छतरी वाले अक्षर / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
ओड़िया लिपि में हर अक्षर बंगालियों की तरह छतरी लिए खड़ा रहता है!
इसमें यह छतरी वाली बात भोलाभाई पटेल की है, बंगालियों वाली बात मेरी।
जैसे कलकत्ते की रिमझिम फुहार में छाता खोले ट्राम की प्रतीक्षा कर रहे हों जनवृंद, वैसे ही ओड़िया लिपि के सिर पर गोलाई का एक आकार होता है। उसका माथा बंधा होता है।
जब भी मैं ओड़िया लिपि में लिखी किसी इबारत को देखता हूं तो अनेक रीति-भांति के कौतूहल मेरे मन में मृग की तरह कुलांचे भरने लगते हैं।
जैसे कि यही कि जिसका प्रत्येक अक्षर छतरी ताने खड़ा हो, कैसी होती होंगी उस भाषा की धूप और मेंह! ओड़िया में धूप और बरखा को क्या कहते होंगे और जो भी कहते होंगे, उस कहन को तो छतरी की ओट नहीं करते होंगे?
फिर यह कि धूप से लिपे पुरी के पुराशृंगों का बखान करने को जब ओड़िया के अक्षर सिर उठाकर देखते होंगे तो कहीं गिर तो ना जाती होगी छतरी?
कुमुद पोखरी के समीप से एक हाथ में करील और दूजे में पोई साग लेकर जब लौटते होंगे ओडिशा के शब्द, तो अपनी छतरी भला किस हाथ से थामते होंगे?
कहीं ऐसा तो नहीं, एक अक्षर सम्हालता हो साग की गठरी, और दूसरा छतरी लिए साथ-साथ चलता हो, पहले अक्षर से सटकर?
साग की गठरी तो रहने ही दें, गोदी में शिशु हों तब? यह उत्कलप्रदेश में ही तो सम्भव है, जहां शिशुओं के नाम इतने सुंदर हों- बालक हुआ तो देबाशीष, बालिका हुई तो देवसत्ती।
एक हाथ में छतरी थामे खीरमोहन का भोग लगाना कितना तो कठिन होगा उत्कलप्रदेश के अक्षरों के लिए, कि कहीं बांह पर ही ना ढुलक जाए शर्करा का रस।
और सबसे बढ़कर तो यह कि नबरंगपुर के ग्राम-अंचल में लदे-झुके रूख से सीधे सिर पर गिरने वाले कटहल छतरी में छेद तो ना कर देते होंगे? कि एक बार फट जाएं छतरियां तो भुबनेश्वर जाकर नई मोल लाना तो दिवासपन!
तेलीपाली गांव के श्री बिनोद चंद नायक के "पोहला द्वीपेर उपकथा" में भी कौतूहल से भरी इतनी कथाएं नहीं होंगी, जितना विस्मय उमगता है मेरे मन में छतरी लिए खड़े ओड़िया के अक्षरों को देखकर।
सैंधव लिपि को कभी पढ़ा नहीं जा सका। मोहनजोदड़ो के महाख्यान इसी कारण अपठित ही रह गए।
कहते हैं सैंधव सारस्वत लिपि से ही ब्राह्मी लिपि विकसित हुई, जिसे भली प्रकार पढ़ लिया गया।
ब्राह्मी से ही देवनागरी बनी, बांग्ला और असमिया और ओड़िया लिपि भी ब्राह्मी से ही विकसित हुईं, किंतु छतरियां तो केवल ओड़िया लिपि के ही पास हैं।
भोलाभाई ने बीच में टोककर बतलाया- देखो तो, लिपि पर द्राविड़ीय प्रभाव दिखाई देता है, किंतु छतरी के नीचे से कहीं नागरी वर्ण भी परखा जा सकता है!
कौन जाने कैसे यह सब सम्भव हुआ!
भाषा में स्वप्न देखने का अनुक्रम, जो अनेकानेक लिपियों के रूप में समय की पीठ पर उत्कीर्ण हुआ।
किंतु जब किंचित भी धैर्य न रह गया तो मैंने भोलाभाई से पूछ ही लिया कि भला ओड़िया के ही अक्षरों का माथा क्यूं बंधा है, औरों का क्यूं नहीं?
भोलाभाई ठहरे गुजराती। उन्हें स्वयं कैसे मालूम होता? भोलाभाई पटेल थे, कोई रथ या दास थोड़े ना थे, उनके नाम में मोहंती या महापात्र थोड़े ना जुड़ा था!
तब उन्होंने डॉ. प्रबोध पंडित से पूछकर बतलाया कि अरे, इसका कारण तो ताड़पत्रों पर लिखाई है।
नोकदार क़लम से ताड़पत्र पर लिखते समय क़लम यदि बाएं से दाएं चली जाती है तो ताड़पत्र के कट जाने का अधिक डर रहता है। ओड़िया लिपि आरम्भ में ताड़पत्र पर ही लिखी जाती थी। ताड़पत्र कट न जाए, इसलिए लिखते समय अक्षर दांई से बांई ओर गोलाकार गति करता था।
इसी से बन जाती हैं छतरियां।
ताड़पत्र जाने किन दंडकारण्यों में गलकर झड़ गए, छतरियां अब भी शेष रह गईं। क्या ही अचरज है!
किंतु अब जाकर कौतूहल का मृग तुष्ट होता है, पुष्ट भी।
और तब, ऐषणा जगती है-
काश, राधानाथ राय की कविता "चिलिका" को मूल ओड़िया में पढ़ने का आनंद होता, या बलराम दास की "दंडी रामायण" को, या फिर रमाकांत रथ और सीताकांत महापात्र के काव्य को ही मूल में परखने का आयोजन।
भाखा की छतरी तले तब कितने रहते उन्मन!