मालवगढ़ की मालविका / भाग - 16 / संतोष श्रीवास्तव

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रजनी और संध्या बुआ जोधपुर के लिए रवाना हो रही थीं। दादी ने ढेर सारी सौगातें पैकेटों में बँधवाईं, मिठाई से भरी टोकरियाँ जिन पर लाल कागज लिपटा था... दादी के हाथ में कुछ ऐसी बरकत थी कि किसी को कहने को कुछ रहता ही न था। साक्षात अन्नपूर्णा का भंडार... तृप्ति का स्रोत। दादी ने पूरी बाँह का नीला ब्लाउज और नीले बॉर्डर की गुलाबी सूती साड़ी पहनी थी... न जाने क्यों जैसे-जैसे दादी की उम्र बढ़ रही थी उनका सौंदर्य भी बढ़ता जा रहा था। यह शायद उनके अंदर के गुणों का चमत्कार है। मेरी अपनी समझ से दादी हमेशा दूसरों के लिए ही समर्पित रही हैं... सीढ़ी-सादी लेकिन बेहद ताकतवर आत्मविश्वास लिए. अम्मा ने एक बार मेरे तर्कों का शमन न होने पर मुझे उदास देखकर कहा था - "अपने को कभी कमजोर मत समझना पायल। जानती हो, धूल जैसी पैरों तले रौंदी जाने वाली चीज में भी कितनी ताकत होती है? जब वह गुबार बन जाती है तो पूरे आसमान को अपने आगोश में ले लेती है। फिर नारी तो वह ताकत है जो अपनी कोख से लाखों वर्षों का इतिहास पैदा करती है। जल प्रलय के बाद मानव को इस धरती पर अवतरित होने में लाखों वर्ष लगे और नारी की कोख से केवल नौ महीने में मानव पैदा हो जाता है।"

अम्मा के इस ज्ञान पर मैं दंग रह गई थी। दादी मुझे ऐसे ही चमत्कारिक ज्ञान से भरी लगती है।

प्रताप भवन सूना हो गया दोनों बुआओं के जाने से। रजनी बुआ शौकीन और चंचल हैं लेकिन संध्या बुआ जिज्ञासाओं का भंडार। उनका हर कार्यकलाप मुझे बड़ा रोचक लगता है। अब कैसे बीतेंगे पंद्रह दिन। बाबूजी गए हैं पहुँचाने... तय हुआ है कि फूफासा आएँगे छोड़ने। उषा बुआ भी साथ आएँगी। जचकी यहीं होगी। तब तक आषाढ़ लग जाएगा। फिर तो तीजों के बाद ही लौटेंगी उषा बुआ। मैं अकेलेपन से जूझती कोठी के बाहर के बगीचे में आ गई. हरसिंगार फूलों से लदा था और सुगंध हवाओं में रच-बस गई थी। बहुत सारे फूल लॉन की लचीली दूब पर बिखर गए थे। नारंगी डंडी वाले शंख श्वेत कोमल फूल... नन्हे-नन्हे... सितारों जैसे। मैं अंदर से अम्मा की पूजा की डलिया उठा लाई, जालीदार ताँबे की। एक-एक फूल चुन-चुनकर उसमें रखने लगी। हरसिंगार मुझे रोमांचित कर जाता है। जाने क्या आकर्षण है इन फूलों में कि मैं बस बँधकर रह जाती हूँ। डलिया फूलों से भर गई लेकिन फूल उतनी ही मात्रा में दूब पर बिछे हुए थे। रात भर टपकते रहते हैं ये फूल। गेट पर हलचल सुन मैंने मुड़कर देखा - "नमस्ते बाई जी."

पोस्टमैन था... पीले रंग का लंबा लिफाफा लिए. ऊपर संध्या बुआ का नाम लिखा था। मैंने न जाने क्या सोचकर लिफाफे को अपने दुपट्टे में छुपा लिया और तेजी से अपने कमरे में आ गई. फूलों की डलिया कमरे में बिछे कालीन के बीचोंबीच रखी छोटी-सी गोल मेज पर रख दी और पलंग पर लेटकर लिफाफा खोलने लगी। अजय का खत था, संध्या बुआ के नाम...

मेरी संध्या

तुम्हारे पत्र ने एहसास कराया कि हमें बिछुड़े दो महीने बीत चुके हैं। इस एहसास की वजह जानना चाहोगी? मैंने कभी तुम्हें अपने से जुदा माना ही नहीं, तुम धड़कन बनकर मेरे अंदर धड़क रही हो। आज तुम्हारे पत्र ने मालवगढ़ से जुदाई का एहसास तेजी से कराया। जुलाई में मैंने कलकत्ता के डिग्री कॉलेज में लेक्चररशिप ज्वाइन की थी और तब से पी-एच.डी. के लिए अच्छे गाइड की तलाश में था। शांतिनिकेतन के एक विद्वान प्रोफेसर का अचानक मिलना इस तलाश का खात्मा था। अब बाकायदा पी-एच.डी. के काम में जुटा हूँ।

तुम जोधपुर जा रही हो... जाओ, परिवर्तन स्वस्थ और स्फूर्तिवान बना देता है। जोधपुर मेरा देखा हुआ है। कुछ वर्ष पहले नागपंचमी के दिन मैं वहीं था। जानती हो वहाँ नाग देवी, देवताओं को आधा मनुष्य, आधा सर्प माना जाता है। उनकी इस प्रकार की मूर्तियाँ पूरे शहर में घुमाई जाती हैं। जब मैं लखनऊ में था और गोमती के किनारे एक दिन घास पर लेटा था तो न जाने कहाँ से एक नाग ने आकर मेरे सिर पर अपना फन काढ़ लिया था। मैं आँखें मूँदे लेटा था। सामने भेड़-बकरियाँ चराते चरवाहे लड़के की चीख से आँखें खोलीं तो नाग का फन देख बिजली की फुर्ती से खड़ा हो गया और आश्चर्यचकित हो उसे देखता रहा। थोड़ी देर बाद वह झाड़ियों में गुम हो गया। जब यह किस्सा माँ को बताया तो कहने लगीं - "तुम पर नागदेवता की कृपा रहेगी हमेशा।"

उस रात माँ पीपल के नीचे नागदेवता के लिए नरेटी में दूध रखकर दीया जला आई थीं। संध्या, तुम्हारी कोठी के नाग से अब हमें कोई खतरा नहीं है। तुम कहती थीं न कि महिलाओं का शाप है तो उस शाप से हमें मुक्ति मिल गई... नाग का वरदान बहुत पहले मिल गया था हमें।

चाची कैसी हैं, चाची के उपकारों को भुला पाना कठिन है। उन्होंने हमें एक समर्थ दिशा दी वरना हम भटकते ही रहते और भटकन से कभी मंजिल नहीं मिलती। कल रात यूँ ही सुनसान सड़क पर घूमते हुए जब थककर लौटा और अपने पलंग पर लेटा तो नींद लग गई. लगा, तुम आ रही हो धीरे-धीरे। तुम्हारे हाथों में ढेर सारे हरसिंगार के फूल हैं जिन्हें तुम मेरे सिरहाने रखकर अपने गुलाबी आँचल से मेरे माथे का पसीना पोंछ रही हो। तुम कह रही हो - "हारना नहीं... मंजिल की राह बढ़ते जाना, अगर तुम रुककर अपने पैरों के काँटे निकालोगे या छाले सहलाओगे तो तुम्हारे संकल्प ठंडे पड़ जाएँगे। मैं बिछी हूँ न मखमल बनकर तुम्हारी राहों पर और तुम्हारी आँखों से दो बूँद आँसू टपक पड़े थे। संध्या, यह स्वप्न किस ओर इंगित कर रहा था? तुम्हारे अथाह प्यार और समर्पण की ओर या... संध्या, तुमने कभी न रोने का वादा किया था मुझसे दीपावली के दिनों की मेरी मालवगढ़ यात्रा के चौथे दिन... उस दिन भी तुम्हारी आँखें डबडबा रही थीं... संध्या, क्या ये इंतजार मिलन की तड़प बढ़ा नहीं रहा और... और ज्यादा। अच्छा... ये तो बताओ तुम्हें दीपावली का उपहार पसंद आया या नहीं? चाची के लिए शॉल भी मैं शांतिनिकेतन से खरीदकर लाया था। उस दिन तो शॉल ओढ़कर मुस्कुराती हुई तुम्हारे साथ बग्घी में बैठकर वे प्रताप भवन चली गई थीं... पर मैं देर तक सोचता रहा... प्रताप भवन की इतनी समृद्धि में वह शॉल कहाँ समाएगा? आजकल चिंतक भी होता जा रहा हूँ। अक्सर बेलूड़ मठ चला जाता हूँ जो स्वामी रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में बनवाया गया है। सामने शांत, मंथर हुबली नदी पर मछुआरों की नावें खड़ी रहती हैं। अक्सर मैं नाव किराए पर लेकर खुद ही चप्पू चलाता हुबली के गहरे जल की ओर बढ़ जाता हूँ। गहराई में वह अधिक शांत स्थिर नजर आती है। शाम की सिंदूरी रंगत लहरों को सुहागिन बना देती है। हुबली के तट पर बिना ब्लाउज के काली-सफेद धारियों वाली लाल बॉर्डर की बंगाली साड़ी पहने बंगालिनें कपड़े धोती रहती हैं, या अपने लंबे-लंबे बाल। एक लड़की के बाल तो बिल्कुल तुम्हारी तरह थे। बेचैन होकर मैंने नाव मठ की ओर मोड़ दी थी और मठ के प्रांगण में लगे उस के नीचे देर तक बैठा रहा था जो है तो बरगद का पर पत्ते अजीब किस्म के हैं। इन पत्तों में एक पॉकेट-सा बना है। उँगली की पोर बराबर जगह हैं उसमें। कहते हैं कृष्ण यशोदा के डर से मक्खन छुपाकर रखते थे। कृष्ण कैसे वृंदावन से यहाँ तक मक्खन छुपाने आते होंगे और कैसे इतने नटखट कृष्ण को राधा ने प्यार किया? लेकिन राधा का प्यार अद्भुत था... वह मानिनी थी... कभी अपने बरसाने गाँव को छोड़कर कृष्ण के पीछे नहीं भागी। कृष्ण जहाँ-जहाँ गए, जिन-जिन नारियों से उनका संपर्क हुआ, राधा ने अपने आपको उन-उन नारियों में समाहित कर लिया पर अपना गाँव कभी नहीं छोड़ा। वह धीर, गंभीर, मानिनी राधा मेरे मन पर प्रेम का लैंडमार्क बनकर प्रतिष्ठित है। राधा का प्रेम कृष्ण के प्रेम से कहीं अधिक ऊँचा और महान था।"

संध्या, अनुसंधान कार्य के तेजी से चलने के बावजूद अकेलापन बहुत सालता है। यह विवशता है... चाहे इसे आग्रह मानो... लेकिन इतना तय है कि तुम्हारे बिना जीवन की राह पर चलना, पाना, तृप्त होना कठिन है। तुम्हारे पत्र इस कठिनाई में सहायक बनेंगे इसलिए पत्र लिखने का क्रम जारी रखना। चाची को चरण स्पर्श और पायल को प्यार... अपना खयाल रखना।

तुम्हारा

अजय

पत्र तहाकर मैंने लिफाफे में रख दिया। अचानक बहुत सारे रहस्य खुल गए कि अजय कलकत्ते में लैक्चरर हैं कि वे दीपावली में यहाँ आए थे और दादी संध्या बुआ को उनसे मिलवाने ले गई थीं। कौन-सी ऊर्जा दादी में रची बसी है, कौन-सी हिम्मत कि वे सबका मनचाहा कर डालती हैं, सबका ध्यान रखती हैं... सहसा मैं अपराधबोध से ग्रसित हो उठी। मुझे नहीं खोलना चाहिए था लिफाफा... मुझे नहीं पढ़ना चाहिए था अजय का पत्र। पति-पत्नी की अंतरंगता जानने का मुझे कोई हक नहीं। पति! संध्या बुआ के पति! तो फिर मैं उनका नाम क्यों लेती हूँ? क्यों नहीं उन्हें फूफासा कहकर संबोधित करती? अपने हृदय के आलोड़न में डूबी मैं पत्र लिए दादी के कमरे में आई. दादी सोफे पर आराम की मुद्रा में बैठी कोई किताब पढ़ रही थीं। मैं अपराधिनी-सी सीधी उनके पास जाकर खड़ी हो गई. आँखें झुका लीं, मुँह से कुछ नहीं कह सकी।

"पायल, क्या हुआ? इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी है?"

मैंने लिफाफा आगे कर दिया। दादी ने लिफाफा हाथ में लिया... उस पर संध्या बुआ का नाम पढ़ फौरन खत बाहर निकाला।

"हे भगवान! ...यह क्या नादानी की अजय ने?"

फिर मेरा हाथ पकड़ अपने नजदीक बिठा लिया - "तुम्हें कहाँ मिला ये खत?"

"मैं बगीचे में थी तभी पोस्टमैन आया था। दादी, मैं अपराधी हूँ, मैंने खत पढ़ लिया है।" मैंने रुक-रुककर कहा।

"लाख-लाख शुक्र है भगवान का जो बगीचे में उस वक्त तुम थीं। कहीं यह खत कोठी के किसी मर्द के हाथ पड़ जाता तो लेने के देने पड़ जाते।"

फिर मेरे चेहरे को देख मेरी ठोड़ी उठाते हुए दुलार से कहा - "तुम तो सब जानती हो मेरी माँ! पढ़ लिया तो इतना परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं। ऐसा इसमें क्या लिखा होगा जो तुम नहीं जानतीं।"

"लिखा है।"

"क्या?"

"लिखा है कि तुम दीपावली के लिए उनके आने पर अकेली ही बुआ के साथ उनसे मिलने गई थीं।"

दादी की हँसी छूट पड़ी - "अरे मेरी लाड़ल... मेरी माँ... पूरी पुरखिन हो गई तू तो।"

मुझे अपने आलिंगन में लेकर उन्होंने मुझे खूब चूमा और मेरे बाल सहलाते हुए बोलीं - "संध्या की बहुत चिंता है मुझे। जब यह राज खुलेगा तो न जाने कौन-सा कहर ढहेगा कोठी पर।"

"आप हैं न दादी! फिर तो सब ठीक ही होगा।"