भूमिका / दराबा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
आवरण / लेखक परिचय / दराबा
जयप्रकाश चौकसे

दैनिक भास्कर के फिल्म परिशिष्ट 'नवरंग' के संपादन के लिए मुझे एक स्टेनो की सेवाएँ दी गईं। चार पृष्ठ के 'नवरंग' का काम जल्दी समाप्त हो जाता था और स्टेनो को अपनी नौकरी के अगले पड़ाव पर पहुँचने के लिए कुछ घंटे मेरे दफ्तर में ही काटने होते थे। हम दो निकम्मे लोगों ने समय काटने के लिए इस उपन्यास की रचना की। इसके पहले मैंने कुछ फिल्म-पटकथाएँ लिखी थीं परन्तु इस क्षेत्र में यह मेरा पहला प्रयास था और संभवतः आखिरी भी।

एक स्टेनोग्राफर टुकुर-टुकुर आपकी ओर देख रहा है और उसे काम में लगाए रखने के लिए आपको निरंतर कुछ बोलना है- इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पात्र और घटनाएँ रची गईं। वह स्टेनोग्राफर आधा काम कर पूरा वेतन ले जाए, यह मेरे मध्यमवर्गीय टुच्चेपन के लिए नाकाबिले-बर्दाश्त बात थी। कई बार प्रयास किया कि सुधीर अग्रवाल और श्रवण गर्ग 'नवरंग' के पृष्ठ बढ़ा दें तो मैं दराबा बड़बड़ाने से बच सकता हूँ, परन्तु उनकी अपनी सीमाएँ भी थीं। आखिर आप पाठकों के लिए कितनी फिल्मी भेल परोसेंगे। यह बात 1992 की है, और अगर आज के दौर में घटित होती जब भारत फिल्म प्रधान देश हो चुका है, तब वे लोग शायद पृष्ठ बढ़ा देते। सारांश यह कि 'दराबा' लिखा जाना अनेक परिस्थितियों के कारण तय हो चुका था और इस रचना की कुंडली में पंद्रह वर्ष बाद ही प्रकाशन भी तयशुदा बात थी। इसकी पांडुलिपि से धूल बुहारकर प्रकाशित करने की पहल मेरे मित्र उत्तम झंवर ने की। इस उपन्यास के लिखे जाने का एक और कारण यह है कि मैं हमेशा से पेटू रहा हूँ। प्रायः जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही लड़कों की रुचियाँ लड़कियों में जाग जाती है। मैं भी कई बार लड़कियों के पीछे भागा हूँ परन्तु सड़क पर भोजन का कोई ठिया, यहाँ तक कि सड़क पर कोई मुर्गा या सुंदर-सी बकरी दिख जाने पर मैंने लड़की का पीछा छोड़ दिया है। भोजन के ठियों में मेरी रुचि उन नुक्कड़ों से ज्यादा रही है जहाँ लड़कियों को सहूलियत और सुरक्षा से ताका जा सकता था।

बचपन से ही मैं आगरा के पेठे, कलकत्ता के रसगुल्ले, बनारस के पेड़े और हैदराबाद की बिरयानी की चातें सुनता रहा हूँ और मुझे बार-बार यह बात बहुत कचोटती थी कि बुरहानपुर के दराबे को उस तरह की ख्याति प्राप्त नहीं हुई है। गोयाकि एक शहर और एक मिठाई मेरे लिए केन्द्रीय पात्र रहे हैं।

इस रचना की भूमिका लिखने को मैं बहुत टालता रहा हूँ क्योंकि टालते रहना मेरे जन्मजात आलस्य का ही एक हिस्सा है। बहरहाल भूमिका लिखने का प्रारंभ हुआ 'माया मेमसाहब' के लिए लिखे हुए गुलजार के एक गीत को अनायास ही दोबारा सुनने के कारण। गीत इस तरह है-

इस दिल में बसकर देखो तो

ये शहर बड़ा पुराना है

हर साँस में एक कहानी है,

हर साँस में एक अफसाना है।

ये बस्ती दिल की बस्ती है,

कुछ दर्द है कुछ रुसवाई है।

ये कितनी बार उजाड़ी है,

कितनी बार बसाई है।

ये जिस्म है कच्ची मिट्टी का,

भर जाए तो रिसने लगता है।

बाहों में कोई थामे तो

आगोश में गिरने लगता है।

इस रचना में मेरा पेटूपन, दराबा और बुरहानपुर सत्य हैं, और सारे पात्र तथा घटनाक्रम कपोल कल्पित हैं। यह सोचना गलत होगा कि इसमें मेरी स्मृति ने सहायता की है क्योंकि हम प्रायः अपनी यादों में झूठ का समावेश करते हैं और कालांतर में उस झूठ को अपना सत्य भी मान लेते हैं। प्रायः लोग विकट परिस्थितियों में अपने साहस की कथा जोड़ देते हैं जबकि सच यह है कि उस संकट के समय वे भाग खड़े हुए थे। सागर विश्वविद्यालय में मेरे एक दोस्त मुझे प्रायः अपनी एक विफल प्रेमकथा सुनाते थे। उनकी एक परिचित कन्या परीक्षा देने आई और ये उसे पढ़ाने जाते थे। एक दिन उस कन्या ने मुझसे पूछा कि मेरा दोस्त अक्सर अकारण उदासी से क्यों घिर जाता है। मैंने उसे उनकी विफल प्रेमकथा सुनाई। उस रात मेरा मित्र नौ इंच का चाकू लिये मुझे खोजता रहा क्योंकि वह परीक्षा देने आई कन्या से प्रेम करने लगा था और खंडवा में घटित विफल प्रेमकथा नितांत मनगढंत थी। वह तो कभी खंडवा ही नहीं गया था। वह रात मुझे विठ्ठलभाई पटेल के घर काटनी पड़ी अन्य उस काल्पनिक प्रेमकथा की वेदी पर मैं शहीद हो जाता और आप इस उबाऊ कथाको पढ़ने से बच जाते।

छोटे से छोटा, अदने से दना, बदसूरत से बदसूरत और निहायत ही गैर-रोमांटिक व्यक्ति भी अपने लिए एक अदद विफल प्रेमकथा गढ़ लेता है परन्तु इस विफल प्रेमकथा को वेदना अती होती है। अगर पूरी उम्र किसी लड़‌की ने घास न भी डाली हो तो भी इस एकका सौ प्रतिशत नाकामयाब मोहब्बत का गम इन्सान को सताता है। सपाट घटनाविहीन जीवन में भी आम आदमी करुणा का प्रसंग गढ़ लेता है और इस तरह के दुःख में एक रूमानी कशिश होती है। सारांश यह कि याद में भी मिलावट होती है। आप इस रचना के सारे पात्र या तो काल्पनिक हैं या इसी मिलावटी डालडा याद की कोख से जन्मे हैं।

दराबा सत्य है। बुरहानपुर संपूर्ण सत्य है और एक मिठाई की दुकान की कहानी कहते समय समाज में आए परिवर्तन भी सच हैं। केले के पत्ते पर मिठाई परोसने से लेकर जर्मन सिल्वर, स्टेनलेस स्टील और पोर्सलीन तक के परोसने के बर्तन समाज के परिवर्तन को ही प्रस्तुत करते हैं। दरअसल पूरे देश में बुरहानपुर की तरह छोटे शहरों में गुजश्ता साठ-सत्तर सालों में इस तरह के परिवर्तन हुए हैं और इन पर बहुत कुछ लिखा गया है।

आजादी की अलसभोर से ही छोटे शहरों और कस्बों में शिक्षा के ठियों की बाढ़-सी आ गई थी और श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' में इनका सत्य उजागर हुआ है। इस महान रचना का मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव है।

इस रचना में प्रस्तुत तवायफों के पात्र पूरी तरह कपोल कल्पित ही हैं और तवायफों के सच को झुठला देने से ही हम अपनी लम्पटता को छुपा सकते हैं। बहरहाल मेरी रचना-प्रक्रिया में मेरे पेटू होने के साथ लम्पटता का सत्य भी जुड़ा है। तवायफ का जन्म भी एडोलेसेन्ट सैक्स फेन्टेसाइजिंग का ही परिणाम है। मध्यमवर्गीय जन्मजात कायरता के कारण प्रायः यह लम्पटता महज ख्याली ही रह जाती है और केवल होली के अवसर पर आंशिक रूप से प्रकट हो पाती है। कस्बाई भाभीवाद का जन्म भी इसी दमित लम्पटता का परिणाम है। इस रचना में प्रस्तुत चिरयुवा तवायफ अन्नु 'भांग की पकौड़ी' की पात्र लगती है।

बुरहानपुर में सांप्रदायिकता का जहर फैलना सत्य है परन्तु अन्नु और उसकी शवयात्रा पूरी तरह से कल्पना होते हुए भी आधुनिक भारत की दुखती रग है। मेरे मित्र सलीम साहब (सलीम-जावेद वाले सलीम) ने इस शवयात्रा प्रकरण को बहुत पसंद किया क्योंकि इस तरह की शवयात्रा वे मुंबई में देख चुके हैं। अफसाने और हकीकत इसी तरह गलबहियाँ करते नजर आते हैं। अतः आप इस रचना को अपच और ख्याली या खयाली कहकर छुपाई गई लम्पटता का परिणाम भी मान सकते हैं। आज के सिनेमाई दौर में सीक्वेल बहुत बन रहे हैं और अगर 'दराबा' का भी सीक्वेल लिखा जाता है, तो बचपन से पेटू रहा पात्र अब बवासीर और एसीडिटी का शिकार होगा। शायद आज का भारत भी अपच और पेट से संबंधित रोगों को झेल रहा है। इस तरह की बीमारियों का संबंध कुछ ध्वनियों से भी है जिन्हें हम बाजारवाद और प्रचारतंत्र का शंखनाद भी मान सकते हैं।

मेरी पहले की दो पुस्तकों की तरह इसके प्रकाशन में भी मेरे मित्र श्रीराम ताम्रकर और दामाद समय का सहयोग है। इस उपन्यास के लिखे जाने के बाद, मेरे बचपन के कुटैव से रहे मित्र हेमचंद पहारे और ताउम्र मुझे भुगतने के लिए बाध्य मेरी पत्नी उषा ने बार-बार इसे प्रकाशित कराने पर जोर दिया जिसका दुःखद परिणाम आपके हाथ में है।