भाग 2 / स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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1837

सात साल बीत गये। उस समय हम लोग पहले के समान ही मास्‍को में रहते थे। किंतु अब मैं एफ0ए0 के दूसरे साल का विद्यार्थी था और मेरी दादी की, जो गत कई वर्षों से प्रत्‍यक्ष रूप में वृद्धा जान पड़ने लगी थीं, हुकूमत का भार मेरे ऊपर अब पहले जैसा नहीं रह गया था। मेरे जितने साथी छात्र थे, उनमें टारहोव नामक एक सुशील एवं प्रसन्‍न-हृदय नवयुवक था, जिसके साथ मेरी घनिष्‍ठता हो गई थी। हम दोनों के स्‍वभाव और रूचि में समानता थी। टारहोव कविता-प्रेमी था और स्‍वयं भी कविताएं लिखा करता था। मेरे हृदय क्षेत्र में पूनिन ने कविता के जो बीज बोये थे, वे निष्‍फल नहीं गये। जैसा कि नवयुवकों में- जो आपस में जिगरी-दोस्‍त होते हैं- बहुधा हुआ करता है, हम दोनों में कोई बात ऐसी नहीं थी, जो गुप्‍त हो। किंतु आश्‍चर्य तो मुझे जब हुआ, जब मैने टारहोव में कुछ दिनों तक लगातार एक प्रकार की उत्‍तेजना और विक्षोभ का भाव देखा। एक दिन वह घंटो के लिए गायब हो गया और मुझे यह भी नहीं मालूम हुआ कि वह गया कहां। इस तरह की घटना इससे पहले कभी नहीं हुई थी। मै, एक मित्र के नाते उससे इसकी पूरी कैफियत मांगने जा रहा था पर मेरे इस भाव को वह पहले ही ताड़ गया।

एक दिन मैं उसके कमरे में बैठा हुआ था। वह अचानक आ गया और आनंदपूर्वक सकुचाते हुए तथा मेरे चेहरे की ओर देखते हुए बोला, “मैं अपनी कवितादेवी से तुम्‍हारा परिचय कराऊंगा।”

“तुम्‍हारी कवितादेवी ? किस अजीब ढंग से तुम बातें करते हो ? प्राचीन पंडितों की तरह। तुम्‍हारी कविता ?” मैंने इस ढंग से कहा, मानो मुझे इस विषय में कुछ भी पता न हो। “क्‍या तुमने कोई नई कविता लिखी है या और कुछ ?”

“तुम नहीं समझते कि मेरे कहने का आशय क्‍या है।” टारहोव ने अपने पूर्व कथन को दुहराते हुए कहा। अब तक वह हंस ही रहा था और सकुचाया हुआ भी था। “ मैं एक सजीव कविता से तुम्‍हारा परिचय कराऊंगा।”

“अ-हा-हा ! अब आई समझ में ! किंतु वह तुम्‍हारी कैसे हुई ?”

“क्‍यों...चूंकि, अच्‍छा भाई, चुप ! मालूम होता है, देवीजी यहीं आ रही हैं।”

तेजी से चलती हुई पैरों की धीमी आवाज सुनाई पड़ी, दरवाजा खुला, और वहां अठारह वर्ष की एक बालिका आ उपस्थित हुई। वह छींट का एक सूती चोगा पहने हुई थी। कंधे पर एक काला कपड़ा पड़ा हुआ था और उसके सुन्‍दर घुंघराले बालों पर काले रंग की घास की टोपी शोभा पा रही थी। मुझे देखकर वह कुछ डर सी गई, घबराई और पीछे की ओर लौटना ही चाहती थी कि टारहोव फौरन दौड़कर उससे मिलने के लिए आगे बढ़ा।

“ओ देवी जी, कृपया भीतर पधारिये। यह मेरे एक बड़े दोस्‍त हैं, बड़े अच्‍छे आदमी हैं, बड़े विचारवान हैं। तुम इनसे डरो मत।” फिर मेरी ओर मुखातिब होकर उसने कहा, “आओ, तुम्‍हारा मैं अपनी मानसी से-मूसा पेवलोवना विनाग्राडोव से-परिचय कराऊं। आप मेरी एक अच्छी मित्र हैं।”

मैनें सिर झुकाकर उसका अभिवादन किया।

“आपका यह नाम...मानसी...?” मैंने कहना शुरू ही किया था कि टारहोव हंस पड़ा और बोला, “अहा ! तुम नहीं जानते कि पत्र में यह नाम भी पाया जाता है ! मैं भी उस वक्‍त तक नहीं जानता था जब तक इस युवती के साथ मेरी मुलाकात नहीं हुई। मानसी? कितना मोहक नाम है, और यह नाम इनको फबता भी खूब है।”

मैंने फिर अपने साथी के मित्र का अभिवादन किया। वह दरवाजे से हटकर दो कदम आगे आई और चुपचाप खड़ी हो गई। उसका रूप बड़ा आकर्षक था किंतु मैं टारहोव के मत से सहमत नहीं हो सका और मन ही मन सोचने लगा, “यह तो ए‍क अजीब ढंग की कविता है।”

उसके गुलाबी चेहरे से सुकुमारता टपक रही थी और उसके अंग-प्रत्‍यंग से नवयौवन की उमंग फूटी पड़ती थी। पर कविता के संबंध में, कवितादेवी के मूर्तिमान स्‍वरूप के संबंध में, मेरी-और मेरी ही क्‍यों, उस समय के सब युवकों की-धारणा कुछ और ही थी। पहली बात तो यह थी कि कविता-कामिनी का कृष्‍णकेशी और पीतमुखी होना आवश्‍यक था। घृणाव्‍यंजन अहंकार की अभिव्‍यक्ति, तीक्ष्‍ण हास्‍य, उत्‍प्रेरित करने वाले कटाक्ष और एक प्रकार की रहस्‍यमयी पैशाचिक अदृष्‍टपूर्ण 'वस्‍तु'- ये बातें बायरन-शैली की कविता-कामिनी के लिए आवश्‍यक थीं। उस बालिका के मुखमंडल पर इस प्रकार का कोई भी भाव दिखाई नहीं देता था। यदि मैं कुछ और वयस्‍क और अनुभवी होता तो शायद मैं उसकी उन आंखों की ओर विशेष ध्‍यान देता, जो छोटी-छोटी होने पर भी सुगठित पलकों से भरी हुई, सुलेमानी पत्‍थर जैसी काली, चंचल एवं ज्‍योतिपूर्ण थीं। भूरे बाल वाली स्त्रियों में इस तरह की आंखें कदाचित ही देखी जाती हैं।

उसके उन लाल लोचनों के मायावी कटाक्षों में, जिनसे एक व्‍यग्र आत्‍मा के-इतनी व्‍यग्र कि वह आत्‍म-विस्‍मरण की अवस्‍था को प्राप्‍त हो चुकी थीं- लक्षण व्‍यक्‍त होते थे, संभव है कि मुझे कवित्‍वमयी प्रवृत्तियों का आभास न मिलता, पर उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। मैंने मानसी की ओर अपना हाथ बढ़ाया, किंतु उसने अपना हाथ मेरी ओर नहीं बढ़ाया। उसने मेरी इस क्रिया को देखा ही नहीं। वह उस कुर्सी पर बैठ गई, जिसे टारहोव ने उसके लिए वहां रख दिया था, लेकिन उसने अपनी टोपी और कंधे पर का कपड़ा नीचे नहीं उतारा।

वह देखने में कुछ बेचैन-सी मालूम पड़ती थी। मेरी उपस्थित ने तो उसे और भी व्‍यग्र बना दिया था। वह रह-रहकर इस प्रकार गहरी सांस लेती थी, मानो हांफ रही हो।

“ब्‍लाडीमीर निकोलेच, मैं तुम्‍हारे पास सिर्फ एक मिनट के लिए आई हूं,” वह बोली। उसका कंठ स्‍वर कोमल एवं गम्‍भीर था, जो उसके बालोचित लाल अधरों से कुछ विस्‍मयजनक-सा प्रतीत होता था, “क्‍योंकि मेरी मां मुझे आधे घंटे से अधिक बाहर नहीं रहने देती। अभी परसों तुम अच्‍छे नहीं थे...इसलिए मैंने सोचा...”

इतना कहकर वह रूक गई और अपने सिर को नीचा कर लिया। उसकी घनी झुकी भौंहों के नीचे उसकी काली-काली आंखे इस प्रकार आगे-पीछे हो रही थीं, मानो वे छलपूर्वक तीर चला रहीं हों, जिस तरह मछलियां पानी में सट-से इधर-से-उधर चली जाती हैं।

“मानसी ! आपने बड़ी कृपा की !” टारहोव ने जोर से कहा, “किंतु थोड़ा तो और ठहरिये। अभी-अभी चाय आई जाती है।”

“नहीं, यह असम्‍भव है। मुझे अभी एक मिनट में यहां से चल देना है।”

“फिर भी थोड़ी देर सांस तो ले ही लीजिये। अभी तक आप जोर-जोर से हांफ रही हैं...और थकी भी तो हैं।”

“मैं थकी नहीं हूं। नहीं...ऐसी बात नहीं...सिर्फ...मुझे दूसरी किताब दो। मैंने इसे खत्‍म कर डाला।” उसने अपनी जेब से मास्‍को-संस्‍करण की एक फटी हुई सी मटमैली किताब निकाली।

“दूसरी किताब जरूर लीजिये, पर यह तो बताइये कि क्‍या आपको यह किताब पसंद आई?”

टारहोव ने मुझे संबोधित करते हुए कहा, “रोसलालेव नामक पुस्‍तक का जिक्र है।”

मानसी ने कहा, “हां, किन्‍तु मेरे विचार से 'यूरी मिलोस्‍लेवेस्‍की' इसकी अपेक्षा कहीं अच्‍छा है। मेरी मां पुस्‍तकों के संबंध में बहुत कठोर हैं वह कहा करती हैं कि पुस्‍तकों से हमारे काम में बाधा पड़ती है, क्‍योंकि उसके ख्‍याल से...

“किन्‍तु मैं कहता हूं कि 'यूरी मिलोस्‍लेवेस्‍की' की रचना पुश्किन के 'जिप्‍सी' के समान नहीं है ? है न मानसी ?”

“नहीं, सचमुच? जिप्‍सी...” उसने धीरे-धीरे गुनगुनाकर कहा, “हाँ एक बात और है, ब्‍लाडीमीर निकोलेच, कल आप मत आइये...आप जानते ही हैं कि कहां ?”

“क्‍यों?”

“यह असंभव है।”

“असंभव क्‍यों ?”

उस बालिका ने अपने कंधे को सिकोड़ लिया और एकाएक मानो उसे अचानक धक्‍का लगा हो, वह कुर्सी पर से उठ खड़ी हुई।

“क्‍यों, मानसी देवी!” टारहोव ने करूण स्‍वर में कहा, “कुछ देर तो और ठहरो।”

“नहीं, मैं ठहर नहीं सकती।” वह जल्‍दी से दरवाजे के पास गई और दरवाजा खोलने की मूठ को पकड़ा।

“ अच्‍छा, कम-से-कम किताब तो लेती जाओ।”

“फिर कभी आऊंगी।”

टारहोव दौड़कर उस बालिका की ओर गया, किन्‍तु उस समय तक वह तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गई थी। टारहोव की नाक दरवाजे से टकराती-टकराती बची। “क्‍या अजीब लड़की है ! यह तो सर्पिणी जैसी है।” उसने कुछ खिन्‍न-सा होकर कहा और फिर चिन्‍ता-मग्‍न हो गया। मैं टारहोव के यहां ही ठहरा रहा। इन सब घटनाओं का मैं रहस्‍य जानना चाहता था। टारहोव भी किसी बात को गुप्‍त रखना नहीं चाहता था। उसने मुझे बताया कि वह बालिका कपड़े सीने का काम करती है। उसने पहले-पहल उसे तीन सप्‍ताह पूर्व एक सजी हुई दुकान पर देखा था। उस दुकान पर टारहोव अपनी बहन के लिए, जो दूसरे प्रान्‍त में रहा करता थी, एक टोपी खरीदने गया था। उस बालिका को प्रथम बार देखकर ही टारहोव उसके प्रति प्रेमासक्‍त हो गया। दूसरे दिन वह उससे बातचीत करने में सफल हुआ और ऐसा मालूम होता था कि वह बालिका भी उसे कुछ-कुछ चाहने लगी है।

टारहोव आवेश के साथ बोला, “किंतु इतने से ही कुछ न मान बैठना। मेरे प्रति कोई बुरा भाव मन मे न लाना। अब तक हम दोनों के बीच किसी प्रकार की कोई बात नहीं हुई है।”

“बुरा भाव !” मैंने उसी की बात को बीच में ही काटकर कहा, “मुझे इस विषय में कोई संदेह नहीं हैं और मुझे इस बात में भी शक नहीं है कि तुम हृदय से बात पर खेद प्रकट करते हो ! किंतु धीरज रखो, सब बातें अपने आप ठीक हो जायेंगी।”

“मैं भी ऐसी ही आशा करता हूं।” टारहोव ने हंसते हुए बड़-बड़ाकर कहा।” किंतु सचमुच वह लड़की...मैं तुमसे सच कहता हूं...वह एक निराले ही ढंग की है। तुम्‍हे उसे अच्‍छी तरह देखने का मौका नहीं मिला। वह लज्‍जाशील है! अहा! इतनी लज्‍जा-शील! उसकी इच्‍छाशक्ति कितनी प्रबल है। किन्‍तु उसके इस लज्‍जा-भाव पर ही तो मैं मुग्‍ध हूं। यह स्‍वतंत्रता का लक्षण है। अजी, मैं बिल्‍कुल उसके प्रेम में डूबा हुआ हूं।”

टारहोव अपनी उस 'जादूगरनी' के संबंध में चर्चा करने लगा और 'मेरी कवितादेवी' शीर्षक वाली एक कविता का प्रारंभिक भाग भी उसने मुझे पढ़कर सुनाया। उसके उमंग पूर्ण हृदयोच्‍छवास मुझे उतने अच्‍छे नहीं लगे। मैं गुप्‍तरूप से उसके प्रति ईर्ष्‍यान्वित हो गया और शीघ्र वहां से चला आया।

कई दिनों के बाद मैं मास्‍को के एक बाजार में होकर गुजर रहा था। उस दिन शनिवार था। झुण्‍ड-के-झुण्‍ड लोग खरीद फरोख्‍त कर रहे थे। चारों ओर लोगों की धक्‍का-मुक्‍की के बीच दूकानदार जोर-जोर से पुकारकर ग्राहकों को सौदा करने के लिए कह रहे थे। जो कुछ मुझे खरीदना था, खरीदकर मैं जल्‍द-से-जल्‍दी उन दूकानदारों की तंग करने वाली मिन्‍नतों से छुटकारा पाने की सोच रहा था कि इतने में मैं आप-ही आप रुक गया | फलों की एक दूकान पर मैंने अपने दोस्‍त की जादूगरनी मानसी को देखा। वह मेरी बगल की ओर खड़ी थी और ऐसा मालूम होता था, मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही हो। कुछ क्षणों की हिचकिचाहट के बाद मैंने उसके पास जाकर उससे बातचीत करने का निश्‍चय किया; किन्‍तु मैं दूकान के दरवाजे से होकर भीतर गया भी नहीं था और न अपनी टोपी उतारी थी कि इतने में वह उदास-सी होकर पीछे की ओर मुड़ी और जल्‍दी से एक बूढ़े आदमी की ओर, जो ऊनी लाबादा ओढ़े हुए था, घूम गई। उस समय उस बूढ़े को दूकानदार एक पौंड किशमिश तौलकर दे रहा था। उस लड़की ने बूढ़े की बांह पकड़ ली, मानो वह भागकर उसकी शरण में गई हो। उस बूढ़े ने पीछे की ओर मुड़कर उसे देखा। देखते ही मेरे आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। अरे! यह तो मेरा पूर्वपरिचित पूनिन है।

हां, वह जरूर पूनिन था। अब भी उसके वही ज्‍योतिर्मय नेत्र, मोटे अधर, कोमल नीचे की ओर झुकी हुई नाक-सब कुछ तो वही थे। इन सात वर्षों के अंदर उसमें बहुत कम परिवर्तन हुआ था। संभव है, उसका चेहरा कुछ शिथिल पड़ गया हो।

“निकंडर वेवीलिच !” मैं चिल्‍ला उठा, “क्‍या तुम मुझे नहीं पहचानते ?”

पूनिन चौंक उठा और मुंह फैलाकर मेरी ओर ताकने लगा...

“मैं आपको नहीं पहचानता,” यह कहना उसने शुरू किया ही था कि वह एकाएक तीक्ष्‍ण स्‍वर में चीख उठा, “ ट्राटस्‍की के छोटे बाबू ! (मेरी दादी की जायदाद ट्राटस्‍की नाम से मशहूर थी) क्‍या आप ट्राटस्‍की के छोटे बाबू तो नहीं हैं ?”

किशमिश उसके हाथ से नीचे गिर पड़ीं।

“हां, मैं ही हूं !” मैंने उत्‍तर दिया और किशमिश को जमीन से उठाकर उसे चूम लिया।

आनंद एवं उत्‍तेजना से अभिभूत वह बेदम सा हो रहा था। मालूम पड़ता था कि वह रो देगा। उसने अपनी टोपी उतार ली, जिससे मुझे अच्‍छी तरह मालूम हो गया कि उसके अंडाकार सफेद सिर में बाल के चिन्‍हृ मात्र भी शेष नहीं रह गये हैं। उसने अपनी टोपी से रूमाल निकालकर नाक साफ की। किशमिश के साथ उस टोपी को उसने अपनी छाती में लटकाकर रखा। फिर उस टोपी को पहन लिया और किशमिश फिर उसके हाथ से नीचे गिर पड़ीं।

मैं नहीं कह सकता कि इतने समय में मानसी क्‍या कर रही थी, क्‍योंकि मैंने उसकी ओर देखने की चेष्‍टा ही नहीं की थी। मैं नहीं समझता कि पूनिन के इस आवेश का कारण मेरे प्रति अतिशय स्‍नेह था। इसका कारण यही था कि उसका स्‍वभाव किसी साधारण से साधारण अप्रत्‍याशित घटना का आघात सहन नहीं कर सकता था। गरीबों का स्‍वभाव ही यह हुआ करता है कि उनके मस्तिष्‍क जल्‍दी उत्‍तेजित हो जाते हैं।

“मेरे प्‍यारे लड़के, आओ, हमारे घर चलो।” उसने कम्पित स्‍वर में कहा, “तुम हमारी दीन कुटिया में आने में अपनी हेठी तो नहीं समझोगे ? अच्‍छा तुम तो अभी विद्यार्थी ही हो...”

“हेठी की क्‍या बात है ! मुझे तो इससे सचमुच बड़ी प्रसन्‍नता होगी।”

“अब तो तुम स्‍वतंत्र हो ?”

“बिल्‍कुल।”

“ वाह भाई, खूब ! पारामन सेमोनिच को यह जानकर कितनी खुशी होगी ! आज वह और दिनों से पहले घर आयेगा और घर की मालकिन इस लड़की को भी शनिवार को छुट्टी दे देती हैं। हां क्षमा करो, मैं तो अपने को बिल्‍कुल भूल ही रहा था। तुम हमारी भतीजी को तो न जानते होगे ?”

मैंने फौरन उत्‍तर दिया कि अब तक मुझे उसे जानने का सौभाग्‍य प्राप्‍त नहीं हुआ है।

“ठीक-ठीक ! तुम उसे किस तरह जान सकते हो ! मानसी... महाशय, उस बालिका का नाम है... मानसी, मैं तुम्‍हारा मिस्‍टर... से परिचय कराना चाहता हूं...।”

मैंने अपना नाम झट से बतला दिया।

पूनिन ने मेरा नाम दोहराया, “ मानसी, ध्‍यान देकर सुना, तुम जिस व्‍यक्ति को अपने सामने देखती हो, वह बहुत ही अच्‍छा खुशदिल नवयुवक है। भाग्‍यवश हम दोनों का उस समय संयोग हुआ था, जब ये छोटे थे। तुम इन्‍हें अपना मित्र समझो।”

मैंने झुकर अभिवादन किया। मानसी का मुखमंडल बिल्‍कुल फूल जैसा लाल हो उठा। उसने अपनी पलकों के नीचे से ही मेरी ओर कटाक्षपात किया और फिर फौरन उन पलकों को गिरा दिया।

“आह !” मैंने मन में सोचा, “ तुम उन लड़कियों में से एक हो, जो कठिनाई की घड़ियों में भय से पीली नहीं पड़ती, बल्कि और भी निखर उठती हैं, यह बात खासकर ध्‍यान देने योग्‍य है।”

“तुम्‍हें इस पर जरा मेहरबान होना चाहिए, यह बहुत सभ्‍य बालिका नहीं है।” पूनिन ने कहा और वह दूकान के बाहर सड़क पर चला गया। मानसी और मैं दोनों उसके पीछे-पीछे हो लिये।

जिस मकान में पूनिन रहता था, वह बाजार से बहुत दूर था। रास्‍ते में मेरे भूतपूर्व काव्‍य-गुरू को अपने रहन-सहन के संबंध में बहुत-कुछ बातें मुझसे करने का समय मिल गया था। हम लोगों की जुदाई के बाद से पूनिन और बैबूरिन दोनों रूस में इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे और अभी एक वर्ष से अधिक नहीं हुआ था, जबकि उन्‍हें मास्‍कों में एक स्‍थायी निवास-स्‍थान मिला था। बैबूरिन एक धनी सौदागर और व्‍यवसायी के दफ्तर में हेडक्‍लर्क हो गया था। “ कुछ तरक्‍की की गुंजायश यहां है नहीं,” पूनिन ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “काम बहुत है और पारिश्रमिक थोड़ा...पर किया क्‍या जाय? इतना भी मिल गया, यही शुक्र है। मैं भी इस बात की कोशिश कर रहा हॅू कि कापी नकल करके और दूसरों को कुछ पढ़ा-पढू कर कुछ पैदा कर लिया करूं, पर अभी तक मेरे प्रयत्‍न सफल नहीं हुए। मेरी लिखावट, शायद तुम्‍हें याद होगा, पुराने ढंग की है जो आजकल की रूचि के प्रतिकूल है। रही ट्यूशन की बात, सो सबसे बड़ी बाधा ठीक-ठीक पोशाक का अभाव है। इसके सिवाय मुझे इस बात का भी ब‍हुत डर है कि शिक्षा देने में-रूसी साहित्‍य के विषय में-आधुनिक रूचि के अनुकूल नही हूं और इसलिए मैं निकाल दिया जाता हूं।” पूनिन ने हंसी रोकने की चेष्‍टा की, पर उसे कुछ हंसी आ ही गई। उसमें पहले जैसी पुरानी और कुछ-कुछ धाराप्रवाह वाणी तथा बोलते-बोलते कविता पर बैठने की दुर्बलता अब भी बनी हुई थी। थोड़ा रूककर उसने कहा, “ सब लोग नई बातों की ओर दौड़ा करते हैं-नवीनता के सिवा और कुछ चाहते ही नहीं।"

'नई नवेलिनि छांडि़ भला को लखे पुरानी ! '

मैं तो यहां तक कहूंगा कि तुम भी प्राचीन देवताओं के उपासक नहीं होगे और नवीन मूर्तियों के सामने श्रद्धा से नतमस्‍तक हो जाते होगे ?”

“अच्‍छा, निकेंडर वेवीलिच, यह तो बतलाओ कि क्‍या अब भी तुम सचमुच हेरास्‍कोव की रचनाओं की कद्र करते हो ?” पूनिन शान्‍त भाव से खड़ा रहा और फिर उसने अपने दोनों हाथों को फौरन हिलाते हुए कहा, “मैं बहुत ज्‍यादा उसकी कद्र करता हूं जनाब ! जी हां, पहले से भी कहीं ज्‍यादा।”

“तुम पुश्किन की रचनाओं को तो नहीं पढ़ते होंगे? तुम्‍हें पुश्किन भला क्‍यों लगा !” पूनिन फिर अपने हाथों को सिर से ऊपर उठाकर बोला।

“पुश्किन ? पुश्किन एक सांप की तरह है, जो घास के अंदर छिपा रहता है और जिसका स्‍वर बुलबुल जैसा मीठा है।”

जब हम दोनों इस तरह बातें करते हुए मास्‍को शहर की सड़क पर से होकर जा रहे थे, मानसी हमारी बगल में, कुछ दूर हटकर, धीरे-धीरे चल रही थी। पूनिन से उसके विषय में चर्चा करते हुए मैं उसे 'आपकी भतीजी' नाम से संबोधित कर रहा था। पूनिन कुछ देर तक चुप रहा, फिर सिर खुजलाते हुए उसने दबी जबान में बतलाया, “मै इसे यों ही शिष्‍टाचार में भतीजी' कहा करता हूं, वास्‍तव में मानसी से मेरा कोई संबंध नहीं है। बैबूरिन को यह एक अनाथ बालिका के रूप में बोरोनेज शहर में मिली थी और उसी ने इसे पाल-पोसकर बड़ा किया है। मैं इसे अपनी लड़की भी कह सकता हूं, क्‍योंकि मैं इसे अपनी सगी लड़की से कम प्‍यार नहीं करता।”

मुझे इसमें जरा भी शक नहीं था कि यद्यपि पूनिन ने जान-बूझकर दबी जबान में ये बाते कही थीं, लेकिन फिर भी मानसी ने उसकी सारी बातों को सुन लिया। य‍ह सब सुनकर तत्‍काल वह क्रुद्ध, लज्जित एवं हतप्रभ-सी हो गईं। उसके चेहरे पर बारी-बारी से इन भावों की रेखाएं दौड़ गईं और उसके पलक, भौंह, होंठ और नथुने कुछ-कुछ कांपने से लग गये। उसकी यह भाव-भंगिमा बड़ी ही मनोहर, आनंददायक एवं विलक्षण जान पड़ती थी।

आखिर हम लोग उस 'दीन कुटिया' में पहुंचे और सचमुच यह कुटिया दीन ही थी। वह एक छोटा सा इकतल्‍ला मकान था, जो ऐसा मालूम पड़ता था, मानों जमीन में धंसा जा रहा हो। उसकी छत लकड़ी की और झुकी हुई थी तथा सामने के हिस्‍से में चार तंग खि‍ड़कियां थीं। कमरों का समान बिल्‍कुल गरीबी के ढंग का था और वह साफ-सु‍थरा भी न था। खिड़कियों के बीच दीवारों पर लगभग एक दर्जन छोटे-छोटे काठ के पिंजड़े लटक रहे थे, जिनमें लार्क, कैनारी और सिस्किन पक्षी बंद थे।

“मेरे अध्‍ययन के विषय !” पूनिन ने उन पक्षियों की ओर अंगुली से इशारा करते हुए विजयोल्‍लास-सूचक स्‍वर में कहा। हम लोग मुश्किल से घर के भीतर गये होंगे और इधर-उधर देख भी नहीं पाये थे और पूनिन ने मानसी को चाय का प्‍याला लाने के लिए अभी भेजा ही था कि इतने में बैबूरिन खुद वहां पहुंच गया। वह मुझे पूनिन से भी वृद्ध मालूम हुआ, यद्यपि उसकी चाल-ढाल में अ‍ब भी पहले जैसी ही दृढ़ता थी और उसके मुखमंडल की अभिव्‍यक्ति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, पर इतने में वह दुबला-पतला हो गया था और झुक गया था। उसके गालों में गड्ढ़े पड़ गये थे और घने काले केशों में कहीं-कहीं सफेदी भी आ गई थी। उसने मुझे पहचाना भी या नहीं, इसे प्रकट नहीं किया। वह अपनी आंखों से मुस्‍कराया भी नहीं, सिर्फ अपना सिर हिला दिया। उसने मुझसे रूखे स्‍वर में लापरवाही के साथ पूछा, “क्‍या दादी जीवित है ?” बस, इतनी बात के सिवा वह और कुछ नहीं बोला। “मैं किसी रईस के आने पर विशेष प्रसन्‍न नहीं होता,” उसके चेहरे से यही भाव टपकता था, मानो वह कह रहा था, “ मैं इसे अपना सौभाग्‍य नही समझता।” सो प्रजातंत्रवादी बैबूरिन इस समय भी वही प्रजातंत्र वादी बना हुआ था।

मानसी वापस आई और उसके साथ-साथ एक नाटी-सी दुर्बल वृद्धा भी वहां आई, जिसके हाथ में एक दाग पड़ा हुआ पुराना चाय का प्याला था। पूनिन इधर-उधर दौड़-धूप करने लगा और मुझसे खाने के लिए आग्रह करने लगा। बैबूरिन मेज के पास बैठ गया और अपने सिर को हाथों के सहारे कर लिया। वह थकी-मांदी आंखों से इधर-उधर देखने लगा, किन्‍तु चाय पीने के समय उसने बातचीत करना शुरू कर दिया। वह अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्‍ट था। वह अपने मालिक को मनुष्‍य नहीं, एक 'रक्‍त-शोषक जीव' के रूप में समझता था। “निम्‍न श्रेणी के कर्मचारी उसके लिए कूड़े-करकट के सिवा और कुछ है ही नहीं। उसकी दृष्टि में उनकी कोई हस्‍ती ही नहीं, हालांकि वह खुद कुछ समय पहले इसी श्रेणी के बंधन में बंधा था। क्रूरता एवं लोलुपता के सिवा वह और कुछ जानता ही नहीं। यह परवशता सरकार की परवशता से भी बुरी है। यहां के सारे व्‍यापार ठगी पर चलते हैं और एकमात्र इसी के सहारे वे फूलते-फलते हैं।” इस प्रकार की निराशाजनक उक्तियों को सुनकर पूनिन ने प्रत्‍यक्ष रूप में गहरी सांस ली और अपनी स्‍वीकृति प्रकट की। फिर वह अपने सिर को नीचे-ऊपर और अगल-बगल हिलाने लगा। मानसी इस समय बिल्‍कुल निस्‍तब्‍ध बनी हुई थी। मेरे बारे में उसे शक था, “ क्‍या यह कोई बुद्धिमान आदमी है या निरा बकवासी ?” इस विचार के कारण वह चिढ़ी हुई जान पड़ती थी। उसकी अर्धनिमीलित पलकों के नीचे उसके काले चंचल नेत्र आगे-पीछे स्फुरित हो रहे थे। सिर्फ एक बार उसने मेरी ओर देखा होगा, किंतु उसकी उस दृष्टि में जिज्ञासा थी, अनुसंधान था, और दुष्‍टता थी... मैं खुद भी चकित हो रहा था। बैबूरिन कदाचित ही उससे कभी कुछ बोलता था, किंतु जब कभी वह उसे पुकारता था, उसकी आवाज में वात्‍सल्‍य भरी कोमलता के बदले कठोरता-सी ही मालूम पड़ती थी।

इसके विपरित पूनिन मानसी के साथ बराबर मजाक कर रहा था, वह उसका जवाब इच्‍छा न रहते हुए भी दिया करती थी। पूनिन उसे छोटी 'हिमकुमारी', 'लघुहिम-कुण्‍ड' कहता था।

“तुम मानसी को इन नामों से क्‍यों पुकारते हो ?” मैंने पूछा।

पूनिन हंस पड़ा। बोला, “क्‍योंकि वह ऐसी ही एक छोटी सर्द चीज है।”

“होश में आओ और ऐसे बोलो”, बैबूरिन ने कहा, “जैसा कि एक नवयुवती के लिए उपयुक्‍त है।”

“हम उसे घर की मालकिन कह सकते हैं।” पूनिन बोल उठा, “क्‍यों भाई परोमन सेमोनिच?” बैबूरिन ने अपनी त्‍यौरी बदली। मानसी वहां से खिसक गई। मैंने उस समय उसके इस इशारे को नहीं समझा।

इसी तरह दो घण्‍टे ज्‍यों-त्‍यों बीत गये। इस बीच पूनिन ने इस सम्‍माननीय गोष्‍ठी को प्रसन्‍न करने का भरसक प्रयत्‍न किया। मसलन वह एक कनारी पंक्षी के पिंजड़े के सामने जमीन पर बैठ गया और पिंजड़े के दरवाजे को खोलकर पुकारा, “आओ, गुम्‍बद पर बैठ जाओ। गाना शुरू कर दो।” कनारी फौरन पिंजड़े से फड़फड़ाकर बाहर निकल आई और गुम्‍बद पर बैठ गई। वह गुम्‍बद पूनिन के गंजे सिर के सिवा और कुछ न थी। उस पर बैठकर एक तरफ से दूसरी तरफ झूमती हुई और अपने नन्‍हें-नन्‍हें पंखों को झुलाती हुई उसने पूरे जोश खरोश के साथ गाना शुरू किया। जब तक यह गाना होता रहा, पूनिन बिल्‍कुल निश्‍चल बना हुआ बैठा रहा। सिर्फ वह अपनी आंखों को आधा मूंदे हुए अंगुली से इशारा करता जाता था। मैं यह सब देखकर हंसी नहीं रोक सका, किंतु बैबूरिन या मानसी किसी को जरा भी हंसी नहीं आई।

जब मैं वहां से विदा हो रहा था, ठीक उसी समय बैबूरिन ने एक प्रश्‍न पूछकर, जिसकी मुझे कोई आशा न थी, मुझे आश्‍चर्य में डाल दिया। उसने कहा, “आप तो विश्‍वविद्यालय के छात्र हैं। मैं जानना चाहता हूं कि 'जीनो' किस किस्‍म का आदमी था और उसके संबंध में आपके क्‍या विचार हैं?”

'जीनो ? कौन जीनो?” मैंने कुछ घबराकर पूछा।

“प्राचीन काल का संत जीनों। आप अवश्‍य ही इस नाम से अपरिचित न होंगे ?”

स्‍टोयिक-पंथ (वैराग्‍यवाद) के प्रतिष्‍ठापक के रूप में जीनो का नाम मुझे कुछ-कुछ स्‍मरण हो आया। किंतु मैं इससे अधिक उसके संबंध में रत्ती भर भी नहीं जानता था।

“हां, वह एक दार्शनिक था।” मैंने कहा।

“जीनो”, बैबूरिन ने विचारपूर्ण स्‍वर में फिर कहना शुरू किया, “एक ऐसा बुद्धिमान मनुष्‍य था, जिसका कथन था कि कष्‍ट सहन करना कोई पाप नहीं है, क्‍योंकि सहनशीलता सभी वस्‍तुओं पर विजय प्राप्‍त करती है, और इस संसार में अच्‍छी चीज एक ही है, वह है न्‍याय। पुण्‍य भी न्‍याय के सिवा और कुछ नहीं है।”

पूनिन श्रद्धापूर्वक इन बातों को सुन रहा था।

बैबूरिन कहता गया, “एक आदमी ने, जो यहां रहता था और जिसने ब‍हुत-सी पुरानी किताबें संग्रह कर रखी थीं, मुझे यह उपदेश बताया था और इससे मुझे बड़ी प्रसन्‍नता हुई। किन्‍तु मैं देखता हूं कि तुम्‍हें इन विषयों में दिलचस्‍पी नहीं मालूम होती।”

बै‍बूरिन का कहना ठीक था। इन विषयों में निश्‍चय ही मेरी रूचि नहीं थी। जब से मैंने विश्‍वविद्यालय में प्रवेश किया था, मैं उसी प्रकार प्रजातंत्रवादी बन गया था, जैसा कि बैबूरिन। मिराबो और रोब्‍सपीयर के संबंध में मैं पूरी दिलचस्‍पी के साथ बातें करता, खासकर रोब्‍सपीयर...! मेरे लिखने की मेज के ऊपर फोकियर टिनवेली और चेलियर की तस्‍वीरें लटक रही थीं। किन्‍तु जीनो ? जीनो कहां से बीच में आ कूदा ! मुझे विदा करते हुए पूनिन ने मुझसे आग्रह किया कि कल रविवार को फिर हमारे घर आना। बैबूरिन ने मुझे आने के लिए निमंत्रण नहीं दिया, बल्कि घुनघुनाकर बोला, “सीधे-सादे अज्ञात कुलशील मनुष्‍यों से बातें करना आप जैसे आदमी के लिए विशेष आनन्‍ददायक नहीं हो सकता और खासकर आपकी दादी को तो यह बिल्‍कुल पसंद नहीं आयेगा।” किन्तु दादी का नाम लेने पर मैंने उसे रोक दिया और बतला दिया कि दादी का अब मुझ पर कुछ भी अनुशासन नहीं रह गया है।

“क्‍यों? सम्‍पत्ति पर तुम्‍हारा अधिकार नहीं हुआ है ?” बैबूरिन ने पूछा।

“हां, मेरा अधिकार नहीं हुआ है।” मैने उत्‍तर दिया।

“तब तो इसका मतलब यह है कि...” बैबूरिन ने अपने वाक्‍य को पूरा नहीं किया, किन्‍तु उसके बदले मन-ही-मन मैंने उसे यों पूरा कर लिया, “इसका अभिप्राय यह है कि अभी तुम निरे बालक हो।” मैं जोर-से प्रणाम कहकर वहां से चल दिया।

आंगन से बाहर निकलकर सड़क पर जा ही रहा था कि मानसी एकाएक घर से दौड़कर बाहर आई और मुड़े हुए कागज का एक टुकड़ा मेरे हाथ में रखकर फौरन गायब हो गई। आगे सड़क पर लैम्‍प के खम्‍भे के पास मैंने उस कागज को खोला। उसमें कुछ लिखा था। बड़ी कठिनाई से मैंने पेन्सिल से लिखे हुए धुंधले अक्षरों को पढ़ा। “ईश्‍वर के नाम पर,” -मानसी ने लिखा था- “कल प्रात: काल की प्रार्थना के बाद कुटाफिआ लाट के पास एलेकजंड्रोवेस्‍की बाग में आना मैं तुम्‍हारी प्रतीक्षा करूंगी आने से इन्‍कार करके मुझे दुखी न करना, मुझे तुमसे बहुत जरूरी मिलना है।”

इस पुर्जे के शब्‍दों के हिज्‍जे में कोई गलती नहीं थी, किन्‍तु उसमें कहीं कोई विराम-चिन्‍ह नहीं था। मैं हैरत में पड़ा हुआ घर आया।

दूसरे दिन निश्चित समय से पंद्रह मिनट पूर्व जब मैं कुटाफिआ लाट के नजदीक पहुंच रहा था (अप्रैल का महीना था, कलियां चटक रहीं थी, हरी-भरी घास चारों ओर दीख पड़ती थी और बकाइन की झाडियों के अंदर चिड़ियां चहचहा रहीं थीं और आपस में लड़-झगड़ रहीं थीं) कि इतने में घेरे से कुछ दूर पर एक तरफ मानसी को देखकर मैं बहुत विस्मित हुआ। वह मेरे आने से पहले ही वहां पहुंच गई थी। मै उसकी तरफ बढ़ा, किन्‍तु वह खुद ही मेरे पास आ पहुंची।

“चलो, हम क्रेमल दीवार के पास चलें।” उसने अपनी आंखों को नीचे की ओर करके जमीन पर नजर दौड़ाते हुए तेजी से मेरे कान में कहा, “यहां बहुत-से लोग हैं।”

हम दोनों रास्‍ते से होकर पहाड़ी पर गये।

“मानसी,” मैंने कहना शुरू ही किया था...किन्‍तु उसने फौरन मेरी बात को बीच ही में काट दिया और पहले के समान उसी अधीरतापूर्ण दबी हुई जबान में कहना शुरू किया, “कृपया मेरी आलोचना मत करो और न मेरे संबंध में किसी बात का ख्‍याल ही अपने मन में लाओ। मैंने तुमको पत्र लिखा और तुमसे मिलने के लिए समय निश्चित किया, क्‍योंकि...मुझे भय हो रहा था...कल मुझे ऐसा मालूम पड़ता था-तुम तमाम दिन हंसते हुए से मालूम पड़ रहे थे। ध्यान देकर सुनो।” उसने फिर जोर देकर कहा और मेरी तरफ मुखातिब होती हुई बोली, “सुनो, अगर तुम इस बात का किसी से जिक्र करोगे कि किसके साथ और किस आदमी के कमरे में मेरे साथ तुम्‍हारी मुलाकात हुई थी तो मैं पानी में कूद पडूंगी और डूब कर मर जाऊंगीं। मै अपने जीवन का अन्‍त कर डालूंगीं।”

इसी समय उसने पहले-पहल जिज्ञासा भरी, चुभने वाली दृष्टि से मुझे देखा।

“कहीं ऐसा न हो कि यह सचमुच ही ऐसा कर डाले !” यही विचार उस समय मेरे मन में आया।

“मानसी देवी,” मैंने शीघ्र ही उसके कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा, “तुमने मेरे संबंध में इस तरह की बुरी राय कैसे कायम कर ली ? क्‍या तुम समझती हो कि मैं अपने मित्र के साथ विश्‍वासघात कर सकता हूं और तुम्‍हारा अनिष्‍ट कर सकता हूं ? इसके अलावा, एक बात और भी तो है, तुम दोनों के बीच, जहां तक मैं जानता हूं, कोई ऐसा संबंध भी नहीं है, जो निंदनीय हो। कृपा कर इसके लिए तुम निश्चिंत रहो।”

मानसी वहां खड़ी-खड़ी मेरी तरफ निगाह डाले बिना ही मेरी बातों को सुनती गई।

“मुझे तुमसे कुछ और भी बातें कहनी हैं।” उसने फिर रास्‍ते पर आगे बढ़ते हुए कहना शुरू किया, “तुम शायद यह न समझ लो कि मैं निरी पगली हूं। मैं तुमसे यह भी कह देना चाहती हूं कि वह बूढ़ा आदमी मुझसे शादी करना चाहता है।”

“कौन बूढ़ा आदमी ? वही गंजा, पूनिन ?”

“नहीं, वह नहीं। दूसरा...परोमन सेमोनिच।”

“बैबूरिन ?”

“हां।”

“क्‍या यह संभव है ? उसने तुमसे यह प्रस्‍ताव किया है ?'

“हां।”

“किन्‍तु तुमने स्‍वीकार तो नहीं किया होगा ?”

“हां, मैंने स्‍वीकार कर लिया था, क्‍योंकि उस समय मैं इस मामले को समझ नहीं सकी थी। अब वह बात बिल्‍कुल नहीं रही।”

मैंने अपने हाथों को ऊपर उठाकर आश्‍चर्य-चकित भाव में कहा, “बैबूरिन और तुम ? क्‍यों? उसकी उम्र तो पचास से कम नहीं होगी।”

“वह अपनी उम्र तेता‍लीस साल बतलाता है। किन्‍तु इससे क्‍या ? अगर वह पच्‍चीस वर्ष का होता तो भी मैं उसके साथ शादी नहीं करती। उसके साथ मुझे क्‍या आनंद प्राप्‍त हो सकता है ? सारे-का-सारा हफ्ता बीत जाता है और इस बीच एक बार उसके मुख पर मुस्‍कराहट नहीं दीख पड़ती। परोमन सेमोनिच मेरा उपकारकर्ता है, मैं उसकी अत्‍यंत ऋणी हूं। उसने मुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया है। यदि वह न होता तो मैं बिल्‍कुल नष्‍ट हो गई होती। इसलिए वह लाजिमी है कि मैं उसे पिता की दृष्टि से देखूं।...किन्‍तु उसकी पत्‍नी बनकर रहना ! इससे तो मर जाना अच्‍छा है। सर पर कफन लपेट लेना बेहतर है।”

“मानसी देवी, तुम हमेशा मृत्‍यु के संबंध में क्‍यों बातें करती रहती हो ?”

मानसी फिर रूक गई।

“तो क्‍या सचमुच जीवन इतना मधुर है? मन न लगने की वजह से शुष्‍क जीवन के कारण मैं तुम्‍हारे दोस्‍त पूनिन को भी प्‍यार करने लगी हूं। फिर बैबूरिन और उसका विवाह संबंधी प्रस्‍ताव! पूनिन, यद्यपि अपनी कविताओं से मेरा सिर दुखा डालता है, किन्‍तु वह मुझे किसी तरह भयभीत तो नहीं करता। वह संध्‍याकाल में, जब मैं थककर सोने की इच्‍छा करती हूं, मुझे करामजिन पढ़ने के लिए बाध्‍य तो नहीं करता है। और यह बूढ़ा मेरे लिए क्‍या है ? वह मुझे प्रेमहीन बतलाता है ! क्‍या यह संभव है कि मैं उसके साथ रहकर प्रेम-युक्‍त बन सकूं ? यदि वह मुझे ऐसा बनाने की कोशिश करेगा तो मैं कहीं चल दूंगी। बैबूरिन खुद हमेशा कहता रहता है, 'स्‍वतंत्रता, स्‍वतंत्रता!' ठीक है, मैं भी तो स्‍वतंत्रता चाहती हूं, नहीं तो फिर उसके कथन का यही अर्थ हो सकता है कि और सबके लिए तो स्‍वतंत्रता और मुझे पिंजड़े में बन्‍द करके रखना- मेरे लिए परतंत्रता। मैं उससे खुद ऐसा कहूंगी। किन्‍तु यदि तुम मेरे साथ विश्‍वासघात करोगे या उस बात का इशारा भी करोगे तो याद रखो कि वे लोग फिर कभी मुझे नहीं देख पायेंगे।”

मानसी रास्‍ते के बीच में खड़ी हो गई।

“वे लोग फिर कभी भी मुझे नहीं देख पायेंगे।” उसने फिर इस बात को तेजी के साथ दुहराया। इस बार भी उसने ऑख उठाकर नहीं देखा। ऐसा प्रतीत होता था कि उसे इस बात का ज्ञान है कि यदि कोई उसके चेहरे की ओर सामने से देख लेगा तो वह अपने को छिपा नहीं स‍केगी, देखने वाला उसके दिल की बात ताड़ जायेगा। और ठीक यही कारण था, जिसने वह क्रुद्ध अथवा खिन्‍न होने के सिवा- जबकि वह बातचीत करने वाले के चेहरे की ओर सीधे टकटकी लगाकर देखा करती थी-और किसी वक्‍त अपनी आंखों को ऊपर नहीं उठाती थी, किन्‍तु उसका छोटा खूबसूरत चेहरा अदम्‍य संकल्‍प से प्रदीप्‍त हो रहा था।

उस समय यह विचार मेरे मन में आया, “टारहोव का कहना बिल्‍कुल दुरूस्‍त था। यह लड़की सचमुच एक नये ढंग की है।”

“तुम्‍हें मुझसे डरना नहीं चाहिए।” मैंने आखिर उससे कहा।

“सचमुच ? यदि तुम हम दोनों के संबंध में कुछ कह भी दो...लेकिन यदि कुछ होता भी...” इससे आगे वह नहीं बोल सकी।

“उस हालत में तुम्‍हें मुझसे नहीं डरना चाहिए। मानसी, मैं तुम्‍हारा न्‍यायाधीश नहीं हूं। तुम्‍हारा गुप्‍त रहस्‍य मेरे हृदय में छिपा है।” मैंने अपने हृदय की तरफ इशारा करके कहा। मुझ पर विश्‍वास रखो, मैं दूसरों की कद्र करना अच्‍छी तरह जानता हूं...।”

“क्‍या मेरा वह पत्र तुम्‍हारे पास है ?” मानसी एकाएक पूछ बैठी।

“हां।”

“कहा है ?”

“मेरी जेब में।”

“लाओ, मुझे दे दो...तुरन्‍त।”

मैंने कागज के टुकड़े को जेब से बाहर निकाला। मानसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर अपने रूखे छोटे हाथों में ले लिया। वह मेरे सामने एक क्षण तक चुपचाप खड़ी रही, मानो वह मुझे धन्‍यवाद देना चाहती हो। किन्‍तु वह अचानक चौंक पड़ी, चारों ओर देखने लगी और विदा होते समय एक शब्‍द भी कहे बिना ही दौड़कर पहाड़ी के नीचे चली गई। जिस दिशा की ओर वह गई थी, उधर ही मैंने नजर दौड़ाई। लाट से कुछ ही दूर पर मेरी दृष्टि एक मनुष्‍य पर पड़ी, जिसे मैंने फौरन पहचान लिया। वह टारहोव था।”अहा मेरे दोस्‍त”, मैंने सोचा, “तुम्‍हें इसकी सूचना जरूर मिली होगी, तभी तो तुम पहले से ही इसकी ताक में थे !”

फिर मैं धीमे-धीमे सीटी बजाता हुआ वहां से घर की तरफ चल पड़ा।

दूसरे दिन प्रात:काल मैं चाय पीकर बैठा ही था कि इतने में पूनिन आ पहुंचा। वह परेशान चेहरा बनाये हुए मेरे कमरे में दाखिल हुआ और झुककर सलाम किया। वह इधर-उधर देखने लगा और इस प्रकार बिना इजाजत कमरे में दाखिल होने के लिए क्षमा-याचना करने लगा। मैंने शीघ्र ही उसे आश्‍वासन दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। मेरे मन का चोर तो देखिये कि मेरे दिल में यह ख्‍याल आया कि हो-न-हो, पूनिन मुझसे रूपया उधार लेने का इरादा करके आया है। किन्‍तु उसने सिर्फ थोड़ी-सी शराब सहित चाय का एक प्‍याला मांगा। संयोगवश चाय का बर्तन उस समय मौजूद था, हटाया नहीं गया था। “घबराहट और पस्तदिली के साथ मैं तुमसे मिलने आया हूं”, उसने थोड़ी-सी चीनी लेते हुए कहा, “तुमसे तो मैं भय नहीं करता, किन्‍तु तुम्‍हारी सम्माननीया दादी से मैं डरता हूं। मुझे अपनी पोशाक पर भी संकोच होता है, जैसा कि मैंने तुमसे पहले कह दिया है।” पूनिन ने अपने जीर्ण कोट के उड़े हुए किनारे पर अंगुली रखते हुए कहा, “घर पर इस तरह के फटे-पुराने कपड़े पहने रहने में कोई हर्ज नहीं, राह चलते सड़कों पर भी पहने जा सकते हैं। किन्‍तु जब किसी स्‍वर्ण-मंडित राजमहल में जाना पड़ता है, उस समय दरिद्रता का नग्‍न रूप दिखाई देने लगता है और घबराहट मालूम होने लगती है।”

मैं मकान के नीचे के तल्‍ले के दो छोटे-छोटे कमरों में रहा करता था। इन कमरों को देखकर कोई भी उन्‍हें राजमहल नहीं कह सकता था, स्‍वर्ण-मंडित होने की बात तो दूर रही। किन्‍तु पूनिन के इस कथन का अभिप्राय मेरी दादी के संपूर्ण मकान से था, यद्यपि वह भी कुछ विशेष सजा-धजा नहीं था। मैं पिछले दिन उन लोगों के घर मिलने नहीं गया, इसलिए पूनिन ने मुझे उलाहना दिया, “बैबूरिन तुम्‍हारी प्रतीक्षा कर रहा था, यद्यपि उसने कह दिया था कि तुम निश्‍चय ही नहीं आओगे और मानसी भी तुम्‍हारी इंतजार में थी।”

“क्या कहा, मानसी भी ?” मैंने पूछा।

“हां, वह भी। हमारे साथ जो वह लड़की है, वह बड़ी मनोहारणी है। है न ? तुम क्‍या समझते हो ?”

“सचमुच मनोहारिणी है।” मैंने अपनी स्‍वीक़ृति दी।

पूनिन अपने नंगे सिर को खूब जोर-जोर से रगड़ने लगा। “जनाब, वह सौन्‍दर्य की मूर्ति हैं, मोती है, या यों कहिये कि हीरा है। यह सब जो मैं आपसे कह रहा हूं, वह बिल्‍कुल सच है।” वह झुककर कान के पास आ गया और धीमें स्‍वर में कहने लगा, “वंश भी अच्‍छा है, सिर्फ तुम इतना समझ रखो कि उसका जन्म जायज माता-पिता से नहीं हुआ था। उसके मां-बाप मर गये, उसके संबंधियों ने उसकी कोई खबर नहीं ली और उसे बिल्‍कुल भाग्‍य भरोसे छोड़ दिया, अर्थात् हताश होकर उसे भूखों मरने दिया। किन्‍तु इसी समय बैबूरिन, जो बहुत दिनों से दुखियों का त्राता समझा जाता है, आगे बढ़ा। वह उस लड़की को अपने यहां ले आया, उसे अन्‍न वस्‍त्र देकर यत्नपूर्वक पाला-पोसा और बड़ा किया और अब वह बढ़कर हम लोगों की प्रिय पात्र बन गई है। मैं तुमसे कहता हूं, बैबूरिन में अपूर्व गुण हैं।”

पूनिन आराम कुर्सी पर लेट गया, उसने अपने हाथों को ऊपर उठाया और फिर आगे झुककर मेरे कानों में धीरे-धीरे, किन्‍तु पहले से भी अधिक रहस्‍यपूर्ण भाव में कहना शुरू किया, “तुम भी तो बैबूरिन को देखते हो। क्‍या तुम नहीं जानते हो ? वह भी उच्‍च वंश का है...किन्‍तु उसका जन्‍म भी जायज माता-पिता से नहीं हुआ था। कहते हैं, उसका पिता राजा डेविड के कुल का एक शक्तिशाली जार्जवंशीय नरेश था... इससे तुम क्‍या समझते हो? चन्‍द शब्‍दों में ही कितनी बातें कह दी गई है? राजा डेविड के कुल का रक्‍त! इस संबंध में तुम्‍हारा क्‍या ख्‍याल है? दूसरी दूतवृत्ति के अनुसार बैबूरिन के वंश का प्रतिष्‍ठापक एक हिन्‍दुस्‍तानी बादशाह बाबर था। महान उच्‍च वंश का रक्‍त! क्‍या कहना है ।”

“अच्‍छा !” मैंने पूछा, “ यह तो बताओ कि क्‍या बैबूरिन भी भाग्‍य के भरोसे छोड़ दिया गया था?”

पूनिन ने फिर अपनी खोपड़ी खुजलाई, “हां, वह भी छोड़ दिया गया था और सो भी हमारी उस छोटी लड़की की अपेक्षा अधिक क्रूरता के साथ। अपने जीवन की बाल्‍यावस्‍था से ही उसे कठिनाइयों के साथ संग्राम करना पड़ा है और वस्‍तुत: मैं यह स्‍वीकार करूंगा कि रूबन की कविता से अनुप्राणित होकर मैंने बैबूरिन का चित्र चित्रित करने के लिए जिस पद की रचना की थी, उसमें इस बात का जिक्र कर दिया था। ठहरो जरा... वह पद कैसा था ? हां सुनो-

दुख: और दुर्भाग्‍य निरन्‍तर करते रहते थे आघात।

कष्‍टों की अथाह खाई में देखा उसने जीवन-प्रात

किन्‍तु चीरकर अन्‍धकार को रवि का ज्‍यों प्रकाश गंभीर

विजयमाल को लिये भाल में आया वह बैबूरिन वीर।

पूनिन ने इन पंक्तियों को स्‍वर-ताल-युक्‍त संगीत-स्‍वर में जैसा कि कविता-पाठ होना चाहिए, पढ़कर सुनाया।

“सो इससे ही मालूम होता है कि वह किस प्रकार एक प्रजातंत्रवादी है!” मैं बोल उठा।

“नहीं, यह कारण नहीं है,” पूनिन ने उत्‍तर दिया, “बहुत दिन हुए उसने अपने पिता को क्षमा कर दिया, किन्‍तु वह किसी भी तरह का अन्‍याय सहन नहीं कर सकता। दूसरे के दु:खों को देखकर वह विचलित हुए बिना नहीं रह सकता।”

कल मानसी से मैंने जो बात सुनी थी, अर्थात् बैबूरिन के विवाह-विषयक प्रस्‍ताव के संबंध में, उसी का जिक्र इस बातचीत में मैं लाना चाहता था, पर मैं समझ नहीं पाता था कि इस प्रसंग को किस तरह छेड़ा जाय। आखिर पूनिन ने खुद ही मुझे इस कठिनाई से निकाल दिया।

“कल जबकि तुम हम लोगों के साथ थे, क्‍या तुम्‍हें कोई खास बात नहीं दीख पड़ी ? वह अपनी आखों को चालाकी के साथ मटकाते हुए मुझसे एकाएक पूछ बैठा।

“क्‍यों, क्‍या ऐसी कोई खास बात देखने की थी ?” मैंने उससे पूछा।

पूनिन ने अपने कंधे की तरफ देखा, मानो वह इस बात से आश्‍वस्‍त हो जाना चाहता हो कि कोई उसकी बात को सुन तो नहीं रहा है। “हम लोगों की सुकुमारी सुंदरी मानसी बहुत शीघ्र बधू बनने जा रही है।”

“सो कैसे?”

“श्रीमती बैबूरिन।” पूनिन ने कोशिश करके इन शब्‍दों का उच्‍चारण किया और फिर अपने खुले हुए हाथों से घुटनों पर बार-बार थपकी देतु हुए एक चीनी अफसर की तरह अपने सिर को हिलाया।

“असंभव।” कृत्रिम आश्‍चर्य प्रकट करते हुए मैंने जोर से कहा। पूनिन का सिर धीरे-धीरे स्थिर हो चला और उसके हाथ नीचे गिर आये। “असंभव क्‍यों ? क्‍या यह मैं पूछ सकता हूं ?”

“क्‍योंकि बैबूरिन उस नवयुवती का पिता होने योग्‍य है; क्‍योंकि दोनों की उम्र में जो फर्क है, उसके कारण बालिका की ओर से प्रेम की संभावना बिल्‍कुल नहीं रह जाती।”

“बिल्‍कुल नहीं रह जाती।” पूनिन ने उत्‍तेजित स्‍वर में इस वाक्‍य को दुहराया, “किन्‍तु कृतज्ञता, विशुद्ध प्रेम, कोमल भावना, क्‍या ये सब कुछ भी नहीं हैं ? प्रेम की संभावना बिल्‍कुल नहीं रह जाती ? जरा इस बात पर भी तो गौर करो। माना कि मानसी एक बहुत ही अच्‍छी लड़की है, किन्‍तु बैबूरिन का स्‍नेहभाजन बनना, उसके सुख का साधन बनना, उसके जीवन का आधार बनना-सारांश यह कि उसकी अर्द्धागिनी बनना उसकी जैसी लड़की के लिए भी क्‍या महत्‍तम संभवनीय आनंद का विषय नहीं है ? और वह खुद इस बात को अच्‍छी तरह समझती है। तुम स्‍वयं ही ध्‍यानपूर्वक उसकी तरफ दृष्टि डालकर देख लो न ! बैबूरिन की उपस्थिति में मानसी उसके प्रति कैसी श्रद्धालु, कंपायमान तथा आवेशपूर्ण हो जाती है।”

“यही तो खराबी है, पूनिन ! जैसा कि तुम कहते हो कि वह कंपायमान हो जाती है। अगर तुम किसी को प्‍यार करते हो तो उसके सामने कांपते थोड़े ही हो।”

“किन्तु तुम्‍हारी इस बात से मैं सहमत नहीं हो सकता। मेरा ही दृष्‍टान्‍त लो न। मुझसे बढ़कर बैबूरिन को कोई प्‍यार नहीं करता, किन्‍तु मैं उसकी उपस्थिति में कांपने लगता हूं।”

“वाह, अच्‍छी कही ! तुम्‍हारी बात दूसरी है।”

“दूसरी कैसे ?”

“कैसे ? किस तरह ?” पूनिन बीच में ही बोल उठा। मैं उस समय उसके भाव को ताड़ नहीं सका। वह गरम हो उठा था, यहां तक कि क्रुद्ध भी हो चला था और उसकी बोली में भी पहले जैसी संगीत-ध्‍वनि नहीं रह गई थी।

“नहीं,” उसने कहा, “मैं देखता हूं कि तुममें मानव चरित्र परखने योग्‍य दृष्टि नहीं है। तुम लोगों के हृदय की बात भी नहीं जान सकते।”

मैंने उसके कथन का खंडन करना छोड़ दिया...और बातचीत के रूख को बदल देने के खयाल से यह प्रस्‍ताव किया कि पुराने समय की बात याद करके हम दोनों को साथ मिलकर कुछ पढ़ना चाहिए।

पूनिन कुछ क्षणों तक मौन रहा। आखिर उसने पूछा, “प्राचीन कवियों में से ? यथार्थवादी कवियों में से ?”

“नहीं, एक नये कवि की।”

“नये कवि की ?” पूनिन ने अविश्‍वास सूचक भाव में दुहराया।

“पुश्‍किन,” मैंने जवाब दिया। मुझे अचानक 'जिप्‍सी' की याद आ गई, जिसके बारे में कुछ ही दिन पहले टारहोव ने मुझसे कहा था। उसमें एक गीत बूढ़े पति के संबंध में है। पूनिन कुछ कुड़कुड़ाया, लेकिन मैंने उसे सोफा पर बिठला दिया, जिससे वह आराम के साथ ध्‍यानपूर्वक सुन सके। फिर इसके बाद मैंने पुश्‍किन की कविता पढ़नी शुरू की। आखिर उसमें वह पद भी आ गया-

बाबा कहलाये जाने पर मिटी न जिन के मन की चाह।

बासी कढ़ी उबल आई है, देखो इस बूढ़े का ब्‍याह।

पूनिन ने उस गीत को अन्‍त तक सुना और फिर एकाएक आवेश में आकर खड़ा हो गया।

“मैं यह नहीं सुन सकता”-उसने इतने गंभीर आवेश में आकर कहा कि उसके इस कथन का मुझ पर भी प्रभाव पड़े बिना न रहा। “माफ करो, मैं उस कवि की कविता अब अधिक नहीं सुन सकता। वह एक नीतिभ्रष्‍ट निंदक है। वह एक मिथ्‍यावादी है।...उससे मैं घबरा उठता हूं। मैं यह नहीं सुन सकता। अच्‍छा, बस मुझे जाने दो।”

पूनिन कुछ देर और ठहरे, इसके लिए मैं उसे समझाने-बुझाने की कोशिश करने लगा, किन्‍तु उसने अपनी जिद पर डटे रहने का आग्रह दिखलाया। उसने बार-बार इस बात को दुहराया-”मुझे घबराहट मालूम हो रही है और मैं ताजी हवा में जाकर सांस लेना चाहता हूं।” उसके होंठ बराबर धीमे-धीमे कांप रहे थे और वह अपनी आंखों को मुझसे चुरा रहा था, मानो मैंने उसके दिल पर चोट पहुंचाई हो। आखिर वह चला गया। कुछ समय के बाद मैं भी घर से बाहर निकलकर टारहोव से मुलाकात करने के लिए चल पड़ा।

बिना किसी प्रकार के शिष्‍टाचार के, बिना किसी से कुछ पूछे, जैसी कि विद्यार्थियों की आदत हुआ करती है, मैं सीधे उसके घर में दाखिल हो गया। पहले कमरे में कोई भी आदमी न था। मैंने टारहोव का नाम लेकर पुकारा और उसका कोई उत्‍तर न पाकर वापस लौटना ही चाहता था कि इतने में पास के एक कमरे का दरवाजा खुला और टारहोव उपस्थित हुआ। उसने अजीब ढंग से मेरी ओर देखा और बिना कुछ बोले ही मुझसे हाथ मिलाया। पूनिन से मैंने जो कुछ सुना था, वह सब उसे बतलाने के लिए आया था। यद्यपि मुझे तुरंत यह मालूम हो गया कि टारहोव से मिलने का मैंने ठीक मौका नहीं चुना था, तथापि थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद आखिर मैंने उसे मानसी के संबंध में बैबूरिन की आकांक्षाएं बतला दीं। इस खबर को सुनकर प्रत्‍यक्ष रूप में वह अधिक विस्मित नहीं जान पड़ा। वह चुपचाप मेज के पास बैठ गया और अपनी आंखों को मेरी तरफ गड़ाये हुए और पहले के समान ही मौन भाव में उसने ऐसे भाव जाहिर किये, मानो वह कहना चाहता हो, “अच्‍छा, और तुम्‍हें क्‍या कहना है ? जो तुम्‍हारे ख्‍याल हों, उन्‍हें कह डालो।”

मैं गौर के साथ उसके चेहरे की तरफ देखने लगा। उसमें मुझे उत्‍कंठा, कुछ व्‍यंग तथा किंचित अहंकार का भाव दीख पड़ा, किन्‍तु इससे मुझे अपने विचारों को प्रकट करने में कोई रुकावट नहीं हुई। इसके विपरीत उसके संबंध में मेरे मन में यही खयाल पैदा हुआ, “तुम अपनी शान दिखला रहे हो, इसलिए मैं तुम्‍हें छोडूंगा नहीं।” मैंने उसे उपयुक्‍त उपदेश देना शुरू किया, “देखो, आवेशजनित भावनाओं के सामने झुकने में बड़ी बुराई है। प्रत्‍येक आदमी का यह कर्तव्‍य है कि वह दूसरे आदमी की स्‍वतंत्रता तथा व्‍यक्तिगत जीवन के प्रति आदर-भाव रखे। इत्‍यादि।” इस प्रकार कहते हुए मैं बेतकुल्‍लफी के खयाल से कमरे में इधर-उधर घूमने लगा।

टारहोव ने न तो मुझे बीच में टोका, और न वह अपनी जगह से टस-से-मस हुआ। वह सिर्फ अपनी ठुड्डी पर अंगुलियों को दौड़ा रहा था।

“मैं जानता हूं,” मैंने कहा...(मेरे इस कथन का ठीक उद्देश्‍य क्‍या था, इसकी मुझे भी कोई स्‍पष्‍ट जानकारी न थी- बहुत संभव है कि वह ईर्ष्‍या हो। किन्‍तु इतना तो जरूर था कि वह नीतिनिष्‍ठा नहीं थी।) “मैं जानता हूं”-मैंने कहा, “कि यह आसान नहीं है। यह हंसी की बात नहीं है। मुझे निश्‍चय है कि तुम मानसी को प्‍यार करते हो। और मानसी तुम्‍हें प्‍यार करती है। यह तुम्‍हारे लिए यों ही कोई क्षणिक उमंग नहीं है, किन्‍तु देखो, यदि हम यह मान लें। (यहां मैंने अपने हाथों को मोड़कर छाती पर रखा)...हम यह मान लें कि तुम वासना को तृप्‍त भी कर लो तो इससे क्‍या होगा ? तुम उसके साथ शादी नहीं करोगे, यह तुम खुद भी जानते हो, किन्‍तु अपनी इस कार्यवाही से तुम एक अत्‍युत्‍तम, ईमानदार और उसके उपकारी व्‍यक्ति के सुख का सर्वनाश कर रहे हो...और कौन जानता है...(यहां मेरे चेहरे से एक साथ ही सुतीक्षणता एवं चिन्‍ता का भाव व्‍यक्‍त होने लगा)...कि शायद मानसी के निजी सुख का भी...”

इसी प्रकार मैं कहता चला गया।

प्राय: पंद्रह मिनट तक मेरे इस कथन का प्रवाह जारी रहा। टारहोव अब भी मौन था। मैं उसके मौन पर घबराने लगा। मैं समय-समय पर उसकी ओर देख लिया करता था, किन्‍तु इसका अभिप्राय नहीं था कि मुझे इस बात का संतोष हो जाय कि मेरे शब्‍दों का उस पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि यह जानने का था कि उसने क्‍यों मेरे कथन पर न तो कुछ उज्र ही किया और न अपनी सहमति प्रकट की, बल्कि एक गूंगे और बहरे व्‍यक्ति की तरह चुपचाप बैठा रहा। आखिर मुझे यह अनुमान हुआ कि उसके चेहरे पर परिवर्तन का लक्षण दृष्टिगोचर हो रहा है। उससे बेचैनी और दु:खद विक्षोभ के चिन्‍ह परिलक्षित होने लगे, फिर भी आश्‍चर्य की बात तो यह भी कि...वह उत्‍कण्‍ठा, वह प्रकाश, वह हंसती हुई-सी कोई वस्‍तु, जो, मुझे प्रथम बार टारहोव की ओर दृष्टिपात करने पर दीख पड़ी थी, इस समय भी उसके विक्षुब्‍ध एवं विषण्‍ण मुखमंडल पर विद्यमान थी।

मैं यह निश्‍चय नहीं कर सका कि अपने उपदेश की सफलता पर अपने को बधाई दूं, या नहीं, जबकि टारहोव एकाएक उठ खड़ा हुआ और मेरे दोनों हाथों को दबाकर जल्‍दी-जल्‍दी बोलते हुए मुझसे कहा, “धन्‍यवाद,, तुम्‍हें धन्‍यवाद ! तुम्‍हारा कहना बिल्‍कुल ठीक है,... य‍द्यपि दूसरे पक्ष में यह भी प्रश्‍न हो सकता है कि...आखिर बैबूरिन, जिसके विषय में तुम इतनी डींग मारते हो, है क्‍या चीज? वह एक ईमानदार मूर्ख के सिवा और कुछ भी नहीं है। तुम उसे प्रजातंत्रवादी कहते हो, किन्‍तु है वह महज मूर्ख। बस, वह जो कुछ है, यही। उसके सारे प्रजातंत्रवाद का अर्थ यही है कि उसकी कभी कहीं गुजर नहीं हो सकती !”

“आह! यही तुम्‍हारा ख्‍याल है! एक मूर्ख की कभी गुजर नहीं हो सकती ? किन्‍तु मैं तुमसे कहूंगा”-मैंने कुछ गरम होकर कहना शुरू किया, मेरे प्‍यारे ब्‍लाडीमीर निकोलेच, मैं तुमसे यह कहूंगा कि इस जमाने में कहीं भी गुजर न होना एक उत्‍तम और उदार प्रकृति का लक्षण समझा जाता है। जो लोग बेकार होते हैं, जो बुरे होते हैं, वही जहां-तहां अपनी गुजर कर लेते हैं और अपने को प्रत्‍येक परिस्थिति के अनुकूल बना लेते है। तुम कहते हो कि बैबूरिन एक ईमानदार मूर्ख है। क्‍यों, तब क्‍या तुम्‍हारी समझ से बेईमान और चालाक होना उससे अच्‍छा है ?”

“तुम तो मेरे शब्‍दों को तोड़-मरोड़कर दूसरी ही अर्थ निकालते हो !” टारहोव जोर से बोला, “मैं सिर्फ यह कहना चाहता था‍ कि मैं उस आदमी को किस रूप में समझता हूं। क्‍या तुम मानते हो कि वह एक अनुपम व्‍यक्ति है ? कदापि नहीं। मुझे उसके जैसे आदमी अपने जीवन में बहुत से मिले हैं । वह अपने चेहरे को जरा गंभीर, मौन, हठी और वक्र बनाकर बैठा रहता है...अहा-हा-हा! बस, तुम कहोगे कि उसके अंदर बहुत कुछ है, किंतु दरअसल उसमें कुछ भी नहीं है, उसके दिमाग में एक भी विचार नहीं है। जो कुछ है, वह सिर्फ आत्‍म-प्रतिष्‍ठा का ख्‍याल है।”

“अगर आत्‍म-प्रतिष्‍ठा के अलावा और कुछ न भी हो तो भी वह एक सम्मान जनक वस्‍तु है।” मैं बोल उठा, “किन्‍तु यह तो बतलाओ कि तुम्हें उसके चरित्र का इस प्रकार अध्‍ययन करने का अवसर कहां मिला? तुम तो उसे जानते भी नहीं। क्‍यों ? या मानसी ने तुमसे उसके बारे में जो कुछ कहा है, उसके आधार पर तुम उसका वर्णन करते हो ?”

टारहोव ने अपने कंधे को हिलाया। “मानसी और मैं ! हम दोनों में बातचीत करने के लिए और ही विषय हैं। मैं तुमसे यह कहता हूं” इतना कहते समय उसका सम्‍पूर्ण शरीर अधीरता के कारण कांप उठा, “मैं तुमसे कहता हूं कि अगर बैबूरिन इतने भले और र्इमानदार स्‍वभाव का है तो वह क्‍योंकर यह नहीं देख पाता कि मानसी उसके उपयुक्‍त जोड़ी नहीं है ? इन दो बातों में एक बात हो सकती है या तो वह जानता है कि वह उसके साथ जो कुछ कर रहा है, वह कृतज्ञता के नाम पर एक प्रकार का अत्‍याचार है...और यदि ऐसा ही हो तो फिर उसकी ईमानदारी कहां रही ? या वह जो कुछ कर रहा है, उसे अच्‍छी तरह समझ नहीं पाता इस हालत में उसे मूर्ख के सिवा और कह ही क्‍या सकते हैं ?”

मैं जवाब देना ही चाहता था, किन्‍तु टारहोव ने फिर मेरे हाथों को जोर से पकड़ लिया और तेजी से कहना शुरू किया, “यद्यपि...अवश्‍य...मैं यह स्‍वीकार करता हूं कि तुम्‍हारा कहना ठीक है, सहस्रों बार ठीक है। ...तुम मेरे एक सच्‍चे दोस्‍त हो...किन्‍तु अब मुझे कृपया अकेले छोड़ दो।”

मैं हैरत में पड़ गया। “तुम्‍हें अकेला छोड़ दूं ?”

“हां, जरूर मुझे अकेला छोड़ दो। क्‍या तुम देखते नहीं, अभी-अभी तुमने जो कुछ कहा है, उस पर अच्‍छी तरह विचार करने दो... मुझे इसमें शक नहीं कि तुम्‍हारा कहना दुरूस्‍त है, किन्‍तु अब मुझे अकेले रहने दो।”

“तुम इस समय उत्‍तेजित अवस्‍था में हो...” मैंने कहना शुरू किया।

“उत्‍तेजना ? मैं ?” टारहोव हंस पड़ा, किन्‍तु फौरन ही उसने अपने को संभाल लिया, “हां, जरूर मैं उत्‍तेजित हूं। उत्‍तेजित मैं होता नहीं तो क्‍योंकर ? तुम खुद ही कहते हो कि यह कोई हंसी की बात नहीं है। हां, मुझे इस संबंध में अकेले ही विचार करना चाहिए।” वह अब तक मेरे हाथों को दबा रहा था। “अच्‍छा, मेरे प्‍यारे दोस्‍त, विदा।”

मैंने विदा होते समय उससे कहा, “अच्‍छा, विदा !”

वहां से चलते-चलते मैंने आखिर बार टारहोव की ओर देखा। वह प्रसन्‍न मालूम पड़ता था। किन्‍तु किस बात पर? या तो इस बात पर कि मैंने, एक सच्‍चे दोस्‍त और साथी की हैसियत से, उसे उस मार्ग के खतरे से आगाह कर दिया था, जिस पर उसने पांव रखा था-या इस बात पर कि मैं वहां से विदा हो रहा था। तमाम दिन संध्‍याकाल तक मेरे मस्तिष्‍क में नाना प्रकार के विचार चक्‍कर काटते रहे, जब तक कि मैंने पूनिन और बैबूरिन के मकान में प्रवेश नहीं किया। मैं उसी दिन उन लोगों से मिलने गया। मैं यह बात स्‍वीकार किये बिना नहीं रह सकता कि टारहोव के कुछ वाक्‍य मेरे अंतरतम में प्रविष्‍ट हो गये थे...और इस समय भी वे हमारे कानों में गूंज रहे थे।...क्‍या सचमुच यह संभव था कि बैबूरिन...क्‍या यह संभव था कि वह यह नहीं समझता हो कि मानसी उसके उपयुक्‍त जोड़ी नहीं ?

पर क्‍या यह संभव हो सकता था बैबूरिन-स्‍वार्थत्‍यागी - बैबूरिन-ईमानदार मूर्ख हो !

पूनिन जब मुझसे मिलने आया था तो उसने कहा था, “हमारे घर पर एक दिन पहले तुम्‍हारे आने की प्रतीक्षा की जा रही थी।” यह हो सकता है, किन्‍तु आज के दिन तो अवश्‍य ही कोई मेरे आने की आशा नहीं रखता था। मैंने सबको घर पर ही मौजूद पाया और सभी को मेरे आने पर आश्‍चर्य हुआ। बैबूरिन और पूनिन दोनों ही अस्‍वस्‍थ थे। पूनिन के सिर में दर्द हो रहा था। वह एक पलंग पर अपने शरीर को सिकोड़े हुए लेटा था, उसके सिर में रूमाल बंधा हुआ था, और पेशानियों पर ककड़ी के टुकड़े रखे हुए थे। बैबूरिन पित्‍त की बीमारी से पीडि़त था। वह बिल्‍कुल पीला दिख पड़ता था। उसकी आंखों के चारो ओर गोलाकार रेखाएं पड़ गई थीं, भौंहें सिकुड़ी हुई थीं और दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे। वह एक दुल्हे के समान तो नही ही लगता था ! मैंने वहां से चलने की कोशिश की...किन्‍तु उन लोगों ने मुझे जाने नहीं दिया, और चाय पीने के लिए आग्रह किया।

संध्‍याकाल वहां प्रसन्‍नतापूर्वक नहीं बीता। यद्यपि मानसी को कोई रोग नहीं था और वह पहले जितनी संकोचशील भी नहीं थी, पर साफ तौर से वह चिढ़ी हुई और क्रुद्ध-सी दीख पड़ती थी... आखिर वह अपने को रोक नहीं सकी और मेरे हाथ में चाय का प्‍याला देते हुए, कान के पास सटकर जल्‍दी-जल्‍दी कहने लगी, “तुम जो चाहो सो कहो, तुम चाहे जितनी ही कोशिश करो, किन्‍तु उससे कोई फर्क नहीं पड़ सकता !” मैं ताज्‍जुब में आकर उसकी तरफ देखने लगा और मौका पाकर मैंने चुपके से उसके कान में कहा, “तुम्‍हारे कहने का क्‍या मतलब है ?”

“बताऊंगी।” उसने जवाब दिया। उसकी काली आंखे, उसकी तनी हुई भौंहों के नीचे से क्रुद्ध-भाव में चमकती हुई एक क्षण तक मेरे चेहरे पर गड़ी रहीं, फिर फौरन ही वहां से हट गईं, “मेरे कहने का मतलब यह है कि आज तुमने वहां जो कुछ कहा था, वह सब मैंने सुन लिया और इन निरर्थक बातों के लिए तुम्‍हें धन्‍यवाद देती हूं, क्‍योंकि जैसा तुम चाहते हो, वैसा किसी भी तरह से हो नहीं सकता।”

“तुम वहां मौजूद थीं?” मेरे मुह से अनजाने यह निकल पड़ा... किन्‍तु इसी समय बैबूरिन का ध्‍यान इधर आकृष्‍ट हुआ और उसने हम लोगों की ओर देखा। मानसी मेरे पास से खिसक गई।

दस मिनट के बाद वह किसी तरह फिर मेरे पास आ पहुंची। उसे देखने से मालूम पड़ता था कि वह कोई साहसिक एवं भयंकर बात मुझसे कहने के लिए उत्‍सुक हो, मानो वह अपने संरक्षक के सामने ही, उसकी सावधान दृष्टि के नीचे ही, सिर्फ उसे संदेह नहीं हो, इतना बचाकर, उन बातों को मुझसे कह देना चाहती हो। यह तो एक जानी हुई बात है कि किसी खतरनाक खाई-खंदक के ऊपर बिल्‍कुल किनारे पर चलना स्त्रियों का एक प्रिय कौतुक है। “हां, मैं वहां मौजूद थी।” मानसी ने धीमे स्‍वर में कहा। उस समय उसकी आक़ृति में कोई परिवर्तन नहीं दीख पड़ता था। सिर्फ उसके नथुने कुछ-कुछ कांप रहे थे। “हां, अगर बैबूरिन मुझसे पूछ बैठे कि मैं तुम्हारे कानों में लग कर क्‍या कह रही हूं तो उससे इसी वक्‍त सारी बातें कह दूंगी। मुझे उसकी परवाह क्‍यों होने लगी ?”

“जरा सावधान,” मैंने उससे प्रार्थना की। “मेरा सचमुच ख्‍याल है कि वे लोग हमें देख रहे हैं।”

“मैं तुमसे कहती हूं, मैं उनकी सारी बातें सुनने के लिए बिल्‍कुल तैयार हूं। फिर हमें देख ही कौन रहा है? उनमें एक तो गुड़ी-मुड़ी बीमार पड़ा है और कुछ भी नहीं सुनता, दूसरा अपने गंभीर दार्शनिक विचार में डुबा है। तुम डरो मत।” मानसी की आवाज कुछ ऊंची हो उठी और उसके गालों पर क्रमश: एक प्रकार की फीकी लाली दौड़ गई। उसके चेहरे पर यह लाली खूब फबती थी और इतनी सुंदर वह पहले कभी मालूम नहीं हुई थी। मेज को साफ करते हुए और चाय के प्‍याले तथा तश्‍तरी को अपने-अपने स्‍थान पर रखते हुए, वह कमरे में तेजी के साथ इधर-उधर घूम-फिर रही थी। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था, मानो अपनी सहज स्‍वतंत्र चाल-ढाल से वह किसी को चुनौती दे रही हो। उसे देखने से प्रतीत होता था, मानो वह कह रही हो, “तुम चाहे जैसे मेरी आलोचना करो, किन्‍तु मैं तो अपने ढंग पर ही चलती रहूंगी और मुझे तुम्‍हारा कुछ डर भी नहीं है।"

मैं इस बात को छिपा नहीं सकता कि उस शाम मानसी मुझे बहुत ही आकर्षक जान पड़ी। “हां,” मैंने अपने मन में सोचा, “यह एक छोटी चंडी है-यह एक नये ढंग की है...यह अनुपम है। दिल पर चोट किस तरह पहुंचाई जा सकती है, यह इन हाथों को मालूम है...किन्‍तु इससे क्‍या ? कोई हर्ज नहीं !”

“पैरेमन सेमोनिच,” वह एकाएक चिल्‍ला उठी, “क्‍या प्रजातंत्र एक ऐसा साम्राज्‍य नहीं है, जिसमें प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपनी इच्‍छानुसार कार्य कर स‍के ?”

“प्रजातंत्र राज्‍य साम्राज्य नहीं है।” बैबूरिन ने अपने हाथों को ऊपर उठाकर, भौंहों को सिकोड़ते हुए, जवाब दिया, “वह एक प्रकार की सामाजिक संस्‍था है, जिसमें प्रत्‍येक बात कानून और न्‍याय पर अवलम्बित रहती है।”

“तब,” मानसी कहने लगी, “प्रजातंत्र राज्‍य में कोई व्‍यक्ति किसी दूसरे व्‍यक्ति पर अत्‍याचार नहीं कर सकता ?”

“नहीं।”

“और प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपनी इच्‍छानुसार कार्य करने को स्‍वतंत्र है ?”

“पूर्ण स्‍वतंत्र ।”

“आह! यही तो मैं जानना चाहती थी।”

“तुम क्‍यों जानना चाहती हो ?”

“ओह, मैं चाहती थी-मैं तुमसे यही बात कहलाना चाहती थी।”

“हमारी यह नवयुवती नई बातें सीखने के लिए उत्‍सुक है।”-पूनिन सोफे पर बोल उठा।

जब मैं रास्‍ते से होकर बाहर जाने लगा तो मानसी मेरे साथ हो ली। पर उसका ऐसा करना शिष्‍टाचार की दृष्टि से नहीं, बल्कि उसी धूर्ततायुक्‍त उद्देश्‍य से था। उससे विदा ग्रहण करते हुए मैंने पूछा, “ क्‍या तुम सचमुच उसे इतना अधिक प्‍यार कर सकती हो ?”

“उसे मैं प्‍यार करती हूं या नहीं, यह मेरा काम है।” उसने उत्‍तर दिया, “जो होना है, वह होकर ही रहेगा।”

“देखो, तुम जो कुछ करना चाहती हो, उससे सावधान हो जाओ। आग के साथ मत खेलो...वह तुम्‍हें जला डालेगी।”

“सर्दी से ठिठुरकर मरने की अपेक्षा जलकर मरना कहीं अच्‍छा है! तुम अपनी नेक सलाह अपने पास ही रखो। तुम यह कैसे कह सकते हो कि वह मेरे साथ शादी नहीं करेगा ? अथवा तुम यह कैसे जानते हो कि मैं विवाह करने की विशेष इच्‍छा रखती हूं ? यदि मेरा सर्वनाश हो जाय...तो इससे तुम्‍हें क्‍या ?”

मेरे बाहर होने पर उसने दरवाजा बन्‍द कर दिया। मुझे यह याद है, घर जाते हुए मैं कुछ प्रसन्‍नता के साथ यह सोचने लगा कि मेरा मित्र टारहोव अपनी इस नवीन ढंग की प्रेयसी को पाकर बड़ी विपत्ति में पड़ेगा...उसे यह सुख बहुत मंहगा पड़ेगा। पर वह इसे पाकर सुखी होगा, यह बात मैं खेदपूर्वक अनुभव कर रहा था।

इस घटना को बीते तीन दिन हो चुके थे। मैं अपने कमरे में लिखने की मेज के पास बैठा था। उस समय मैं कोई विशेष काम नहीं कर रहा था, बल्कि जलपान के लिए तैयार हो रहा था। मुझे सनसनाहट की आवाज मालूम हुई। मैंने सिर उठा कर देखा और देखते ही मेरे होश उड़ गये। मैं जड़वत् बन गया। मेरी आंखों के सामने एक कठोर, भयानक, सफेद छाया-मूर्ति खड़ी दीख पड़ी। वह पूनिन की मूर्ति थी। वह अर्द्धनिमीलित नेत्रों से मेरी ओर देख रहा था, उसकी पलकें धीरे-धीरे झपकी ले रही थीं। उसकी आंखों से निश्‍चेष्‍ट भय का भाव-वैसा ही भय, जैसा संत्रस्‍त खरगोश में पाया जाता है-व्‍यक्‍त हो रहा था। उसकी भुजाएं उसके दोनों बगलों में छड़ी जैसी लटक रही थीं।

“पूनिन‍, तुम्‍हें क्‍या हुआ है? तुम यहां कैसे आये? क्‍या तुम्‍हें किसी ने देखा नहीं? बात क्‍या है? बोलो न !”

“वह भाग गई।” पूनिन ने रूद्ध कंठ से बहुत ही धीमी आवाज में उत्‍तर दिया, जो मुश्किल से सुनाई पड़ती थी।

“यह तुम क्‍या कहते हो ?”

“वह भाग गई।”- उसने फिर दुहराया।

“कौन ?”

“मानसी। वह रात में ही निकल गई और एक परचा छोड़ गई है।”

“परचा ?”

“हां, उसने लिखा है-'मैं तुम्‍हें धन्‍यवाद देती हूं। मैं फिर वापस नहीं लौटूंगी। मेरी तलाश में न रहना।' हमने ऊपर-नीचे सब जगह छान डाली। रसोइये से पूछ-ताछ की, किन्‍तु उसे भी कुछ पता नहीं। जोर से नहीं बोल सकता। मुझे माफ करना। मेरा गला बैठ गया है।”

“मानसी तुम्‍हें छोड़कर चली गई!” मैंने विस्मित होकर कहा, “बड़ी मूर्ख निकली! मि. बैबूरिन तो अवश्‍य ही अत्‍यंत निराश हुए होंगे। वह अब क्‍या करना चाहते हैं ?”

“कुछ भी करना नहीं चाहते। मैं गवर्नर जनरल के पास जाना चाहता था, पर उन्‍होंने मना कर दिया। मैं पुलिस को इसकी सूचना देना चाहता था। उन्‍होंने उसके लिए भी मना कर दिया और बहुत नाराज हुए। वह कहते हैं, “मानसी स्‍वतंत्र है। मैं उसके किसी काम में बाधा नहीं देना चाहता।” वह इस हालत में भी अपने ऑफिस में काम करने गये हैं। परंतु देखने में वह जिन्‍दा जैसे नहीं, बल्कि मुर्दा मालूम पड़ते हैं। वह मानसी को बहुत ज्‍यादा प्‍यार करते थे...हां ! हम दोनों उसे कितना प्‍यार करते थे!”

इसी वक्‍त पूनिन को देखकर मुझे पहले-पहल यह मालूम हुआ कि वह लकड़ी की बनी हुई एक जड़ मूर्ति नहीं, बल्कि एक सजीव प्राणी है। उसने अपनी दोनों मुट्ठियों को ऊपर उठा कर अपनी खोपड़ी पर रखा, जो हाथीदांत की तरह चमक रही थी।

“कृतघ्‍न बालिका !” उसने आह-भरी आवाज में चिल्‍ला कर कहा, “किसने तुम्‍हें खिलाया-पिलाया-उढ़ाया-पहनाया और पाल-पोसकर बड़ा किया? किसने तुम्‍हारे लिए चिन्‍ता की और अपना सारा तन-मन प्राण तुम पर न्‍योछावर कर दिया... और तुमने इन सारी बातों को भुला दिया! यदि तुम मुझे छोड़ देतीं तो सचमुच वह कोई बड़ी बात न होती, पर पैरेमन सेमोनिच को ... पैरेमन...”

मैंने पूनिन से बैठ जाने और आराम करने की प्रार्थना की।

पूनिन ने अपना सिर हिलाया, “नहीं, मैं नहीं बैठूंगा। मैं तुम्‍हारे पास आया हूं...मैं नहीं जानता, किसलिए। मैं विक्षिप्‍त-सा हो रहा हूं। घर पर अकेले बैठे रहना भयानक जान पड़ता है। मैं अपने को क्‍या करूंगा ? मैं कमरे के बीच खड़ा होकर अपनी आंखों को मूंद लेता हूं और “मानसी !” नाम लेकर पुकारता हूं। पागल होने का यही तरीका है। मगर नहीं, मैं व्‍यर्थ की बातें क्‍यों बक रहा हूं ? मुझे मालूम है कि मैं तुम्‍हारे पास किसलिए आया हूं। तुमको याद होगा कि उस दिन तुमने मुझे वह महा निकृ‍ष्‍ट कविता पढ़कर सुनाई थी...तुम्‍हें यह भी स्‍मरण होगा कि उसमें एक वृद्ध पति का जिक्र आया है। तुमने ऐसा क्‍यों किया था ? क्‍या तुम्‍हें उस समय कुछ मालूम हुआ था...या तुमने कुछ अनुमान किया था ?” पूनिन ने मेरी ओर दृष्टिपात किया, “पिओटर पिट्रोविच।” वह एकाएक चिल्‍ला उठा और उसका सारा शरीर कांपने लगा, “तुम शायद जानते हो कि वह कहां है ? मेरे सहृदय मित्र, मुझे बताओ, वह किसके पास गई है ?”

मैं घबरा गया और मेरी आंखें नीचे की ओर झुक गईं।

“शायद अपनी चिट्ठी में उसने कुछ लिखा हो।” मैंने कहना शुरू किया।

“उसने लिखा है कि मैं आप लोगों को छोड़कर जा रही हूं, क्‍योंकि मै किसी और ही व्‍यक्ति से प्रेम करती हूं। मेरे प्‍यारे नेक दोस्‍त, तुम यह जरूर जानते हो कि वह कहां है ? उसे बचाओ, हम लोगों को वहां ले चलो। हम उसे वापस लौट आने के लिए कहेंगे। जरा सोचो तो कि वह कैसे व्‍यक्ति का सर्वनाश कर रही है।”

पूनिन का चेहरा एकदम लाल हो उठा। ऐसा मालूम पड़ता था, मानो उसके सिर में खून दौड़ गया हो। वह धम-से घुटनों के बल गिर पड़ा। “मित्र हमें बचाओ। हमें वहां ले चलो।”

मेरा नौकर दरवाजे पर आया और चकित होकर चुपचाप खड़ा-खड़ा यह सब दृश्‍य देखता रहा।

मैंने बड़ी मुश्किल से पूनिन को उठाकर खड़ा किया और उसे यह विश्‍वास दिलाया कि अगर इस संबंध में मुझे किसी के प्रति कुछ संदेह भी हो तो फौरन उसी दम और खासकर दोनों साथ मिलकर कुछ नहीं कर सकते, क्‍योंकि इससे हमारे सारे प्रयत्‍न निष्‍फल हो जायेंगे। मैंने उसे यह भी विश्‍वास दिलाया कि इस मामले में भरसक प्रयत्‍न करने के लिए मैं तैयार हूं, मगर किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं होऊंगा। पूनिन ने मेरा विरोध नहीं किया और असल में मेरी बातों को उसने सुना भी नहीं। वह सिर्फ समय-समय पर कातर स्‍वर में दुहराता रहा, “उसे बचाओ, उसे और बैबूरिन को बचाओ।” आखिर वह रो पड़ा। “कम-से-कम एक बात तो बताओ।” उसने पूछा, “क्‍या वह सुंदर है ? नवयुवक है ?”

“हां, वह नवयुवक है।” मैंने उत्‍तर दिया।

“वह नवयुवक है।” पूनिन ने इस वाक्‍य को अपने गालों के आंसू पोंछते हुए दुहराया, “और यह युवती नई...बस, इसी से यह व्‍याधि खड़ी भई !”

उसके मुंह से यह छन्‍द-बद्ध वाक्‍य संयोग से निकल पड़ा, क्‍योंकि बेचारे पूनिन की प्रवृत्ति उस समय छन्‍द-रचना की ओर थोड़े ही थी। मैं एक बार फिर उसके असंबद्ध वाक्‍य-प्रवाह अथवा उसके मूक हास्‍य को ही सुनने के लिए बुहत कुछ न्‍योछावर कर देता किन्‍तु हाय! उसकी वह वक्‍तृत्‍व शक्ति सदा के लिए विलीन हो गयी और फिर मुझे उसका हास्‍य कभी सुनाई नहीं दिया।

मैंने उसे विदा किया कि ज्‍यों‍ ही मुझे कोई बात निश्चित रूप में मालूम होगी, मैं उसे सूचित कर दूंगा। टारहोव के नाम का मैंने कोई जिक्र नहीं किया। पूनिन एकाएक बिल्कुल निस्‍तब्‍ध हो गया। “बहुत अच्‍छा, बहुत अच्‍छा, महाशय, आपको धन्‍यवाद।”

उसने करूणोत्‍पादक मुख से कहा और 'महाशय' शब्‍द का व्‍यवहार किया, जैसा उसने पहले कभी नहीं किया था, “सिर्फ एक बात का ध्‍यान रखना। पैरेमन सेमोनिच से कुछ भी नहीं कहना, नहीं तो वह नाराज हो जायेगा। सारांश यह कि उसने इस विषय की चर्चा की बिल्‍कुल मनाही कर दी है। अच्‍छा, महाशय, अब विदा होता हूं।”

ज्‍योंही वह उठा और अपनी पीठ को मेरी ओर घुमाया, मुझे यह देखकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि वह कितना दीन एवं दुर्बल हो गया है। वह दोनों पांवों से लंगड़ाकर चलता था और हरेक पग पर घूम जाता था।

“यह बुरा लक्षण है। इसका अर्थ यह है कि इसका अन्‍त निकट है।” मैंने सोचा।

यद्यपि मैंने पूनिन से वादा किया था कि मैं मानसी का पता लगाऊंगा और अगस्‍त में उसी दिन टारहोव के यहां जाने के लिए चल पड़ा, तथापि मुझे किसी बात का पता चलने की तनिक भी उम्‍मीद नहीं थी, क्‍योंकि मुझे यह निश्‍चय था कि या तो वह अपने घर पर मौजूद नहीं होगा और हुआ भी तो वह मुझसे मिलने से इनकार कर देगा। मेरा यह अनुमान गलत निकला। मैंने टारहोव को घर पर मौजूद पाया। वह मुझसे मिला और जो कुछ जानना चाहता था, वह सब मैंने जान लिया, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं हुआ। ज्‍यों‍ही मैंने उसके दरवाजे के चौखट को पार किया, टारहोव दृढ़तापूर्वक तेजी के साथ मुझसे मिलने आया। उस समय उसकी आंखें चमक रहीं थी और उनसे ज्‍योति निकल रही थी। उसका चेहरा बहुत मनोहर और कान्तिपूर्ण बन गया था। उसने दृढ़ता के साथ फुर्ती से कहा, “सुनो, पेटया, मेरे मित्र, तुम जिस काम से आये हो और तुम जो कुछ कहना चाहते हो, वह मैं समझता हूं। मगर मैं तुम्‍हें सावधान किये देता हूं कि अगर तुम मानसी के विषय में या उसके कार्य के संबंध में, अथवा जिस मार्ग को मैंने अपनी सहज-बुद्धि के अुनसार ग्रहण किया है, उस विषय में एक शब्‍द भी कहोगे तो फिर हम दोनों मित्र के रूप में नही रहेंगे। हम दोनों परिचित के रूप में भी नहीं रह जायेंगे और तब मैं तुमसे कहूंगा कि मेरे साथ एक अपरिचित व्‍यक्ति-जैसा व्‍यवहार करो।”

मैंने टारहोव पर दृष्टि डाली। वह भीतर से इस तरह कांप रहा था, मानो सितार का तार कसकर खींचा गया हो। उसके सम्‍पूर्ण शरीर में झनझनाहट जैसी आवाज हो रही थी। वह बड़ी मुश्किल से अपने यौवन के उच्‍छवास एवं आवेश को दबाकर रख सकता था। आनंदातिरेक के कारण वह आत्‍म-विभोर हो गया था-उसकी आत्‍मा आनंदसागर में तल्‍लीन हो गई थी।

“क्‍या यह तुम्‍हारा अंतिम निश्‍चय है ?” मैंने खेदपूर्वक पूछा।

“हा, पेटया, मेरे मित्र, यह मेरा अंतिम निश्‍चय है।”

“ऐसी हालत में मेरे लिए तुमसे विदा मांगने के सिवा और कुछ कहना नहीं है।”

टारहोव ने धीरे से अपनी पलकों को नीचा कर लिया। उस समय वह मारे आनंद के फूला नहीं समाता था।

“अच्‍छा, पेटया, विदा !” उसने कुछ-कुछ नाक से बोलते और मुस्‍कराते हुए तथा अपने सफेद दाँतों को दिखलाते हुए कहा।

मैं अब क्‍या करता ! मैंने उसे आनंदोपभोग करने के लिए छोड़ दिया। ज्‍योंही मैंने बाहर निकलकर दरवाजा बंद किया, कमरे का दूसरा दरवाजा भी बंद हो गया-इसे मैंने खुद अपने कानों से सुना।

दूसरे दिन मैं भरे हुए दिल से, पांव घसीटता हुआ, अपने अभागे परिचितों से मिलने के लिए उनके स्‍थान पर गया।

मैं मन-ही-मन यह आशा कर रहा था-मानव-प्रकृति की यह दुर्बलता है- कि वे मुझे अपने घर पर नहीं मिलेंगे, किन्तु इस बार भी मैने धोखा खाया। दोनों घर पर ही मौजूद थे। तीन दिनों के अंदर उन लोगों में जो परिवर्तन हो चुका था, वह किसी भी व्‍यक्ति को खटके बिना नहीं रह सकता था। पूनिन का चेहरा प्रेत जैसा सफेद और मैला-कुचैला दीख पड़ता था। वह पहले जैसा बातूनी अब बिल्‍कुल नहीं रह गया था। वह लापरवाही के साथ धीरे-धीरे पहले जैसे ही अस्‍फुट स्‍वर में बोला और कुछ घबराया-सा मालूम पड़ने लगा। उधर बैबूरिन संकोचशील, सिकुड़ा हुआ-सा जान पड़ता था और इतना काला हो गया था, जितना पहले कभी नहीं था वैसे तो अच्‍छे-से-अच्‍छे मौके पर भी वह मौन रहता था, पर वह अब कभी-कभी कुछ शब्‍द उच्‍चारण करने के सिवा और कुछ नहीं बोलता था। उसके चेहरे पर पत्‍थर जैसी कठोरता का भाव जमा हुआ-सा मालूम पड़ता था।

मेरे लिए चुप रहना असंभव हो गया, पर मैं कहता भी तो क्‍या? मैंने पूनिन के कान में चुपके से कहा, "मुझे कुछ भी पता नहीं चला और मैं तुम्‍हें सलाह दूंगा कि उसकी कुछ भी आशा न रखो।”

पूनिन ने अपनी छोटी-छोटी फूली हुई लाल आँखों से -उसके चेहरे में सिर्फ यही लाली रह गयी थी-मेरी ओर देखा और अस्‍फुट स्‍वर में कुछ बड़बड़ाया। फिर इसके बाद वहां से लंगड़ाता हुआ चला गया। मैं पूनिन से जो कुछ कह रहा था, उसे शायद बैबूरिन अनुमान से ताड़ गया और अपने बंद होंठों को-जो इस कदर कसकर बंद थे, मानो लेर्इ से आपस में सटे हुए हों- खोलते हुए सावधान स्‍वर में कहा, “महाशय, पिछली दफा जब आप हम लोगों से मिलने आये थे, उसके बाद हम लोगों के यहां एक अप्रिय घटना हो गई है। हम लोगों की नवयुवती मित्र मानसी ने हमारे साथ रहना असुविधाजनक समझकर हमें छोड़ देने का निश्चय किया है और इस संबंध में उसने हमें लिखित सूचना दे दी है। यह विचार कर कि हमें उसके ऐसा करने के इरादे में रूकावट डालने का कोई हक नहीं है, हम लोगों ने उसे अपने विचारानुसार जैसा वह सर्वोत्‍तम समझे, वैसा करने के लिए स्‍वतंत्र छोड़ दिया है। हमें विश्‍वास है कि सुखी होगी।” अंतिम वाक्य जोड़ते हुए उसने कुछ प्रयत्‍न के साथ कहा, “और मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि इस विषय का अब कोई जिक्र न कीजिये, क्‍योंकि इस प्रकार की चर्चा व्‍यर्थ है और कष्‍टप्रद भी।”

“सो यह भी टारहोव के समान ही मुझे मानसी के संबंध में कुछ बोलने से मना करता है।” यही विचार मेरे मन में उदित हुआ और मन-ही-मन मैं इस पर आश्‍चर्य किये बिना न रह सका। तभी तो बैबूरिन जीनो की इतनी ज्‍यादा कद्र करता है। मेरी इच्‍छा हुई कि उस तत्‍व ज्ञानी के संबंध में कुछ बातें उसे बता दूं, पर मेरी जबान से कोई बात ही न निकली और यह अच्‍छा ही हुआ।

फिर मैं जल्‍द ही वहां से अपने काम पर चला गया। विदा होते समय न तो पूनिन ने और न बैबूरिन ने ही फिर से मिलने की बात की। दोनों एक ही शब्‍द का उच्‍चारण किया, “विदा!”

पूनिन ने 'टेलीग्राफ' पुस्‍तक-जिसे मैंने उसे ला दिया था- मुझे लौटा दी, मानो यह कहते हुए कि “मुझे अब ऐसी चीज की दरकार नहीं है।”

इसके एक सप्‍ताह बाद एक विचित्र घटना हुई। बसंत ऋतु का सहसा आरम्‍भ हो चुका था। दोपहर में अट्ठारह डिग्री तक गर्मी पहुंच चुकी थी। पृथ्‍वी पर चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आ रही थी। मैंने भाड़े पर एक टट्टू लिया और उस पर सवार होकर शहर के बाहर पहाड़ की तरफ सैर के लिए निकल पड़ा। सड़क पर मुझे एक छोटी गाड़ी दिखाई पड़ी, जिसमें एक जोड़ा तेज घोड़े जुते हुए थे। उनके कानों तक कीचड़ भरा था, पूछें गुथी हुई थीं और गरदन तथा आगे के बालों में लाल रंग के रेशमी कपड़े लिपटे हुए थे। उनका साज शिकारियों के घोड़ों जैसा था। तांबे का मंडल और झब्‍बे लटक रहे थे। एक चुस्‍त युवक कोचवान बिना आस्‍तीन का नीले रंग का कोट, पीले रंग की धारीदार रेशमी कमीज और मयूर के पंखों से सजी हुई एक फेल्‍ट टोपी पहने हुए उन घोड़ों को हांक रहा था। उसकी बगल में शिल्‍पकार या वणिक श्रेणी की एक लड़की फूलदार रेशमी जाकेट पहने और बड़ा सा लम्‍बा रूमाल सिर में लपेटे बैठी थी। वह खुशी के मारे उछाल रही थी। कोचवान भी हंस रहा था। मैंने अपने टट्टू को एक तरफ कर लिया और तेजी से जाती हुई उस प्रसन्‍न जुगल जोड़ी की ओर विशेष ध्‍यान नहीं दिया। इतने में हठात् उस युवक ने घोड़े को आवाज दी...।

तब मुझे पता लगा-अरे, यह तो टारहोव की जैसी आवाज मालूम होती है। मैं इधर-उधर देखने लगा। हां, वह टारहोव ही था-अवश्‍य वही था। किसानों की पोशाक पहने हुए था और उसकी बगल में मानसी के सिवा और कौन हो सकती थी ?

किन्‍तु उसी क्षण उनके घोड़ो ने अपनी चाल तेज की और एक मिनट के अंदर ही वे दृष्टि से ओझल हो गये। मैंने उनके पीछे टट्टू दौड़ाकर ले जाने की कोशिश की, किन्‍तु मेरा टट्टू बूढ़ा था, जो चलते समय एक ओर से दूसरी ओर मटककर चलता था, और अपनी चाल से चलने की अपेक्षा दौड़ाकर ले जाने में वह और भी सुस्‍त हो जाता था।

“प्‍यारे दोस्‍त ! खूब जी भर कर मौज कर लो ?” मैंने धीरे से बड़बड़ाकर कहा।

यहां पर मुझे यह भी बता देना चाहिए कि इस पूरे हफ्ते में मैने टारहोव को नहीं देखा था, यद्यपि मैं तीन बार उसके कमरे में गया। वह घर पर कभी नहीं रहता था। बैबूरिन और पूनिन इन दोनों में किसी से भी मेरी मुलाकात नहीं हुई। मैं उन लोगों से मिलने भी नहीं गया।

टट्टू पर सवार होकर बाहर जाने में मुझे सर्दी लग गई थी। यद्यपि मौसम बहुत गर्म था, तथापि हवा चुभती हुई-सी चल रही थी। मैं बहुत बीमार हो गया और जब चंगा हुआ तो अपनी दादी के साथ, डॉक्‍टर की सलाह से, स्‍वास्‍थ्‍य लाभ करने के लिए देहात चला गया। फिर मैं मास्‍को नहीं आया। शरद ऋतु में मैं पीटर्सबर्ग-विश्‍वविद्यालय में भर्ती हो गया।