मालवगढ़ की मालविका / भाग - 17 / संतोष श्रीवास्तव

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सुबह-सुबह बाबा ने दादी को सूचना दी कि उन्हें अगले हफ्ते बनारस के तूफानी दौरे पर जाना है। वहाँ समय लग सकता है क्योंकि बलिया, मुजफ्फरपुर, इलाहाबाद और भी न जाने कहाँ-कहाँ वे जाएँगे। पार्टी का काम है। अगस्त क्रांति की योजना बनानी है इसलिए बाबूजी को भेजकर बुआओं को बुलवा लिया जाए जिससे उनकी गैरहाजिरी में बाबूजी प्रताप भवन की देखरेख कर सकें। बड़े बाबा तो किसी मकसद के ही नहीं है... उन्हें तो अभी से वानप्रस्थी मान लिया जाए तो बेहतर है।

"समर क्यों जाएगा? कुँवर राजा खुद आएँगे पहुँचाने, यही तय हुआ है।"

"कब तक पहुँचा जाएँगे?"

"एकादशी को आ रहे हैं, खबर तो यही आई है।"

बाबा आश्वस्त हुए... वे भी एकादशी के दिन जा रहे हैं। बुआ लोग सुबह आ जाएँगी, बाबा शाम को जाएँगे।

"चलो अच्छा है, मिलना हो जाएगा।" बाबा ने बेफिक्र हो कहा तो दादी को शंका हुई.

"ऐसे क्यों कह रहे हो? क्या वहीं रहने का इरादा है?"

बाबा हँस दिए - "फिर भी अगस्त तक रुकना पड़ेगा। तब तक उषा तो लौट ही जाएगी न जोधपुर।"

दादी जानती थीं, इस बार लंबे अर्से के लिए जा रहे हैं... देश की आजादी के लिए उठे उनके कदमों को वे रोकना नहीं चाहती थीं फिर भी मोह तो होता ही है। सिर पर कफन बाँधकर निकले हैं सारे क्रांतिवीर... लेकिन कुछ पाने के लिए कुछ त्यागना भी पड़ता है और इन क्रांतिवीरों ने बहुत कुछ त्यागा है। अपना घर, बीवी, बच्चे... बस चाह है तो गुलामी की बेड़ियों को काट डालने की, फिर चाहे फाँसी का फंदा चूमना पड़े, बंदूक की गोली झेलनी पड़े या काले पानी की सजा। अंग्रेजों के दिन लद गए अब। इसीलिए वे मधुमक्खी-से हर ओर छाए रहते हैं... जैसे सूर्यास्त होने पर बौनों की परछाईं लंबी होकर अधिक जगह पर छा जाती है। बाबा ने अपनी विदेश यात्रा के किस्से बताते हुए एक दिन किसी फीनिक्स पक्षी का जिक्र किया था जो हजार साल तक जीता है और फिर शाखों से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी कर अपनी चिता स्वयं बनाता है। धीरे-धीरे चिता में जलकर वह राख हो जाता है और उस राख में से एक नया फीनिक्स पक्षी जन्म लेता है। अपने रंग-बिरंगे पंख पसारे, खूबसूरत और आकर्षक... क्रांतिवीर भी क्रांति की चिता में स्वयं को जलाकर, राख कर देश को नए रंग-बिरंगे पंख सौंपेंगे आजादी के, उन्नति के, खुशियों के.

बुआ लोग आ गई हैं। उषा बुआ का पेट ढोलक-सा बाहर निकल आया है लेकिन उनके चेहरे पर रौनक भी खूब आ गई है। फूफासा पैंट-शर्ट में बड़े स्मार्ट लग रहे थे। रह-रहकर रजनी बुआ को छेड़ रहे थे... रजनी बुआ झल्ला जातीं - "क्या जीजासा... आप भी बस..."

"हम सब जानते हैं, मन-ही-मन तो लड्डू फूट रहे हैं।"

फूफासा ने फिर छेड़ा तो उषा बुआ मुस्कुराकर बोलीं - "जाने भी दीजिए न, क्यों मेरी छोटी-सी बहन को तंग कर रहे हैं।"

बाद में पता चला उषा बुआ की ससुराल में उनके दूर के रिश्ते के किसी पड़ोसी ने अपने बेटे के लिए रजनी बुआ को पसंद कर लिया है। मैं हँसते-हँसते दोहरी हो गई - "हाय राम... तेरह साल की उमर में ही? अभी तो स्कूल भी पास नहीं किया बुआ आपने।"

"स्कूल क्या... मैं तो कॉलेज भी पास करूँगी, लॉ पढ़ूँगी। शादी-वादी मुझे नहीं करनी और वह भी उषा जीजी की ससुराल में... ना बाबा, कान पकड़े।"

"क्यों?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

रजनी बुआ गंभीर हो गईं - "है कोई आजादी उषा जीजी को। सब कुछ उनकी सास के इशारे पर चलता है। सास के कमरे में कोई प्रवेश नहीं कर सकता... ससुर तक पूछकर जाते हैं। अंदर कमरे में जाने क्या खटर-पटर चलती है। उनके कमरे से लगा भंडार घर है जिसकी चाबियाँ उनकी कमर में खुँसी रहती हैं। मेवा मिष्ठान्न सब उनके कब्जे में। भूख लगे तो पहले उनका मुँह तको और जीजासा तो बिल्कुल उनके पल्लू में छुपे रहते हैं।"

फिर मेरे कान के पास मुँह लाकर बोलीं - "सोने की पाजेब तो मिली जीजी को पर सुकून नहीं... कठपुतली बन गई हैं वह जिसकी डोर उनकी सास के हाथ में है।"

अचानक संध्या बुआ को लिखी अजय की चिट्ठी याद आ गई मुझे और याद आ गया वह साँप जो प्रताप भवन की बहू, लड़कियों का शाप बनकर उसकी नींव में दुबका रहता है।

बाबा बनारस चले गए और दादी का अधिकतर समय उषा बुआ की देखभाल में बीतने लगा। वे सोहर के गीत हल्के-हल्के गुनगुनाती जातीं और कंचन से सौंठ मसाले कुटवाती जातीं। गोंद की बर्फी, सौंठ गुड़ के लड्डू... मखानों का सरौते से सुपारी की तरह कतरा जाना... हरीरे में डाले जाने वाले मसालों, मेवों की काट छाँट... एक हलचल भरा माहौल बना रहता। मैं सोचती शादी तो मुझे करनी नहीं है और जचकी में दिए जाने वाली ये सारी चीजें मुझे इस कदर पसंद हैं... मेरे मन का ऐसा संयोग क्यों है आखिर? मारिया रोज आकर उषा बुआ का चेकअप कर जाती। दवाएँ लाकर दे देती और दिलासा भी कि सब नॉर्मल है। अगले महीने के पहले हफ्ते में जचकी हो जाएगी।

अब संध्या बुआ का रूटीन हो गया था। सुबह पोस्टमैन के आने के समय में बाग में टहलना। लेकिन जाने क्यों पंद्रह दिन से पोस्टमैन झाँका तक नहीं। अलबत्ता उन्हें वहाँ खड़ी देख सड़क से जाते हिजड़े ज़रूर रुक गए. सबके सब तालियाँ बजाते कोठी के बाहर चबूतरे पर मटक-मटककर नाचने लगे। क्या गा रहे थे एक पंक्ति भी समझ में नहीं आ रही थी। लेकिन कोठी के नौकर-चाकर वहाँ इकट्ठे होकर हँसे जा रहे थे। दादी ने कंचन के हाथ पुराने कपड़े, मिठाई का डिब्बा और न्योछावर के रुपए भिजवाकर उन्हें रुखसत किया।

जसोदा ने मदिर से लौटकर दादी के कमरे में बैठी अम्मा और दादी को बताया कि मंदिर के पीछे एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ है। उसकी जड़ में थड़ा (गोल चबूतरा) बना है। पूरा थड़ा गेरू से पुता है। अगर बरगद की जड़ में गर्भवती औरत कलावा बाँध दे और गेरू चढ़ाकर दीया जला दे तो लड़का होना पक्का - "हुकुम, मैं ले जाऊँ उषा बाईजी को?"

दादी उस वक्त क्रोशिए से लेस बुन रही थीं, हँस पड़ीं - "दो दिन में जचकी हो जाएगी। बरगद में कलावा बाँधने से क्या पेट का बच्चा बदल जाएगा। अब तो जो होना है वह पेट में आ चुका है। जा, अपना काम देख।"

जसोदा खिसियाई हँसी हँसकर वहाँ से चली गई. उसके जाते ही अम्मा गंभीर हो गईं - "सुना है उषा बाईजी की ससुराल वाले लड़का ही चाहते हैं?"

"सुना तो बहुत कुछ है कि खानदानी जेवरात और सोने की पाजेबों से बड़ा रुतबा है उनका जोधपुर में। उषा के ससुर पक्के जमींदार हैं... शराब, नाच-गाना सब चलता है।"

दादी के द्वारा दी इस खबर से अम्मा चौंक पड़ीं - "और कुँवर राजा?"

"जब बाप नाच-रंग में सना है तो क्या बेटा अछूता रहेगा? यहीं कह रहा था संध्या से कि जब उषा जोधपुर लौटेगी तो वह जश्न मनाया जाएगा कि सब देखते रह जाएँगे। दूर-दूर के मेहमानों को न्यौता जाएगा, रात भर महफिलें सजेंगी, तवायफें नाचेंगी।"

अम्मा ने अपने कानों को हाथ लगाया - "हाय राम।"

जमींदार घराना तो प्रताप भवन में भी बसा है लेकिन बाबा-दादी की सादगी और पवित्रता के किस्से दूर-दूर तक मशहूर हैं और सादगी की यह परंपरा पड़बाबा प्रतापसिंह के समय से चली आ रही है। इस कोठी ने हमेशा सबकी मदद की, कभी किसी को सताया नहीं... ईमानदार, बेदाग और नम्रता, इनसानियत के लिए मानी जाती है यह कोठी। न जाने बड़ी दादी का स्वभाव ऐसा कैसे हो गया?

सूरज की पहली किरण ने जब धरती को छुआ और बगीचे के सारे फूल जब शबनम से नहा चुके तो अम्मा के कमरे के पिछवाड़े बने सोहर घर के बच्चे के रोने की आवाज पूरी कोठी में फैल गई. प्रताप भवन जाग गया। मैं और रजनी बुआ दौड़ी-दौड़ी नीचे आईं तो पन्ना को फुर्ती से रसोईघर की ओर जाते देखा। वह वहीं से चिल्लाई - "भाई आया है पायल बिटिया, तुम्हें छेड़ने।"

सचमुच मानो खुशियों का जखीरा खुल गया था... सब इधर से उधर दौड़ रहे थे। अफरातफरी मची थी। रसोईघर में महाराजिन मोतीचूर के लड्डू और घेवर बना रही थी। पन्ना कोठी के गेट पर बड़ी-सी रंगोली सजा रही थी और उषा बुआ पर फूलों की वर्षा करने के लिए जसोदा गुलाब की पंखुड़ियाँ तोड़कर चाँदी की थाली में रखती जा रही थी। दस बजे तक शहनाई वाले आ गए और कोठी पर बधाई देने आने वालों का ताँता लग गया। अंग्रेज पुलिस कमिश्नर ने अपने सिपाहियों को भेजकर कोठी के अहाते में बंदूकों से सलामी दागी। अनुपम दृश्य था।