मालवगढ़ की मालविका / भाग - 27 / संतोष श्रीवास्तव

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हमारी बातों के दौरान थॉमस ने कॉफी और बिस्किट मँगवा लिए थे। कॉफी का प्याला मेरे हाथ में देते हुए उसने पूछा - "आपकी पढ़ाई कैसी चल रही है पायल बाई."

"वही तो बताने आई हूँ। मैं तीन साल के लिए इटली जा रही हूँ पी-एच.डी. करने। स्कॉलरशिप मिली है मुझे।"

"अरे वाह... यह तो बहुत बढ़िया खबर है। मैं आज ही छोटी आंटी को खत लिखूँगी। पायल बाई... आपमें कुछ बात ज़रूर है तभी तो छोटी आंटी बहुत सीरियसली आपको अपनी माँ कहती हैं। गुणों का भंडार हैं आप।"

"बस... बस... मुझे अपना सेवा केंद्र नहीं घुमाओगी?" मैंने कॉफी खतम कर उठते हुए कहा।

"क्यों नहीं... और यह सेवा केंद्र आपका भी तो है, केवल मेरा नहीं।"

वह भी उठ खड़ी हुई और बड़े उत्साह से एक-एक जगह की जानकारी मुझे देने लगी। अब तो और विस्तार कर लिया है उसने कमरों का और अधिक लोग नियुक्त कर लिए हैं। मारिया और थॉमस के प्रेम ने मिलकर जो यह मानव सेवा केंद्र का घरौंदा सजाया है वह किसी ताजमहल से कम नहीं। प्रेम का ऐसा गतिमान रूप जो बीमारी, रुकी हुई जिंदगी को जीने लायक बनाता है। बल्कि मेरी नजरों में तो ताजमहल से बढ़कर है। ताजमहल सिर्फ मकबरा बनकर रह गया। वहाँ जिंदगी की रवानी नहीं है, गीत नहीं है... एक निराशा है... उदासी है... तनहाई है और मारिया और थॉमस के इस ताजमहल में आशा है, त्याग और समर्पण है। मैंने मन-ही-मन इस प्रेम के प्रतीक को नमन किया।

विदा के समय मैंने मारिया के दोनों हाथ अपने माथे को छुलाए. ताँगे में बैठते हुए मैंने देखा वे दोनों रूमाल से अपनी आँखें पोंछ रहे थे।

प्रताप भवन रजनी बुआ की बिदा के बाद एकदम सूना हो गया था। मेहमान भी एक-एक कर बिदा हो गए थे। वैसे भी इस बार मैं पूरी शादी से तटस्थ-सी रही। नेग दस्तूर निभाने के बावजूद मन कहीं और लगा रहा। दादी के बिना प्रताप भवन ज़रा भी नहीं सुहा रहा था। ऊपर से बड़ी दादी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी कोसती रहतीं - "तुम पायल, चाहे जितनी किताबें पढ़ लो, विदेशियों की धरती पर सिर पटक आओ लेकिन एक बात गाँठ बाँध लो कि विधवा दूसरी शादी करके अपना सतीत्व खो देती है। मालविका का किया तो तुम्हें भोगना ही होगा। रजनी तो जैसे-तैसे निपट गई लेकिन तुम्हारी गृहस्थी बसना मुश्किल है।"

मन हुआ कहूँ गृहस्थी बसाकर आपको क्या मिला बड़ी दादी? लेकिन जहाँ जिद हो कि किसी की कोई बात नहीं सुनी जाएगी वहाँ कुछ कहने से फायदा भी क्या?

लेकिन अम्मा नहीं रोक पाईं अपने को - "आप क्यों कोसती रहती हैं दिन-रात उसे।"

"सच्ची बात तुम लोगों को कोसना लगे है। उलटी रीत हो गई है इस खानदान की अब तो। तू ही बता पायल बिट्टो, क्या मिला तुझे? घर की चौखट पार करके क्या न्याय मिलता है, क्या बाहर की दुनिया अपनी हो जाती है?"

जिंदगी में पहली बार बड़ी दादी के मुँह से सटीक बात सुनने को मिली। कहना चाहा, न्याय तो नहीं मिलता लेकिन अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत आ जाती है लेकिन चुप ही रही। बड़ी दादी से कुछ भी कहना मुझे दोहरा दुख दे जाता था क्योंकि मैं देख रही थी धीरे-धीरे उनकी देह का घुलना... मृत्यु निश्चित है लेकिन इतनी दूर कि पदचाप तक नहीं... लेकिन उसके इस ओर चल पड़ने की सूचना घुलती देह स्पष्ट दे रही है... आह, जिंदगी का इतना कड़वा यथार्थ!

वे बड़बड़ाती रहीं - "रजनी को उधर विदेश में ससुराल मिली जाके... मालविका का किया भुगता तो भई उसने भी। अब उसके साथ कुछ ऊँच-नीच हो तो न कोई देखने वाला... न सुनने वाला। तुम भी परदेस जा रही हो... पूरे घर की मत मारी गई है। अरे अब शादी-ब्याह करके अपनी गृहस्थी सम्हालो तो वह बात तुम्हारी अम्मा को रुचती नहीं... करो, जिसके जो जी में आवे।"

भारी मन से अम्मा मेरे इटली जाने की तैयारी में जुट गईं। कुछ हलकी-फुलकी पोशाकें बनवा दीं उन्होंने और स्वेटर, शॉल, पुलोवर, मफलर से अटैची भर दी।

"सम्हालकर रहना... ज्यादा-से-ज्यादा समय पढ़ाई में लगाना। रिसर्च का काम तपस्या है पूरी। खाने-पीने तक का होश नहीं रहता। अब तुम्हें अपना ध्यान रखना पड़ेगा।"

अम्मा अटैची जमाती जाती थीं और सीख भी दिए जाती थीं। न जाने अम्मा कब ये मानेंगी कि अब मैं बड़ी हो गई हूँ। शादी की भाग-दौड़ में बाबूजी बीमार पड़ गए थे वरना वे भी मेरे साथ कलकत्ता चलते। उनके लिए वीरेंद्र कुर्सी ले आया था। मैंने उन्हें कुर्सी पर बिठाकर शॉल अच्छी तरह उढ़ा दिया - "किसी बात की चिंता न करें बाबूजी, बस आशीर्वाद दें।" और मैंने उनके चरण स्पर्श किए. उन्होंने गद्गद हो मुझे गले से लगा लिया - "हमारा नाम रोशन करना बेटा।"

तभी वीरेंद्र आ गया। जीप में मेरा सामान रखते हुए कहने लगा - "मैं तो बनारस जाने की सोच रहा हूँ जीजी... वहीं बिजनेस शुरू करना चाहता हूँ।"

मैंने उसे बाँहों में भरकर चूम लिया - "तुम जो भी करोगे, अच्छा ही करोगे। बस, अम्मा-बाबूजी को अकेलापन महसूस मत होने देना।"

अम्मा संध्या बुआ की गोद भराई रस्म कर रही थीं। बुआ के आँचल में चावल, मेवे मिश्री, पान सुपारी डालकर उन्होंने उनकी माँग में सिंदूर लगाया और गले लगाकर भेंट भरी। उन्होंने मेरे माथे पर भी रोली लगाईं और संध्या बुआ के साथ मेरे भी मुँह में पेड़ा ठूँसते हुए छलछलाई आँखों से आशीर्वाद दिया। मैंने भी छलछलाई आँखों सहित अम्मा के सीने में मुँह गड़ा दिया। अब मिलना तो तीन वर्षों बाद ही होगा। बिदाई के क्षण भारी थे... ज्यों बदली बरसने की चाह में झुकी पड़ रही थी। मैंने जीप के पायदान पर पैर रखा ही था कि भीतरी कमरों से बड़ी दादी की तेज आवाज आई - "अरी कंचन... पायल गई क्या?"

पैरों में पंख उग आए जैसे। मैं भागती हुई गई और लेटी हुई बड़ी दादी की दुर्बल काया से लिपटकर रो पड़ी। उन्होंने भी निर्बाध बहते आँसुओं को गालों पर से पोछा और मुट्ठी में दबा शगुन का नोट मेरी हथेलियों में दबा दिया - "ले रख... जब जिद्दिया गई है उधर जाने को तो इसे लेकर जा..."

फिर कंचन से बोलीं - "थाली इधर ला न, खड़ी है भुच्च-सी."

और कंचन के हाथ से रोली चावल की थाली ले मेरे माथे पर शगुन का रूचना लगा दिया - "पोता बिदा हो रहा है मेरा तो... जा... ईश्वर तेरा भला करें।"

अब की बार मुझसे किसी की ओर देखा नहीं गया। नजरें नीची किए होंठों से उबलती रुलाई रूमाल से दबाकर मैं संध्या बुआ के बाजू में जीप में बैठ गई. स्टार्ट होते ही ढेर सारी धूल और धुएँ के गुबार की आड़ में तमाम चेहरे अपने आप ही छिप गए.

कलकत्ता पहुँचकर कॉलेज के कितने अधिक काम निपटाने थे। नई लैक्चरर को चार्ज हैंडओवर करना था। कुछ करेक्शन के बंडल थे प्रथम वर्ष के छात्रों के... उन्हें रात-दिन जागकर जाँचा। प्रिंसिपल मुझे फेयरवेल देना चाह रही थीं और प्राध्यापक वर्ग दावत माँग रहा था मुझसे। सो दोनों काम सम्मिलित हुए... अच्छा लगा।

सबकी ओर से दी गई भावभीनी बिदाई ने मुझमें ये चुनौती तो जगा ही दी थी कि अब मुझे सफल होकर लौटना है।

बिदाई की आखिरी रात संध्या बुआ और फूफासा रात भर मेरे साथ जागते रहे। प्रताप भवन की कितनी सारी बातें याद कीं हमने लेकिन दादी का सती होने के लिए जाने वाला दिन याद कर हम भीतर तक हिल गए और उसी उदासी में सवेरे ने दस्तक दी।

अब कैसे बयाँ करूँ अपने जाने की सुबह... ऐसी तैयारी हो रही थी मेरे जाने की कि जैसे अब लौटूँगी ही नहीं। बुआ, फूफासा को दम मारने की फुर्सत नहीं थी। बंगले के हर कमरे में उनका आना-जाना लगा था... यह अफरा-तफरी तब रुकी जब एयरपोर्ट जाने का वक्त नजदीक आन पहुँचा।

"तैयार हो पायल?" फूफासा के पूछने पर मैं हँस पड़ी।

"मैं तो कब से तैयार बैठी हूँ। आप ही लोगों की तैयारी खत्म नहीं हो पा रही है।"

दोनों हँस दिए. संध्या बुआ के कुंदकली-से शुभ्र दाँतों की हँसी को मैंने मुट्ठी में समेट लिया जैसे अनजान पथ पर चल पड़ने वाला राही अपनी निधि समेटता है।

एयरपोर्ट की ओर जाते हुए बादलों का झुक आना अजय फूफासा को चिंतित कर गया था - "कहीं फ्लाइट न कैंसिल हो जाए."

लेकिन मेरे मन में तमाम खुशियों की दस्तक हो रही थी। हवा कार की खिड़की को छूती और फिर सड़क की बाईं ओर बाँस के झुरमुट में छुपकर बाँसुरी बजाने लगती। मौसम में वैसे भी खुनकी थी।

"इटली तक पहुँचते-पहुँचते प्लेन की सूँ-सूँ आवाज से तुम्हारे कान सुन्न हो जाएँगे पायल... रुई ज़रूर लगा लेना कानों में और जिस भी समय पहुँचो, पहला फोन मुझे... समझीं?" संध्या बुआ की हिदायत पर मैं मुस्कुराना चाहती थी पर दादी की याद ने मुझे कचोट-सा लिया। इसी तरह दादी मेरी हर बात का खयाल रखती थीं। न जाने कैसे एक ही वक्त में वे कोठी के हर शख्स की ज़रूरत महसूस कर लेती थीं और जुट जाती थीं। उन्हें अगर पता लगे कि मैं पढ़ाई के लिए विदेश जा रही हूँ तो कितनी अधिक खुश हों वे... बल्कि खुश हो भी चुकी होंगी अब तक मारिया के मार्फत लिखे मेरे पत्र से। हमारे पास तो उन्हें सूचना देने का कोई साधन ही नहीं है... न उनका पता, न फोन नंबर... मारिया भी माँगने पर टाल जाती है। न जाने क्यों...!