मालवगढ़ की मालविका / भाग - 7 / संतोष श्रीवास्तव

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दादी को बहुत डर लगता है जब वे ईसाई और मुस्लिम धर्म के अनुसार मृत शरीर के दफनाए जाने की खबर सुनती हैं। एक बार प्रवचन देते हुए दादी के मथुरावासी गुरुजी ने बताया था कि "समाधि की अवस्था में नाड़ी गुम हो जाती है, धड़कनें बंद हो जाती हैं और आदमी मृतप्राय-सा हो जाता है। महर्षि दधीचि ने समाधि की इसी अवस्था में इंद्र को वज्रास्त्र बनाने के लिए अपनी अस्थियों का दान दिया था।"

"समाधि की यह अवस्था कठिन तपस्या से प्राप्त होती होगी गुरुजी?"

दादी के पूछने पर गुरुजी ने गंभीरता से अपनी शिष्या की ओर देखा। दादी के मुखड़े पर दृढ़ता और तेज फूट पड़ रहा था।

"तुम विदुषी हो कल्याणी। तुम्हारी तर्क बुद्धि तुम्हारे मन को बेचैन किए रहती है। कल्याणी, तुम भी इस अवस्था को प्राप्त कर सकती हो, कभी-कभी साधारण मानव की मृत्युपूर्व की अवस्था भी ऐसी ही हो जाती है। वह महामूर्छा में खो जाता है... उस वक्त डॉक्टर का आला और वैद्य की उँगलियाँ उसे मृत घोषित कर देती हैं लेकिन होती वह महामूर्छा है। वह चेतन अवस्था में पुनः लौट सकता है यदि उसका शरीर सुरक्षित रखा जाए."

गुरुजी के शब्दों ने दादी के अंतस में उथल-पुथल मचा दी थी। तब क्या दफनाया हुआ इनसान पुनः चेतन अवस्था में नहीं लौट सकता? अगर उसे महामूर्छा में दफनाया गया हो मृत मानकर?

सिहर उठी थीं दादी। जमीन के अंदर दबे उस मृत मान लिए गए मानव की घुट-घुटकर मरने की हालत पर विचार करके. उन्होंने मारिया को अपने पास बिठाकर इस समस्या पर बहस की थी। मारिया भी काफी जानकार और बुद्धिमान थी। उसने दादी के इस तर्क पर अपने अस्पताली अनुभव की मोहर लगा दी थी - "छोटी आंटी... अगर सभी मुर्दे जला दिए जाएँगे तो विद्यार्थी डॉक्टरी कैसे पढ़ेंगे? कैसे जानेंगे कि हमारे शरीर की भीतरी रूप रचना कैसी है?"

मैं वाह-वाह कर उठी थी - "वाह मारिया, तुमने तो दादी को लाजवाब कर दिया।"

मारिया के हाथ कानों को छूने लगे - "ईश्वर क्षमा करें... छोटी आंटी की बराबरी कौन कर सकता है? वह तो फरिश्ता हैं... मैं तो ईश्वर के दिखाए रास्ते पर चलने वाली एक औरत भर... मैंने तो अपनी आँखें... अपना पूरा शरीर दान कर दिया है। मेरी आँखें किसी अंधकार में भटकते व्यक्ति को दृष्टि दें और मेरा शरीर मेडिकल छात्रों के काम आए बस यही चाहत है।"

दादी अवाक - "तुमने अपनी आँखें, अपना शरीर दान कर दिया?"

"हाँ छोटी आंटी, अब हर छह महीने में रक्तदान का नियम भी पालना है मुझे।"

दादी के आगे पाताल से निकलकर एक अँधेरी सुरंग उजाले में तब्दील होती गई. उस सुरंग की दीवारों पर रंग-बिरंगे फूलों की लताएँ आच्छादित होती गईं। मारिया मानो फूल बन गई जिस पर क्षितिज से शबनमी बूँदों ने टपकना शुरू कर दिया। ओस भरी पंखुड़ियों की शीतलता में सारे संसार की अग्नि धीरे-धीरे शीतल, ठंडी होती गई... हवा ने उन पंखुड़ियों को बिखरा दिया। अब मारिया चारों ओर फैल गई... वह फूल बन गई, वह रंग बन गई, वह ओस बन गई, वह उज्ज्वलता बन गई.

अभिभूत दादी बाबा से कह बैठीं - "मैं भी अपने नेत्र दान करूँगी।"

बाबा की टकटकी बँध गई... काफी देर तक खामोशी दोनों के दिलों में चीत्कार बन छाई रही। फिर बाबा का मौन टूटा -

"पुराणों में लिखा है कि शरीर का कोई भी अंग कट जाने से दूसरे जन्म में वह अंग नहीं मिलता। फिर यह शरीर तुम्हारा नहीं है। यह धरती का है, पंचतत्व से बना... धरती का शरीर धरती को ही लौटाना होगा साबुत।"

"फिर दधीचि का त्याग क्यों आज दिन भी याद किया जाता है?" दादी का तर्क था।

"उन्होंने अपनी हड्डियाँ देवताओं और मानव के कल्याण के लिए दान की थीं।"

"मैं भी अपनी आँखें मानव के कल्याण के लिए ही दान करूँगी।"

बाबा निरुत्तर थे।

"पायल मुझे लाइब्रेरी से कुछ किताबें लेनी हैं। चलोगी साथ में?" संध्या बुआ ने मुझसे पूछा। उषा बुआ की बिदाई के बाद का यह पहला वाकया था और संध्या बुआ के साथ जाने का पहला मौका भी... इसके पहले उन्होंने कभी मुझे साथ नहीं लिया था। दादी ने बग्घी तैयार करा दी थी। कोचवान बग्घी लिए इंतजार कर रहा था। हम दोनों बग्घी की गुदगुदी सीट पर बैठे तो लगा दो चिड़ियाँ फुदककर घोंसले से बाहर आई हैं और उड़ने को डैने पसारे हैं। यों घर में किसी बात की सख्ती नहीं थी पर कभी-कभी कायदे भी पाबंदी की तरह नजर आते थे। संध्या बुआ के हाथ में रंगीन पोत से बना बैग था... इतना बड़ा कि आठ-दस किताबें आ जाएँ। वे फालसाई रंग की साड़ी में बड़ी प्यारी लग रही थीं। कानों में एक-एक मोती जड़े मोगरे की कली जैसे टॉप्स पहने थीं।

बग्घी चौड़े राजपथ से होकर गुजरी तो दो अंग्रेज घोड़ों पर सरपट भागते दिखे। घोड़ों की टाप सुनकर आसपास की हरियाली में से निकलकर कुत्ते भौंकने लगे। बग्घी अब टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में उतर आई थी। गलियारों से लगे दो मंजिले मकान... मकान के सामने आँगन... आँगन में बड़े-बड़े बोर पहने, स्त्रियाँ बतिया रही थीं। उनके घाघरे, रंग-बिरंगी चोलियाँ जिसमें से आधी छातियाँ अंदर, आधी बाहर... पेट, कमर सब खुली। फिर भी सुना है घाघरे में चालीस गज कपड़ा लगता है। इतने कपड़े में बस दो टाँगें ढकी हुई थीं। वे सूप में बाजरा फटक रही थीं, हाथ रुकते ही फूँक मारकर छिलके उड़ा देतीं।

बग्घी रुक गई. सामने लाइब्रेरी थी। संध्या बुआ लाइब्रेरी की सीढ़ियाँ चढ़कर अंदर कमरे में पहुँची जहाँ बड़े-बड़े टेबिल, कुर्सियाँ और अलमारी में किताबें थीं। उन्हें आता देख सामने कुर्सी पर बैठा बेहद आकर्षक नौजवान खिल पड़ा - "आओ संध्या... तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था मैं।" संध्या बुआ उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ गई. मुझे भी बैठने का इशारा किया।

"बहुत देर से बैठे हो अजय?"

ओह! ...तो यह हैं अजय। संध्या बुआ की नींद, चैन हराम करने वाले महाशय।

"अजय ये पायल है... समर भैया की बेटी."

मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए.

"आपकी बहुत तारीफ सुनी है हमने संध्या से।"

"मेरी तारीफ!" मैं सकपका गई.

"क्यों नहीं? जब आप पढ़ाई में इतनी होशियार हैं, जब आपमें तर्क-बुद्धि है, जब आप फोटोग्राफी और चित्रकारी में पारंगत हैं, कविताएँ भी लिखती हैं तो तारीफ नहीं होगी।"

मुझे अजय की आवाज में सम्मोहन नजर आया।

"एक कला तो तुम भूल ही गए अजय, पायल ने कपड़ों पर बातिक करना भी सीखा है। मोम लगाकर इतने लाजवाब डिजाइन बनाती है ये कि पूछो मत।"

अजय ने कुछ इस ढंग से मेरी ओर देखा कि मैं शरमा गई. वहाँ से उठकर मैं अखबारों-पत्रिकाओं के स्टैंड की तरफ चली गई. संध्या बुआ को अजय के साथ अकेला छोड़ने का मकसद भी था इसमें। वे दोनों लगातार बातें करते रहे... संध्या बुआ ने अपने बैग में से एक नोटबुक निकालकर अजय को दी, बदले में अजय ने भी एक नोटबुक संध्या बुआ को दी जो उन्होंने जल्दी से अपने बैग में रख ली।

यह नोटबुक मेरी जिज्ञासा का केंद्र बन गई. लौटते वक्त संध्या बुआ के चेहरे पर रौनक थी। उदासी मानो कोसों दूर बिला गई थी। मुझे अजय पसंद आए.

संध्या बुआ का कमरा मेरे और रजनी बुआ के कमरे से लगा हुआ था। बाहर बगीचे की तरफ खिड़कियाँ खुलती थीं जिसके रोशनदान में सतरंगी काँच लगी थी। लेकिन बड़ी दादी का हुक्म था, खिड़कियाँ हमेशा बंद रहेंगी और उन पर भारी परदे पड़े रहेंगे लेकिन आज संध्या बुआ ने खिड़कियाँ खोल दीं। ताजी हवा का एक महकता हुआ झोंका कमरे को बावला कर गया। चादर, परदे, गुलदान के फूल झूमने लगे। ये शायद उनका अपने भविष्य के लिए हलाल नहीं होंगी।

आसमान में बादलों की थिगलियाँ उस क्रांति का संकेत दे रही थीं जो बनारस में हो रही थी। कुछ इस तरह कि हम भले ही थिगलियाँ बनकर आएँ पर बरसेंगे तुम पर गर्जन-तर्जन से। बाबा तेजी से हर गतिविधि पर नजर रखे थे। देव बाबा की मड़िया अब खाने के पैकेट नहीं भेजे जाते... अब उन जंगलों से क्रांति वीरों का दल पूरी सजधज से लैस अपने मुहानों पर चल पड़ा था। घर में अंग्रेजों का आना इन दिनों कम था और बाबा का अधिकतर समय अपनी स्टडी में बीतता था। संध्या बुआ इस बार रजनी बुआ को लेकर लाइब्रेरी गई थीं और मेरे हाथ वह सुनहरा मौका था जब मैं उनकी नोटबुक पढ़ सकती थी। मैं सधे कदमों उनके कमरे में पहुँची और उनकी कोर्स की किताबों के बीच नोटबुक पा मैं खुशी से खिल पड़ी। अपने कमरे में आकर मैंने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। नोटबुक खुलते ही अजय की शख्सियत, उनके विचार, उनकी भावनाएँ मुझसे रूबरू होने लगीं।