कामारपुकुर / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
श्रीकृष्णबिहारी मिश्र की पुस्तक "कल्पतरु की उत्सव लीला" के दूसरे अध्याय का शीर्षक है- "कामारपुकुर का सौभाग्य।"
बतलाने की आवश्यकता नहीं, यह सौभाग्य कौन था। बालपन में गदाधर चट्टोपाध्याय कहलाने वाले रामकृष्ण परमहंसदेव, और कौन?
किंतु ये "कामारपुकुर" क्या है?
कामारपुकुर हुगली ज़िले के एक गांव का नाम है, जिसमें इसी फ़रवरी महीने में परमहंसदेव जन्मे थे। अब तो उस घटना को कोई दो सदी होने आई। बांग्ला मुझे आती नहीं। मुझे मालूम ना था, इस नाम के क्या मायने हैं। सो मैंने अपने अग्रज बंधु श्रीउत्पल वंद्योपाध्याय को फ़ोन घुमाया।
उन्होंने बतलाया कि एक तो होता है कुमुर यानी कुम्भकार। और दूसरा होता है कामार यानी कर्मकार। जो लोहे का काम करता हो। पुकुर हुआ पोखर। तो कामारपुकुर यानी कर्मकारों का पोखर। रही होंगी यहां किसी ज़माने में लोहे का काम करने वालों की बस्तियां, या कौन जाने, ग्राम-सीमान्त पर आज भी हों। और पोखर तो वहां निश्चय ही था। पुराने छायाचित्रों में स्पष्ट वो दिखता है। तो यह नामकरण हो गया- "कामारपुकुर।" क्या ही मीठा नाम! कितना कौतूहल भरा!
बंगालियों को वैसे नाम रखने में बहुत सुख होता है- बकुल, मुकुल, पुतुल, पारुल... इसका अंत ही नहीं!
रामकृष्ठ मठ वाले स्वामी सारदानंद ने परमहंसदेव पर एक पुस्तक लिखी है- "श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग।" उसमें उन्होंने कामारपुकुर का बखान यों किया है-
"हुगली ज़िले से वायव्य दिशा की ओर बांकुड़ा तथा मेदिनीपुर ज़िलों का जहां संयोग हुआ है, उससे कुछ ही दूर त्रिभुजा के रूप में तीन गांव परस्पर अतिसन्निकट विद्यमान हैं। ग्रामवासियों में ये श्रीपुर, मुकुंदपुर तथा कामारपुकुर नाम से परिचित होने पर भी घनिष्ठ रूप से मिले होने के कारण वे एक ही गांव के विभिन्न मुहल्ले प्रतीत होते हैं। इसलिए आसपास के ग्रामों में इन तीनों ग्राम का एक ही नाम "कामारपुकुर" प्रसिद्ध है।"
वृत्तांत की इस शैली ने मुझे रससिक्त कर दिया। तीन भुजाओं सरीखे तीन गांव मिलकर एक मोहल्ला-पाड़ा बन ही जाते हैं, किंतु तीनों का एक ही नाम हो जावै, वैसा तो क्या ही कहीं और होगा।
वर्ष 1886 में, जब ठाकुर काशीपुर में थे, स्वामी चेतनानंद ने कामारपुकुर की यात्रा की थी। वहां जाकर वे मंत्रमुग्ध हो गए, और यही सोचते रहे कि ठाकुर इस सड़क पर चले थे, इस वृक्ष के नीचे विराजे थे, आदि इत्यादि। एक गली में बिल्ली दिखी तो उसे भी नतमस्तक होकर प्रणाम किया। वहां से लौटे तो यात्रावृत्त लिखा। उसमें एक बड़ा ही रोचक क़िस्सा सुनाया।
उन्होंने बताया कि बर्दवान का रास्ता उन्होंने कुछ पैदल तो कुछ बैलगाड़ी से तय किया था। रास्ते में उन्हें एक हथियारबंद व्यक्ति दिखा। उन्होंने गाड़ीवान के पास जाकर पूछा कि क्या यह मनुष्य डाकू है? गाड़ीवान ने उत्तर दिया- "नहीं, वह डाकू नहीं, वह तो डाकिया है। उसके पास रुपये हैं, इसलिए वह हथियार लेकर चलता है।" फिर आख़िर में गाड़ीवान ने जोड़ दिया, "डाकू तो मैं हूं।"
जब स्वामी चेतनानंद काशीपुर लौटे तो परमहंसदेव ने छूटते ही उनसे पूछा- "डाकुओं के स्थान में कैसा लगा?" स्वामीजी उनकी इस विचक्षण दृष्टि से चकित रह गए थे। उस गाड़ीवान दस्यु की क्या कथा थी, इसका विवरण अलबत्ता स्वामीजी अपने यात्रावृत्त से गोल कर गए।
तब मैं सोचने लगा कि ये "कामारपुकुर" भला कैसी तो अजूबी जगह है, जहां वैसी अचरज भरी चीज़ें होती हैं। मन में कामारपुकुर की एक बार यात्रा करने का भाव किसी नक्षत्र की भांति उग आया, और देर तक वहीं टिमटिमाता रहा।
और तब मैं मुस्करा दिया। वर्षा ऋतु पर एक गीत के बोल मुझे याद हो आए थे।
गीत है-
"सोना करे झिलमिल झिलमिल
रूपा हँसे कैसे खिलखिल
दुनिया देखे टुकुर टुकुर
वृष्टि पड़े टापुर टुपुर।"
मैं गीतकार होता तो गीत के अंतरों में टुकुर, मधुर, टापुर, टुपुर की टेक के साथ "कामारपुकुर" की तुक भी कहीं मिला ही देता।