सांची का महास्तूप / सुनो बकुल / सुशोभित

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सांची का महास्तूप
सुशोभित


सांची का महास्‍तूप मौर्यों ने बनवाया था.

शुंगों ने कालांतर में उसकी वेदिका बनवाई.

सातवाहनों ने उसके अलंकृत तोरण बनवाए, जो उसकी कीर्ति का आधार.

और सबसे अंत में, गुप्‍त शासकों ने ध्‍यान-मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमाएं सांची के परिसर में स्‍थापित करवाईं (जिन्हें यवनों ने खंडित कर दिया!)

इससे पहले तक सांची में तथागत की छवि कहीं न थी। उसकी मूल परियोजना में बुद्ध के मानुष स्वरूप की कोई कल्पना नहीं की गई थी.

सांची के जिन अलंकृत तोरणों की कीर्ति विश्‍वव्‍यापी है, उन पर उत्‍कीर्ण जातक-प्रसंगों और बुद्ध के जीवन की घटनाओं में भी बुद्ध की छवि कहीं नहीं है, केवल उनके प्रतीक हैं।

उदाहरण के तौर पर, सांची के तोरणों पर बुद्ध-जन्‍म के प्रसंग को एक पद्म की छवि से दर्शाया गया है, जिस पर बुद्ध की माता मायादेवी विराजित हैं।

संबोधि की छवि को अश्‍वत्‍थ वृक्ष (बोधि वृक्ष) के नीचे स्थित एक वज्रासन से दर्शाया गया है।

सारनाथ के मृगदाव में धर्मचक्रप्रवर्तन की छवि वज्रासन को एक स्‍तंभ पर स्‍थापित कर दर्शाई है।

महापरिनिर्वाण का दृश्‍य एक स्‍तूप की छवि से दर्शाया गया है, किंतु कुशीनारा के शालद्वय अनुपस्थित हैं।

सांची में कहीं बुद्ध की छवि पदचिह्नों के रूप में प्रदर्शित है तो कहीं त्रि-रत्‍न के रूप में।

कहीं मात्र विहार-स्‍थल की छवि है तो कहीं धर्मचक्र की।

तोरणों पर उत्‍कीर्ण एक दृश्‍य में एक सुसज्जित अश्‍व है, लेकिन उस पर कोई सवार नहीं है, बस ऊपर एक छत्र टंगा है।

यहां तक कि बोधिसत्‍वों को भी वृक्षों की छवि के माध्‍यम से ही प्र‍दर्शित किया गया है।

विश्‍वभु शालवृक्ष हैं,

कृकुच्‍छंद शिरीष वृक्ष हैं,

कनकमुनि औदुंबर हैं

तो कश्‍यप न्‍यग्रोध वृक्ष।

गुप्त शासकों द्वारा सांची में बुद्ध विग्रह की अभिधा स्थापित करने से पूर्व यह परिसर एक ऐसी लीलाभूमि की तरह था, जहाँ शास्ता का स्वरूप कहीं नहीं है और इसके बावजूद हर छवि में शास्ता की अभिव्यंजना है!

शास्ता के हर विग्रह को खंडित करने के बावजूद यवन उनकी छवि नहीं मिटा सकते थे!

सुंदर!