मालवगढ़ की मालविका / भाग - 18 / संतोष श्रीवास्तव

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मैं देख आई थी अपने भैया को। छोटे से पालने में मखमली बिछावन पर आँख मूँदे सो रहा था। एकदम गुलाबी, पूरे चेहरे, माथे पर सिकुड़नें... छूकर देखा तो रुई के बंडल जैसा लगा... मैंने बुआ को बधाई दी -

"बुआ... आपने मुझे बबुआ दिया इसका शुक्रिया।"

उषा बुआ मुस्कुरा दीं। उनका चेहरा पीला पड़ गया था, एकदम कमजोर, बेजान-सी लग रही थीं वे। धीमे से बोलीं - "तुम्हें भाई मुबारक हो... बहुत प्यारा नाम दिया तुमने इसे बबुआ।"

और पूरी कोठी में खबर फैल गई कि पायल ने नामकरण भी कर दिया... प्यारा-सा गुड्डा जैसा बबुआ।

दोपहर होते-होते नृत्यमंडली आ गई. खास राजपूती पहनावे में पगड़ी बाँधे मर्द और बड़े-बड़े घाघरे पहने औरतें... खूब सजी-धजी. माथे पर लड्डू जैसे बोर बँधे थे चाँदी के. बौर की डोरी के साथ मेंढ़ी भी गूँथी गई थी। कोहनी तक चूड़ियाँ, बाजूबंद, कड़े। नाच दो घंटे चला। जब खाने-पीने से सब निपट गए... मेहमानों की खातिर-तवज्जो हो गई तो बड़ी दादी ने नर्तकियों को कोठी के अंदर बड़े आँगन में बुलाया। खुद व्हील चेयर पर बैठ गईं। मारिया, कंचन, जसोदा, पन्ना ने घर की सभी महिलाओं के लिए कुर्सियाँ रखीं। दादी ने सौ का नोट जसोदा को न्योछावर करने को दिया तो उनमें से एक नर्तकी उनके पास आकर घुटनों के बल बैठ गई - "हम खुद ही आ जाते हैं बड़ी मालकिन।"

बड़ी दादी ने सौ का नोट उसके सिर पर घुमाया-"अब नाचो तुम लोग।"

नाच क्या था... करतब था सर्कस जैसा। छोटी-सी परात के किनारों पर दोनों पैर जमाकर वह नाचने लगी, चकरघिन्नी-सी. न परात मुड़ी न वह गिरी। जब उसका नाच खतम हुआ तो दूसरी कुलाटियाँ खाने लगी और मुँह में उँगलियाँ फँसाकर अजीब-सी आवाजें निकालने लगी, तीसरी ने सात घड़े एक के ऊपर एक सिर पर जमाए और ठुमक-ठुमककर नाचने लगी। सबने तालियाँ बजाईं। कंचन, जसोदा साथ-साथ गीत गाने लगीं, पन्ना नाचने लगी। नाचते-नाचते दादी के पास गई - "हुकम... मेरे सोने के कर्णफूल... चाँदी की पाजेब?"

"सब तैयार हैं, आज तू जी भर कर नाच।"

कहती हुई दादी ने कंचन को अंदर भेजकर गहनों का डिब्बा मँगवाया और पन्ना को थमा दिया। नीले मखमल के डिब्बे को पन्ना ने बड़ी उतावली से खोला तो उसका चेहरा फूल-सा खिल पड़ा। मीना जड़ी चाँदी की पाजेब और मोगरे के फूल जैसे सोने के कर्णफूल। वह बावरी हो गई और कमर को ठुमके दे-देकर लचकाने, मटकाने लगी।

सावन के काले कजरारे मेघ झम-झाम बरस रहे थे... इस साल अच्छी बरसात हो रही थी। सूखे मरु न जाने कब के प्यासे थे जो सारा पानी सोखते चले जा रहे थे। गर्मी से पपड़ाई जमीन मुलायम होकर घास के अंकुर उलीचे दे रही थी। रह-रहकर बिजली चमकती और पल भर में बादल कड़कड़ाने लगते। उषा बुआ तीजों तक नहीं रुक रही हैं। फूफासा लेने आ गए हैं। बता रहे हैं कि कल नहीं लिवा ले गए तो फिर महीनों के लिए मुहूर्त टल जाएगा। मुहूर्त तो बस बहाना है, सच्चाई तो यह है कि उनकी सास का हुकुम है तीजों के पहले बहू घर आ जाए... जश्न मनाने को उतावले हो रहे होंगे सब। तवायफें दम साधे होंगी कि कब बुलावा आए और कब जाएँ? जश्न का कुछ-कुछ हवाला तो मैंने फूफासा से सुन ही लिया था। मुझे लगता है, इनसान को... खासकर अमीरों को अपने धन की ताकत दिखाने का मौका भर मिलना चाहिए. मैं इस धन के मोह से अपने को दूर रखूँगी। मेरे लिए जिंदगी में और भी दो चीजें ज़रूरी हैं। प्यार और ज्ञान की खोज। इसीलिए मेरे दिल में संध्या बुआ और अजय का महत्त्व ज़्यादा है। भले ही उनका प्यार तूफान बनकर उन्हें यहाँ-से-वहाँ भटका रहा है पर मुझे यकीन है एक दिन तूफान थमेगा और उन्हें किनारा मिलेगा।

बाबा ने बनारस से लौटकर बताया कि आजादी की क्रांति तेजी पकड़ रही है। पूरा देश सुलग रहा है। बनारस में काशी हिंदू यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने तिरंगा हाथ में लेकर फौजदारी अदालत पर उसे फहराने के संकल्प में पुलिस के हंटर खाए. लाठियाँ खाईं। उन्हें सड़कों पर घसीटा गया लेकिन लालूराम फौजदारी अदालत पर झंडा फहराने में कामयाब हुआ। उसकी कामयाबी के पीछे भी अंग्रेजों की चाल थी वरना गोलियों से भून दिया जाता वह। ब्रिटिश साम्राज्यवाद जनता को खुश देखना चाहता था और अगर एक खिलौने के फहराने से जनता खुश होती है तो इसमें हर्ज ही क्या है? वह कोई खजाना तो माँग नहीं रही। मिश्रीनाथ और लालूराम के नेतृत्व में दशाश्वमेध घाट से जुलूस निकला और तब अंग्रेजों ने लाठी, बंदूक से काम लिया। बहुत सारे व्यक्ति शहीद हो गए. मिश्रीनाथ और लालूराम बाल-बाल बच गए. उत्तेजित भीड़ ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए, खंभे उखाड़ डाले, करीब-करीब सभी स्टेशन लूट लिए और ट्रेन की पटरियाँ उखाड़ डालीं। राजवाड़ी और बाबतपुर के हवाई अड्डे भी नेस्तानाबूत कर दिए. डाकखाने, पुलिस चौकियाँ, गोदाम वगैरह लूट लिए. जी.टी. रोड पर फौज के जाने पर रुकावट डालने के लिए गड्ढे खोद दिए गए. पुलिस ने छिपकर गोलियाँ चलाईं तो क्रांतिकारी जमीन पर लेट गए लेकिन पुलिस के हाथ एक घायल तक नहीं लगा। इन लेटने वालों में बाबा भी थे लेकिन बदले हुए वेश में। बौखलाई हुई पुलिस ने काफी तूफान मचाया। महिलाओं पर भी अत्याचार किया। उन्हें नंगी करके पीटा गया। सुनकर दादी उत्तेजित हो गईं - रौरव नरक भी न मिलेगा इन राक्षसों को।

"और जानती हो, इन पुलिस वालों में अधिकतर तो भारतीय ही थे जो घोड़े पर चढ़े अंग्रेज अफसर के इशारे पर यह सब कर रहे थे। उन्होंने विद्यार्थियों से जबरदस्ती हॉस्टल खाली करवाए और उनका सामान भी लूट लिया। मुझे तो इस बात की खुशी है कि मिश्रीदत्त के पास काफी तादाद में देवमड़िया से ट्रेंड क्रांतिकारी मैंने भेजे हैं और हथियारों का खासा जखीरा भी।"

"ले कैसे गए इतने हथियार तुम?" दादी ने आश्चर्य से पूछा - "जाते समय तो ऐसे गए थे तुम जैसे किसी के घर मेहमान बनकर जा रहे हो?"

"यही तो खासियत है महारानी कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। हम अंग्रेज की जड़ें भी हिलाते रहें और उनके दोस्त भी बने रहें। देवमड़िया के क्रांतिकारी ही गुप्त रूप से रिवॉल्वर, कारतूस के टिन, राइफल, दोनाली बंदूकें, करौलियाँ, बारूद, बम, हथगोले वगैरह ले गए... बस, अब देश की आजादी में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।"

बाबा ने मेरी ओर देखा और अपना हाथ आगे बढ़ाकर शपथ दिलवाई कि प्रताप भवन की सरगर्मियों और आजादी के प्रयास न नौकर-चाकरों को पता चलें, न प्रताप भवन के बाहर किसी को, रिश्तेदारों तक को नहीं।

दादी मुस्कुराईं - "अरे... उससे कैसा डर? वह तो पुरखिन है पूरी..."

बाबा भी मुस्कुराए लेकिन फिर तुरंत फुसफुसाकर बोले - "अब हमें खूब सतर्क रहना है। आंदोलन ने पूरे देश में तहलका मचा दिया है। मालवगढ़ इस दृष्टि से थोड़ा शांत है फिर भी कहाँ, कब, क्या घटित हो जाए कहना मुश्किल है।"

अचानक... रोमांच से भरे माहौल में कुछ हलचल-सी हुई. सबने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा। बाबूजी थे।

"आओ समर, बैठो।" बाबा ने अपने बाजू में उन्हें बैठने का इशारा किया। बाबूजी ने बाबा, दादी के पैर छुए और बाबा के पास बैठ गए.

"देवमड़िया का सब काम निपट गया।" बाबूजी ने बताया।

"बहुत अच्छा... उस जगह को बिल्कुल नॉर्मल करवा दिया है न? कोई सुराग न मिले अंग्रेजों को वहाँ से।"

"सवाल ही नहीं उठता। लेकिन एक खतरनाक बात हो गई है।"

सबने चौंककर बाबूजी की ओर देखा। सन्नाटा-सा खिंच गया माहौल में... वक्त ही ऐसा था। किस पल क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। मुझे तो अंग्रेजों के घोड़ों की टाप ही लगातार सुनाई देती थी। जबकि सड़क निचाट और सूनी थी।

"ताऊजी के उस अघोरी साधू की कुटिया से कुछ हथियार बरामद हुए हैं। जहाँ उसकी धूनी जलती थी उसके नीचे खोदने पर कई आपत्तिजनक दस्तावेज भी प्राप्त हुए हैं। असल में वह साधू के वेष में क्रांतिकारी था। हफ्ते भर से फरार है वह। पुलिस उसकी फिराक में है। कहीं ताऊजी पर मुसीबत न आ जाए."

बाबा चिंता में पड़ गए. देर तक बाबूजी से मशविरा चलता रहा। पहले तो यह पता किया गया कि बड़े बाबा घर पर हैं या नहीं। बड़े बाबा, बड़ी दादी के कमरे में बैठे उन्हें भागवत पढ़कर सुना रहे थे। फिर कोदू को अंग्रेज कलक्टर के बंगले पर भेजा गया कि ज़रूरी काम है, फौरन प्रताप भवन तशरीफ लाएँ।

बाबा बड़े हॉल में आ गए... थोड़ी ही देर में अंग्रेज जीप से आ पहुँचा। अगवानी हुई... कांधारी अनार का रस पेश किया।

"आपको तकलीफ नहीं देते... पर यह सब क्या हो रहा है? बड़े भाई साहब जिस साधु के यहाँ जाते थे वह भी साला क्रांतिकारी निकला।"

अंग्रेज ने मूँछों की क्लीन जगह पर उँगली फेरी - "वह भी गिरफ्तार हो जाएगा, जेल में चक्की पीसेगा।"

बाबा की मुट्ठियाँ सोफे के हत्थे पर भिंच गईं।

"आप चिंता न करें। मि। अमरसिंह (बड़े बाबा) को होशियार कर दें। वे दोबारा उस साधु की कुटिया में न जाएँ और अगर कहीं कोई सुराग मिलता है तो हमें तुरंत बताएँ।"

"बल्कि हम तो कहते हैं भाई साहब को आपकी मदद करनी चाहिए उसे ढूँढ़ने में।"

"इसकी ज़रूरत नहीं है। हम प्रताप भवन की ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति ईमानदारी और वफादारी को अच्छी तरह समझते हैं।"