मालवगढ़ की मालविका / भाग - 32 / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अम्मा लिखती हैं कि बड़ी दादी को बहुत पछतावा है दादी के संग किए अपने व्यवहार का - "पुण्यात्मा थी मालविका, विधवा होकर भी सधवा मरी... न खटिया न बिस्तर, पट्ट से चल दी और मैं सधवा होकर भी विधवा जैसी जिंदगी जी रही हूँ, बरसों से खटिया भोग रही हूँ पर मौत आती नहीं।"

छह महीने और गुजर गए. मैं यूनिवर्सिटी में रम गई. अध्यापन, विद्यार्थी, पुस्तकालय और घर। बस, यहीं तक सिमट आया संसार। मुझे सरकार की तरफ से बंगला एलॉट हुआ। अजय फूफासा और संध्या बुआ की जिद थी कि वे मुझे अलग नहीं रहने देंगे। जब एक ही शहर में रहते हैं तो अलग रहने में क्या तुक है। मैंने कोमलता से कहा - "बुआ, फूफासा! मुझे सहारा देकर मेरे निश्चय से मत डिगाइए. बेटी का तो धर्म है विदा होना। आशीर्वाद सहित विदा करिए."

संध्या बुआ जानती थीं मुझे मेरे निश्चय से कोई नहीं डिगा सकता। फिर एक ही शहर में हैं तो रोज ही मिलेंगे। मुश्किल से दस मिनिट की दूरी पर तो है बंगला, बुआ के बंगले से। बुआ ने बंगला ऐसा शानदार सजा दिया कि मुझे डर लगने लगा, मैं ठीक तरह से सार सम्हाल कर पाऊँगी? वीरेंद्र और उर्मिला भी आए. उर्मिला अपने माह भर के बेटे को लेकर आई. गोरा गदबदा, गप्पू-सा जैसे मुलायम रुई से बना हो। उतने दिन हम सब संध्या बुआ के घर रहे। संध्या बुआ तो गुड्डू को देखकर खुद को भूल गईं। उसका हर काम अपने हाथों से करने लगीं। वह बिटर-बिटर उनका मुँह ताकते हुए हँस पड़ता तो कहतीं - "देखो अजय, पूर्वजन्मका रिश्ता है इससे मेरा।"

"पूर्वजन्म का ही क्यों, इस जन्म में भी तो तुम उसकी दादी हो।"

"नहीं अजय... यह मुझे माँ पुकारेगा। क्यों रे शैतान, पुकारेगा न।"

कितना दर्द था उनके हृदय में। अजय फूफासा की तो आँखें छलछला आईं। वे बहाने से उठे और रीडिंग रूम में चले गए. फिर जब डिनर के लिए मैं बुलाने गई तभी बाहर आए.

पूजा की छुट्टियों में प्रोग्राम बना कि पहले हम सब बनारस जाएँगे फिर अम्मा-बाबूजी को लेकर मालवगढ़ बड़ी दादी के पास। अजय फूफासा का यूनिवर्सिटी में काम अधिक था इसलिए मैं और संध्या बुआ ही बनारस गए. बनारस से मालवगढ़... बड़ी दादी सख्त बीमार थीं। सूनी, वीरान-सी कोठी में वे अकेली बिस्तर पर पड़ी मोम-सी घुल रही थीं। हमें आया देख कोदू, रामू, कंचन सभी कोठी के इंतजाम में जुट गए. कमरे सँवारे गए... रसोईघर में खाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं। मैं बड़ी दादी के सिरहाने बैठकर उनके बाल सहलाने लगी - "कैसी हैं बड़ी दादी?"

उन्होंने हवा में अपने निर्बल नस उभरे हाथ यूँ हिलाए जैसे उन्हें नहीं पता वे कैसी हैं। फिर टकटकी बाँधे मुझे देखने लगीं। मैं उनकी आँखों की पीड़ा बर्दाश्त नहीं कर पाई, उनसे लिपटकर रो पड़ी। बड़ी देर बाद वे धीमे से बोलीं - "तू तो बहुत बड़ी अफसर हो गई है - है न-"

"नहीं बड़ी दादी, मैं तो पायल ही हूँ, आपकी वही तुनक मिजाज पायल।"

"चल! बहलाती है मुझे, मैं जानती हूँ तू अफसर हो गई है, मुझसे लाख छुपा ले।" वे हँस पड़ीं - कमजोर, फीकी हँसी - "क्यों री... अफसर क्या शादी नहीं करते?"

मैंने उनके हड्डीहा गालों को चूमा - "फिर वही शादी। मैं शादी के लिए जन्मी ही नहीं।"

"हाँ री शिखंडी - महाभारत से उठकर सीधी आ गई कलजुग में।"

बड़ी दादी की उपमाएँ होती बड़ी सटीक हैं। कंचन उनके लिए दवा और फल ले आई. उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ी। संध्या बुआ जबरदस्ती सेब की फाँकें उनके मुँह में ठूँसने लगीं तो वे भड़क गईं। पूरी फाँक नीचे फर्श पर उगल दी - "मार बकबका सवाद है इसका... संध्या तू तो मुझे गट्टे की चटपटी तरकारी और बघारे हुए केसरिया चावल खिला दे। जैसे हमारी मालविका दुलहिन बनाती थी।"

दवा खाकर बड़ी दादी को हलकी-सी झपकी आ गई. हालाँकि प्रताप भवन के कमरे हॉल के झाड़फानूस रोशन थे उस रात। बगीचे में पानी के सिंचाव से भीनी, सौंधी महक भी उठ रही थी लेकिन एक सन्नाटा भी था जो सभी को निगल जाने को आतुर था। मैं अपने उदास कमरे में स्वयं को सहज नहीं पा रही थी।

संध्या बुआ ने कटोरी में गट्टे की सब्जी, फूली नरम रोटियाँ, केसरिया चावल, पापड़ आदि परोसे और बड़ी दादी के कमरे की ओर जा ही रही थीं कि बड़े बाबा आ गए. मैं तो उन्हें देखकर सकते में आ गई. बाल लंबे-लंबे जटाओं जैसे, मटमैली धोती और नारंगी कुरता, गले में रुद्राक्ष की मालाएँ और माथे पर भभूति की तीन रेखाएँ खिंची हुईं। प्रताप भवन की अपार संपत्ति को ठुकराकर उनके साधू हो जाने के लिए क्या केवल बड़ी दादी जिम्मेदार हैं या पच्चीस सालों से बिस्तर भोग रही बड़ी दादी के लिए बड़े बाबा जिम्मेदार हैं? दुर्गति दोनों की हुई... मगर क्यों? क्यों जिंदगी भर के रिश्ते शूल बन जाते हैं।

बड़े बाबा को देखकर दादी कोहनियों के सहारे बिस्तर पर उठंग-सी हो गईं - "आ गए?" और उनके हाथ काँपे... वे बिस्तर पर गिर गईं... साँस उलटी चलने लगी... बदन पत्ते-सा काँपने लगा। संध्या बुआ ने हाथ में पकड़ी थाली मेज पर पटकी और बड़ी दादी के तलुवे सहलाती हुई जोर से चीखीं - "कोई डॉक्टर को बुलाओ."

कोठी में नौकर, दासियाँ इधर-उधर भागने लगे। बड़े बाबा तटस्थ से बने सिरहाने खड़े थे। बड़ी दादी ने इशारे से भाग-दौड़ करने को मना किया। फिर जीभ निकालकर अपने सूखे हलक को दिखाया... मैं चम्मच से उनके मुँह में पानी डालने लगी तो छटपटाहट और बेचैनीवश उन्होंने हाथ से चम्मच को परे ढकेल-सा दिया। उनकी तकलीफ बढ़ती जा रही थी। अचानक बड़े बाबा उनके सिरहाने पर घुटनों के बल बैठ गए - "हरि ओम् जपो... बोलो हरि ओम्।"

बड़ी दादी ने डबडबाई आँखों से उनकी ओर देखा। उन आँखों में इतनी पीड़ा समाई थी कि मानो अब उस पीड़ा का विस्फोट होने ही वाला है... कि जैसे वह कहना चाहती हैं बड़े बाबा से कि देख लो... पराए घर से मुझे लाकर क्या दुर्गत की है तुमने मेरी... मैं सारी उमर धीरे-धीरे अगरबत्ती-सा सुलगती रही लेकिन तुमने वह सुलगना नहीं देखा... बस उसकी खुशबू में ही मस्त रहे... किस काम का तुम्हारा साधू होना जब कर्तव्यों को ही नहीं निभा सके... मुँह फेर लेने से क्या जिम्मेवारियाँ खत्म हो जाती हैं?

उन नजरों ने अपनी मौन भाषा में पत्थरदिल बड़े बाबा से बहुत कुछ कहना चाहा था लेकिन वह केवल इतना कह पाईं - वह भी बाबूजी से... उनका हाथ कसकर पकड़कर - "समर... तुम्हारी अम्मा मुझे माफ तो कर देंगी न?" और क्षण भर में उनका शरीर पत्ते-सा काँपकर निश्चल हो गया।

"अरे हुकम... बिना कुछ खाए-पिए ही चल दीं।" कंचन की चीख और रुलाई ने प्रताप भवन की नींवें हिला डाली थीं। अचानक बड़े बाबा ने उनके पलंग के पाए पर अपना सिर पटकना शुरू कर दिया। वे रोते जा रहे थे और होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाते जा रहे थे। जिंदगी भर बड़ी दादी को तड़पाया... उसकी कुछ तो टीस, चुभन सालनी चाहिए उन्हें! जानती हूँ उन्होंने बड़ी दादी को न शारीरिक सुख दिया न मानसिक। बल्कि उनकी जिंदगी के रफ्ता-रफ्ता घुलते रहने और गलते रहने के लिए जिम्मेवार भी वही हैं। उनकी बीमारी में उन्होंने डॉक्टर, नर्स, वैद्य, हकीम के हुजूम ज़रूर खड़े कर दिए थे पर बीमार को अच्छा होने के लिए प्यार की भी आवश्यकता है। दवाइयाँ तभी असर करती हैं जब बीमार को पता हो कि उसकी किसी को ज़रूरत है। बड़े बाबा ने कभी ये ज़रूरत नहीं जताई... हाँ... अब मैं कह सकती हूँ कि जब उनका शरीर भोगने योग्य नहीं रहा तो वे तांत्रिक साधू हो गए. भोग वासना से असंतुष्ट व्यक्ति ही तांत्रिक होते हैं और ईश्वर से प्रेम करने वाले, हर मनुष्य में ईश्वर का रूप देखने वाले व्यक्ति मांत्रिक-तपस्वी होते हैं। बड़े बाबा ने किसी से प्रेम भी किया है मुझे तो इसी बात पर संदेह है।

उषा बुआ तो आ गई थीं पर रजनी बुआ कल सुबह ही आ पाएँगी ऐसा वीरेंद्र और उर्मिला ने बताया था क्योंकि जब ये दोनों बनारस से यहाँ के लिए रवाना हो रहे थे तो रजनी बुआ की इन लोगों से फोन पर बात हुई थी। रजनी बुआ की फ्लाइट ही रात की है।

मुट्ठी भर बची बड़ी दादी की देह को सोलहों शृंगार करके सजाया गया। बड़े बाबा ने उनकी माँग भरी और सुहागिन औरतों ने उनकी माँग से सिंदूर ले अपनी माँग से छुआया... अमर सुहाग के लिए। ईश्वर ने उन्हें कम-से-कम सुहागिन मरने का तो वरदान दिया।

मारिया को नहीं आना था, नहीं आई. थॉमस आया। दादी के शव पर फूल चढ़ाए और शमशान भी गया। शाम तक कोठी वीरान हो चुकी थी। रह गए थे केवल वे संबंधी जो तेरहवीं तक रुकने वाले थे। बड़े बाबा पूरे तेरह दिन उस जगह आसन जमाए रहे जहाँ बड़ी दादी ने प्राण त्यागे थे। उनका पलंग, बिस्तर सब दान कर दिया गया और वहाँ दीप जलाकर उनकी फोटो रखी गई थी जिस पर रोज सुबह संध्या बुआ ताजे फूलों की माला पहनातीं। उन्होंने कौल ले लिया था कि अब वे कभी गट्टे की तरकारी और केसरिया चावल नहीं खाएँगी क्योंकि इन चीजों को वे बड़ी दादी को खिला नहीं पाई थीं।

तेरहवीं के बाद सब कुछ तितर-बितर हो गया। अम्मा वगैरह बनारस लौट गईं। कंचन रोती-सुबकती अपने गाँव चली गई और हम लोग कलकत्ता लौट आए. रजनी बुआ कुछ दिनों के लिए उषा बुआ के घर जोधपुर गई थीं। कोठी की देखभाल के लिए रामू और कोदू रह गए. जहाँ कभी चहल-पहल, शान शौकत और ऐश्वर्य के झरने बहते थे अब वहाँ सूखे सन्नाटे अपनी चिटखी दरारों से झाँक रहे थे।

कलकत्ता लौटकर मैं अपने बंगले नहीं लौटी. इस वक्त संध्या बुआ को मेरी ज़रूरत है। वे टूट चुकी थीं बड़ी दादी की मृत्यु से। उनका मायका बियाबाँ में बदल चुका था। और यह एहसास तेजी से उनके अंदर समाता जा रहा था कि उनका जीवन असुरक्षित-सा हो गया है। माँ नहीं बनीं वे... उनका अपना अधूरापन उन्हें मथे डालता था।