रथयात्रा / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
रथ में यात्रा होती है.
जैसे काष्ठ में अग्नि, नील में आकाश.
अधैर्य में विग्रह, अनुपस्थिति में आकार.
और सरसों के नवांकुरों की पंक्ति में छल!
अदम्य सम्मोहन है शंखक्षेत्र, उत्कल प्रदेश के पुरी जगन्नाथ मंदिर में स्थित श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रह में, और उससे भी सम्मोहक है उसकी कथा.
इस कथा के अनेक संस्करण प्राप्त होते हैं, किंतु जो कथा मुझे अधिक रुचती है, वह आज बांचूं, पारायण करूं, व्यासगादी की कल्पना रचकर! अस्तु. 🙏
नीलांचल के वनक्षेत्र में "नीलमाधव" का एक अनिर्वचनीय शोभावान विग्रह था, इंद्रनील से सुशोभित!
किसी ने उस विग्रह को देखा नहीं था, सिवाय एक विश्ववसु के, जो कि उसका नित्य आराधक था. किंतु उस विग्रह के नीलाभ का कौतूहल दूर दिगंत तक व्याप्त था.
कहां उत्कल देश का समुद्र तट और कहां मालव देश की उज्जयिनी नगरी!
फिर भी उज्जयिनी के राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न आया कि वे पुरुषोत्तमतीर्थ पुरी जाकर नीलमाधव के एक भव्य मंदिर का निर्माण करें. इस आदेश की अवहेलना इंद्रद्युम्न के लिए संभव नहीं थी.
नृपेंद्र के लिए भव्यातिभव्य मंदिर बनवाना क्या कठिन? किंतु मंदिर के गर्भगृह में विग्रह किस देवता का स्थापित करें? नीलमाधव का रूप तो किसी ने देखा ही नहीं था, सिवाय विश्ववसु के.
तब इंद्रद्युम्न ने अपने विश्वस्त विद्यापति को यह दायित्व सौंपा कि वे जाकर नीलमाधव का शोध करें. विद्यापति विश्ववसु के ग्राम पहुंचे, उनकी पुत्री का हृदय जीता, उससे विवाह किया, और विश्ववसु के दामाद के अधिकार से नीलमाधव के विग्रह के दर्शन का आग्रह किया.
नीलमाधव कुलदेवता हैं. मैं बूढ़ा, पका फल. मेरे बाद मेरी पुत्री के पति को ही तो उनकी आराधना करने का दायित्व निर्वहन करना होगा. यही सोचकर विश्ववसु विद्यापति को लेकर चल दिए नीलमाधव की ओर. किंतु मार्ग याद न कर लें, इस अविश्वास से विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांध दी.
अविश्वास ने छल को जन्म दिया! विद्यापति ने हथेली में सरसों के दाने छुपा लिए. पूरे मार्ग में एक-एक कर सरसों गिराते रहे. ताकि जब पहली बरखा हो तो सरसों के नवांकुरों का एक पथप्रदर्शक नीलमाधव के गिरी तक स्वत: बन जावै.
नीलमाधव के सम्मुख जाकर विश्ववसु ने विद्यापति की आंखों से पट्टी हटाई. विद्यापति उस अलौकिक विग्रह को देखने वाले दूसरे नश्वर प्राणी बने. अनिर्वचनीय शोभा से आंखें मूंद गई. हृदय तल्लीन हो गया. अब मैं यहां से ना जाऊंगा, यह हठ कर बैठे. विश्ववसु को बलपूर्वक उन्हें वहां से लेकर आना पड़ा.
घर लौटकर विद्यापति को कर्तव्य याद आया. नश्वर नृपति के प्रति निष्ठा ने ईशद्रोह के दुर्निवार संकल्प को जन्म दिया. पहली बरखा होते ही सरसों के नवांकुरों का पथ बन गया. उस पर चलते हुए वे नीलमाधव गिरी तक पहुंचे और अलौकिक विग्रह चुरा लाए.
शेष के फन पर दोल गई पृथिवी!
इस बिंदु पर कथा के अनेक संस्करण मिलते हैं, जिसमें किसी के अनुसार विद्यापति इंद्रद्युम्न तक वह विग्रह ले जाने में सफल रहे थे, किसी के अनुसार ऐसा संभव नहीं हो सका था. किंतु यह अवश्य मान्य है कि फिर नीलमाधव के उस विग्रह के आधार पर मंदिर के देवता की प्रतिमा नहीं बनाई जा सकी. कौन जाने, छल और लोभ से ईष्ट अवमानित हो गए हों.
तब राजा को दूसरा स्वप्न आया कि पुरी के समुद्र में एक विशाल काष्ठ तैरता हुआ मिलेगा, विश्ववसु के करस्पर्श से ही उसे उठाया जा सकेगा. उसी काष्ठ से मेरे विग्रह का निर्माण कर मंदिर में स्थापित किया जाए. पुरी में भव्य मंदिर तब तक निर्मित हो चुका था किंतु मंदिर में कोई देवता नहीं थे. अनिष्ट की कल्पना से जनवृन्द आक्रांत थे.
इस बार विश्वकर्मा एक बूढ़े काष्ठकार के रूप में सहायता के लिए प्रकट हुए. कहा, 21 दिनों में इस काष्ठ से देवता के विग्रह का निर्माण कर दूंगा, किंतु मेरी एकांतिक साधना भंग न की जाए. राजा मान गए. 14 दिनों तक विश्वकर्मा के कक्ष से ध्वनियां आती रहीं. 15वें दिन सब शांत हो गया. रानी को कौतूहल हुआ- कहीं बूढ़ा भीतर भोजन के अभाव में मर तो नहीं गया. उसने द्वार खुलवा दिए. विश्वकर्मा अदृश्य हो गए. श्रीकृष्ण, बलभद्र, सुभद्रा की काष्ठ प्रतिमाएं अपूर्ण ही रह गईं. हारकर उन्हें ही मंदिर में स्थापित किया गया.
रथ में यात्रा होती है. जैसे काष्ठ में अग्नि, नील में आकाश. अधैर्य में विग्रह, अनुपस्थिति में आकार. और सरसों के नवांकुरों की पंक्ति में छल!
एक छल ने नीलमाधव के विग्रह का लोप कर दिया था.
दूसरे अधैर्य ने ईष्ट के त्रिक को अपूर्ण ही छोड़ दिया.
अब इसके सिवा कोई चारा शेष न था कि जनवृन्द स्वयं जगन्नाथ के रथी बनें, उनके रथ में जुतें, अपनी देह और संकल्प के बल से उसे खींचकर ले जावैं और प्रलय तक प्रतिवर्ष इस रीति को दोहराएं.
पुरी की रथयात्रा ईश्वर से अधिक मनुष्य की अपूर्णता का उत्सव है.
ईष्ट का अधूरा विग्रह तो केवल मनुष्य के अधैर्य का मूर्तन है, "भेदाभेद" के प्रति उसे सचेत करता हुआ.
"भेदाभेद" से स्मरण आया, "अचिन्त्य भेदाभेद" के प्रवर्तक श्रीचैतन्यमहाप्रभु मृत्यु से पूर्व नवद्वीप से पुरी ही तो आ बसे थे, यहीं तो उन्होंने प्राण त्यागे.
कवि कर्णपूर ने अपने नाट्य "चैतन्य चंद्रोदय" में सार्वभौम नामक एक पात्र के मुख से कहलाया है कि जगन्नाथ एवं चैतन्य में कोई अंतर नहीं. भेद केवल इतना है कि जहां जगन्नाथ "दारुब्रह्म" हैं, वहीं चैतन्य "नरब्रह्म".
दारुब्रह्म यानी काष्ठ की प्रतिमा में अभिव्यंजित देवता, नरब्रह्म यानी मनुष्य की चेतना में प्रतिबिम्बित ईश्वर. किंतु दोनों में जो अभेद है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती. वह अचिन्त्य है.
वहीं आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने कहा था- "शरीर रथ है आत्मा रथी और बुद्धि सारथी". यह भी रथयात्रा का एक "त्रिक" है. एक रथयात्रा हमारे भीतर भी होती है.
किंतु छल, लोभ और आकांक्षा से संचालित होने वाली विवेक-बुद्धि भला इसे कैसे बूझ पावैगी?
इत्यलम्.