माघ, भारवि और श्रीहर्ष / सुनो बकुल / सुशोभित

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माघ, भारवि और श्रीहर्ष
सुशोभित


माघ, भारवि और श्रीहर्ष : ये संस्कृत काव्य की "शीर्षत्रयी" हैं।

माघ ने "शिशुपालवधम्" रचा, भारवि ने "किरातार्जुनीयम्" और श्रीहर्ष ने "नैषधीयचरितम्"। इन तीनों महाकाव्यों को "बृहत्त्रयी" कहा गया!

इसके समक्ष महाकाव्यों की एक "लघुत्रयी" भी है और तीनों ही कविकुलगुरु कालिदास द्वारा रचित : "कुमारसम्भवम्‌", "रघुवंशम्" और "मेघदूतम्"।

फिर चार प्रमुख नाटककार हैं : भास, भवभूति, शूद्रक और कालिदास।

भास की प्रतिष्ठा का आधार है "स्वप्नवासवदत्ता", शूद्रक की प्रतिष्ठा का आधार है "मृच्छकटिकम्", भवभूति की प्रतिष्ठा का आधार है "उत्तररामचरितम्" और कालिदास की प्रतिष्ठा का आधार है "अभिज्ञानशाकुन्तलम्"।

किंतु संस्कृत साहित्य में काव्य और नाट्य के इन शलाकापुरुषों के मध्य अपनी विशिष्ट पहचान लिए दो गद्यकार भी उपस्थित हैं :

एक हैं बाणभट्ट, जिन्होंने संस्कृत का ही नहीं, भारतवर्ष का ही नहीं, बल्कि विश्व का पहला उपन्यास "कादम्बरी" रचा!

दूसरे हैं दंडी, जिनका गद्यकाव्य "दशकुमारचरितम्" लब्धप्रतिष्ठ है।

संस्कृत साहित्य के विद्यार्थ‍ियों की जिह्वा पर यह उक्त‍ि जैसे सदैव रखी होती है :

"उपमाकालिदासस्य भारवेर्थगौरवम्‌।

दण्डिन: पदलालित्यं माघे संति त्रयोगुणा:॥"

[ कालिदास उपमा में बेजोड़ हैं, भारवि अर्थ-गाम्भीर्य में और दंडी पद-लालित्य में, लेकिन माघ में ये तीनों गुण मौजूद हैं ]

"दंडिन: पदलालित्य" वाले इन्हीं दंडी ने कहा था : “गद्यं कवीनां निकषं वदंति” या "गद्य कवि का निकष है।" अर्थात, कवि कितना श्रेष्ठ है, इसकी पुष्ट‍ि उसके गद्य को देखकर ही की जावै!

दंडी स्वयं गद्यकार थे। इतने महाकवियों के बीच दंडी का यह पूर्वग्रह समझा जा सकता है!

किंतु इससे विपरीत तो दंडी भी नहीं कह सकते थे कि काव्य गद्यकार का निकष है।

क्योंकि दंडी जानते हैं कि गद्यकार में अगर काव्य की सामर्थ्य होती तो वह काव्य ही क्यों ना लिखता, गद्य क्यों लिखता!

काव्य इन अर्थों में साहित्यानुशासन की श्रेष्ठतर विधा है!

जबकि गद्य तो प्रतिभावंचितों का वीणावादन है!

काव्य के लिए अपूर्व प्रतिभा चाहिए। किंतु अगर प्रतिभा नहीं है, अध्यवसाय है, व्युतपत्त‍ि है, प्रत्युत्पन्नमति है, तो गद्य के साथ भी अद्भुत चमत्कार किए जा सकते हैं।

मैं गद्य का ही साधक हूं, इसलिए अध्यवसाय की सिद्धि अर्जित करने का यत्न करता हूं। यह प्रतिभा का पूरक है!

काव्य नृत्य की तरह है। गद्य यात्रा की तरह!

कोई भूलवश भी मुझे कवि कहकर पुकार ले तो संकोच से भर उठूंगा।

कहूंगा, नहीं मुझे कवि मत कहिए। मैं माघ, भारवि और श्रीहर्ष का वंशज नहीं।

कहना ही हो तो बाणभट्ट के कुल का जातक कहिए, दंडी का ध्वजवाही कहकर पुकारिए, कि मैं गद्य का विनयी साधक हूं!

और नतमस्तक हूं "कवि" की प्रतिभा के सम्मुख, जिसके पास "आर्या", "अनुष्टुप" या "शार्दूलविक्रीड़ित" छन्द के सैकत-पुलिनों पर भाषा, भाव और अलंकारों को बांधकर रख देने का पुरुषार्थ!

इति नमस्कारान्ते!