रीतिग्रंथों का बुरा प्रभाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
काव्य का लक्ष्य
रीतिग्रंथों का बुरा प्रभाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

काव्यरीति का निरूपण थोड़ा बहुत सब देशों के साहित्य में पाया जाता है। पर हमारे यहाँ के कवियों को रीतिग्रन्थों ने जैसा चारों ओर से जकड़ा वैसा और कहीं के कवियों को नहीं। इन ग्रन्थों के कारण उनकी दृष्टि संकुचित हो गई, लक्षणों की कवायद पूरी करके वे अपने कर्त्तीव्य की समाप्ति मानने लगे, काव्य का स्वरूप संघटित करने के स्थान पर वे बाहरी सजावट में अधिक उलझने लगे। सारांश यह कि वे इस बात को भूल चले कि किसी वर्णन का उद्देश्य श्रोता के हृदय पर प्रभाव डालना है। बात यह है कि ग्रंथ सीमा का अतिक्रमण कर गए। रसनिरूपण में भावों और रसों को

1. वाल्मीकीय रामायण, बालकांड, प्रथम सर्ग 1-5 तक।

गिनाने का यह प्रभाव पड़ा कि जो बातें भावों और रसों के निर्दिष्ट शब्दों के भीतर आती हुई उन्हें प्रत्यक्ष रूप से न दिखाई पड़ीं उनके वर्णन से उन्हें कोई प्रयोजन ही न रह गया। केवल गिनी गिनाई बातों को निर्दिष्ट शैली के अनुसार ऑंख मूँदकर कह दिया, बस पूर्ण रस की रसम अदा हो गई। प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन का हिंदी काव्यों में जो अभाव पाया जाता है उसका मुख्य कारण यही है। रस, नायिका, अलंकार आदि के लक्षण और उदाहरण जानना जब साहित्य पाठकों के लिए आवश्यक हो गया तब कवियों को एक ही पद्य में पूर्ण रस लाने का हौसला बढ़ा। कुछ बातें तो कविजी ने कहीं और कुछ बातें नायिका, अलंकार आदि का इशारा पाकर पाठक आप लगा लेने लगे। इस प्रकार उस स्वरूपचित्रण से बहुत कुछ छुट्टी पा जाने से लोग पदक्रीड़ा में प्रवृत्त हुए, वर्ण्य वस्तुओं को गिनाने और उनका वर्गीकरण करने से बाह्य और आभ्यंतर दोनों सृष्टियों की अनेकरूपता का काव्यों में अभाव सा हो चला। जिस प्रकार बाहर दृश्यों के अनंत रूप हैं उसी प्रकार मनुष्य की मानसिक स्थिति के भी, जिस प्रकार पृथ्वी पर अनेक प्रकार के दृश्य हैं उसी प्रकार मनुष्य भी अनेक स्वभाव और चरित्रवाले हैं। उद्दीपन की कुछ वस्तुओं के गिनाने और नायक नायिका के धीराधीरा, धीरोदात्त इत्यादि भेद निर्दिष्ट करने से दोनों ओर की अनेकता पर पर्दा सा डाल दिया गया। धीरोदात्त, धीरोदधत, धीरललित और धीरप्रशांत जो चार प्रकृति के नायक कहे गए हैं, क्या उनमें जितनी प्रकृति के मनुष्य हो सकते हैं सब आ जाते हैं? विविध प्रवृत्तियों के मेल से संघटित जो अनेक स्वभाव के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं, उनके स्पष्टीकरण के लिए मानव प्रकृति के अन्वीक्षण की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता उक्त चार प्रकार के ढाँचे तैयार मिलने से पिछले कवियों को न रह गई। इसी से हमारे यहाँ के अधिकांश नाटकों में नाटकस्थ पात्र निर्दिष्ट साँचों में ढले हुए होते हैं। नायिकाओं के जो भेद किए गए वे भी केवल श्रृंगार की दृष्टि से, सर्वव्यापारव्यापी प्रकृतिभेद की दृष्टि से नहीं। निम्न वर्ग की अशिक्षित स्त्रियों की सामान्य द्वेषपूर्ण कुटिलता और इधर का उधर लगाने की प्रवृत्ति का जो उदाहरण मंथरा के रूप में वाल्मीकि ने दिया वह नायिकाभेद के ग्रन्थों में नहीं मिलेगा। सारांश यह है कि नायक नायिकाभेद चरित्र-चित्रण में सहायक नहीं हुए, बाधक हुए। उसके अनुसार जिन प्रबन्धकाव्यों या नाटकों में पात्रों की योजना हुई उनमें मानव प्रकृति के बहुत ही थोड़े अंश का चित्र हमें मिलता है-सो भी परम्पराभुक्त और पिष्टपेषित। इसी से सामान्य चरित्रचित्रों की जो अनेकरूपता हम योरप के काव्यों और नाटकों में पाते हैं वह यहाँ के नहीं। जिस प्रकृतिक्षेत्र के एक-एक अंग का दर्शन कवि का काम है उसके बीच पगडंडियाँ निकाल देने से कवियों की यात्रा तो सुगम हो गई पर उसका अधिकांश उनकी दृष्टि से दूर हो गया। कवि को प्रकृति कानन में विचरण करना रहता है, दूसरे प्रयोजन से यात्रा करनेवालों के समान केवल इस पार से उस पार निकल जाना नहीं। आवश्यकता से अधिक लीक बना देने से लीक पीटनेवालों की संख्या अवश्य बहुत बढ़ गई-पर इससे काव्य के व्यापक उद्देश्य की अधिक सिद्धि नहीं हुई। लीक पीटने की शिक्षा रीतिग्रन्थ लिखनेवाले आचार्यों ने ही दी, यह बात कुछ अलंकारों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाती है। रूपकातिशयोक्ति को लीजिए जिसमें पहेली के ढंग पर केवल उपमानों का कथन होता है, उपमेयों को पाठक अपना समझते-बूझते रहते हैं। यह तभी संभव है जब उपमान नियत हों। इस वस्तु की उपमा इस वस्तु से कवि देते आए हैं यह साधारण तभी हो सकता है जब एक ही उपमा का खूब पिष्टपेषण हुआ हो।

इस अनंत विश्वा के भावोत्तोजक रूप भी अनंत हैं। पर कुछ महापुरुषों ने वर्ण्य वस्तुओं तक को गिनाने का प्रयास किया। केशवदासजी को इस हवा का सबसे पिछला झोंका लगा, इससे उनकी कविप्रिया में वर्ण्य वस्तुओं की खासी फिहरिस्त मौजूद है-

कविन कहे कवितान के अलंकार द्वै रूप।

एक कहै साधारणै एक विशिष्ट सरूप॥

सामान्यालंकार ,को चारि प्रकार प्रकास।

वर्ण, वर्ण्य, भू, राजश्री भूषण केसवदास॥

-कविप्रिया, पाँचवाँ प्रभाव 2-3।

इसी सामान्यालंकार के अंतर्गत संपूर्ण वर्ण्य सामग्री का फलस्वरूप विवेचित है। विशेषालंकार के अंतर्गत वर्णन शैली अर्थात् प्रसिद्ध उपमादि अलंकारों का वर्णन हुआ है।

किसी आचार्य ने1 कह दिया कि महाकाव्य में इतने सर्ग होने चाहिए और इन इन वस्तुओं का वर्णन होना चाहिए। फिर क्या था, जिसे महाकाव्य लिखने का हौसला हुआ उसे झख मारकर उन सब वस्तुओं का वर्णन करना पड़ा, चाहे कथा के प्रसंग में किसी वस्तु की आवश्यकता बिलकुल न हो। इस प्रकार उन्हें अप्रासंगिक वर्णन का भी समावेश अपने काव्यों में करना पड़ा। जलविहार और श्मशान का प्रसंग चाहे कथा में न आता हो पर कविजी को उसे लाना चाहिए।

सच्चे काव्य में सहज भाव प्रधान होता है। आरोपित नहीं। उसमें कवि, पात्र और श्रोता तीनों के हृदय का समन्वय होता है जिससे काव्य का जो प्रकृत लक्ष्य है, पदार्थों के साथ भावों के प्रकृत संबंध का प्रत्यक्षीकरण-जगत् के साथ हमारी रागात्मिका वृत्ति का सामंजस्य-वह सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही काव्य अमर या चिरस्थायी होते हैं जिनमें मनुष्यमात्र अपने भावों के आलम्बन पाते हैं।

जो काव्य न कवि की अनुभूति से संबंध रखते हैं, न श्रोता की, उनमें केवल कल्पना और बुद्धि के सहारे भावों के स्वरूप का प्रदर्शन होता है। यदि हम किसी भाव के स्वरूपप्रदर्शन मात्र का विचार करते हैं, श्रोता के हृदय में उसके संचार का

1. देखिए, विश्वेनाथ महापात्राकृत साहित्यदर्पण, छठा परिच्छेद, श्लोरक 315-324। नहीं, तो कविता केवल ऊपरी दिलबहलाव या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है और

कवि का कार्य चित्रकार के कार्य से अधिक महत्त्व का नहीं जान पड़ता। जैसे चित्रकार नाना रंगों के मेल से पहले लोगों का ध्यामन चित्र की ओर ले जाता है फिर आकार और भाव प्रदर्शित करके उनका मनोरंजन करता है, वैसे ही कवि भी अपने सुंदर और चटकीले शब्दों द्वारा श्रोता या पाठक को आकर्षित करता है, फिर किसी भाव का स्वरूप दिखाकर बैठे ठाले लोगों को एक प्रकार के आनंद का अनुभव करा देता है। जो काव्य की पहुँच यहीं तक समझते हैं वे इतना ही कह सुनकर संतुष्ट हो जाते हैं कि जिस प्रकार चित्रकार अपने रंगों से पदार्थों का रूप दिखाता है, उसी प्रकार कवि अपने शब्दों से दिखाता है। वे प्रदर्शन की कुशलता मात्र पर संतुष्ट होते हैं, प्रदर्शित वस्तु चाहे कुछ हो। प्रदर्शित वस्तु या विषय का मनुष्यमात्र की वासनात्मक प्रकृति से कहाँ तक संबंध है-वह वस्तु या विषय मनुष्यमात्र के हृदय को कहाँ तक स्पर्श कर सकती है-यह देखने का झंझट वे नहीं उठाते। यदि कविजी ने किसी हाथी की झूल का वर्णन कर दिया और उसमें सहस्रों सूर्य उतार लाए या किसी का त्योरी बदलना, दाँत पीसना और बड़बड़ाना दिखा दिया-बिना इसका निर्देश किए कि जिस पर त्योरी बदली जा रही है वह कैसा है-तो बस उनकी वाहवाही हो गई। क्या इसके भी कहने की आवश्यकता है कि ऐसी रचना मनुष्य के हृदय की भीतरी तह तक नहीं पहुँचती केवल ऊपरी दिलबहलाव भर करती है। इसी हलकेपन के कारण बहुत से लोग काव्य को विलास की सामग्री और अमीरों के शौक की चीज समझने लगे। भाँटों और कवियों में कोई भेद ही न रह गया। भोज ऐसे राजा बात बनानेवाले खुशामदियों को कवि कहकर लाखों का पुरस्कार देने लगे। उसी भोज की तारीफों के पुल बाँधनेवाले उसके प्रताप1 को सूर्य से भी बढ़कर बतानेवाले चारों ओर से आते थे जिसके सामने ही विदेशी इस देश में आकर भारतीयों की इतनी दुर्दशा करने लगे थे।

जहाँ आचार्यों ने पूर्ण रस माना है वहाँ तीन हृदयों का समन्वय चाहिए। आलम्बन द्वारा भाव की अनुभूति प्रथम तो कवि में चाहिए फिर उसके वर्णित पात्र में और फिर श्रोता या पाठक में विभाव द्वारा जो 'साधारणीकरण' कहा गया है वह तभी चरितार्थ हो सकता है। यदि श्रोता के हृदय में भी प्रदर्शित भाव का उदय न हुआ-उस भाव की सहानुभूति से भिन्न प्रकार का आनंद रूप अनुभव हुआ तो 'साधारणीकरण' कैसा? क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि के वर्णन यदि श्रोता के हृदय में आनंद का संचार करें तो या तो श्रोता सहृदय नहीं या कवि ने बिना इन भावों का स्वयं अनुभव किए

1. भोजप्रतापं तु विधाय धात्रा शेषेर्निरस्तै: परिमाणुभि: किम्।

हरे: करेऽभूत्पविरम्बरे च भानु: पयोलेरुदरे कृशानु:॥ -भोजप्रबंध, 92। उनका रूप प्रदर्शित किया है। कवि को 'कलानिपुण' और 'सहृदय' दोनों होना चाहिए। 'कलानिपुणता' और 'सहृदता' अब दोनों एक ही वस्तु नहीं। बहुत से लोग सहृदय होते हैं, पर अपनी प्रबल वासनात्मक अनुभूति को व्यक्त करने की निपुणता उनमें नहीं होती। इसी प्रकार इसका उलटा भी होता है। बहुत से काव्यों के बन जाने और लक्षण ग्रन्थों की भरमार हो जाने से इधर बहुत दिनों से हृदयहीनों के लिए जैसे बुद्धि और कल्पना के सहारे काव्य का सा स्वरूप खड़ा कर देना सुगम हो गया है वैसे ही काव्य का रसिक या शौकीन बनना भी। भाव का विषय केवल वह व्यक्ति ही नहीं होता जिसे आलम्बन कहते हैं उसके रूप, गुण, कर्म आदि भी होते हैं। कभी-कभी तो अन्य भाव के कारण श्रोता की दृष्टि निर्दिष्ट व्यक्ति वा आलम्बन से हटकर वर्णित रूप, गुण आदि के सहारे वैसा ही कोई और व्यक्ति अपने भाव के आश्रय के लिए कल्पित कर लेती है। 'कुमारसंभव' में पार्वती के अंग प्रत्यंग के वर्णन और शिव के प्रेम को पढ़कर श्रोता उस वर्णन द्वारा रतिभाव का अनुभव तो करता है, पर अनुभूति के साथ पार्वती देवी को कल्पना में नहीं रखता-हटाए रहता है। इसी प्रकार राम के इस विलाप को पढ़कर-

रे वृक्षा: पर्वतस्था गिरिगहनलता वायूना वीज्यमाना।

रामोऽहं व्याकुलात्मा दशरथतनय: शोकशुक्रेण दग्ध:।

बिम्बोष्ठी चारुनेत्री सुविपुलजघना बद्धनागेंद्र कांची।

हा! सीता केन नीता मम हृदयगता को भवान्केन दृष्टा॥

-हनुमन्नाटक, अंक 5, श्लो्क10।

कोई अपनी प्रियतमा के ध्यानन में भी लीन हो सकता है। इस प्रकार रत्यादि स्थायी भावों का सामान्य रूप से प्रतीत होना साहित्य के आचार्यों ने स्वीकार किया है।

मेरी समझ में रसास्वाद का प्रकृत स्वरूप 'आनंद' शब्द से व्यक्त नहीं होता। 'लोकोत्तर', 'अनिर्वचनीय' आदि विशेषणों से न तो उसके अवाचकत्व का परिहार होता है न प्रयोग का प्रायश्चित। क्या क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि आनंद का रूप धारण करके ही श्रोता के हृदय में प्रकट होते हैं, अपने प्रकृत रूप का सर्वथा विसर्जन कर देते हैं, उसे कुछ भी लगा नहीं रहने देते? क्या 'विभावत्व' उनका स्वरूप हरकर उन्हें एक ही स्वरूप-सुख का-दे देता है। क्या दु:ख के भेद सुख के भेद से प्रतीत होने लगते हैं? क्या मृत पुत्र को लिए विलाप करती हुई शैव्या से राजा हरिश्चंद्र का कफन माँगना देख सुनकर ऑंसू नहीं आ जाते, दाँत निकल पड़ते हैं? क्या महमूद के अत्याचारों का वर्णन[सुनकर या पढ़कर ] यह जी में नहीं आता कि वह सामने आता तो उसे कच्चा खा जाते? क्या कोई दुखांत कथा पढ़कर बहुत देर तक उसकी खिन्नता नहीं बनी रहती? 'चित्त का यह द्रुत होना' क्या आनंदगत है? इस आनंद शब्द ने काव्य के महत्त्व को बहुत कम कर दिया है-उसे नाच तमाशे की तरह बना दिया है।