भाग 3 / स्वाभिमानी / इवान तुर्गनेव

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1849

सात नहीं, बल्कि पूरे बारह वर्ष बीत गये और मैंने अपने जीवन के बत्‍तीसवें वर्ष में पदार्पण किया था। मेरी दादी को मरे हुए बहुत दिन हो गये थे। मैं पीटर्सबर्ग-गृह विभाग के एक पद पर काम करता था। टारहोव मेरी दृष्टि से दूर हो गया था। वह फौज में भर्ती होकर चला गया था और प्राय: हमेशा प्रांतों में ही रहा करता था। हम दोनों में दो बार मुलाकात हो चुकी थी, और पुराने दोस्‍त के रूप में दूसरे को देखकर प्रसन्‍न भी हुए थे, पर बातचीत में पुरानी बातों का जिक्र नहीं आया। आखिरी बार जब हम दोनों मिले थे, उस समय वह-यदि मुझे ठीक स्‍मरण है-एक विवाहित पुरुष बन चुका था।

गर्मी के मौसम में, एक दिन जब हवा बिल्‍कुल बंद थी, मैं गोरोहोवे स्‍ट्रीट में यों ही चक्‍कर लगा रहा था और अपने दफ्तर के कामों को कोस रहा था, जिसके कारण मुझे पीटर्सबर्ग में और शहर की गर्मी, दुर्गंध और धूल में रहना पड़ता था, मार्ग में मुझे एक मुर्दा मिला। वह एक टूटी-फूटी मुर्दा ढोने वाली गाड़ी पर रखा हुआ था, सिर पर लकड़ी की एक पुरानी ताबूत फटे-पुराने काले कपड़े से आधी ढकी हुई थी। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलने के कारण गाड़ी में जोर-जोर से जो झटका लगता जाता था, उससे वह ताबूत भी ऊपर-नीचे हिल-डुल रहा था। उस गाड़ी के साथ गंजे सिर वाला एक बूढ़ा आदमी जा रहा था।

मैंने उसकी ओर देखा। उसका चेहरा परिचित-सा मालूम पड़ा। उसने भी अपनी आंखे मेरी ओर कीं...अरे, यह तो बैबूरिन था।

मैंने अपनी टोपी उतार ली, उसके पास गया, अपना नाम बतलाया और उसके साथ-साथ चलने लगा।

“आप किसे दफनाने जा रहे हैं ?” मैंने पूछा।

उसने कहा, “निकेंडर विवेलिच पूनिन को !”

मुझे यह पहले ही अनुमान हो गया था कि वह इसी नाम का उच्‍चारण करेगा, पर फिर भी उसके मुंह से यह नाम सुनकर मेरा हृदय दु:खित हो उठा। दिल बैठ गया। पर मुझे इस बात की खुशी अवश्‍य थी कि मुझे अपने एक पुराने दोस्‍त के प्रति अंतिम सम्‍मान प्रदर्शित करने का संयोग मिल गया।

“क्‍या मैं आपके साथ चल सकता हूं, पेरामन सेमोनिच ?”

“जैसी आपकी मर्जी ? मैं इसके पीछे-पीछे अकेला ही जा रहा था। अब हम दो हो जायेंगे।”

एक घंटे से अधिक हम लोग चलते रहे। मेरा साथी आगे-आगे चल रहा था। चलते समय न तो उसकी आंखे ऊपर की ओर उठती थीं और न उसकी जबान ही हिलती थी। अंतिम बार जब मैंने उसे देखा था, तब से अब तक वह बिल्‍कुल बूढ़ा हो गया था। उसके लाल चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं और उसके बाल सफेद हो गये थे। बैबूरिन को अपने जीवन में बराबर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, परिश्रम और दु:ख झेलने पड़े थे, जिनके चिन्‍ह उसकी सम्‍पूर्ण आकृति से साफ दीख रहे थे। अभाव और गरीबी उसके जीवन के साथ बड़ी बेरहमी से पेश आई थीं।

अन्‍त्‍येष्टि-क्रिया समाप्‍त होने और पूनिन का नश्‍वर शरीर सदा के लिए भूमिसात हो जाने के बाद बैबूरिन दो मिनट तक उस नवनिर्मित मिट्टी के स्‍तूप के निकट खुले सिर और नतमस्‍तक खड़ा रहा, फिर उसने अपने क्षीण एवं विकृत चेहरे और शुष्‍क बैठी हुई आंखें मेरी ओर करके मुझे गंभीरतापूर्वक धन्‍यवाद दिया। इसके उपरान्‍त वह वहां से चलने के लिए तैयार हुआ, पर मैंने उसे रोक रखा।

“आप इस समय कहां रहते हैं, पेरामन सेमोनिच? मैं आपके घर आकर मिलना चाहता हूं। मुझे इस बात का बिल्‍कुल ख्‍याल नहीं था कि आप पीटर्सबर्ग में रहते हैं। हम दोनों अपने पुराने दिनों की याद कर सकते हैं और अपने पुराने दोस्‍त की चर्चा भी कर सकते हैं।”

बैबूरिन ने तत्‍काल मुझे जवाब नहीं दिया।

“मुझे पीटर्सबर्ग आये हुए दो वर्ष हो गये।” आखिर उसने कहा, “मैं शहर के अंतिम भाग में रहता हूं, पर यदि तुम सचमुच मेरा घर देखना चाहते हो तो आना।”

उसने अपना पता-ठिकाना मुझे देते हुए कहा, “शाम को आना। उस समय हम बराबर घर पर ही रहते हैं...हम दोनों ही रहते हैं।”

“आप दोनों कौन ?”

“मैं विवाहित हूं। मेरी पत्‍नी आज कुछ अस्‍वस्‍थ है। इसलिए वह नहीं आई। इस निरर्थक रस्‍म को पूरा करने के लिए एक आदमी ही काफी है। इन बातों पर विश्‍वास ही कौन करता है?”

मुझे बैबूरिन के अंतिम शब्‍दों पर आश्‍चर्य हुआ, पर मैंने कुछ भी न कहा। फिर एक गाड़ी वाले को बुलाया और बैबूरिन से उस पर सवार होकर उसके घर चलने के लिए कहा, पर उसने अस्‍वीकार कर दिया।

उसी दिन संध्‍या को मै उससे मिलने गया। मार्ग में मैं बराबर पूनिन के संबंध में ही सोचता रहा। मुझे उस समय की याद आ गई, जब मैं पहले-पहल उससे मिला था। उन दिनों वह कितना उल्‍लासपूर्ण और प्रसन्‍नचित जान पड़ता था। फिर इसके बाद मास्‍को आकर वह कितना संयमशील बन गया था- खासकर अंतिम बार जब मैंने उसे देखा था। और अब तो वह अपने जीवन से आखिरी हिसाब-किताब कर चुका था। इससे तो यही मालूम पड़ता है कि जीवन अपना पावना पाई-पाई चुका लेने के लिए उतारू हो जाता है। बैबूरिन विबोर्गस्‍की मुहल्‍ले के एक छोटे से घर में रहा करता था। इस मकान को देखकर मुझे उसकी मास्‍को की झोपड़ी की याद आ गई। पीटर्सबर्ग में वह जिस मकान में रहता था, वह उससे भी अधिक भद्दा मालूम पड़ा।

जब मैं उसके कमरे में दाखिल हुआ, वह एक कोने में अपने हाथों को घुटनों पर रखे एक कुर्सी पर बैठा था। एक मोमबत्‍ती मंद ज्‍योति से जल रही थी और उसका झुका हुआ सफेद सिर कुछ-कुछ चमक रहा था। उसने मेरे कदमों की आहट सुनी, चौंककर उठ खड़ा हुआ और मेरा इस रूप में हार्दिक स्‍वागत किया, जिसकी मुझे आशा न थी। कुछ मिनटों के बाद उसकी स्त्री भी वहां आ गई। मैंने फौरन पहचान लिया कि वह मानसी थी- और तब यह बात मेरी समझ में आई कि बैबूरिन ने क्‍यों मुझे अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया था। वह मुझे यह दिखाना चाहता था कि आखिर उसकी चीज उसे मिल गयी। मानसी में बहुत परिवर्तन हो गया था, उसका चेहरा, उसका स्‍वर, उसके तौर-तरीके-सब कुछ बदले हुए से मालूम होते थे, पर सबसे बड़ा परिवर्तन जो हुआ था, वह उसकी आंखों में। पहले ऐसा मालूम पड़ता था, मानो वे द्रोहपूर्ण सुंदर आंखे जीवन्‍त रूप में नयनवाण चलाती हों, वे आंखे चुपके से चमक उठती थीं और उनकी वह चमक चकाचौंध पैदा करने वाली होती थी, उनके कटाक्ष चुभते से हुआ करते थे, किन्‍तु अब वे ही आंखे किसी वस्‍तु को सरल, शान्‍त एवं स्थिर भाव से देखा करती थीं। उनकी पुतलियों में पहले जैसी कान्ति अब नहीं रह गई थी। उसकी कोमल एवं शिथिल दृष्टि से ऐसा मालूम पड़ता था, मानो कह रही हो-”मैं अब पालतू बन गई हूं। मैं अब भली मानस हूं।” उसकी अनवरत विनीत मुस्‍कुराहट से भी यही भाव झलक रहा था। उसके कपड़े भी इसी भाव में द्योतक थे-भूरा रंग और उस पर छोटे-छोटे छींटे। वह मेरे पास आई और मुझसे बोली, “क्‍या आप मुझे पहचानते है ?” उसके इस प्रकार पूछने में कुछ भी झिझक नहीं मालूम पड़ती थी, पर इसका कारण यह नहीं था कि उसमें लज्‍जा-भाव नहीं रह गया था, या कि अतीत काल की उसकी स्‍मृति नष्‍ट हो चुकी थी, बल्कि इसका कारण यह था कि उसका क्षुद्र अहंभाव अब बिल्‍कुल नष्‍ट हो चुका था।

मानसी ने पूनिन के विषय में बहुत कुछ बातों कीं। वह एक समान स्‍वर में बातचीत करती थी और उसके उस स्‍वर में भी अब पहले जैसा तेज नहीं रह गया था। मुझे उससे मालूम हुआ कि पूनिन अंतिम कई वर्षों में बहुत कमजोर हो गया था और उसकी प्रकृति बालक जैसी हो गई थी। उसकी यह प्रकृति इस सीमा तक पहुंच गई थी कि यदि उसे खेलने के लिए खिलौने नहीं मिलते थे तो वह अत्‍यंत दु:खित हो उठता था। लोग तो यही कहा करते थे कि वह रद्दी चीजों से खिलौने बनाकर बेचा करता है, मगर असल में बात यह थी कि वह उन खिलौनों से खुद खेला करता था। कविता के लिए उसके हृदय में जो व्‍यसन था, वह अंत तक उसमें कायम रहा और उसे अगर कोई बात याद थी तो वह सिर्फ कविता ही थी। मृत्‍यु से कई दिन पूर्व उसने रोसिएड की कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाई थीं। पर मुश्किल से वह उसी तरह डरा करता था, जिस तरह बच्‍चे हौआ से डरा करते हैं। बैबूरिन के प्रति उसकी जो अनुरक्ति थी, वह अन्‍त तक एक समान बनी रही। बराबर एक रूप में उसकी पूजा करता रहा और अंत काल में भी जबकि वह मृत्‍यु के अंधकारपूर्ण आवरण से आच्‍छादित हो रहा था, उसने कांपती हुई जबान में, 'उपकारकर्ता' शब्‍द का उच्‍चारण किया था। मुझे मानसी से यह भी मालूम हुआ कि मास्‍को की घटना के बाद भी बैबूरिन को दुर्भाग्‍यवश एक बार फिर सारे रूस की खाक छाननी पड़ी थी और वह लगातार एक काम से दूसरे काम पर मारा-मारा फिरता रहा। पीटर्सबर्ग में ही उसे फिर एक प्राईवेट नौकरी मिल गई थी, पर अपने मालिक से कुछ अनबन हो जाने के कारण कई दिन पहले उसने मजबूर होकर वह काम भी छोड़ दिया था। वजह यह थी कि बैबूरिन ने मजदूरों को पक्ष लेने का साहस दिखलाया था।

मानसी के शब्‍दों के साथ जो मुस्‍कुराहट बनी रहती थी, उससे चिन्तित होकर मैं सोच में पड़ गया था। उसके पति की आकृति को देखकर मेरे हृदय में जो भावना उत्‍पन्‍न हुई थी, उसे उसकी मुस्‍कुराहट ने बिल्‍कुल पक्‍का कर दिया था। उन दोनों को किसी प्रकार अपनी जीविका मात्र चलाने के लिए भी कठिन परिश्रम करना पड़ता था, इसमें तो कोई शक नहीं था। हम लोगों के वार्तालाप में बैबूरिन ने बहुत थोड़ा भाग लिया। वह जितना दु:खित जान पडता था, उससे कहीं अधिक व्‍यस्‍त मालूम पड़ता था। ऐसा प्रतीत होता था, मानो कोई चिन्‍ता उसे स‍ता रही हो।

'पैरोमन सेमोनिच, यहां आओ।” रसोइए ने एकाएक दरवाजे पर हाजिर होकर क‍हा।

“क्‍यों, क्‍या है ? क्‍या चाहिए ?” उसने सशंकित होकर पूछा।

“यहां तो आओ।” रसोइए ने फिर जोर देते हुए अपनी बातों को दुहराया। बैबूरिन ने अपने कोट का बटन लगाया और वहां से बाहर चला गया।

जब मैं वहां मानसी के साथ अकेला रह गया तो उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ बदली हुई दृष्टि से देखा और बदले हुए स्‍वर में बिना मुस्‍कुराहट के कहा, “पीटर पेट्रोविच, मैं नहीं जानती कि तुम अब मेरे बारे में क्‍या सोचते हो, पर इतना मैं अवश्‍य कहूंगी कि तुम्‍हें याद होगा कि मैं पहले क्‍या थी। उस समय मैं अत्‍याभिमानी और क्षुद्रहृदया थी। भली मानस नहीं थी। मैं सिर्फ अपने सुख के लिए जीना चाहती थी, पर मैं तुम्‍हें यह बता देना चाहती हूं कि जब मैं परित्‍यक्‍ता होकर इधर-उधर मारी-मारी फिर रही थी और मृत्‍यु की बाट जोह रही थी, या अपने इस जीवन का अंत कर डालने के लिए अपने दिल में हिम्‍मत लाने की चेष्‍टा कर रही थी, ऐसे समय में एक बार फिर मेरी मुलाकात पहले की तरह पैरोमन सेमोनिच से हुई, और उसने मुझे फिर बचा लिया। उसके मुंह से ऐसा एक शब्‍द भी नहीं निकला, जो मेरे दिल पर चोट पहुचावे-निंदा का या उलाहने का-एक शब्‍द भी नहीं। उसने मुझसे कुछ पूछा तक नहीं। मैं इस उदारतापूर्ण व्‍यवहार के योग्‍य नहीं थी, पर उसने मुझे प्‍यार किया और मैं उसकी पत्‍नी बन गई। मैं करती भी क्‍या ? मैं मरने में भी सफल न हुई थी और अपने इच्‍छानुसार जी भी नहीं सकती थी। ऐसी हालत में मैं क्‍या करती ? जो हो, उसकी यह दया ही थी, जिसके लिए मुझे कृतज्ञ होना चाहिए। बस, यह मेरी रामकहानी है।”

इतना कहकर वह चुप हो गई और एक क्षण के लिए मेरी ओर से उसने मुंह फेर लिया। इस समय भी उसके होंठों पर विनीत मुस्‍कुराहट खेल रही थी। “मेरा यह जीवन सुखकर है या नहीं, यह सवाल पूछने की जरूरत नहीं।” मुझे उसकी मुस्‍कुराहट में यही अर्थ छिपा हुआ जान पड़ा।

इसके बाद हम दोनों की बातचीत साधारण विषयों पर होने लगी। मानसी ने मुझसे कहा कि पूनिन एक बिल्‍ली भी छोड़ गया है, जिसे वह बहुत चाहता था। उसके मरने के बाद से वह बिल्‍ली छत के ऊपर के कमरे में चली गई है और वहीं रहा करती है और बराबर 'म्‍याऊं-म्‍याऊं' करती रहती है, मानो वह किसी को पुकार रही हो। पड़ोस के लोग उससे बहुत डरते हैं और यह सोचते हैं कि पूनिन की आत्‍मा बिल्‍ली के रूप में प्रकट हुई है।

“पैरोमन सेमोनिच किसी विषय को लेकर चिन्तित से मालूम पड़ते थे।” मैंने कहा।

“आह ! तुमने यह बात आखिर ताड़ ली ?” मानसी ने एक लम्‍बी सांस ली “चिन्तित होना उनके लिए अनिवार्य है। मुझे तुम्‍हें यह बताने की जरूरत नहीं कि पैरोमन सेमोनिच अब तक अपने सिद्धांतो पर स्थिर हैं। इस समय जो देश की दशा है, उससे तो उनके सिद्धांतो की और भी अधिक पुष्टि होती है।” (पुराने जमाने में जब वह मास्‍को में रहा करती थी, उस समय से अब के उसके कहने के ढंग में भिन्‍नता थी। उसके वाक्‍यों में एक प्रकार की साहित्यिक अभिरूचि-सी जान पड़ी थी) यद्यपि मैं यह नहीं जानती कि मैं आप पर विश्‍वास कर सकती हॅू या नहीं; और आप मेरी बातों को किस रूप में सुनेंगे।”

“आप यह क्‍यों ख्‍याल करती हैं कि आप मुझ पर विश्‍वास नहीं कर सकतीं ?”

“इसलिए कि आप सरकारी नौकर हैं। एक अधिकारी भी हैं।”

“तो, इससे क्‍या ?”

“इसका यह अर्थ है कि आप राजभक्‍त हैं।”

मानसी की इस सरलता पर मैं अपने मन में विस्‍मय करने लगा। मैंने कहा, “जो सरकार मेरे अस्तित्‍व तक से अवगत नहीं है, उसके प्रति मेरा क्‍या रूख है, इस संबंध में आपसे क्‍या कहूं ! पर आप अपने मन में निश्चिंत रहिये। मैं आपके साथ विश्‍वासघात नहीं करूंगा। जितना आप कल्‍पना करती हैं, उससे कहीं अधिक मैं आपके पति की भावनाओं के प्रति सहानुभूति रखता हूं।”

मानसी ने अपना सिर हिलाया।

“हां, आप ठीक कहते हैं”- उसने कुछ हिचकिचाहट के साथ कहना शुरू किया, “किन्‍तु देखिए, बात दरअसल यह है कि पैरोमन सेमोनिच की भावनाओं के शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत होने की संभावना है। वे अब छिपाकर नहीं रखी जा सकतीं। हमारे ऐसे अनेक साथी हैं, जिनका अब हम परित्‍याग नहीं कर सकते।”- मानसी ने एकाएक इस तरह बोलना बंद कर दिया, मानो उसने अपनी जबान काट ली हो। उसके अंतिम शब्‍दों को सुनकर मैं चकि‍त और कुछ-कुछ भयभीत-सा हो उठा। शायद उस समय का मेरा आंतरिक भाव मेरे चेहरे से व्‍यक्‍त हो रहा था और मानसी मेरे इस भाव को ताड़ गई थी।

जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूं, हम दोनों की बातचीत सन् 1849 में हुई थी। बहुत से लोगों को अब भी याद है कि वह जमाना कितना विपत्तिपूर्ण और कठिन था और सेंट पीटर्सबर्ग में किन घटनाओं द्वारा उसका निदर्शन हुआ था। बैबूरिन के चाल-चलन में, उसके सम्‍पूर्ण हाव-भाव में, जो कुछ विलक्षणताएं मालूम पड़ती थी, उनसे मैं खुद विस्मित हो रहा था। उसने एक बार नहीं, बल्कि दो बार सरकारी कार्रवाई के संबंध में तथा उच्‍च अधिकारियों के बारे में इतनी घोर कटुता एवं घृणा से जिक्र किया था कि मैं हक्‍का-बक्‍का-सा हो गया था। एक दिन अकस्‍मात् बैबूरिन ने मुझसे पूछा था।

“अजी, यह तो बताइये कि आपने अपने किसानों को स्‍वतंत्र कर दिया या नहीं?”

मुझे बाध्‍य होकर यह बात स्‍वीकार करनी पड़ी कि मैंने अभी तक नहीं किया।

“क्‍यों? मैं समझता हूं, तुम्‍हारी दादी मर चुकी है?”

मुझे मजबूर होकर यह भी स्‍वीकार करनी पड़ा।

“यह बिल्‍कुल ठीक है कि आप रईस लोग” बैबूरिन ने धीरे से बड़बड़ाते हुए कहा, “दूसरों के हाथों से अपना मतलब निकालना, अपना उल्‍लू सीधा करना, खूब जानते हैं।”

उसके कमरे में सबसे स्‍पष्‍ट स्‍थान में वेलिन्‍स्‍की का सुप्रसिद्ध रेखाचित्र टंगा हुआ था, मेज पर बैस्‍टूजेब द्वारा सम्‍पादित पोलर स्‍टार, नामक पत्र की एक पुरानी जिल्‍द रखी थी।

रसोइए के पुकारने पर बैबूरिन बाहर चला गया। उसके बाद बहुत समय बीत जाने पर भी वह वापस नहीं लौटा। मानसी कुछ बेचैन सी-होकर बार-बार उस दरवाजे की ओर देखती थी, जिससे होकर बैबूरिन बाहर गया था। आखिर‍ उसकी प्रतीक्षा मानसी के लिए असहृा हो उठी। वह उठ बैठी और मुझसे क्षमा याचना करते हुए उसी दरवाजे से वह भी बाहर निकल गयी। पन्‍द्रह मिनट के बाद वह अपने पति के साथ फिर वापस लौटी। उन दोनों ही के चेहरे से-जैसा मैंने समझा था- चिन्‍ता का भाव झलक रहा था, पर एकाएक बैबूरिन के चेहरे ने एक विभिन्‍न कटु, उन्‍मत जैसा भाव धारण कर लिया।

“आखिर, इसका अंत क्‍या होगा?” उसने एकाएक झटकती हुई सिसकती आवाज में, जो उसके लिए बिल्‍कुल नई बात थी, अपनी भयानक आंखों को इधर-उधर अपने चारों ओर बेचैनी के साथ दौड़ाते कहना शुरू किया, “लोग इस आशा में दिन काट रहे हैं कि शायद एक दिन अवस्‍था सुधर जाय और हम स्‍वतंत्रतापूर्वक रहते हुए स्‍वतंत्र वायुमंडल में स्‍वच्‍छन्‍दता के साथ सांस ले सकें, पर यहां तो बिल्‍कुल उल्‍टा ही नजर आता है -हर एक तरफ हालत दिन-पर-दिन बिगड़ती ही जा रही है। हम गरीबों का शोषण करके धनवानों ने हमें बिल्‍कुल खोखला बना डाला है। अपनी जवानी में मैंने धैर्यपूर्वक सब कुछ बर्दाश्‍त किया। उन्‍होंने...शायद...मुझे पीटा भी...हां।” उसने इतना कहा और फिर तेजी के साथ अपनी एड़ी के बल घूमकर और मेरी ओर झपट्टा-सा मारते हुए मुखातिब होकर बोला, “मेरे जैसे वृद्ध पुरूष को शारीरिक दण्‍ड दिया गया। हां, दूसरे अत्‍याचारों का मैं जिक्र नहीं करूंगा। किन्‍तु क्‍या सचमुच हमारे सामने इसके सिवा और कोई दूसरा उपाय नहीं है कि हम फिर उन पुराने दिनों की याद करें? इस समय नवयुवकों के साथ जैसा व्‍यवहार हो रहा है। उससे तो धैर्य की सीमा का भी अतिक्रमण हो जाता है। उससे सहनशीलता को सीमा भंग हो चुकी है। हां, जरा ठहरिये।”

मैंने बैबूरिन को इस दशा में पहले कभी नहीं देखा था। मानसी तो भय के मारे ऐसी हो रही थी कि काटो तो खून नही। बैबूरिन ने एकाएक खांसते हुए गला साफ किया फिर एक स्‍थान पर बैठ गया। अपनी उपस्थिति से बैबूरिन या मानसी को तंग करना अच्‍छा न समझकर मैंने वहां से चल देने का निश्‍चय किया और उन लोगों से विदा मांगने ही जा रहा था कि एकाएक दूसरे कमरे का दरवाजा खुला और एक आदमी की शक्‍ल वहां दीख पड़ी। यह शक्‍ल उस रसोइए की नहीं थी, बल्कि बिखरे हुए बाल और भयानक चेहरे वाले एक नवयुवक की थी।

“मामला कुछ गड़बड़ है, बै‍बूरिन, कुछ गड़बड़ है!” उसने शीघ्रतापूर्वक कम्पित स्‍वर में कहा और मुझ अपरिचित व्‍यक्ति को वहां देखकर उसी क्षण वहां से गायब हो गया।

बैबूरिन उस नवयुवक के पीछे दौड़ा। मैंने मानसी से हाथ मिलाया और अपने हृदय में अनिष्‍ट की आशंका करता हुआ वहां से चल दिया।

“कल पधारिए।” मानसी ने चिन्‍तापूर्वक धीरे से कहा।

“अवश्‍य आऊंगा।” मैंने जवाब दिया।

दूसरे दिन सुबह मैं बिछौने से उठा भी नहीं था कि मेरे नौकर ने मेरे हाथ में मानसी का एक पत्र दिया। उसने लिखा था-

“प्रिय पीटर पेट्रोविच, आज रात में पुलिस पैरोमन सेमोनिच को गिरफ्तार करके ले गई है, किले में या और कही, यह मैं नहीं जानती। उन लोगों ने मुझे कुछ नहीं बताया। पुलिस ने हमारे कुल कागजातों की छानबीन कर डाली, बहुतों पर मुहर लगा दी और उन्‍हें अपने साथ लेती गई। हमारे पुस्‍तकों और पत्रों की भी यही दशा हुई है। कहते हैं, शहर में बहुत से लोग गिरफ्तार किये गये हैं। आप अनुमान कर सकते हैं कि मुझ पर इस समय कैसी बीत रही है? अच्‍छा ही हुआ कि निकेडर वेवोलिच पूनिन यह सब देखने के लिए जीवित नहीं रहे। बहुत ही उपयुक्‍त समय पर वह इस संसार से महाप्रस्‍थान कर गये। अब मुझे बतलाइये कि मैं इस हालत में क्‍या करूं? मैं अपने लिए भयभीत नहीं होती- मैं भूखी नहीं मरूंगी- किन्‍तु पैरोमन सेमोनिच की चिन्‍ता मुझे बेचैन बनाये डालती है। हमारी स्थिति के लोगों के यहां आने में अगर आपको भय नहीं मालूम हो तो यहां पधारने की कृपा कीजिये।

आपकी विश्‍वस्‍त

मानसी"

इसके आधा घंटे के बाद मैं मानसी के पास पहुंच गया।

मुझे देखकर उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया। यद्यपि उसके मुंह से एक शब्‍द भी नहीं निकला, किन्‍तु उसके मुखमंडल पर कृतज्ञता की एक झलक दौड़ गई। आज भी वह कल की ही पोशाक पहने थी। उसके चेहरे से यह साफ-साफ जाहिर होता था कि वह रात भर बिल्‍कुल नहीं सोई थी। उसकी आंखें जगने के कारण लाल हो रही थीं-आंसुओं के कारण नहीं। वह फूट-फूटकर रोई नहीं थी उसकी वृत्ति भी उस समय रोने की नहीं थी। वह कुछ काम करना चाहती थीं। अपने ऊपर आई विपत्ति से संग्राम करना चाहती थी। वही पुरानी स्‍फूर्ति, वही शक्ति, वही दृढ़ संकल्‍प एक बार फिर मानसी में प्रकट हो आये थे। यद्यपि क्रोध से उसका कण्‍ठवरोध-सा हो रहा था, किन्‍तु क्रोध प्रकट करने के लिए उसे समय कहां था? बैबूरिन को किस प्रकार से बचाया जाय, इन बातें को छोड़कर वह और किसी विषय में सोच ही नहीं सकती थी। वह फौरन जाना चाहती थी, उसके छुटकारे की मांग पेश करना चाहती थी। मगर जाय भी तो किसके पास? किसे दरखास्‍त दे और क्‍या अर्ज करे? इन्‍हीं विषयों पर वह बातचीत करना चाहती थी-इन्‍हीं के संबंध में मेरी सलाह लेना चाहती थी।

मैं उसे सान्‍त्‍वना देने लगा। धैर्य धारण करने का उसे उपदेश दिया। शुरू में तो सिवा इंतजार करने के और कुछ करना ही नहीं था और यथासंभव बैबूरिन के संबंध में पूछताछ करके पता लगाना था। इस वक्‍त जब मामला शुरू भी नहीं हुआ था और न उसका रंग-ढंग ही मालूम हुआ था, कोई निश्‍चयात्‍मक उपाय काम में लाना निरी मूर्खता और अज्ञानता होती। यदि मैं कोई विशेष महत्‍वपूर्ण तथा प्रभावशाली व्‍यक्ति होता तो उस अवस्‍था में भी मुझसे इस काम में सफलता की आशा रखनी मूर्खता होती । पर मेरे जैसा एक तुच्‍छ अधिकारी इस मामले में कर ही क्‍या सकता था? बेचारी मानसी का क्‍या कहना! उसके तो प्रभावशाली मित्र बिल्‍कुल थे ही नहीं।

इन सब बातों को स्‍पष्‍ट रूप में उससे कहना सहज नहीं था। किन्‍तु आखिर वह मेरे तर्क‍-विर्तक को समझ गई। यह बात भी उसने समझ ली कि मैंने जो यह कहा था कि इस समय सब प्रयत्‍न व्‍यर्थ होंगे, सो किसी अहंभाव से प्रेरित होकर नहीं कहा।

“लेकिन यह तो बतलाओ, मानसी” मैंने कहना शुरू किया, जब वह एक कुर्सी पर जा बैठी(अब तक तो वह खड़ी-खड़ी ही बातें कर रही थी, मानो वह बैबूरिन की सहायता के लिए फौरन रवाना हो जाना चाहती हो!) “पैरोमन सेमानिच इस उम्र में इस तरह के मामले में क्‍यों कर फंस गये? मुझे तो यह विश्‍वास है कि इसमें सिर्फ ऐसे ही नौजवान पड़े हुए हैं, जैसा एक व्‍यक्ति कल तुम्‍हें चेतावनी देने आया था”

“वे नौजवान हमारे दोस्‍त हैं।”-मानसी ने जोर देकर कहा। इस समय भी उसकी आंखें पहले जैसी ही चमक उठीं और तीर की तरह तेज होने लगीं। ऐसा मालूम पड़ता था, मानो उसके अन्‍तस्थल से कोई दृढ़ और दुर्दमनीय भाव उदित हो रहा हो। उसके इस भाव को देखकर मुझे अचानक 'एक नवीन ढंग की लड़की'- ये शब्‍द याद आ गये, जो टारहोव ने उसके संबंध में कभी प्रयुक्‍त किये थे।”जहां राजनैतिक सिद्धांत' इन दो शब्‍दों पर विशेष जोर लिहाज नहीं।” मानसी ने 'राजनैतिक सिद्धांत' इन दो शब्‍दों पर विशेष जोर दिया। उसे देखकर यह ख्‍याल होता था कि अपने समस्‍त शोक के बीच भी अपने को मेरे सामने इस नवीन अप्रत्‍याशित चरित्र में-एक सुसंस्‍कृत प्रौढ़ा स्‍त्री के रूप में, एक प्रजातंत्रवादी की योग्‍य पत्‍नी के रूप में-प्रदर्शित करने में उसे कुछ अप्रियता नहीं मालूम पड़ती थी। “कुछ बूढ़े आदमी ऐसे होते हैं, जिनमें नौजवानों की अपेक्षा अधिक जवानी होती है।” वह बोली-”और वे आत्‍म-त्‍याग भी अधिक कर सकते हैं। किन्‍तु सवाल यह नहीं है।”

“मैं समझता हुं, मानसी” मैंने कहा, “तुम बात को कुछ बढ़ाकर कह रही हो। पैरोमन सेमोनिच के चरित्र से परिचित होते हुए मुझे यह पहले ही जान लेना चाहिए था कि वह प्रत्‍येक सच्‍ची उमंग के साथ सहानुभूति रखेंगे, परन्‍तु इसके साथ-साथ मैंने उन्‍हें बराबर एक समझदार आदमी माना है। रूस में षड्यन्‍त्र करना कितना असंगत है, कितना अव्‍यावहारिक है-इसे वह अवश्‍य ही समझे बिना नहीं रह सकते, खासकर उनकी जैसी स्थिति है और उनका जो पेशा है।

“हां, अवश्‍य,” मानसी कटु स्‍वर में मेरे कथन के बीच में ही बोल उठी, “वह एक काम करने वाले आदमी हैं, मजदूर हैं और रूस में तो केवल अमीर-उमरा ही षड्यन्‍त्रों में भाग ले सकते हैं, जैसा 14 दिसम्‍बर के षड्यन्‍त्र में हुआ था, यही न आपके कहने का मतलब है?”

“ऐसी हालात में आपको अब शिकायत ही किस बात की है।?” मेरे मुंह से हठात् ये शब्‍द निकलने वाले थे, किन्‍तु मैंने अपने को रोका। “क्‍या आप समझती हैं कि 14 दिसम्‍बर का परिणाम जो कुछ हुआ, वह ऐसा था कि उससे इस प्रकार के और भी प्रयत्‍न करने में उत्‍साह मिले?” मैंने जोर के साथ कहा।

मानसी ने त्‍यौरी बदल ली।”आपके साथ इस विषय में बात करना निरर्थक है।” उसके नीचे लटके हुए चेहरे से मुझे यही भाव परिलक्षित होने लगा।

“क्‍या पैरोमन सेमोनिच इस मामले में बहुत काफी फंस गये हैं?” मैंने उससे साहस करके पूछा।

मानसी ने कोई उत्‍तर नहीं दिया। ऊपर छत के कमरे से बिल्‍ली को भूखी-सी बेढंगी 'म्याऊं-म्‍याऊं' की आवाज सुनाई पड़ी।

मानसी चौंक उठी। “आह, यह अच्‍छा ही हुआ कि निकेंडर लिवेनिच पूनिन को य‍ह सब नहीं देखना पड़ा!” उसने हताश होकर बिलखते हुए कहा, “उसने नहीं देखा कि रात के पुलिस वाले उसके उपकारकर्ता को, मेरे उपकारकर्ता को-या संभवत: संसार के सर्वश्रेष्‍ठ सत्‍यशील मनुष्‍य को-किस प्रकार निष्‍ठुरता के साथ पकड़ ले गये। उसने नहीं देखा कि पुलिस ने उस भद्र पुरूष के साथ उसकी इस अवस्‍था में कैसा बर्ताव किया, कितनी अशिष्‍टता के साथ उसे संबोधित किया, किस तरह उन्‍होंने उसे डांटा और उसके प्रति धमकियों का प्रयोग किया। सिर्फ इसलिए कि वह एक श्रमजीवी है! पुलिस का जो वह नौजवान अफसर था, वह भी सचमुच एक ऐसा नीतिभ्रष्‍ट, हृदयहीन दुष्‍ट मनुष्‍य था, जैसा मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा।”

इतना कहते-कहते उसका कण्‍ठ रूद्ध हो गया। तेज हवा के झोके से हिलते पत्र की तरह उसका सारा शरीर कांप रहा था।

आखिर उसका बहुत समय से दबा हुआ क्रोध उमड़ पड़ा आत्‍मा की आकुलता पुरानी स्‍मृतियां आलोड़ित हो उठीं और आत्‍मा की आकुलता के कारण बाहृारूप में प्रकट होने लगीं। मालूम पड़ने लगा मानो अब भी वे उसके अंतर में जीवित हैं-विस्‍मृति के गर्भ में अंतर्लीन नहीं हुई हैं। किन्‍तु उस क्षण उसे इस रूप में देखकर मेरे हृदय में जो धारणा उत्‍पन्‍न हुई, वह यह थी कि अब भी उसमें वह नया ढंग पहले जैसा बना हुआ है। अब भी उसकी प्रकृति वैसी ही भावुक एवं उमंगपूर्ण बनी हुई है। यदि उसमें कुछ अंतर हुआ है तो सिर्फ इतना ही कि इस समय जिन उमंगों से वह उद्वेलित हो रही है, वे उमंगें उसकी जवानी के दिनों जैसी नहीं हैं। उसके साथ प्रथम साक्षात में मैंने उसके जिस भाव को आत्‍म-समर्पण के रूप में, उसकी सुशीलता के रूप में, समझा था- जो वस्‍तुत: था भी वैसा ही- वह संयत कान्तिवि‍हीन दृष्टि, वह निस्‍तेज वाणी, वह शान्ति, वह सरलता-ये सब अतीत की बातें थीं, जो अतीत अब फिर लौटकर नहीं आ स‍कता।

इस समय तो वर्तमान में जो कुछ था, वही व्‍यक्‍त हो रहा था। मैंने मानसी को सांत्‍वना देने की चेष्‍टा की, अपने वार्तालाप के विषय को व्‍यावहारिक रूप में ले जाने का प्रयत्‍न किया। मैं सोचने लगा-अब कुछ ऐसे उपाय करने चाहिए, जो इस समय अनिवार्य हों। पहले हमें यह ठीक-ठाक पता लगाना चाहिए कि बैबूरिन है कहां, उसके बाद बैबूरिन तथा मानसी के भरण-पोषण का उपाय करना चाहिए। इन सब कामों के करने में कुछ कम कठिनाई नहीं मालूम पड़ी, पर रूपया जुटाने की उतनी जरूरत नहीं थी, जितनी काम की, क्‍योंकि ऐसे मौकों पर काम दिलाना-जैसा हम सभी जानते हैं -बहुत जटिल समस्‍या होती है।

मैंने जिस समय मानसी से विदा ली, उस समय मेरे मस्तिष्‍क में नाना प्रकार के तर्क-विर्तक भरे हुए थे।

मुझे शीघ्र ही पता चल गया कि बैबूरिन को किले में रखा गया है।

मुकदमे की कार्यवाही शुरू हुई और वह बहुत दिनों तक चलती रही। मैं हर हफ्ते मानसी से कई बार मिला करता था। उसने अपने पति से मिलकर अनेक बार बातचीत की थी। किन्‍तु जिस समय इस सारी शोचनीय घटना के संबंध में निर्णय किया जा रहा था, ठीक उसी समय मैं पीटर्सबर्ग में मौजूद न था। किसी आकस्मिक घटना के कारण मुझे मजबूरन दक्षिण रूस की यात्रा करनी पड़ी थी। मुझे मालूम हुआ कि मेरी अनुपस्थिति में बैबूरिन को उस मामले में रिहाई मिल गई थी। उसके विरूद्ध जो कुछ साबित हो सका था, वह बस इतना ही कि नौजवान लोग उसे एक ऐसा व्‍यक्ति समझकर, जिसके प्रति किसी को कुछ संदेह नहीं हो सकता, उसके घर पर कभी-कभी सभाएं किया करते थे। यह भी उन सभाओं में उपस्थित होता था। मगर सरकार की आज्ञा से वह साइबेरिया के एक पश्चिम प्रांत में निर्वासित कर दिया गया। मानसी भी उसके साथ चली गई।

साइबेरिया से मानसी ने मुझे लिखा था, “पैरोमन सेमोनिच नहीं चाहता था कि मैं उसके साथ यहां आऊं, क्‍योंकि उसके विचारों के अनुसार किसी को अपने व्यक्तित्‍व का दूसरे के लिए बलिदान नहीं करना चाहिए। हां, अपने उद्देश्‍य के लिए बलिदान करना दूसरी बात है, पर मैंने उसे बताया कि इसमें बलिदान की कोई बात नहीं। जब मैंने मास्को में सबसे कहा था कि मैं उसकी पत्‍नी बनूंगी, उसी समय मैंने मन में निश्‍चय कर लिया था कि अब सदा के लिए अविच्छिन्‍न भाव से मैं उसकी पत्‍नी बनकर रहूंगी। इसलिए यह संबंध हम दोनों के अंत काल तक अटूट रहना चाहिए।”