मालवगढ़ की मालविका / भाग - 30 / संतोष श्रीवास्तव

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वसंत में जब चिनार के पत्ते रक्तिम हो उठे औरजब बर्फ पिघलकर धरती में छुपे फूलों को खिलने का मौका देने लगी तो अम्मा का खत आया कि वीरेंद्र की शादी तय हो गई है। अगले महीने की अट्ठाइस तारीख को तिलक चढ़ेगा। मैं जितनी जल्दी हो सके पहुँच जाऊँ।

तो अम्मा ने मेरे शादी न करने के प्रस्ताव पर अपनी रजामंदी की मोहर लगा ही दी। वरना बड़ी बहन के कुँवारी रहते छोटा भाई शादी करे यह कहाँ संभव था। कम-से-कम प्रताप भवन में तो बिल्कुल नहीं। अम्मा ने मुझसे कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की। उन्होंने मेरे अंतर्मन को विकसित होने का पूरा मौका दिया। वे हमेशा कहती हैं -'पायल, अपने को पहचान लो। ये जिंदगी की सबसे बड़ी कामयाबी है वरना आत्मा हमेशा धिक्कारती है और आत्मा की धिक्कार बड़ी चुभती है।'

यही प्रश्न तो मैं अपने से करती हँ अक्सर कि मेरी लड़ाई किस बात को लेकर है? या कि मैं अपने उद्देश्यों को व्यवस्थित नहीं कर पा रही हूँ। फिर यह भटकाव जैसी सोच क्यों हो जाती है कभी-कभी। होती है और फौरन सम्हल भी जाती हूँ... नहीं, मुझे अपनी सोच सतही नहीं रखनी है वरना कदम डगमगा जाएँगे।

शादी की खबर से मन खुशी से भर उठा था। मेरा भैया इतना बड़ा हो गया कि अब दूल्हा बनेगा। बचपन में तीज त्यौहारों पर मुझ पर थोपे गए रीति रिवाजों को लेकर मैं हमेशा जिरह कर बैठती थी कि भैया ऐसा क्यों नहीं करता। आज तमाम रीति रिवाजों से अपने को फारिग कर लिया है मैंने लेकिन आज मेरा वीरू रीति रिवाजों का पालन करता बंधनों में बँध रहा है। जी चाहा पंछी की तरह उड़कर पहुँच जाऊँ उसके पास और उसके पगड़ी सेहरा बँधे सिर की बलैया ले लूँ... लेकिन... मैं तो शादी में भी नहीं जा पाऊँगी। इस परदेस में पढ़ाई का तकाजा मेरे पैरों को रोक रहा है। हँसी-खेल नहीं है उतनी दूर जाना। लेकिन अम्मा के अनुसार शादी का मुहूर्त टाला भी नहीं जा सकता। वीरेंद्र ने आतुर होकर लिखा -

'क्या करूँ जीजी? तुम्हीं बताओ... शादी रुक नहीं सकती क्योंकि फिर लंबे समय तक अशुभ ग्रहों का योग है प्रताप भवन पर।'

पढ़कर मन में बरसों पहले की संध्या बुआ की शादी के समय की घटना दरक गई. यही बात कहकर तो बाबूजी ने मालवगढ़ के लोगों के सामने जल्दी शादी करने की दलील पेश की थी जो महज एक बहाना थी। आज वही बात सत्य हो रही है। मैंने वीरेंद्र को लिखा -

"अशुभ ग्रह तो भैया मेरे, बरसों पहले लग गए थे प्रताप भवन पर... जब दादी को बाबा की चिता पर जलाने के लिए जीवित बिठाला गया था। अब उस अशुभ ग्रह को तुम्हें और तुम्हारी दुल्हन को शुभ बनाना है। कमर कास लो। मैं मन-प्राण से तुम्हारे पास हूँ।"

और सचमुच जब भी थीसिस की किताबें खोलती... कानों में शहनाई गूँजने लगती... एक-एक दृश्य खुली आँखों से देखने लगती। रोम की पतझड़ की ऋतु भी मेरे मन में बहारों जैसी गमक उठी थी। सजे हुए आरता के थाल, बंदनवारें, रंगोली, मेहँदी, ढोलक की थाप पर बन्ना-बन्नी के गीत मेरे आसपास सीप के मुँह से खुलने लगे। सब कुछ साफ-साफ और स्पष्ट दिखाई देने लगा। लौंग, इलायची, दालचीनी की महक कमरे को झकझोरने लगी। दाल, बाटी, चूरमा, साँगर की चटपटी सब्जी, टैंटी का अचार... लगता न जाने कब से सब कुछ छूट चुका है और जो नहीं है वही मानो मथ रहा है।

शादी के महीने भर बाद तस्वीरें भी आ गईं। मैंने मिहिर को दिखाईं। बताया, छोटे भाई की शादी की तस्वीरें हैं... इसमें देखो पगड़ी बाँधे मेरा भोला-भाला नटखट वीरेंद्र कितना प्यारा लग रहा है... और ये सोलहों शृंगार किए उसकी दुल्हन उर्मिला... मिहिर को पता था मैंने शादी नहीं करने का फैसला कर लिया है तो ताज्जुब करने लगा था -'राजस्थानियों में ऐसा रेयर देखने को मिलता है।'

मुझे रेयर ही तो बनना है... अनुपलब्ध... बचपन से ही विद्रोहिणी जो हूँ।

रजनी बुआ को जुड़वाँ लड़कियाँ हुई हैं। इतनी ज़्यादा तबीयत खराब हो गई थी उनकी कि पूरा घर तनाव में आ गया था। ब्लड प्रैशर हाई हो गया था। ऐसे में ऑपरेशन करना भी खतरनाक था और नॉर्मल डिलीवरी हो नहीं रही थी। बड़े-बड़े डॉक्टरों का जमघट कुछ कर नहीं पा रहा था। जैसे-तैसे सुबह पाँच बजे फॉरसेफ ऑपरेशन से लड़कियाँ पैदा हुईं... बड़ी दादी मृत्यु से लड़ रही रजनी बुआ को तसल्ली देना तो दूर उल्टे कोसने लगीं कि जी का जंजाल लड़की जनी हैं वह भी दो-दो... और पायल... सभी आँचल में मुँह दबाकर हँसने लगीं क्योंकि बड़ी अम्माजी ने खुद भी तो जी का जंजाल लड़कियाँ जनी थीं... वह भी तीन-तीन...

पत्र पढ़ते हुए मैं जोरों से हँस पड़ी। मेरी हँसी मेरे एकांत कमरे को मुखर कर गई. अम्मा को तो लेखिका होना चाहिए था। इतना जीवंत वर्णन करती हैं कि लगता है आँखों के सामने ही सब घट रहा है। वैसे भी बड़ी दादी बहुत बीमार रहती हैं। बीस साल से बिस्तर पर पड़े-पड़े उनके स्वभाव में अब ज़रा भी नम्रता नहीं रही... शायद पहले भी नहीं थी। लेकिन तब दादी सम्हाले थीं पूरा घर तो पता नहीं चलता था। अब बहुत बिसूरती हैं उनके लिए वे - "खोट मेरे नसीब में थी। मेरे ही मन में मंथरा आ बसी थी जो उजड़ गई मेरी अजुध्या। अपनी दुलहिन को वनवास दे दिया।"

रोते-रोते वे पानी के एक गिलास तक को तरस जातीं। घंटों बाद कंचन पानी लाकर देती। अम्मा भड़क उठी थीं ये देखकर - "यह क्या कंचन, जब मेरे सामने तुम ऐसा कर रही हो तो मेरे बनारस जाते ही तुम तो तँगा डालोगी इन्हें? तुम्हें यहाँ इन्हीं की देखभाल के लिए रखा गया है।"

"लो, पूतना ने दूध पिलाया और मैं पूतना को पोसूँ? अब मुझसे नहीं होती चाकरी।"

लेकिन चाकरी उसे करनी पड़ी थी। भले ही रो-रोकर। अम्मा के बनारस लौटते ही कोठी में कंचन और बड़ी दादी ही रह गई थीं। वैसे तीनों बुआएँ बारी-बारी से आती थीं लेकिन अपनी ही सौ झंझटों में उलझी रहतीं। तीमारदारी खुद की करनी पड़ती। उषा बुआ अक्सर रश्क करतीं - "पायल अच्छी निकली... न गृहस्थी का जंजाल न किसी बाल-बच्चे की जिम्मेदारी... यहाँ तो तीन-तीन हो गए हैं। उन्हीं की किल्ल पों में दिन खप जाता है।"

"भगवान हो तुम तो जो तीन बाल गोपालों की माँ हो। पायल को तो ऐसा होना ही था... किताबों ने उसका दिमाग खराब कर रखा है। भला, बिना घर गृहस्थी के औरत भली लगती है कभी?"

क्या मानसिकता है? ज्ञान की खोज सिर्फ पुरुषों के हक में ऐसी ही औरतों ने रखी है। औरत की इसी मानसिकता का फायदा उठाया है विश्व भर के धर्मों ने और धार्मिक कठमुल्लाओं ने। रोमन कानून तक में है कि औरत को पुरुषों के संरक्षण में रखना चाहिए ताकि उसकी मूढ़ता पर लगाम लगाईं जा सके. सच है जो मूढ़ होगा, लगाम उसी पर लगेगी इसीलिए तो लगाम के खिलाफ मैं युद्ध छेड़े हूँ। इसीलिए तो औरत के प्रति भयानक उपेक्षा रखने वाले कुरान, औरत को निकृष्ट वस्तु मानने वाली मनु संहिता और आदम के एकाकीपन को दूर करने के लिए उसी के शरीर से रची गई ईव को प्रमाणित करता ईसाई धर्म मैंने खंगाल डाला है और इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि औरत अपनी तमाम स्थितियों के लिए उतनी ही जिम्मेदार है जितने कि पुरुष। शायद यह मेरा अपना अनुभव है... अपने जीवन से लिया गया।

थीसिस पूरी हो चुकी है। तीन वर्ष देखते-ही-देखते गुजर गए. यह अंतिम सप्ताह है रोम में हमारा। वैसे मिहिर तो रोम में ही रहेगा। वह परुजिया यूनिवर्सिटी में लैक्चरर हो गया क्योंकि उसका एक खूबसूरत रोमन लड़की से इश्क हो गया था और दोनों जल्द शादी करने वाले थे। मेरे लिए उसकी शादी तक रुकना असंभव था।

यह अंतिम सप्ताह है रोम में हमारा। मैं, मिहिर और जापानी (बहुत कठिन है उसका नाम) शाम साथ में गुजारना चाहते हैं। पढ़ाई के तनाव के बाद मुक्ति के एहसास के लिए यह ज़रूरी भी था। जापानी ने अपनी अंग्रेज गर्लफ्रेंड के अपार्टमेंट में दावत का आयोजन किया। भोजन के साथ वाइन भी थी। हम उन्मुक्त होकर गाने गा रहे थे और एक-दूसरे को छेड़ रहे थे। अंग्रेज लड़की लगातार सिगरेट पी रही थी और जापानी से लिपटी बैठी थी। काफी रात गए जब थकान से हमारी आँखें मुँदने लगीं तो जापानी और अंग्रेज तो बाजू वाले कमरे में चले गए... मैं सोफे पर लेट गई. मिहिर ने कालीन पर ही लंबी तानने का फैसला कर लिया था। वह एक पत्रिका के पन्ने पलटता हुआ सिगरेट पी रहा था।

"पायल... क्या तुम सचमुच कभी शादी नहीं करोगी?"

मैं उसके सवाल से चौंकी - "क्यों मिहिर, यह सवाल क्यों आया तुम्हारे मन में?"

"बस... ऐसे ही... यह एकांत... सुहानी, स्वप्निल रात... बाजू के कमरे में चल रहा रोमांस... पायल, क्या तुम्हें अपने अंदर से कोई आवाज आती महसूस नहीं होती?"

मेरे अंदर छन्न से कुछ तिड़का... क्या मिहिर के प्रति मेरा अथाह विश्वास! नहीं... वह इतना सतही नहीं है। फिर!

"पायल... देखो मेरी ओर, और बताओ कि तुम जिंदगी के इस अहम हिस्से से खुद को क्यों वंचित रखना चाहती हो। माफ करना... अगर मैं खुलकर सैक्स का नाम लूँ... पर क्यों?"

अब की बार मैं उठकर बैठ गई - "जानते हो मिहिर... कुछ आत्माएँ अभिशप्त होती हैं... जिनके लिए दुनिया के सब सुख नहीं होते। कुछ के हाथ से मिलते-मिलते भी सुख फिसल जाते हैं और कुछ तमाम उम्र सुख की तलाश में भटकते हैं। मैं एक अभिशप्त आत्मा हूँ... अपना शाप ढो रही हूँ मिहिर।" मिहिर मेरे नजदीक आया। अपने दोनों हाथों में मेरा चेहरा भरकर मेरे होंठ चूम लिए - "पायल, मैं तुम्हारे लिए सुख की कामना करता हूँ।"

मैं कुछ नहीं बोली। वह देर तक मेरी हथेलियाँ सहलाता रहा फिर मुझे लेटाकर कंबल ओढ़ा दिया।

मिहिर के इस व्यवहार ने मेरे मन में उसके प्रति सम्मान और बढ़ा दिया।