भट्ट आचार्य / सुनो बकुल / सुशोभित

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भट्ट आचार्य
सुशोभित


"उद्भट" इतने प्रकांड पंडित थे कि उनका नाम ही विद्वत्ता का पर्याय बन गया है। आज भी महापंडितों को "उद्भट" विद्वान कहकर पुकारने की रीति है।

"मम्मट" ने ध्वनिविरोधियों के मत का खंडन इतने तर्कबल से किया है कि उसके बाद किसी को ध्वनि के विरोध का साहस ना रहा। अस्तु, "मम्मट" की विद्वत्ता को संस्कृत साहित्य में "ध्वनिमत" से स्वीकारा जाता है!

"काव्यालंकार" के यशस्वी रचयिता "रुद्रट" संस्कृत के "अलंकार संप्रदाय" के शीर्षस्थानीय विद्वान हैं। वे रुद्रभ भी कहलाते हैं।

"लोल्लट" दीर्घदीर्घतरव्यापारवादी आचार्य कहलाए हैं और उनका अभिधा-पूर्वग्रह कुख्यात है। वे कहते हैं कि एक ही अभिधा शक्त‍ि के द्वारा वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य तीनों का बोध होता है और अभिधा-व्यापार शरोच्छेदन की तरह प्रभावी है!

ये संस्कृत वांग्मय के "चतुष्टय" हैं!

यहां "चतुष्टय" में "ट्" ध्वनि की शोभा ध्यातव्य है। "उद्भट", "मम्मट", "रुद्रट" और "लोल्लट" चारों के ही नामों में "ट्" ध्वनि की प्रत्यंचानुरूप "टंकार" है!

किंचित और अनुसंधान करने पर यह पाया गया कि इनमें से "उद्भट" और "लोल्लट" दोनों ही "भट्ट" भी हैं, जिससे ट् ध्वनि की आवृत्त‍ि और सघन होती है।

हम जानते हैं कि "भट्टादि" उपाधिसूचक नामराशि है, जो विद्वान ब्राह्मणों को प्रदान की जाती है। बंगभूम में यही "भट्टाचार्य" हो जाता है।

बहुधा "भट्ट" नामोपाधि "प्रत्यय" की तरह प्रयुक्त की जाती है किंतु उद्भट और लोल्लट ने इसे "उपसर्ग" की भांति प्रयुक्त किया है। अस्तु, उद्भट "भट्टोद्भट" कहलाए हैं और लोल्लट "भट्टलोल्लट"।

किंचित और अनुसंधान करने पर यह जानकर कौतूहल हुआ कि "नाट्यशास्त्र" के लगभग सभी प्रमुख व्याख्याकारों को "भट्ट" उपाधि से विभूषित किया गया है!

"भट्टोद्भट" और "भट्टलोल्लट" की कड़ी में "भट्टनायक", "भट्टतौत" और "भट्टगोपाल" के नाम भी जोड़ लीजिए। इससे एक स्थापना यह भी बनती है कि "नाट्यशास्त्र" के व्याख्याकार अपने नाम में "उपसर्ग" की भांति "भट्टोपाधि" का उपयोग करते हैं। एक "आचार्य महिमभट्ट" ने ही कालांतर में इसे "प्रत्यय" की भांति प्रयुक्त किया।

यह "भट्टकथा" समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती!

"बाणभट्ट" ने "कादम्बरी" की रचना की थी किंतु वह अपूर्ण कृति है। उनके पुत्र "भूषणभट्ट" ने उसके उत्तरभाग को पूर्ण किया है। "भूषणभट्ट" अन्यत्र "पुलिन्दभट्ट" भी कहलाए हैं।

"कुमारिलभट्ट" मीमान्सक थे और उनके प्रभाव से मीमान्सा दर्शन की एक शाखा ही "भाट्टमत" कहलाई है।

वेद-मीमान्सा के 22 आचार्यों में 6 भट्ट हैं : कुमारिल तो अग्रगण्य हैं ही, उनके अतिरिक्त भवदेवभट्ट, शंकरभट्ट, गंगाभट्ट, शंभूभट्ट और भट्टसोमेश्वर।

नक्षत्र विज्ञान में प्रथम स्मरणीय "आर्यभट्ट" ही हैं। वे "आर्यभट" भी कहलाते हैं। उन्होंने "आर्यभटीय" रचा है और काव्य-कौतुक देखिए कि यह ग्रंथ "आर्या" छंद में रचा गया है। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि "आर्या छंद" में नक्षत्र विज्ञान का यशस्वी ग्रंथ रचने वाले "भट्टाचार्य" ही "आर्यभट" कहलाए हैं!

"भट्टोजिदीक्षित" का "सिद्धांतकौमुदी" संस्कृत व्याकरण का मुकुटमणि है और उसकी कीर्ति पाणिनी के "अष्टाध्यायी" से भी अधिक है! "सिद्धांतकौमुदी" पर पृथक से लिखना है!

"वाग्भट्ट" आयुर्वेद के शलाकापुरुष हैं, जिन्होंने दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्यादि के सिद्धान्त रचे हैं।

"पुष्टिमार्ग" के प्रणेता वल्लभाचार्य दक्षिण भारत के तैलंग ब्राह्मण "लक्ष्मणभट्ट" के घर जन्मे थे। उनका मूलनाम "वल्लभभट्ट" था।

और यों तो सूरदास की जाति को लेकर संशय है किंतु "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" में सूरदास को "ब्रह्मभट्ट" बताया गया है और स्वयं "साहित्यलहरी" का एक पद इस दिशा में इंगित करता है।

एवमस्तु, यह "भट्टकथा" अनंत है!

पेटू लोगों को "भोजनभट्ट" कहने की एक रीति रही है। मैं पेटू तो नहीं किंतु स्वादेंद्रिय का दास अवश्य हूं। सोचता हूं अपने नाम में भी "भट्ट" जोड़ लूं। किंतु उपनाम प्रत्यय की भांति नहीं बल्कि उपाधिसूचक नामोपसर्ग की भांति, जैसे "नाट्यशास्त्र" के व्याख्याकार करते थे।