आनंदवर्धन का ध्वन्यालोक / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
धर्मकीर्ति का एक श्लोक मुझे रह-रहकर याद आता है, जिसमें उन्होंने अपनी प्रतिभा के संबंध में कुछ इस आशय की बात कही थी कि
"जैसे सागर के भीतर सागर का जल बुढ़ा जाता है, वैसे ही मेरे भीतर मेरी प्रतिभा जीर्ण हो जाएगी" ("प्रयास्यति पयोनिधे: पय इव स्वदेहे जराम्।")
धर्मकीर्ति के इस कथन को आनंदवर्धन ने "ध्वन्यालोक" में उद्धृत किया था। "ध्वन्यालोक" भाषादर्शन की अद्भुत कृति है।
आनंदवर्धन के द्वारा धर्मकीर्ति के उस श्लोक को उद्धृत करने के गहरे मायने हैं।
आनंदवर्धन का "ध्वनि-सिद्धांत" जहां "शब्दार्थ" में निहित व्यंजना की मीमांसा करता है ("वाच्य" अर्थ और "प्रतीयमान" अर्थ), वहीं "ध्वन्यार्थ" से उनका आशय व्याख्या के विखंडन से भी था।
यानी, कौन जाने रचनाकार ने किस "ध्वनि" के साथ वह बात कही हो, कौन जाने आस्वादक ने किस "ध्वनि" के साथ उसे ग्रहण किया हो। कहां अप्रस्तुतप्रशंसा हो, कहां ब्याजस्तुति। कहां अभिधा, कहां लक्षणा, कहां व्यंजना।
और अगर स्वयं आनंदवर्धन के कूटपदों का उपयोग करें तो कहां पर "अनुस्वानोपमव्यंग्य" हो और कहां पर "अनुरणनरूपव्यंग्य" ("अनुस्वान" और "अनुरणन" इन दोनों का ही अर्थ "गूंज" होता है, यानी ध्वनि)।
वैयाकरणों ने "नित्य शब्द" को "ध्वनि" कहा था, आनंदवर्धन ने "काव्यार्थ" को।
और तब, उसी प्रसंग में आनंदवर्धन धर्मकीर्ति के उस अद्भुत श्लोक को उद्धृत करते हैं।
धर्मकीर्ति इस बात से बहुत खिन्न रहते थे कि उनकी कृतियों को वह सम्मान नहीं दिया जा सका, जिसकी कि वे यशभागी थीं। आनंदवर्धन का पूर्वग्रह इसे इस तरह से पढ़ेगा कि उनके रचनाकर्म में निहित "ध्वन्यार्थों" का समुचित दोहन नहीं किया जा सका। उसी परिप्रेक्ष्य में धर्मकीर्ति ने कहा था कि मेरे भीतर मेरी प्रतिभा जीर्ण हो जाएगी।
सागर क्या होता है सिवाय जलराशि के। लेकिन वही जलराशि उसका विष भी तो है, जैसे जीवेषणा जीव का विष। जल समुद्र का हेतु है, जल समुद्र की हानि भी है। समुद्र की लहरें स्वयं से पलायन कर जाने की विवश छटपटाहट भी हैं। जहां-जहां "भावरूप" है, वहां-वहां उसका "विपर्यय" भी उसी अनुपात में होता है, यह एक बुनियादी दर्शन है। संभवत: इसी के समाधान के लिए "माध्यमिक कारिका" में नागार्जुन ने कहा था : "जो भावों को देखते हैं, वे कुछ नहीं देखते।"
"समुद्र के भीतर समुद्र के जल का जीर्ण हो जाना", यह एक ऐसी गूढ़ काव्योक्ति है, जिसमें देर तक डूबा-उतराया जा सकता है।
आचार्य धर्मकीर्ति, क्षोभ करने की आवश्यकता नहीं, "काव्यार्थ" कालयात्री होता है और उसके "ध्वन्यार्थों" का दोहन अनंतकाल तक किया जा सकता है।
"ध्वन्यार्थ" अपार्थिव है।