पक्षीगान / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
आकाश में पंख तौलते पाखी किसके मन में उड़ान की उत्कट विकलता नहीं जगाते, किसको अपनी पंगुता और पार्थिवता का अनुभव नहीं कराते, किंतु बहुधा ऐसा होता है कि हम उसे देखते हैं, उसकी आश्चर्यचेतना में पल-दो पल डूबे रहते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं, अपने अपने गुरुत्वाकर्षणों की ओर। हममें से कम ही लोग होते हैं, कोई सालिम अली, कोई मारुति चितमपल्ली, जो इन पाखियों के अनुसंधान में अपना जीवन खपा देता है।
मैंने सालिम अली की आत्मकथा बहुत चाव से पढ़ी है : "एक गोरैया का गिरना"। वे भारत के सबसे प्रसिद्ध पक्षीविज्ञानी हैं। अंग्रेज़ी में बोलें तो "ओर्निथोलॉजिस्ट"। किंतु इधर मैं भातम्ब्रेकर के अनुवाद में मराठी के अनूठे पक्षीविज्ञानी श्री मारुति चितमपल्ली को पढ़ रहा था, और मुझे यह देखकर सुखद संतोष हुआ कि पक्षी-वैज्ञानिकों की उत्सुक, सजग, वस्तुपरक दृष्टि से विलग मारुति चितमपल्ली पक्षियों के अनूठे संसार को काव्य और दर्शन और विस्मय की कितनी सुंदर भावभूमि पर ग्रहण करते हैं!
"पक्षीकोश", "सुवर्ण गरूड़", "निसर्गवाचन", "चित्रग्रीव", "वनोदेय" आदि श्री मारुति चितमपल्ली की पुस्तकें हैं। मराठी में वे एक समादृत नाम हैं, किंतु हिंदी में अल्पज्ञात हैं। हिंदी का संसार यों भी सीमित ही है। अलबत्ता फ़ेसबुक पर उनका एक फ़ैनपेज अवश्य है।
मराठी तो मुझे आती नहीं, भाग्यवश "वनोदेय" का हिंदी अनुवाद मुझे मिला, जिसे मुग्ध होकर पढ़ रहा था।
एक वैज्ञानिक के उलट मारुति चितमपल्ली बारम्बार पक्षियों के लिए "रहस्यपूर्ण", "अलौकिक", "अपार्थिव" प्रभृति शब्दों का प्रयोग करते हैं। "वनोदेय" में ही "पक्षीगान" नामक अध्याय का प्रारम्भ उन्होंने "ऋग्वेद" की एक युक्तिसंगत ऋचा से किया है, जिससे मैं पूरी तरह अनभिज्ञ था। यह वेदऋषि की वाणी है : "ईश्वरस्वरूप पक्षी की रहस्यमयी सुंदरता का रहस्य अगर किसी को ज्ञात हो तो मुझे बतलाया जाए।" इसके आगे कालिदास का विवरण, जिन्होंने अपनी नायिका "शकुंतला" का नाम "शकुंत" पक्षी के रूपवैभव से प्रेरित होकर रखा था, जैसे "लोपा" पक्षी के आधार पर अगस्त्य ने अपनी पत्नी को "लोपामुद्रा" पुकारा था, और एक अन्य प्रसंग में "कदम्ब" वृक्ष के आधार पर बाणभट्ट ने अपनी नायिका को पुकारा था "कादम्बरी"।
मारुति चितमपल्ली की अनूठी लेखनशैली का एक नमूना आप देखिए :
"हरी-भरी वनसंपदा के फलक पर नीली रेखा खींचनेवाला कौड़िल्ला, नीलाम्बर के भार को झेलते हुए उड़ान भरने वाले नीले-नीले चास, उत्फुल्ल खिले हुए पीले-पीले बहावा वृक्षों से होड़ लेते हरिद्र, शिरीष पुष्पों की मानिंद कोमल हारित, मरकती पूजापात्र में सजी मोती की सीपी की तरह कमलपत्र पर इठलाते बगुले, रंग-बिरंगी पोशाकों वाली नटखट लड़कियों जैसी शोख-चंचल सैरा (गोल्डफ़िच) पक्षियों का झुंड, आसमान के गले में सजी मरकत-माणिक्य की मणिमाला के अंदाज़ में वृत्ताकार पंक्तिबद्ध सुग्गे-तोते, सुंदर गौरांगी रमणियों से प्रतीत होने वाले चक्रवाक पक्षी, मदमस्त चांदनी में सराबोर होकर वन-उपवन को निहारते हुए कुलांचे भर रहा गुलाबी-बादामी चकोर पक्षियों का समूह, हिमशिखरों से साक्षात्कार कराने वाले तुषार तीतरों का जत्था, कर्पूर गौरवर्णीय शाही बुलबुल, रत्नों-सा सौंदर्य प्राप्त कवड़ा, मुरहे घाटी का वैभव करार दिए जाने वाले क़बूतर, रूपवती नागकन्या के अंदाज़ में फुंफकार भरने वाले हुदहुद, ऊंचे पर्वत-पठार की घास पर खिले नीले फूलों के गलीचे पर कतारबद्ध चहलक़दमी करने वाले रूपसी श्यामल कोंकणी लवा पक्षी, पुराने, अदबी, श्वेत-श्याम वस्त्र धारण किए क्रौंच, ग्रीष्मकालीन संज्ञा के मटमैले आसमान के अक्स धारण किए कपोत, वर्षाऋतु के सूर्यास्तकालीन रंगों के पंखों वाले तीतर, भोरकालीन सितारों का वर्ण धारण किए कवलिंक, जलाशय में विहार कर रहे, गुलाबी दुपट्टे की तरह दिखने वाले तथा हर पल अपनी चाल बदलने वाले रोहित पक्षियों का घना जमावड़ा - ये सारे दृश्य क़ुदरत की अद्भुत करिश्माई क्षमता पर यक़ीनन मुहर लगाते हैं। किसी शापभ्रष्ट अप्सरा की तरह हिमालय की तराई में पाए जाने वाले जीवजीवक पक्षियों की रंगीन पुच्छ-बहार को इंद्रधनु की उपमा देने लायक मोहकता उसमें भरी होती है।"
यह अतुल्य पक्षी-वर्णन पढ़ा तो मन में एक-एक कर जाने कितने ही स्मृति-पृष्ठ खुलते चले गए।
क्रौंच, कपोत, हारिल, हंस, चातक, शुक -- पुराणों और मिथकों में बारम्बार उल्लेखित होने वाले ये पक्षी। सभी अपने होने की संज्ञा से पृथक एक अनूठी अर्थछटा के साथ। साथ ही स्मरण हो आए ऋग्वेद के ही वे दो परिंदे, जिनके लिए कहा गया : "द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया"। याद आए "तैत्तिरीय संहिता" के "तित्तिर"।
फिर जब यह याद आया कि प्राण में "पखेरू" के रूपक की प्रतिष्ठा की गई है तो दिल धक्क से रह गया। पखेरू की भांति प्राणों का उड़ जाना! इसके ठीक सामने मुझे याद आई सत्यजित राय की फ़िल्म "अपराजितो", जिसमें जब बनारस में हरिहर की मृत्यु होती है तो सीन कट होता है और अगले दृश्य में हम देखते हैं गंगा नदी की प्रदक्षिणा करता कपोतों का एक विकल समूह! वेनिस में जब "अपराजितो" दिखाई जा रही थी तो समालोचकों ने एक साथ उठकर करतल ध्वनि से इस दृश्य का अभिवादन किया था!
और सबसे अंत में मुझे याद आया कि परमहंसदेव को पहली समाधि का अनुभव भी तो बगुलों की एक पांत को देखकर ही हुआ था!
उस दिन नभ में मेघमाला की मेखला थी। देव-दुंदुभी का घोष! परमहंसदेव युवा ही थे। बंगभूमि के किसी खेत में तन्मय सी तंद्रा में चले जा रहे थे कि बलाका-समूह का शब्द सुनकर ऊपर देखा। धवल श्वेत बगुलों की एक पांत धूममेघ से भरे आकाश में विपर्यय का अलौकिक बिम्ब रचते चली जा रही थी। वो दृश्य इतना अपार्थिव था कि पलभर को परमहंसदेव हठात रह गए। आंखें मुंद गईं। मन डूब गया। समाधि का पहला अनुभव हुआ!
पक्षियों में अवश्य ही कुछ पारलौकिक होता है।
नहीं तो बारम्बार ऐसे गीत नहीं रचे जा सकते थे - "ओ पंछी प्यारे, सांझ सकारे, बोले तू कौन सी बोली, बता रे" या "ओ अलबेले पंछी, तेरा दूर ठिकाना है" और संतों ने चेतना को हंस की संज्ञा देकर "चल हंसा वो देस" या "हंसा तो मोती चुगै" वाली बातें नहीं कही होतीं।
बहरहाल, आगे समाचार यह है कि मेरी भाषा के पाठकों को शीघ्र ही मराठी के इस अद्भुत पक्षीविज्ञानी का लेखन विस्तार से, और अगर हरिच्छा रही तो, निरंतरता के साथ पढ़ने का अवसर मिलेगा!
शेष शुभ।