मेघपुष्प / सुनो बकुल / सुशोभित

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मेघपुष्प
सुशोभित


जल का एक पर्याय है वारि।

वारि में "ज" प्रत्यय जुड़ने पर वह "पद्म" बन जाता है और "द" प्रत्यय जुड़ने पर "मेघ"।

"वारिज" यानी कमल, "वारिद" यानी मेघ।

जल का एक अन्य पर्याय नीर है, उसके साथ भी यही कथा-

"नीरज" यानी कमल, "नीरद" यानी मेघ।

स्वयं जल के साथ यही-

"जलज" यानी कमल, "जलद" यानी मेघ।

जल की व्यंजना में ही मेघ और पुष्प बहुत निकट हैं, मात्र एक प्रत्यय के परकोटे से पृथक।

वैसे में यह अकारण नहीं कि कभी-कभी आप जल को भी मेघपुष्प की तरह देखने लगें। विशेष रूप से वर्षाजल को।

वास्तव में, केवल कवि कल्पना नहीं, सच में ही जल को "मेघपुष्प" कहा गया है।

"अमरकोश" में जल के लिए कोई सत्ताइस संज्ञाएं हैं, उन्हीं में से एक है- "मेघपुष्प!" राजस्थान में यही "मेघपुहुप" हो जाता है।

"मेघमोती" सुना था, किंतु "मेघपुष्प" की कल्पना नहीं की थी।

"मेघपुष्प" सुना तो "आकाश कुसुम" की कल्पना भी मन में कौंध गई!

फिर यह भी सूझा कि अगर वर्षाजल मेघपुष्प है तब तो वर्षा को वृक्ष ही कहना होगा ना?

मैं तो कहूंगा वर्षा आकाश में उगने वाला "कल्पवृक्ष" है!

"जलज" सदैव जल में होता है।

किंतु जल स्वयं मेघमालाओं का पद्म पुष्प है, नील उत्पल है, देवदुन्दुभि के घोष से भरा हुआ, यहां तक कल्पना का जाना इतना सरल नहीं।

"अमरकोश" कुल पच्चीस वर्गों में विभक्त है।

आप अगर इसमें मेघ के पंद्रह पर्याय खोजना चाहें तो यह स्वाभाविक ही है कि आप "वारिवर्ग" में चले जाएं।

यह अनुमान लगा लेना सरल ही है ना कि वायुवेग वाले वारिद "प्रथम काण्ड" के दशम् वर्ग यानी "वारिवर्ग" में ही मिलेंगे।

किंतु "अमरकोशकार" ने उन्हें उल्लेखित किया है प्रथम काण्ड के तृतीय वर्ग "दिग्वर्ग" में।

किंतु ऐसा केवल इसीलिए नहीं है कि मेघ "दिग्विजयी" होते हैं।

ऐसा इसलिए है कि पंचमहाभूतों में आकाश को "दिक्" का ही पर्याय माना गया है। अस्तु आकाश के जितने भी पदार्थ होंगे, वे "दिग्वर्ग" में ही होंगे।

"अमरकोश" में मेघों के पंद्रह पर्याय हैं, यथा-

तड़ित्वान, धूमयोनि, अभ्रम्, स्तनयित्नु। मेघों के नाना नामरूप।

मेघमाला कहलाती है कादम्बिनी।

विद्युल्लता कहलाई है शम्पा और शतह्रदा!

धारासार वर्षा को कहा है धारासम्पात्।

धरती के तप और ताप से ही तो आकाश में धूममेघ का तोरण बंधता है।

आषाढ़ के मास में, आर्द्रा नक्षत्र लगते ही, जब कुरबक के पुष्प झड़ जाते हैं और कांस के फूल खिलने में वर्षान्त तक का समय होता है, तब दिक् के देवता आकाश से मेघपुष्पों की वर्षा करते हैं।

यह वर्षा नहीं है, यह वंदनवार है!

ऋतुओं के देवता ने अपने सबसे सुंदर मेघपुष्पों से चुनकर आपके लिए यह तोरण बांधा है।

ज्येष्ठ का आयुफल गाछ पर ही गल गया, अब यह आषाढ़ के आयुष्मान दिवस हैं, इनका अपने भीतर संजोई नमी के पुष्पों से अभिवादन करें।

मेघपुष्पों को अपने मन के कुसुमों से मिलने दें।

आख़िर फूल ही तो फूल का मर्म पहचानेंगे।

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