मालवगढ़ की मालविका / भाग - 31 / संतोष श्रीवास्तव

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अपने दोस्त मिहिर से अलविदा कहकर मैं पी-एच.डी. की उपाधि लिए नई उमंग से भरी अपने देश लौटी. एयरपोर्ट पर मेरे ताज्जुब की सीमा नहीं थी जब मैंने देखा कि मुझे लेने अम्मा, बाबूजी, संध्या बुआ, अजय फूफासा, वीरेंद्र और उर्मिला सभी आए थे। वीरेंद्र के हाथों में बड़ी-सी गुलाब के फूलों की माला थी और उर्मिला के हाथों में कैमरा। उसने मुझे माला पहनाकर अपनी गोद में फूल की तरह उठा लिया - "मेरी ग्रेट डॉक्टर जीजी मिस पायल... इटली रिटर्न... देखा उर्मिला मेरी जीजी को... जैसा मैं वर्णन करता था वैसी ही हैं न?"

उर्मिला ने मेरे पैर छुए और मेरी बाँहों में समा गई.

कार में बैठकर संध्या बुआ के बंगले तक आते हुए रास्ते में ही अम्मा ने बता दिया कि उर्मिला जल्द ही मुझे बुआ बनाने वाली है और इसके पैर इतने शुभ हैं कि संध्या बाई भी उम्मीदों से हैं।

"अरे वाह..." मैंने आगे की सीट पर बैठी संध्या बुआ के गले में पीछे से बाँहें डाल दीं और उनके गाल चूम लिए - "यह हुई न बात।"

"ये क्या हो रहा है मेरी बीवी के साथ?" अजय फूफासा ने शरारती लहजे में कहा तो संध्या बुआ ने तुरंत मेरे गाल पर हल्की-सी चपत लगाई - "पूरी बिगड़कर लौटी है।"

रोम से मैं सभी के लिए सौगातें लाई थी। बड़ी दादी के लिए फर का मुलायम शॉल। हँस पड़ा वीरेंद्र शॉल देखकर - "सूखकर छुआरा हो गई हैं बड़ी दादी... ये शॉल ओढ़कर पहाड़ी चूहा लगेंगी।"

हम सब हँस पड़े थे। अम्मा हफ्ते भर रुकी थीं। मुझे अगले महीने की पहली तारीख से यूनिवर्सिटी ज्वाइन करनी थी। सीधे हैड ऑफ दि डिपार्टमेंट के पद पर। अम्मा चाहती थीं मैं तब तक मालवगढ़ रह आऊँ। बड़ी दादी का कोई भरोसा नहीं... डॉक्टरों तक ने उम्मीद छोड़ दी है। मेरे पास पूरे पंद्रह दिन थे। मैं आराम से दस दिन तो मालवगढ़ में रह ही सकती थी। अम्मा, वीरेंद्र और उर्मिला बनारस लौट गए.

शाम को अजय फूफासा दो खबरें एक साथ लेकर घर लौटे। एक तो यह कि मेरी मालवगढ़ जाने की टिकट आ गई है और दूसरी कि वे यूनिवर्सिटी में डीन ऑफ फैकल्टी हो गए हैं। पूरा घर खुशियों से जगमगा उठा। मेरे तो पैर ही थिरक उठे। लगता था जैसे पूरा आसमान मुट्ठी में आ गया है... दिशाएँ लुप्त होती जा रही हैं और एक बड़ी चौड़ी-सी राह आँखों के आगे खुलती चली जा रही है जिसके दोनों किनारों पर दीपक जगमगा रहे हैं। दूर सड़क के छोर से एक नन्हा-सा बच्चा घुँघराले बालों वाला दौड़ता आ रहा है, किलकारी भरता कि सहसा जलते दीपक पर उसका पैर पड़ गया और लौ उसके कपड़ों को सुलगाने लगी। तभी फोन बज उठा। फोन शिमला से था जिम का और सूचना बवंडर से भरी... कि दादी नहीं रही। मानो आकाश मुट्ठी से फिसलकर टुकड़ा-टुकड़ा हो जमीन पर गिर पड़ा हो... संध्या बुआ के पैर चौखट पर ऐसे टकराए कि वे पेट के बल फर्श पर गिर पड़ीं। गिरते ही ब्लीडिंग होना शुरू हो गया। अजय फूफासा डॉक्टर को बुलाने दौड़े... फोन मैंने अटैंड किया - जिम कह रहे थे कि कल रात दादी अच्छी-भली डिनर लेकर सोईं। रात के करीब सवा दो बजे पानी माँगा जबकि वे प्यास लगने पर खुद ही सिरहाने रखे थर्मस से पानी लेकर पी लेती थीं। लेकिन जिम को जगाकर उन्होंने पानी माँगा... बताया, सीने में दर्द है, घुटन-सी हो रही है। जब तक डॉक्टर आया, सब कुछ खत्म हो चुका था। जिम की आवाज अथाह दर्द में डूबी थी। फोन बेआवाज हो गया।

आँखों के आगे घिरते अंधकार और सीने से उबल-उबलकर निकलती रुलाई के बीच आँसू भरी आँखों से मैंने देखा... संध्या बुआ के पलंग के पास बैठी डॉक्टर ने फूफासा को बताया कि आपकी पत्नी का एबॉर्शन हो गया है। तुरंत ऑपरेशन करना होगा, क्योंकि बेबी चार माह का था। मैं ऐंबुलेंस बुलवाती हूँ। खुली आँखों से देखा मेरा स्वप्न इस रूप में फलित होकर सामने आएगा मैंने सोचा भी न था। सचमुच दीपक की लौ ने मेरे नन्हे भाई को गर्भ में ही जला डाला। वह संध्या बुआ की पहली और आखिरी अजन्मी संतान थी।

बुआ सुबह नर्सिंग होम से लौट आईं पीली, मुरझाई हुई सी. मैं उनकी गोद में गिरकर बुक्का फाड़कर रो पड़ी। अजय फूफासा डाइनिंग टेबल पर अपना सिर पटकने लगे। सदमा दोहरा था। एक तो कभी पिता न बन सकने की पीड़ा, दूसरे उनकी शादी में अहम भूमिका निभाने वाली, समाज के आगे उनकी शादी को चुनौती मानने वाली दादी नहीं रहीं -

"चलिए बुआ, दादी के अंतिम दर्शन के लिए हम शिमला चलते हैं।"

पर बुआ जड़ थीं - "क्या होगा उधर जाकर? पायल, मरने वाला तो चला गया।"

मैं हक्की-बक्की बुआ को देखने लगी - "बुआ, क्या हुआ बुआ... ऐसे क्यों कह रही हैं बुआ?"

"ठीक ही कह रही हूँ... जाने वाला तो चला गया। चाची चली गईं... सबका उपकार करके, ममता, प्रेम, स्नेह, दया... धन खुले हाथों लुटा कर। अच्छी आत्मा थीं... फट से जान निकल गई, पाँच मिनिट भी नहीं लगे। इधर माँ भुगत रही हैं... बीस-पच्चीस सालों से अपनी मौत बिस्तर पर... है कल का भरोसा? कल तक मैं माँ थी, आज मेरी ममता लुट गई... बताओ, है जिंदगी का भरोसा? एक पल का भी तो ठिकाना नहीं।"

अजय फूफासा तेजी से आए. बुआ का चेहरा सीने में भींच लिया - "मत दुखी हो संध्या... हम दोनों एक-दूसरे का सहारा बनेंगे... फिर पायल है न हमारी बेटी."

संध्या बुआ रोने लगीं - "जिद करती है अजय तुम्हारी बेटी कि शिमला चलो। बताओ क्या ये सही होगा? क्या हम अंग्रेजी रीति रिवाज के अंतिम संस्कार सहन कर पाएँगे? और क्या चाची की आत्मा सहन कर पाएगी कि हम लोग उनके शरीर को इस रूप में देखें? उन्हें भी तो दुख होगा अजय।"

वजन था बुआ के तर्क में... हाँ, यह सही है कि दादी सांसारिक तौर पर भले ही प्रताप भवन से रिश्ते तोड़ चुकी थीं पर मन से वे उसके चप्पे-चप्पे में मौजूद थीं। तो अंत हो गया एक सदी का... इतिहास रच गईं दादी जिसमें त्याग भी था, समर्पण भी... चुनौती भी थी... जोश और दृढ़ता भी। मैंने धीरे-धीरे आँखें मूँदकर उन्हें याद किया और फिर उमड़ते आँसुओं को बेतहाशा बहने दिया।

चारों ओर धुँधलका... ढलती रात के थमे हुए कदमों में व्यतीत होते जाने की आहट जागने लगी। तो यह होता है अवसान। सारी जिंदगी का कलुष, पराजय, नफरत, तिरस्कार। अपनों का बेगाना हो जाना और इतने बर्दाश्त का यह अंत। तो फिर जिंदगी के क्या मायने? क्यों व्यर्थ की कड़वाहट और संबंधों का ढोना। क्यों रिश्तों के बीच पनपी खाई को देख बिसूरना? आज अगर दादी होतीं तो मेरे हर सवाल का जवाब देतीं।

मुझे जवाब दो दादी।

दादी की मृत्यु का धक्का इतना तीव्र था कि मेरा मन खंडहर हो गया। उनका होना ही मेरे लिए काफी था भले ही हम मिल नहीं पाते थे लेकिन अब... अब चीखते सन्नाटे हैं और कचोटती यादें। कितना जोश था मन में कि एक दिन पहुँच जाऊँगी शिमला और उनके कंधे पर सिर रखकर संतुष्टि से आँखें मूँद लूँगी - "देखो दादी, तुम्हारी पायल माँ अब रोम रिटर्न डॉक्टर बन गई है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट हो गई है। अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना आ गया है। उसने जिंदगी के सभी चैलेंजों को स्वीकार कर लिया है - घर, गृहस्थी, सैक्स - इन सबसे परे उसकी अपनी एक अलग दुनिया है जहाँ सर्वोच्च सिंहासन पर आप विराजमान हैं क्योंकि आप ही ने उसे हिम्मत दी। आपसे और अम्मा से प्रेरणा पाकर ही पायल इस मुकाम तक पहुँच पाई है। लेकिन उड़ने की आकांक्षा मन में उठते ही पंखों का टूट जाना महसूस किया मैंने दादी के न रहने से। अब चाहे खंडहरों में सिर पटकूँ या बियाबाँ में भटकूँ, कौन है देखने वाला। दादी तो अशेष में शेष हो गईं।

जानती हूँ कि कुछ बातें बहुत मुश्किल होती हैं। कुछ बातों के लिए चाहकर भी अवरोध सहन करना पड़ता है। मैं दादी की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो पाई, मैं वीरेंद्र के ब्याह में भी शामिल नहीं हो पाई। शुभ-अशुभ दोनों प्रसंगों से मैं किस कदर जुड़ी थी... मानो मेरे शरीर का अंग ही थे दोनों प्रसंग पर मेरी मजबूरी... मैं बड़ी दादी से मिलने भी नहीं जा पा रही हूँ... मैं संध्या बुआ के शिशु का न जन्म देख पाई न उसकी किलकारियाँ सुन पाई। उजाड़ हो गई बुआ मातृत्व से। उस समय जबकि अजय फूफासा डीन बन चुके हैं। जिंदगी में ऐसा होना कोई मामूली उपलब्धि नहीं है फिर भी हम इस खुशी को सेलिब्रेट नहीं कर पाए। ये कैसा जीवन है... इस कदर धूप-छाँव से भरा कि न धूप पहचानी जा रही है न छाँव। हर घटना प्रताप भवन से जुड़ी होते हुए भी घट रही है कहीं ओर। मानो घटनाओं की पोटली प्रताप भवन की सीढ़ियों पर रखी थी जो मेरे वहाँ से हटते ही खुली तो सही पर घटित कहाँ-कहाँ हुई - चकित हूँ - शोक है और पीड़ा है - और यही प्राप्य है जीवन का।