मालवगढ़ की मालविका / भाग - 8 / संतोष श्रीवास्तव

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वह नोटबुक नहीं बल्कि डायरी थी, जिसमें तारीखवार मन के तहखाने खोले गए थे। पहले पन्ने पर चार अक्टूबर की तारीख पड़ी थी। मैं तेजी से पढ़ने लगी।

४ अक्टूबर

आज सुबह से दिल उदास है, यह एहसास तेजी से मुझे घेरता जा रहा है कि मैं आसानी से संध्या को नहीं पा सकता। वह शाम की निशानी है और मैं अपने अजय में बुजदिली तो नहीं ही पा सकती। मैं जिंदगी के हर कदम पर तुम्हारे साथ हूँ।"

उसके इस हौसले ने मेरे मन में संघर्षों की साँकल खोल दी है। काँटे और कंकरों से भरे मार्ग पर मेरे कदम अपने आप बढ़ने लगे हैं... मैं अपने मन के संकल्प को पिघलने न दूँगा। हाँ संध्या, ये वादा है मेरा... मैं इस साल अधिकतम अंक से पास होकर किसी कॉलेज में एप्लाई कर दूँगा और फिर पी-एच.डी. करूँगा। लेकिन संध्या, क्या हम शादी के बाद यहाँ रह पाएँगे?

६ अक्टूबर

कल मेरा जन्मदिन था... माँ कहती है कि जब मैं पैदा हुआ था तब पिताजी इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई कर रहे थे। मैं ननिहाल में अपनी नानी के घर पैदा हुआ था और पिताजी ने अपने किसी अंग्रेज मित्र के हाथ मेरे लिए सौगातें भेजी थीं। मेरे जन्म के बाद पूरे साल भर माँ बीमार रहीं जब तक पिताजी लौट नहीं आए. यही वजह है कि मैं माँ को बेतहाशा प्यार करता हूँ, उनकी सेवा करने के लिए मेरे हाथ मचलने लगते हैं। हम पाँच भाई-बहनों में माँ का स्नेह सबसे छोटी बहन पर अधिक दिखाई देता है। यह मेरा भ्रम भी हो सकता है क्योंकि माँ ने कभी जाहिर नहीं किया ये सब! उन्होंने सुबह से मेरे जन्मदिन की तैयारी कर रखी थी। वे मुझे मंदिर लेकर गई थीं, मेरे माथे पर तिलक लगाया था और मुझे खीर अपने हाथों से बनाकर खिलाई थी। शाम को गाने बजाने का भी कार्यक्रम था। लेकिन मैं संध्या से मिलने के लिए उतावला हो रहा था। क्यों नहीं ऐसा होता कि हम रोज मिलते और अपनी आपबीती एक-दूसरे को सुनाते। हफ्ते में दो दिन मिलना मिलने जैसा नहीं लगता। फिर भी मैं इंतजार करता हूँ इन दिनों का। मैंने आग के समंदर में अपने को झोंक दिया है लेकिन खत्म होने के लिए नहीं बल्कि उस आग से एक मशाल जलानी है जो परंपराओं, मान्यताओं और सड़े-गले रिवाजों के अंधकार भरे मार्ग को रोशन कर सके. यह मशाल मेरी शख्सियत का प्रतीक चिह्न बन जाए. हाँ... मुझे मशाल बनना है... मुझे साँसों के चलते उन पलों को सार्थक करना है जो जिंदगी ने मुझे बख्शे हैं... एक निराला संसार... गुलाम भारत... कोड़े बरसाते अंग्रेज और कोड़े सहता किसान, मजदूर... उसका कसूर गरीब होना, उसका कसूर मेहनती होना, उसका कसूर लगान न दे पाना। मुझे अंग्रेजों के कोड़े इतने नहीं टीसते जितने जमींदारों के... जो इस मिट्टी की संतानें हैं और जो अपनों को ही लहूलुहान किए हैं। संध्या भी जमींदार घराने की है लेकिन यह घराना अन्य घरानों से बहुत हद तक भिन्न है। यह घराना और इस घराने की जमींदारिन मालविका, संध्या की चाची दया का भंडार है। मालवगढ़ की रियाया मालविका के एहसानों को कभी भूलती नहीं बल्कि चर्चा छिड़ी रहती है। कुएँ, बावली बनवाना, शादी ब्याह में रुपए, अनाज, कपड़ों की मदद अस्पतालों में दान देना... गरीब विद्यार्थियों की मदद... इन सबके आगे मालविका का खजाना खुला रहता है। एक ऐसा सदाव्रत जो घटने का नाम ही नहीं लेता। संध्या, तुम्हें ऐसा ही होना है... काश तुम उनकी पुत्री होतीं तो यह सब तुम्हारे खून में रचा-बसा होता।

९ अक्टूबर

मेरी आँखों में बुलंद इरादों की रोशनी है। हाथों में, पैरों में जुंबिश आगे बढ़ते चले जाने की। मेरी अनामिका में संध्या के जन्मदिन पर भेंट की गई मोती जड़ी सोने की अँगूठी है। सुना है मोती जुदा कराता है... तन से, या फिर विचारों से... किसे जुदा कराएगा ये? मुझे और संध्या को? नामुमकिन... शायद इसीलिए संध्या ने इस अंधविश्वास को चुनौती दी है। संध्या की आँखों में भोर की किरनें हैं, नर्म, कोमल... मैं इन किरनों को दोपहर के सूरज में बदलकर अपने संसार के लिए धूप भरा आकाश जुटा लूँगा। धूप में ऊर्जा है, सर्जन है, धूप बन जाने देना और भाप को जलधाराओं में परिवर्तित करना धूप ही का काम है... पत्ते-पत्ते को हरियाली, शाखों को फूल, खेतों की फसल... सब कुछ धूप ही के वश की बात है... धूप के बिना पर सूरज चाहे जितना तपे, इनसान सह जाता है। बहुत संभव है मेरी यह धूप भरी जिद मेरे प्रयासों के वृक्ष को झुलसा दे या ऐसी आँधी आए कि वह वृक्ष जड़ से समूचा उखड़ जाए पर उखड़ी जड़ें फिर भी तलाश करती रहेंगी धरती की कोख में अपने लिए एक हरी-भरी शिरा। संध्या, तुमने एक बार कहा था कि'तुम मेरे लिए सारे जहाँ से लड़ सकती हो।'

तो उठो संध्या... यह जो रफ्ता-रफ्ता पिछले ढाई वर्षों से हम एक-दूसरे में रच बस गए हैं, इसी रचने-बसने की माँग है कि अब हमें उठ जाना चाहिए... मंजिल सम्मुख आन खड़ी है।...मात्र एक कदम, एक प्रयत्न, एक हौसला... और सब कुछ हमारा। मैंने माँ से बात कर ली है। उन्हें बस डर है तो तुम्हारे चाचा का... वे मानेंगे? उनकी स्वीकृति ही तो प्रताप भवन की स्वीकृति होगी। माँ कहती हैं मैं आग से न खेलूँ... जान-बूझकर मुसीबतों को आमंत्रण न दूँ, लेकिन आखिर क्यों हम एक-दूसरे के नहीं हो सकते? कम-से-कम हममें इनसानियत तो है, जज्बा तो है, कोशिश तो है... क्या पद, शोहरत यही है इनसानियत की पहचान? और क्या सब हम स्वर्ग हासिल नहीं कर सकते? क्या पीढ़ियों का अतीत हमारे फैसले करेगा?

११ अक्टूबर

सुबह की गुलाबी ठंडक... दिशाओं को भ्रमित करता आलोक, अँगड़ाई लेती भोर की किरण... बबूल के फूलों की गंध आ रही है? लखनऊ में दर्शनशास्त्र पढ़ाते हुए सर (डॉ। मलिक) कहते थे कि किसी को इतना प्यार मत करो कि तुम्हारे सारे उद्देश्य फीके पड़ जाएँ कि और कुछ सोचने को रहे ही न! जीवन निस्सार, अर्थहीन, उदासी और गमों का जखीरा बन जाए लेकिन क्या अपने वश में है? जिंदगी के उतार चढ़ाव, धूप छाँव जैसे बिना इल्म के, बिना कोशिश के सहना ही पड़ता है... वैसा ही प्यार है। प्यार कर्म नहीं है जो प्रयास से किया जाए... प्यार एक सोता है जो धरती की कोख से अनायास फूट पड़ता है। उस पर अपना कोई वश नहीं। सारे संबंध, सख्य, आत्मीयता, भावनाओं का आलोड़न... सभी में समाया है तो प्यार... इस प्यार में ही बेबस हो जलधाराएँ किनारों की चट्टान पर उगी हरी, काली शैवाल को छूने के प्रयास में सिर पटकती रहती हैं... लेकिन इससे भी बड़ा चुंबकीय खिंचाव उस सागर का है जिसकी ओर ये जलधाराएँ उमड़ी पड़ती हैं। गुफाएँ, जंगल, काँटे, झाड़ियाँ... पथरीली ऊँची-नीची भूमि को पार करती सागर की विशाल छाती में समा जाती हैं... समा जाने में ही सुख है... सुख है इसीलिए चाह है। संध्या, तुम्हारा उज्ज्वल मोहक चेहरा, चेहरे पर पंखुड़ी-से दो अधर... मैं उस रस को नहीं भूल पाता... निपट एकांत में मेरे हाथों की अंजलि में सिमटा तुम्हारा कमलमुख... तुम्हारे होठों की हरारत से दहकते मेरे होंठ... लरज गई थीं तुम - "अजय, मैं मर जाऊँगी अजय, अब नहीं जिया जाता।"

और तुम जलधारा-सी मेरे सीने में समाती चली गई थीं... मुझे याद है दो दिन बाद उषा का तिलक जाने वाला था। मिलनी और गीत संध्या के दृश्य तुम्हारे नयनों में साकार हो रहे थे। तुम उदास थीं... शायद इस शंका से कि अब उषा के बाद तुम्हारा नंबर है, कभी भी शादी का प्रस्ताव आ सकता है। तुम्हारे पिता यूँ तो साधु स्वभाव के हैं पर हैं ज्वालामुखी। तुम्हारा इनकार कहीं ज्वालामुखी को भड़का न दे और कहीं पिघलता लावा सब कुछ ले न डूबे। पंखुड़ी-पंखुड़ी बिखरा देता है। तुम झुकना नहीं - संध्या। जिंदगी की प्रत्येक साँस, प्रत्येक लम्हे में मैं तुम्हारे साथ हूँ।