मालवगढ़ की मालविका / भाग - 28 / संतोष श्रीवास्तव

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गाड़ी ढलान पर आ गई थी। ठंडी हवा ने मेरे बालों की लटों को उड़ाकर माथे पर बिखरा दिया था। मैंने बैग से स्कार्फ निकालकर कसकर बाँध लिया। बुआ का मेरे माथे पर लगाया हल्दी चावल का तिलक धुँधला पड़ गया था लेकिन मुँह में केसरी राजभोग का स्वाद बरकरार था। बुआ मुझे अपनी बेटी की जगह मानने लगी थीं क्योंकि शादी के इतने सालों बाद भी उन्हें औलाद नसीब नहीं हुई थी। दोनों के चेहरों की मुस्कुराहट व्यथा में परिवर्तित थी जबकि दोनों ने सच्चे दिल से एक दूसरे को चाहा था। अजय फूफासा में गंभीरता का पुट घुलता जा रहा था और बुआ तनहा महसूस करने लगी थीं। काश, कोई किलकारी उनकी तनहाई का भेदन कर पाती!

एयरपोर्ट में खासी चहल-पहल थी... मेरी फ्लाइट लगभग तैयार थी और सौ-सौ हिदायतों के साथ मैं प्लेन की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी... जाने क्यों दूर खड़े हाथ हिलाते अजय फूफासा को देख मुझे बाबूजी की याद आ गई जो तबीयत खराब होने के कारण मुझे पहुँचाने नहीं आ पाए थे लेकिन मुझे लेकर आश्वस्त भी बहुत थे। पीढ़ी दर पीढ़ी प्रताप भवन के इतिहास में यह पहली घटना थी जब किसी लड़की ने इतना साहस किया था... कोठी की चहार-दीवारी से निकल तमाम रीति रिवाजों को नकारते हुए अपने लिए एक नई सृष्टि की रचना करने चली थी। हाँ... यह सर्जन विप्लव साबित होगा लेकिन दिशाओं को उज्ज्वल भी यही सर्जन करेगा... अब औरत के मोम-सा पिघलने के दिन गए.

रोम की धरती पर कदम रखते ही एक अपरिचित एहसास ने मुझे चौंका दिया... क्या यही है नीरो बादशाह का राज्य... राजधानी रोम... ऑल रोड्स लीड टु रोम... सारी सड़कें रोम की ओर जाती हैं। मैं कहाँ जाऊँ... कैसे?

अजय फूफासा ने अपने एक परिचित स्कॉलर को, जो रोम यूनिवर्सिटी में पी-एच.डी. कर रहा था, मेरे वहाँ पहुँचने की इत्तिला दे दी थी। वही मुझे लेने आया था और उसी के द्वारा मेरे रहने का प्रबंध होना था। मैंने एयरपोर्ट पर उसके नाम की घोषणा करवाकर उसे अपने पास बुलवाया। ऊँचे कद के, साँवले रंग के बेहद शिष्ट बंगाली युवक को अपनी ओर तेजी से आता देख मैं समझ गई... दो कदम आगे बढ़ी कि उसने मेरा अभिवादन किया-

"मैं हूँ मिहिर सेन..."

"परिचित हूँ आपके नाम से। मिलने का सौभाग्य आज मिला।" मिहिर ने मेरा सामान कार की डिक्की में रखा और मेरे लिए शिष्टतावश कार का दरवाजा खोला -"बैठिए... मिस पायल सिंह।"

"अरे!" मैं हँस पड़ी - "इतनी फॉर्मेल्टी में विदेशी जगह में कैसे रह पाऊँगी?"

"मजे से... एक बेहतरीन कमरा आपके लिए किराए पर ले लिया है। बाजू में ही मेरा भी कमरा है।"

"वाह, यह तो बहुत अच्छा है।"

कार की खिड़की से मैं पत्थरों से बने घर और मल्टीस्टार बिल्डिंगों का नजारा देखने लगी। बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाले पत्थरों से बने घर रोमन स्थापत्य की तस्वीर पेश कर रहे थे। एक तंग-सी पत्थरों से जड़ी गली में मिहिर ने कार रोक दी। घुमावदार सीढ़ियों को पार कर हम जिस कमरे में पहुँचे वह कई और कमरों वाले बड़े से घर का एक ठंडा कमरा था। शायद पूरा घर बंद था। मिहिर ने स्टीम हीटर चला दिया। धीरे-धीरे कमरा गर्म होने लगा। एक ओर बड़ा-सा तख्त था जिस पर मोटा गुदगुदा बिस्तर, कंबल, लिहाफ, तकिया था। तख्त के नीचे ऊनी पाँवपोश। दीवार पर ठुकी लकड़ी की आलमारी जिसमें कई हैंगरों वाला वॉड्रोब था। कमरे की छत काफी ऊँची थी।

"आप अपना सामान वगैरह ठीक-ठाक कर लीजिए. तब तक मैं कुछ खाने का प्रबंध करता हूँ। कल से तो फिर यूनिवर्सिटी चलना ही है।"

भूख तो लगी थी पर एकदम अकेली होना भी नहीं चाहती थी मैं। लेकिन मिहिर को रोकना बेकार था। उसके जाते ही मैंने सारा सामान खोल डाला और सलवार कुरता पहनकर स्वेटर, मफलर, मोजे पहन लिए. बेतहाशा ठंड थी। पानी तो छूना भी कठिन था।

मिहिर पीजा और रेड वाइन लेकर जल्दी ही लौट आया। मैं उस अद्भुत खाद्य पदार्थ को देख रही थी कि मिहिर हँस पड़ा - "ये यहाँ की विशेष डिश है पीजा... बहुत स्वादिष्ट होता है यह। ये एक तरह से पूरा भोजन है... आटा और सब्जियों का अद्भुत मेल... चीज, सॉस सब कुछ होता है इसमें।"

उसने पीजा के टुकड़ों को कागज के पैक में से प्लेटों में परोसा - "लीजिए, खाइए. और ये रेड वाइन भी थोड़ी ले लीजिए. शरीर में गर्मी लाने के लिए यह ज़रूरी है वरना अकड़ जाएँगी।"

मैं ताज्जुब से मिहिर को देखने लगी जो कुछ ही घंटों में अपरिचय का दायरा तोड़ चुका था और यूँ लग रहा था जैसे हम वर्षों से परिचित हों। मैंने हँसते हुए पीजा का टुकड़ा उठाया -

"मिहिर जी, अभी मुझे समझने तो दीजिए रोम को। इतनी ठंड तो हमारे मालवगढ़ में भी पड़ती है, जब पाला पड़ता है... फसलें ठिठुर जाती हैं। आप संकोच मत करिए... आराम से पीजिए. मुझे कोई एतराज नहीं है। वैसे भी मैं खाने-पीने के मामले में ज़रा भी झंझट नहीं करती। जो मिल गया, खा लिया।"

मिहिर हँस पड़ा - "यानी स्वभाव से तपस्विनी। पायल जी, दुनिया में मैंने दो तरह के इनसान देखे; एक वे जो भोजन खाते हैं, दूसरे वे जिन्हें भोजन खाता है। मुझे खुशी है आपको भोजन नहीं खाता।"

कहते हुए वह ठहाका लगाकर हँसा और एक ही घूँट में वाइन का गिलास खत्म कर पीजा खाने लगा। पीजा सचमुच स्वादिष्ट था या भूख में ज़्यादा अच्छा लग रहा हो।

हम देर तक रिसर्च वर्क पर चर्चा करते रहे। दोनों के विषय, गाइड और यूनिवर्सिटी एक ही थे और विदेश में ऐसा होना बहुत बड़ी बात है... जबकि हम पहले बिल्कुल अपरिचित थे। मिहिर के जाते ही मैं बिस्तर में दुबक गई. बाहर तेज हवा चल रही थी और अजनबी जगह में तरह-तरह की पदचाप मुझे सहमा रही थी। शायद इसीलिए कि इस कमरे में मेरी पहली रात थी। मुझे अम्मा की बेतहाशा याद आई... संध्या बुआ और फूफासा मानो नजदीक ही खड़े नजर आए... अरे हाँ, उन्हें तो फोन भी करना है पर अब इन सुनसान सड़कों पर मैं कहाँ ढूँढ़ने जाऊँ फोन की सुविधा? कल मिहिर से कहूँगी। या शायद अजय फूफासा खुद ही यूनिवर्सिटी फोन कर लें।

काफी देर बाद मुझे नींद आई. और इतनी गहरी कि सुबह मिहिर के दरवाजा खटखटाने पर ही नींद टूटी. अपने देर तक सोने के कारण मैं शरमा भी गई. वह तरोताजा दिख रहा था और उसके हाथ में कॉफी का थर्मस था।

"सॉरी मिहिर जी, मैं अभी तैयार हुई जाती हूँ। असल में नींद काफी देर से आई." कहकर मैं बाथरूम में घुस गई।