत ऐसी बातें नहीं बतलाते?”

“नहीं वे मुझे ऐसी बातें नहीं बतलाते।” मैंने उत्तकर दिया, “जब देहात में रहता हूं, मेरे साथ कोई शिक्षक नहीं रहता। मास्को में मेरे बहुत से शिक्षक हैं।”

“क्याह तुम देहात में बहुत दिनों तक ठहरोगे?”

“दो मास, इससे अधिक नहीं। दादी कहती हैं कि मैं देहात में रहकर बिगड़ रहा हूं, यद्यपि यहां भी मेरे ऊपर शासन करने वाली एक अध्याकपिका है।”

“वह अध्यानपिका फ्रांसीसी जाति की है?”

“हां ?”

पूनिन ने अपने कान के पीछे खुजलाते हुए कहा, “वह कोई मिस (कुमारी) है?”

“हां, उसका नाम मिस फ्रीकेट है।”

एकाएक मुझे यह जान पड़ा कि मेरे जैसे बारह वर्ष के एक लड़के के लिए किसी शिक्षक के बजाय शासन करने वाली अध्या़पिका का होना, जैसी एक छोटी बालिका के लिए रहा करती है, कलंक की बात है !

“किंतु मैं उसकी परवा नहीं करता।” मैंने घृणासूचक भाव में कहा, “मैं क्योंि परवा करने लगा !”

पूनिन ने अपना सिर हिलाया। “ओह, तुम भले आदमी विदेशियों को बहुत चाहते हो। तुम लोग स्विदेशी बातों को छोड़कर विदेशी चीजों को चाहने लग गये हो। तुम्हांरा दिल विदेशों से आने वाली वस्तु ओं की ओर लग गया है: छाड़ि स्वनदेशी वस्तुह विदेशी प्रेम बढ़ायौ।"

“ओ हो, क्याग तुम कविता में बातें कह रहे हो?” मैंने पूछा।

“क्योंअ न करूं ? मैं बराबर इस तरह बातें कर सकता हूं, जितना तुम सुनना चाहो, क्यों कि स्वकभावत: ही मेरे मुंह से छन्दोबद्ध वाणी निकला करती है...”

इसी समय बगीचे में हम लोगों के पीछे से एक जोर की तेज सीटी की आवाज सुनाई पड़ी। मेरा वह नवपरिचित व्यगक्ति जल्दीे से बेंच पर से उठकर खड़ा हो गया।

“छोटे बाबू, सलाम। मेरा दोस्ते मुझे बुलाता है... शायद कोई काम हो। अच्छास, सलाम, माफ करना...”

वह झाड़ियों में घुसकर गायब हो गया और मैं उसके बाद भी कुछ देर तक अपनी जगह पर बैठा रहा। मुझे कुछ चिन्तार-सी प्रतीत हुई और इसके साथ ही मेरे मन में कुछ आनंददायक भावना भी उदित हुई। मैंने इससे पहले और किसी के साथ इस तरह मुलाकात नहीं की थी और न इस तरह बातचीत ही की थी। इसके बाद क्रमश: मैं स्वंप्नइ देखने लगा। फिर मुझे अपनी पौराणिक कथाओं की याद आ गई और मैं घर की ओर चल पड़ा।

घर पहुंचकर मुझे मालूम हुआ कि मेरी दादी ने बैबूरिन को रखने का प्रबन्धव कर लिया है। उसे नौकरों के रहने के स्थाहन में घुड़साल के सामने वाला छोटा-सा कमरा दिया गया था। उसने उसी कमरे में अपने मित्र के साथ डेरा डाल दिया था।

दूसरे दिन प्रात: काल चाय पी चुकने के बाद मैं मैडम फ्रीकेट से छुट्टी मांगे बिना ही नौकरों के निवास स्थापन की ओर चल पड़ा। मैं उस विलक्षण मनुष्यम के साथ एक बार फिर बातचीत करना चाहता था, जिससे मैंने पिछले दिन मुलाकात की थी। दरवाजे को बिना खटखटाये ही, इसका ख्यावल भी कभी मुझे नहीं आ सकता था, सीधे कमरे में दाखिल हुआ। वहां मैंने पूनिन को, जिसकी मैं तलाश कर रहा था, न पाकर उसके अभिभावक परोपकारी बैबूरिन को पाया। वह खिड़की के सामने नंगे बदन खड़ा था। उसके दोनों पांव एक दूसरे से बहुत अलग थे। वह अपने सिर और गर्दन को एक लम्बेन तौलिये से रगड़ रहा था।

“क्याे चाहते हो?” उसने अपने हाथ को पहले की तरह ही ऊपर उठाये हुए दोनों भौंहों को मरोड़ते हुए पूछा।

“मालूम होता है, पूनिन घर पर नहीं है?” मैंने बिना अपनी टोपी उतारे ही सहज स्वंतंत्र ढंग से पूछा।

“हां मिस्टार पूनिन निकैण्ड र वेविलिच, इस समय घर पर नहीं हैं।” बैबूरिन ने सोच-समझकर उत्तफर दिया, “किंतु नौजवान, मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं, बिना पूछे इस तरह दूसरे के कमरे में दाखिल होना ठीक नहीं हैं।”

मैं ! नौजवान ! इसका इतना दुस्साेहस ! मेरा चेहरा क्रोध से लाल हो उठा।

“तुम नहीं जानते हो कि मैं कौन हूं?” मैंने पहले के समान सहज ढंग से नहीं, बल्कि रौब दिखलाते हुए कहा, “मैं यहां की मालकिन का नाती हूं।”

“होगे, इससे क्याह बनता-बिगड़ता है?” बैबूरिन ने फौरन जवाब दिया और फिर तौलिये से अपना बदन रगड़ने लगा।

“भले ही तुम मालकिन के नाती हो, किंतु फिर भी तुम्हें दूसरे के कमरे में आने का अधिकार नहीं है।”

“दूसरे लोगों के ? क्याह मतलब ? यहां वहां-सब जगह मेरा घर है।”

“नहीं, माफ कीजिये, यह घर मेरा है, क्यों कि यह कमरा मेरे काम के बदले में मुझे दिया गया है।”

“रहने दीजिये अपनी यह सीख।” मैंने बीच में ही उसकी बात काटकर कहा, “मैं अपना कर्तव्ये तुमसे अच्छीह तरह जानता हूं।”

“तुम्हेंज सिखलाने की जरूरत है।” वह फिर मेरे कथन के बीच में ही बोल उठा, “क्योंवकि इस समय तुम्हामरी वह अवस्थाे है जब तुम्हें ... मैं अपना कर्तव्यल जानता हॅू, लेकिन मैं अपने अधिकारों को भी भली-भांति जानता हूं। और अगर तुम इसी ढंग से बातें करते रहे तो मुझे तुम्हेंव कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहना पड़ेगा...।”

मालूम नहीं, हम लोगों के इस विवाद का किस प्रकार अंत हुआ होता, यदि उसी क्षण पूनिन लड़खड़ाता हुआ उस कमरे में प्रवेश न करता। शायद वह हम लोगों की मुखा‍कृति देखकर ही यह ताड़ गया कि हम दोनों के बीच कुछ मनमुटाव उत्प न्नव हो गया है और फौरन अत्यंदत प्रसन्नतापूर्ण भावों को प्रकट करता हुआ मेरी ओर देखने लगा।

“अहा ! मेरे छोटे बाबू ! छोटे बाबू!” वह अपने हाथों को जोर से घुमाते हुए और नि:शब्दन हंसी हंसते हुए चिल्लाे उठा, “ आओ भाई ! छोटे बाबू ! मेरे यहां आये हो ? खूब आये ! आओ, प्याैरे !”

मैंने विचार किया- उसके इस प्रकार बोलने का क्या! मतलब हो सकता है ? क्याे वह इस प्रकार बेतकुल्लचफी के साथ, सुपरिचित आदमी की तरह, मुझसे बातचीत कर सकता है ? वह कहता गया, “आओ, मेरे साथ बगीचे में आओ। मैंने वहां एक चीज देखी है... यहां इस बन्दर जगह में, ठहरने से क्याआ फायदा ! चलो, हम दोनों चलें !”

मैं पूनिन के पीछे-पीछे हो लिया। दरवाजे पर पहुंचकर मैंने विचार किया कि एक बार मुंह फिराकर बैबूरिन की ओर अवज्ञासूचक दृष्टिपात कर देना अच्छाप है, जिससे उसे यह मालूम हो जाय कि मैं उससे बिल्कुओल नहीं डरता।

मेरे इस प्रकार देखने पर उसने भी उसका जवाब उसी ढंग से दिया और जान-बूझकर अपने तौलिए में छींका, जिसका उद्देश्यक यह था कि मुझ पर यह बात अच्छीय तरह प्रकट हो जाय कि वह मुझे किस प्रकार पूर्ण घृणा की दृष्टि से देखता है।

ज्योंर ही दरवाजा हमारे पीछे बन्द हुआ, मैंने पूनिन से कहा, “तुम्हा रा यह मित्र बड़ा ढीठ जान पड़ता है !”

भयभीत सा होकर पूनिन ने अपने चौकन्नेे चेहरे को मेरी ओर कर लिया।

“तुमने 'ढीठ' शब्दन का प्रयोग किसके लिए किया है ?” उसने मुझसे पूछा।

“क्यों  ? उस व्य्क्ति के लिए... उसका नाम क्याा है ?” वह...बैबूरिन।”

“पारामन सेम्योोनेविच?”

“हां, वही... काले मुंह वाला।”

“अरे..अरे..अरे..” पूनिन ने प्यानर से मुझे डांटा। “छोटे बाबू, तुम इस तरह बात क्यों करते हो ? बैबूरिन एक अत्यंमत योग्यो और अपने सिद्धांतो पर दृढ़ रहने वाला असाधारण पुरूष है। यह निश्चाय जानो कि वह अपने प्रति किया हुआ अपमान सहन नहीं कर सकता, क्यों कि वह अपना महत्वच भली-भांति जानता है। उसका ज्ञान-भंडार बहुत विस्तृ्त है और यह स्था न उसके उपयुक्तत नहीं है। मेरे प्यािरे, तुम्ंकरत उसके साथ पूर्ण शिष्टुता का व्य वहार करना चाहिए। क्या् तुम जानते हो कि वह (इस समय पूनिन झुककर मेरे कान के पास आ गया) एक प्रजातंत्रवादी है ?”

मैं पूनिन को घूरकर देखने लगा। मैंने इस बात की बिल्कुरल आशा नहीं की थी। छोटी-छोटी पुस्तनकों से तथा अन्यो ऐतिहासिक ग्रन्थोंब से मुझे यह बात मालूम थी कि किसी जमाने में प्राचीन काल में यूनान और रोम में प्रजातंत्रवादी हुआ करते थे। किसी अज्ञात कारण से मैंने उन लोगों की जो तस्वी र अपने मन में खींच रखी थी, उसमें वे लोहे की टोपी पहने, अपनी भुजाओं में गोल ढाल बांधे और बड़े-बड़े नंगे पांव वाले जीव थे, किंतु वास्तीविक जीवन में, वर्तमान रूप में, अमुक प्रान्त में प्रजातंत्रवादी पाये जाते हैं- इस ख्या ल ने तो मेरी सारी भावनाओं को ही उलट दिया और मुझे सर्वथा भ्रमित बना डाला।

“हां, मेरे प्यायरे, हां, बैबूरिन प्रजातंत्रवादी है।” पूनिन ने अपनी पहली बात को फिर दुहराया, “अत:, अब आइन्दां तुम्हेंर ख्यायल रखना चाहिए कि उसके जैसे आदमी के साथ किस प्रकार बात करना उचित है। अच्छाा, अब हम लोग बगीचे में चलें। जरा ख्याउल तो करो कि मुझे वहां कौन-सी वस्तु मिली है ? कौवे के घोंसले में कोयल का अण्डाम। कितनी अच्छीर चीज है।”

मैं पूनिन के साथ बगीचे में गया, किंतु मेरे मन में रह-रह कर वही बात आती थी प्रजातंत्रवादी ! प्रजा... तंत्र... वादी !

आखिर मैंने यह निश्च्य किया,, “हो-न-हो, उस आदमी के इस प्रकार तुनकमिजाज होने का कारण यही है।”

उस दिन से पूनिन और बैबूरिन-इन दोनों आदमियों के प्रति‍ मेरे रूख में एक निश्चित परिवर्तन हो गया। बैबूरिन के प्रति मेरे मन में बैर-भाव उत्प न्न हो गया, जिसके साथ-साथ कुछ समय बाद आदर जैसा एक प्रकार का भाव भी मिल गया। और क्यान सचमुच मुझे उसका भय नहीं लगता था? उसने शुरू में मेरे साथ रूखाई का जो बर्ताव किया था, वह बिल्कुाल गायब हो जाने पर भी मैं निडर नहीं हुआ था। कहने की आवश्याकता नहीं कि पूनिन से मुझे कोई डर नहीं था। मैं उसका सम्मा न भी नहीं करता था। मैं उसे एक मसखरा व्यकक्ति समझता था, किंतु मैं उसे पूर्ण अंत:करण से प्रेम करता था। उसके साथ घंटों बिता देना, उसकी कहानियों को ध्या नपूर्वक सुनना और उसके साथ अकेले रहना मेरे लिए वास्तघविक आनंद का विषय हो गया था। मेरी दादी को यह बात पसंद नहीं थी कि मैं इस प्रकार निम्न‍वर्ग के एक मनुष्य के साथ घनिष्ठ तापूर्वक मिला-जुला करूं, पर जब कभी मुझे फुरसत मिलती, मैं दौड़कर अपने उस विलक्षण प्रसन्साथचित, प्रेमी मित्र के पास पहुंच जाता था। फ्रांसीसी अध्यारपिका के चले आने के बाद- जिसे मेरी दादी ने अपमानित करके मास्कोत वापस भेज दिया था, क्योंरकि उसनें पड़ोस में आये हुए एक फौजी कप्तािन के साथ वार्तालाप के प्रसंग में उसने हम लोगों के घर की शुष्कंता की शिकायत करने की धृष्टजता दिखलाई थी- हम दोनों का मिलना जुलना और भी जल्दी -जल्दी होने लगा। एक बारह वर्ष के बालक के साथ देर-देर तक बातचीत करते रहने पर भी पूनिन उकताता नहीं था। ऐसा मालूम होता था कि वह खुद बातचीत करने के लिए उत्क ण्ठित रहता हो। वृक्षों के कुंज के नीचे सूखी चिकनी घास पर या तालाब के निकट के वृक्षों के बीच किनारे की सर्द बालू पर-जिसमें वृक्षों की गठीली जड़ें निकली हुई थीं और वे इस तरह आपस में गुथी हुई थीं, मानों बड़ी-बड़ी काले रंग की नसें हों, या सांप हों या कोई जीव हों, जो जमीन के अन्दरर से निकले हुए हों - सुरक्षित छाया में उसके साथ बैठकर न मालूम कितनी बार मैंने उसकी कहानियां सुनी थीं। पूनिन ने अपने जीवन की सारी कहानी, छोटी-से-छोटी बात तक मुझे सुनाई। उसने अपने समस्तअ सुखों-दु:खों का वर्णन किया और सदैव मैंने उसके साथ अपनी सच्चीत सहानुभूति प्रकट की। पूनिन का पिता पादरी का काम करता था। वह एक बहुत ही अच्छाद आदमी था, किंतु नशे में वह हद से ज्या दा कठोर बन जाता था।

पूनिन ने एक विद्यालय में शिक्षा प्राप्ती की थी, पर वहां की ठुकाई को सहन करने में असमर्थ होकर और पादरी के पेशे की तरफ रूचि न होने के कारण वह साधारण गृहस्थ, की तरह जीवन व्तीो त करने लगा, जिसके परिणाम स्वकरूप उसे सारी कठिनाइयां भुगतनी पड़ीं और आखिर वह आवारा बनकर इधर-उधर भटकने लगा। पूनिन अक्सरर मुझसे कहा करता था, “यदि मुझे अपने उपकारी पारामन सेम्यो नेविच (वह बैबूरिन के संबंध में जब कुछ कहा करता था तो इसी नाम से) भेंट न हुई होती तो कंगाली एवं पाप के दलदल में फॅसे बिना न रहता।” बड़े-बड़े शब्दोंा और वाक्योंं का प्रयोग करना पूनिन को बहुत पसंद था और उसकी प्रवृत्ति यदि मिथ्या कथन की ओर नहीं, तो औपन्याूसिक रूप में कथा कहने या बढ़ा-चढ़ा बात कहने की ओर अवश्यड थी। वह प्रत्ये‍क वस्तुा को देखकर प्रफुल्लित हो जाता था और उसकी प्रशंसा करने लगता था। मैं भी उसका अनुकरण करते हुए किसी बात को बढ़ाकर कहने और उस पर प्रफुल्लित हो जाने का आदी हो गया था।

“तुम कैसे झक्की आदमी हो गये हो ! भगवान तुम पर दया करे !” मेरी बूढ़ी धाय अक्स र मुझ से कहा करती थी। पूनिन की कहानियों को मैं बड़े चाव से सुना करता था, किंतु उसकी कहानियों से भी बढ़कर मैं उसके साथ मिलकर पढ़ना पसंद करता था।

सुयोग पाकर जब कभी वह एकाएक कहानी के किसी साधु की तरह, या किसी सुंदर परी की तरह, अपनी बांह के नीचे एक मोटी-सी बड़ी पुस्त क दबाये हुए मेरे सामने उपस्थित होता, और चुपके से अपनी लम्बीक-टेढ़ी अंगुली का इशारा करते हुए, या रहस्यथपूर्ण कटाक्ष करते हुए, वह अपने सिर से, अपनी भौंहों से, अपने कंधों से, अपने संपूर्ण शरीर से, बगीचे के घने-से-घने गुप्तह स्था न की ओर संकेत करता-जहां कोई भी आदमी हम दोनों के पीछे नहीं आ सकता था और जहां हमारा पता ढूंढ़ निकालना असम्भहव था-उस समय मेरे मन में जो भावना उत्परन्न होती थी, उसका वर्णन करना असंभव है। जब हम दोनों अलक्षित रूप में वहां से चल देते, जब हम अपने किसी गुप्तन स्थील पर पहुंच जाते और एक-दूसरे के पास बैठे होते, उस समय जब धीरे-धीरे-धीरे पुस्त क खोली जाती और उसके भीतर से एक तेज गंध निकलती, जो मुझे अनिवर्चनीय मधुर मालूम होती थी, उस समय मैं किस हर्षातिरेक से, किस मौन प्रतीक्षा से पूनिन के चेहरे को, उसके होंठों को-जिन होंठों से क्षण-भर में ही इतनी सरस धारा-प्रवाह वाणी निकलने वाली थी, ताका करता था? आखिर जब उसके पढ़ने के प्रथम शब्दस मुझे सुनाई पड़ते उस समय मेरे चारों तरफ की वस्तु एं गायब हो जातीं। गायब नहीं हो जातीं, बल्कि यों कहिये कि दूर चली जातीं, धुधले मेघों में प्रवृष्टि हो जातीं और जो कुछ रह जाता वह मैत्री की भावना मात्र थी। वे वृक्ष, उनकी वे हरी-हरी पत्तियां, वह ऊंची-ऊंची घास हमारे ऊपर पर्दा डाले हुए हैं, हमें शेष संसार की दृष्टि से अंतर्हित किये हुए हैं, कोई नहीं जानता कि हम दोनों कहां हैं, क्या कर रहे हैं- इस समय हमारे साथ जो कुछ है, वह कविता है, हम इसी में सराबोर हैं, उसी के नशे में मस्त‍ हैं। हम इस समय किसी गम्भीहर महान रहस्यिमय भावना का अनुभव कर रहे हैं।

पूनिन ने अपने लिए काव्यह-विशेष को चुन लिया था-ऐसा काव्यह, जो संगीतमय एवं ध्वनिपूर्ण हो। वह काव्य के लिए अपने जीवन तक को उत्सिर्ग कर देने को तैयार रहता था। वह कविता का पाठ ही नहीं करता था, बल्कि बड़ी शान के साथ छंदों की व्याेख्यार भी करता था। उस समय ऐसा मालूम होता था, मानो उसके मुंह से ताल-लययुक्तव वाणी का प्रवाह निकल रहा हो, उसकी नासिका से अजस्र वर्षण हो रहा हो, मानो कोई मदोन्मात मनुष्यक आत्म-विस्मृहत बनकर किसी अचिन्य्े अ प्रदेश में विचरण करने लगा हो और उस समय उसे अपने तन-मन की बिल्‍कुल सुध-बुध नहीं रही हो।

उसकी एक आदत और थी, वह यह कि पहले वह छंदों को धीरे-धीरे कोमल स्वहर में पढ़ता, मानों वह खुद मन-ही-मन में पढ़ रहा हो। इस प्रकार पढ़ने की क्रिया को वह प्रथम पाठ बतलाता, फिर इसके बाद वह उसी छंद को जोर से गरजकर पढ़ने लगता और ऐसा करते हुए एकदम उछल पड़ता। उस समय उसके हाथ ऊपर की ओर उठ जाते और उसकी भाव-भंगिमा आधी विनम्र और आधी दर्पयुक्ता-सी हो जाती। इस प्रकार हम लोग सिर्फ लोमोनोसोव, सुमारोकोव और कैंटीमीर (कविताएं जितनी ही पुरानी होती थीं, पूनिन उतने ही चाव से उन्हेंि पढ़ा करता था) के काव्योंत का ही पारायण नहीं कर गये, बल्कि हेरस्कोूव के 'रोजिएड' को भी पढ़ डाला। सच बात यह है कि इस 'रोजिएड' को पढ़कर ही मेरा उत्साीह बहुत उमड़ पड़ा था। अन्या पात्र-पात्रियों के अलावा इसमें एक शक्तिशालिनी तातार स्त्री का-एक विशालकाय नायिका का-चरित्र-चित्रण है। मै अब उसका नाम तक भूल गया हूं, पर उन दिनों उसका नाम लेते ही मेरे हाथ-पांव सर्द हो जाते थे। “हां!' पूनिन बड़ी खूबी के साथ अपने सर को हिलाते हुए कहता, “हेरस्को्व के काव्योंत को पढ़ते समय सहज ही उनसे छुटकारा पाना संभव नहीं है। मौके-मौके पर उनमें कोई-कोई ऐसी पंक्ति निकल आती है, जो हृदय को विदीर्ण किये बिना नहीं रहती। उसके मर्म को अच्छीं तरह समझ सकते हैं। उसे पूरी तरह से हृदयंगम करने की कोशिश कीजिये, पर वह भागकर दूर हट जायेगा। उसका नाम बहुत ठीक रखा गया है। 'हेरस्कोकव' शब्दत ही इस बात का सूचक है। “लोमोनोसोव के काव्योंक को पूनिन इसलिए दोषयुक्ती समझता था कि उसकी शैली बहुत ही सरल एवं स्वअतंत्र है। डर्जहेविन के प्रति उसका भाव प्राय: शत्रुतापूर्ण था। उसके बारे में वह कहा करता था कि उसे कवि की अपेक्षा भाट कहना अधिक उपयुक्तत है। हमारे घर में साहित्या एवं काव्यर की ओर कुछ भी ध्याहन नहीं दिया जाता था। सिर्फ इतनी ही बात नहीं थी, बल्कि कविता और खासकर रूसी भाषा की कविता बिल्कुषल गंवारू और खोटी समझी जाती थी। मेरी दादी तो इसे कविता न कहकर महज तुकबंदी कहा करती थीं कि इस प्रकार की तुकबंदियों का प्रत्येाक रचयिता या तो कोई पुराना पियक्क ड़ होगा, या पक्काि धूर्त। इस प्रकार की भावनाओं में पाले-पोसे गये मेरे जैसे बालक के लिए यह स्वुभाविक था कि या तो मैं पूनिन से ऊबकर उससे अलग हो जाऊं (वह बेढंगा और मैला-कुचैला रहा करता था, जो मेरे उच्च वं‍शोचित स्वहभाव के सर्वथा विरूद्ध था) या फिर उसके द्वारा आकर्षित एवं मुग्धा होकर मैं उसका अनुकरण करने लगूं और उसके समान कविता-प्रेमी बन जाऊं... आखिर हुआ भी ऐसा ही। मैं भी कविता पढ़ने लग गया, या जैसा मेरी दादी कहा करती थीं, तुकबंदियों में गर्क रहने लगा... मैंने छंद-रचना की चेष्टार की और एक पद्य बना भी डाला, जिसमें एक बाजे का वर्णन किया गया था-

मंजु मनोहर ढपली की तु राग लेउ सुनि,

कैसी सुंदर लगै तासु मंजीर-प्रतिध्व,नि।

मेरे इस प्रयत्नत में जो एक प्रकार की अनुकरणनात्मचक लय थी, उसकी पूनिन ने सराहना की, किन्तुब कविता के विषय को निम्नज-कोटि का एवं संगीत के अयोग्य समझकर उसे नापसंद किया।

हाय ! हमारे वे सारे प्रयत्नो, भावावेश एवं हर्षोल्लाकस, हमारा वह एकान्तद पठन-पाठन, हमारा वह एकान्तत जीवन, हमारी वह कविता-इन सबका अचानक अंत हो गया ! वज्रापात की तरह हम पर एकाएक विपत्ति टूट पड़ी।

मेरी दादी हरेक चीज में स्ववच्छ-ता एवं व्योवस्था् पसंद करती थीं, ठीक उसी तरह, जैसा उन दिनों क्रियाशील सेनापति किया करते थे। हमारे बगीचे में भी सफाई और व्ययवस्था् का होना जरूरी था, इसलिए समय-समय पर उसमें गरीब किसानों को-जिनके कोई परिवार नहीं था, न जमीन, न कोई अपना माल-मवेशी-और घर के नौकरों में उन आदमियों को, जो कृपा-पात्र नहीं रहे थे, या बुढ़ापे के कारण अयोग्ये करार दिये गये थे, खदेड़कर लाया जाता था और उन्हें रास्तों् को साफ करने, किनारे के घास-पात को उखाड़ने, क्या-रियों में मिट्टी फोड़ने तथा इसी तरह के दूसरे कामों में लगा दिया जाता था। एक दिन जब ये सब काम हो रहे थे, मेरी दादी बगीचे में गईं, और अपने साथ मुझे भी लेती गईं। चारों ओर वृक्षों के बीच और सब्जियों के अगल-बगल हमें सफेद, लाल और नीले रंग के कुरते दीख पड़े। सभी तरफ हमें कुदालों से छीलने और उसके झनझनाते तथा तिरछी चलनियों में मिट्टी के ढेलों के गिरने की आवाज सुनाई पड़ी। मजदूरों के पास से होकर जब मेरी दादी गुजर रही थीं, उन्होंीने अपनी तीक्ष्णक दृष्टि से फौरन देख लिया कि एक मजदूर औरों की अपेक्षा मंद गति से काम कर रहा था और उसने किसी प्रकार की उत्सु कता प्रकट किये बिना ही मेरी दादी के सम्मातनार्थ अपनी टोपी उतार ली। वह युवक अभी बिल्कुतल नौजवान था, उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, आंखे ज्योटतिहीन और धंसी हुई थीं। उसका सूती कुरता बिल्कुनल फटा हुआ था और इधर-उधर थिंगले लगे हुए थे। उसके दुबले कंधों पर कदाचित ही वह कुरता बैठता था।

“वह कौन है ?” मेरी दादी ने फिलिप्पिच से, जो उनके पीछे-पीछे उनके प्रश्नह की बाट जोहता हुआ जा रहा था, पूछा।

“किसके...बारे में...हूजूर ने फरमाया ?” फिलिप्पिच रूक-रूककर बोला।

“अरे मूर्ख, मेरा मतलब उस आदमी से है, जो मेरी ओर उदास-भाव से देख रहा है। वह-जो सामने खड़ा है और काम नहीं कर रहा है।”

“वह ! जी...व...ह...वह पावेल का, जो अब मर चुका है, लड़का यरमिल है।”

पावेल अब से दस वर्ष पूर्व मेरी दादी के मकान में प्रधान खानसामा था। उसे मेरी दादी बहुत चाहती थीं, परंतु अचानक वह उनकी नजर में गिर गया और उसे उस काम से हटाकर चरवाहे के काम पर रख दिया गया। किंतु वहां भी वह बहुत दिनों तक नहीं रह सका। उसका दिन ब दिन पतन होता गया और वह कुछ समय तक दूर की एक छोटी झोंपड़ी में मुट्ठी भर आटे-दाल पर अपनी गुजर करता रहा। आखिर लकवे की बीमारी से उसकी मृत्युम हो गई। वह अपने पीछे परिवार को बिल्कु ल दीन दशा में छोड़ गया।

“अच्छाे !” मेरी दादी ने उसकी आलोचना करते हुए कहा, “यह साफ मालूम पड़ता है कि बेटा भी अपने बाप के गुणों पर जा रहा है। हमें इस आदमी के लिए भी कोई इंतजाम करना होगा। मुझे ऐसे आदमी की जरूरत नहीं है।”

मेरी दादी लौटकर चली गईं और उन्होंमने उस आदमी के लिए इंतजाम किया। तीन घंटे के बाद यरमिल पूरे साज-सामान के साथ मेरी दादी के कमरे की खिड़की के नीचे लाया गया। वह अभागा लड़का यहां से दूसरी कोठी पर भेजा जा रहा था। जहां वह खड़ा था, वहां से कई कदम के फासले पर घेरे की दूसरी तरफ एक छोटी-सी गाड़ी उस गरीब के साज-सामान से लदी हुई खड़ी थी। वह जमाना ही ऐसा था। यरमिल नंगे सिर मुंह नीचा किये था, उसकी पीठ पीछे एक डोरी से बंधे हुए उसके जूते लटक रहे थे। उसका चेहरा महल की ओर था। उससे यह जाहिर नहीं होता था कि उसे किसी तरह की निराशा, शोक या घबराहट है। उसके सूखे होंठों पर एक पागलों की-सी मुस्कुतराहट थी। वह अपने ज्योितिहीन अर्द्धनिमीलित नेत्रों से पृथ्वीस की ओर एकटक देख रहा था। मेरी दादी को उसकी उपस्थिति की सूचना दी गई। वह आरामकुर्सी पर से उठीं और अपनी रेशमी साड़ी को धीरे से फड़फड़ाती हुई पढ़ने के स्थाईन की खिड़की तक गईं, और नाक के अग्र भाग पर सोने की कमानी वाले दुहरे शीशे के चश्मे को रखते हुए उन्हों ने उस नव-निर्वासित व्य क्ति की ओर दृष्टि डाली। उस समय उनके कमरे में और भी चार आदमी थे-खानसामा, बैबूरिन, दिन में मेरी दादी के पास रहने वाला एक लड़का और मैं।

मेरी दादी ने अपने सिर को ऊपर-नीचे हिलाया।

“श्रीमती जी !” दबी जबान में एकाएक आवाज सुनाई पड़ी।

मैंने इधर-उधर दृष्टि डाली। बैबूरिन का चेहरा लाल-एकदम लाल-हो रहा था। उसकी लटकती हुई भौंहों के नीचे प्रकाश की छोटी-छोटी तीक्ष्णच रेखाएं दीख पड़ती थीं...इसमें कोई संदेह नहीं कि बैबूरिन ने ही 'श्रीमती जी' शब्दछ का उच्चालरण किया था।

मेरी दादी ने भी अपनी नजर दौड़ाई और अपने चश्मेउ को यरमिल से बैबूरिन की तरफ फिराया।

“यह कौन बोलता है ?” उन्हों्ने धीरे-से नाक के स्व र बोलते हुए कहा। बैबूरिन खिसककर कुछ आगे आ गया।

“श्रीमती जी!” उसने कहना शुरू किया, “मैं ही वह व्य क्ति हूं...मैं...साहस...मैं ख्यारल... मैं श्रीमती जी से साहसपूर्वक यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस कार्रवाई में आप गलती कर रही हैं।”

“यानी?” मेरी दादी ने अपने चश्मेव को आंख पर से हटाये बिना ही उसी स्वहर में कहा।

“मैं यह कहना चाहता हूं...” बैबूरिन साफ-साफ प्रत्येवक शब्दस का यत्नंपूर्वक उच्चाारण करता हुआ बोला, “मैं उस लड़के के बारे में यह कह रहा हूं, जिसे बेकसूर दूसरी कोठी पर भेजा जा रहा है...। इस प्रकार के प्रबंध से...मैं साहस के साथ निवेदन करता हूं-असंतोष फैलता है, और-ईश्व र न करे...इसके अन्या परिणाम भी हो सकते हैं। इसके सिवा ऐसा करना बड़े-बड़े मालिकों को जो अधिकार दिये गए हैं, उनका दुरूप्रयोग करना है।”

“अच्छाप जनाब, आप यह तो फरमाइये कि आपने तालीम कहां पाई ?” दादी ने कुछ समय मौन रहने के बाद पूछा और अपने चश्मेक को नीचे उतारकर रख दिया।

बैबूरिन हतप्रभ-सा हो गया।”क्यार फरमाया श्रीमती जी ने ?” उसने बड़बड़ाते हुए कहा।

“मैं तुमसे पूछती हूं, तुमने कहां तालीम पाई है? तुम शब्द? तो ऐसे विद्वत्ता़पूर्ण इस्तेकमाल करते हो !”

“मैं...जी, मेरी शिक्षा...” बैबूरिन ने कहना शुरू किया। मेरा दादी ने घृणासूचक भाव में अपने कंधे को हिलाया।

"मालूम होता है”, उन्होंरने बीच में ही बात काटकर कहा, “तुम्हें मेरा इंतजाम ठीक नहीं जंचता, पर इससे मुझे कोई सरोकार नहीं, क्योंशकि अपनी रैयत के बीच मैं ही सर्वेसर्वा हूं और उनके लिए किसी के सामने जवाबदेह नहीं। लोग मेरी बातों में दखल दें और मेरे कामों की मेरे सामने ही आलोचना करें, इसे सहन करने की आदत नहीं। मुझे अज्ञात कुलशील विद्वान् परोपकारी व्‍‍यक्तियों की जरूरत नहीं है। मैं ऐसा नौकर चाहती हूं जो बिना किसी हील-हुज्जवत के मेरी मर्जी के मुताबिक काम करे। तुम्हाैरे यहां आने के पहले से मैं बराबर इसी तरह से रहती आयी हूँ और आगे भी ऐसे ही रहूंगी। तुम मेरे लायक आदमी नहीं हो, इसलिए बर्खास्त किये जाते हो। निकोलाई स्टोगनेव...” मेरी दादी ने कारिंदा की ओर मुखातिब होकर कहा, “इस आदमी का वेतन चुका दो, जिससे यह आज खाने के वक्त. से पहले ही यहां से रूखसत हो जाय। सुना न ? मुझे गुस्सात मत दिलाओ। दूसरा आदमी भी...यानी वह मूर्ख, जो उसके साथ रहता है, उसे भी यहां से रवाना कर देना चाहिए। यरमिल यहां क्यों ठहरा हुआ है ?” खिड़की के बाहर देखती हुई वह बोलीं, “मैंने उसे देख लिया है। अब और वह क्याय चाहता है ?” मेरी दादी ने खिड़की की तरफ अपने रूमाल को हिलाया, मानो वह किसी भिनभिनाती मक्खीब को दूर भगाना चाहती हों। इसके बाद वह कुर्सी पर बैठ गईं और हम लोगों की तरफ देखकर रूखे स्वभर में बोलीं-”इस कमरे के सब आदमी बाहर चले जायं !”

हम सबके सब उस कमरे से बाहर निकल आये, सिर्फ वह लड़का नौकर रह गया, क्योंलकि दादी की निगाह में वह तो कोई आदमी था ही नहीं।

मेरी दादी की आज्ञा का अक्षरश: पालन किया गया। कलेवे के पहले ही बैबूरिन और पूनिन दोनों वहां से विदा हो रहे थे। यहां मैं अपने शोक, अपनी अकृत्रिम, सच्चीि बालोचित निराशा के भाव वर्णन करूंगा। मेरे मन में प्रजातंत्रवादी बैबूरिन के इस साहसिक कार्य द्वारा रौब भरी प्रशंसा का जो प्रबल भाव उत्पमन्नह हुआ था, वह भी मेरे इस निराशा तथा खेद के भाव के सामने फीका पड़ गया। मेरी दादी के साथ बातचीत करने के बाद बैबूरिन फौरन अपने कमरे में चला गया और अपना असबाब बांधने लगा। यद्यपि मैं बराबर उसके आसपास चक्क र काटता रहा, या दरअसल पूनिन के चारों ओर चक्कनर काटता रहा, किंतु फिर भी बैबूरिन ने एक बार मेरी ओर देखने या एक शब्दन भी बोलने की कृपा नहीं की। पूनिन भी बिल्कु ल घबराया हुआ था और वह भी कुछ नहीं बोला, पर उसकी दृष्टि बराबर मेरी तरफ थी। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे... वे न तो नीचे गिरते थे और न सूखने ही पाते थे। वह अपने संरक्षक के कार्य की आलोचना करने का साहस नहीं कर सकता था-उसकी दृष्टि में बैबूरिन कोई गलती कर ही नहीं सकता था, किंतु दु:ख एवं निराशा का क्या् कहना ! पूनिन और मैंने 'रोजिएड' काव्यन से अन्तिम बार कुछ पढ़ने की चेष्टा की। हम दोनों ने गोदाम में अपने को बन्दे कर लिया- बगीचे में जाने का स्वनप्न देखता तो व्यकर्थ था, किन्तु एक पंक्ति भी पढ़ नहीं पाये कि दोनों फूट-फूटकर रोने लगे। मेरी तो हिचकी बंध गई, यद्यपि उस समय मेरी अवस्था, बारह वर्ष की थी और मैं वयस्क होने का दावा करता था!

गाड़ी में बैठने के बाद बैबूरिन आखिर मेरी तरफ मुखातिब हुआ और अपने चेहरे की स्व भाविक कठोरता को कुछ मुलायम करके बोला, “हे भद्र युवक, तुम्हामरे लिए इसमें एक नसीहत है। इस घटना को याद रखना और बड़े होने पर इस प्रकार के अन्या्यपूर्ण कार्य को बंद करने की कोशिश करना। तुम्हा रा हृदय अच्छा है, तुम्हाररा स्व भाव अभी दूषित नहीं हुआ है...खबरदार, सावधान हो जाओ। इस तरह की बातें बहुत दिन नहीं चल सकती।”

उस समय, जब मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होकर मेरी नाक, होंठ और ठुड्ढी को भिगो रहे थे, मैंने लड़खड़ाते स्व र में कहा, “मैं याद रखूंगा”, मैंने वादा किया, “मैं करूंगा-निश्चखय करूंगा।”

किन्तुा इसी समय पूनिन, जिसका मैंने इससे पहले बीसियों बार आलिंगन किया था (मेरे कपोल उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी के संसर्ग से जल रहे थे और उसके शरीर की गंध भी मेरे शरीर में व्याथप गई थी) एकाएक पागल जैसा हो गया। वह गाड़ी पर अपनी जगह से उछल पड़ा और दोनों हाथों को ऊपर उठाकर बहुत ही ऊंचे स्व।र में निम्न लिखित भजन का पाठ करने लगा-

हे अखिलेश ! दीनजन रक्षक, सुनो हमारी टेर,

अत्याचारी बढ़े जगत में, करो न अब तुम देर।

आर्त्तल स्वीर से पीड़ित जनता तुमको रही पुकार।

बैबूरिन ने कहा, “बैठ जाओ, बैठ जाओ !”

पूनिन बैठ गया, पर फिर भी वह कहता ही रहा-

दुष्ट लोग करते ही जाते नितप्रति अत्यारचार;

निरपराध दुखि:त जीवों का कौन करे उद्धार ?

'दुष्टु' शब्दौ का प्रयोग करते समय पूनिन ने मेरी दादी के महल की ओर इशारा किया और फिर गाड़ी हांकने वाले की पीठ में उंगली लगाता हुआ बोला-

आकर शीघ्र यहां उन दासों के बंधन दो काट;

ये अज्ञानी पीडि़त जन हैं इन्हें न सूझे बाट।

इसी समय मेरी दादी का कारिंदा निकोलाई ऐंटोनोव महल से बाहर निकला और उसने बड़े जोर-से चिल्लायकर गाड़ीवान से कहा, “चलो-चलो, भागो यहां से ! उल्लू कहीं का ! अभी तक क्यों ठहरा हुआ है?”

गाड़ी चल दी, पर दूर से अब भी यह ध्वहनि सुनाई पड़ रही थी-

हे जगदीश ! न्‍याय करने को आओ यहां तुरंत;

अन्यादयी दल के अत्या‍चारों का करने अन्तत।

अधिक कहां तक कहे ! हमारी यही प्रार्थना आज;

अखिल विश्वत-मानव-समाज पर तेरा ही हो राज !

निकोलाई एंटोनोव ने कहा, “कैसा गंवार है!”

छोटे पादरी ने, जो उस समय मालकिन से यह दर्याफ्त करने आया था कि मालकिन साहिबा को रात की प्रार्थना के लिए कौन-सा समय उपयुक्त होगा, कहा, “मालूम होता है कि लड़कपन में इसकी पीठ पर डण्डे् अच्छीज तरह नहीं पड़े।”

उसी दिन मुझे यह मालूम हुआ कि यरमिल अभी तक गांव में ही है और कुछ कानूनी कार्रवाई करने के लिए दूसरे दिन सुबह से पहले शहर नहीं भेजा जायेगा। इन कानूनी विधियों का अभिप्राय तो यह था कि मालिकों की स्वेुच्छाहचारिता पूर्ण कार्यवाहियों पर नियंत्रण रखा जाय, पर उल्टे इससे उनकी निगरानी करने वालों को कुछ ऊपरी आमदनी हो जाया करती थी। मैंने यरमिल को ढूंढ निकाला और उसके पास पहुंचकर उसके हाथ में एक पुलिंदा रख दिया, जिसमें मैने दो जोड़ी रूमाल, एक जोड़ा स्ली पर-जूता, एक कंघी, एक पुराना रात में पहनने का चोगा और एक बिल्कुएल नया रेशमी गुलूबंद बांध दिया गया था। रूपये-पैसे तो मेरे पास कुछ थे नहीं, जो उसे दे देता। यरमिल को मुझे सोते से जगाना पड़ा। वह गाड़ी के पास पीछे के आंगन में पुआल के ढेर पर लेटा हुआ था। उसने मेरे उपहार को उदासीन भाव से, थोड़ी हिचकिचाहट के साथ, स्वी कार किया; पर उसने मुझे धन्येवाद भी नहीं दिया और फौरन अपने सिर को पुआल में छिपाकर फिर सो गया। मैं कुछ निराश-सा होकर घर लौटा। मैंने सोचा था कि वह मेरे आगमन पर विस्मित एवं प्रफुल्लित हो उठेगा और मेरे इस उपहार को भविष्यन के लिए मेरे उदार संकल्पोंम की प्रतिज्ञा के रूप में देखेगा, किंतु इस सबकी जगह...

“आप चाहे जो कुछ कहें... किंतु इन लोगों में सहृदयता का अभाव है।” घर जाते हुए मेरे मन में यही विचार उठ रहा था।

मेरी दादी ने, किसी कारण वंश, मुझे उस दिन बिल्कुअल निश्चिंत छोड़ दिया था। रात में खाना खा चुकने के बाद, जब मैं उसे नमस्का र करने आया तो उसने मेरी ओर संदिग्ध दृष्टि से देखा, फिर फ्रांसीसी भाषा में कहा, “तुम्हाोरी आंखे सुर्ख मालूम होती हैं और तुम्हाटरे शरीर में किसानों की झोंपड़ी की गंध आ रही है। तुम जो कुछ सोच रहे हो और कह रहे हो, उसकी मैं जांच-पड़ताल नहीं करूंगी। मैं तुम्हेंी दण्डक देने के लिए अपने को मजबूर नहीं करना चाहती, किंतु मुझे आशा है कि तुम अपनी सारी मुर्खता को छोड़ दोगे और एक बार फिर कुलीन घर के लड़के की तरह आचरण करने लगोगे। खैर, हम लोग शीघ्र मास्कोर वापस लौट रहे हैं। मै वहां तुम्हाररे लिए एक शिक्षक नियुक्तक कर दूंगी; क्योंमकि मैं देखती हूं कि तुम्हें ठीक रास्ते पर लाने के लिए एक शक्तिशाली पुरूष की जरूरत है। अच्छाम, इस समय जा सकते हो।”

इसके बाद दरअसल जल्दी, ही हम लोग मास्को लौट गये।