रेहन पर रग्घू / खंड 1 / भाग 5 / काशीनाथ सिंह

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे?

पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे!

कई लोचे थे उसकी दुविधा में!

अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव महसूस किया था - मन उखड़ा-उखड़ा सा रहता था, कुछ खोया-खोया सा था, बेबात पर हँसी आती थी, किताब कापी कहीं रखती थी, ढूँढ़ती कहीं थी, हरदम गुनगुनाए जाने को जी चाहता था, बाहर आने पर सहेलियाँ हँसने लगी थीं - देखो, देखो। पैरों की चप्पलें - दो डिजाइनों की! क्लास कहानी का, किताब कविता की हाथ में! यही वे दिन थे जब नगर में आनेवाली कोई फिल्म उससे नहीं छूटती थी!

ऐसे ही में जाने कैसे कौशिक सर चुपके से आए और उसके दिल में आ बैठे!

कौशिक सर कविता के अध्यापक। बहुत गंभीर और चुप्पे और सिद्धांतवादी। पतले, लंबे, आकर्षक! अधेड़ और तीन बच्चों - बल्कि युवाओं के पिता! अद्भुत 'सेंस आफ ह्यूमर' के मालिक! उन्हें प्यार करने में कोई खतरा नहीं था! न खतरा, न किसी तरह का संदेह। उसने बहुत समझदारी और विवेक से काम लिया था अपना 'ब्वायफ्रेंड' चुनने में। लड़के लड़कियों में 'गासिप' की भी आशंका नहीं।

कौशिक सर कृतज्ञ और अभिभूत! अस्तप्राय जीवन का अंतिम प्यार - वह भी सरला जैसी सुंदर लड़की का! पचास पचपन की उमर में तो कोई सोच भी नहीं सकता था ऐसे भाग्य के बारे में!

सरला का मन बेचैन, देह बेचैन! महज प्यार भरी बातें और तड़प! और कुछ नहीं। यही तो सहेलियों के साथ भी हो रहा है। कुछ तो अलग हो - कौशिक सर विद्यार्थी थोड़े हैं! ऐसी ही इच्छा कौशिक सर की भी थी लेकिन नगर में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ कोई उन्हें जानता न हो!

निश्चित हुआ कि कौशिक सर एक दिन टैक्सी से 'अमुक जगह' पहुँचेंगे, वहीं से सरला को 'पिकअप' करेंगे और दो चार घंटे के लिए सारनाथ! फिर वहीं सोचा जाएगा 'एकांत' और 'निर्जन' के बारे में!

प्यार बंद और सुरक्षित कमरे की चीज नहीं। खतरों से खेलने का नाम है प्यार। लोगों की भीड़ से बचते बचाते, उन्हें धता बताते, उनकी नजरों को चकमा देते जो किया जाता है - वह है प्यार! शादी से पहले यही चाहती थी सरला। शादी के बाद तो यह विश्वासघात होगा, व्यभिचार होगा, अनैतिक होगा। जो करना है, पहले कर लो। अनुभव कर लो एक बार। मर्द का स्वाद! एक ऐडवेंचर! जस्ट फार फन!

सरला रोमांचित थी। नर्वस थी और उत्तेजित भी!

जिस दिन जाना था उससे पहले की रात। वह सो नहीं सकी ठीक से। नींद ही नहीं आ रही थी! कई तरह की बातें, कई तरह के खयाल, कई तरह की गुदगुदियाँ! अपने आप लजाती, अपने आप हँसती। उसने सोच लिया था कि अवसर मिलने पर भी इतना आगे नहीं बढ़ने देना है कौशिक सर को कि वे उसे गलत समझ बैठें! यह तो शुरुआत है...

अभी जाने कितनी मुलाकातें बाकी हैं! नहीं, अब कहाँ मुलाकातें? 'फेयरवेल' हो चुका है। दो चार दिन और चल सकते हैं क्लासेज, उसके बाद तो इम्तहान! फिर कहाँ संभव हैं भेंट? कौन सा बहाना रहेगा मिलने का?

कौशिक सर लोकप्रिय आदमी! विश्वविद्यालय के ही नहीं, नगर के भी! जाननेवाले बहुत-से। तरह तरह के लोग! इस बात का गर्व भी था सरला को कि वह जिसे प्यार करती है, वह कोई सीटी बजानेवाला, लाइन मारनेवाला सड़कछाप विद्यार्थी नहीं, विद्वान है!

कौशिक सर ने बड़ी सावधानी बरती थी - छुट्टी का दिन न हो, स्कूल कालेज खुले हों, ताकि छात्र-छात्राएँ पढ़ने में और अध्यापक पढ़ाने में व्यस्त हों, पिकनिक या भ्रमण का कार्यक्रम न बनाएँ, सारनाथ का मेला भी न हो उस रोज!

इसी सावधानी के साथ कौशिक सर सरला के साथ टैक्सी से पहुँचे चौखंडी स्तूप! सारनाथ से पहले! सड़क के किनारे पहाड़ीनुमा ढूह के ऊपर खँडहर जैसा टूटा फूटा स्तूप! खड़े हो जाओ तो पूरा सारनाथ ही नहीं, दूर-दूर तक के गाँव-गिराँव और बाग-बगीचे नजर आएँ! खाली पड़ा था स्तूप! नीचे चौकीदार, सिपाही, माली अपने अपने काम में लगे थे! एकदम निर्जन अकेला खड़ा था स्तूप! 'हिमगिरि के उत्तुंग शिखर' की तरह। कोई दर्शनार्थी नहीं!

मनु ने श्रद्धा को देखा!

श्रद्धा ने मनु को देखा!

दोनों ने टैक्सी सड़क के एक किनारे खड़ी की और चल पड़े। घुमावदार रास्ते से चक्कर काटते हुए! आगे-पीछे नहीं, अगल-बगल। साथ-साथ। हाथ में हाथ लिए! सरला अकेले में कौशिक सर को 'मीतू' बोलती थी। उस दिन वे सचमुच मीतू हो गए थे। सरला - जो हमेशा समीज-सलवार और दुपट्टे में रहती थी - वही सरला हरे चौड़े बार्डर की बासंती साड़ी में गजब ढा रही थी! बार्डर के रंग का साड़ी से मैच करता बलाउज और माथे पर छोटी-सी लाल बिंदी! हवा उड़ाए ले जा रही थी आँचल को जिसे वह बार बार सँभाल रही थी!

वे चढ़ाई खत्म करके स्तूप के पास पहुँचे और चारों तरफ नजर दौड़ाई - दोनों के मुँह से एक साथ निकला - 'जैसे अछोर, अनंत, असीम हरियाली का समुद्र! और उसमें पीले फूले हुए सरसों के जहाँ तहाँ खेत - ऐसे लग रहे हैं जैसे पालवाली हिलती-डुलती डोंगियाँ!' 'और हम?' सरला ने पूछा! कौशिक सर मुसकराए! बोले - 'मस्तूलवाले बड़े जहाज के डेक पर!'

स्तूप के इस तरफ छाया थी और उस तरफ कुनकुनी धूप! छाया लंबी होती हुई वहाँ तक चली गई थी जहाँ माली काम कर रहे थे। वे उस तरफ गए धूप में, जिधर समुद्र था और हिलती-डुलती पीली डोंगियाँ।

वे स्तूप से सटी साफ-सुथरी जगह पर बैठ गए - चुपचाप! वे चुप थे लेकिन उनके दिल बोल रहे थे - अपने आप से भी, और एक दूसरे से भी! उनके पास तो रह ही क्या गया था कहने-सुनने को? साल डेढ़ साल से यही तो हो रहा था - बातें, बातें, सिर्फ बातें। बातों से वे थक भी चुके थे ओर ऊब भी! सरला बगल में बैठी लगातार कौशिक सर को देखे जा रही थी और वे उसके देखने को देखते हुए दूब नोच रहे थे! फिर सहसा दिलीप कुमार स्टाइल में मुसकरा कर बोले - 'ऊँ? क्या कहा?' हँसते हुए सरला ने अपना सिर उनके कंधे पर रख दिया - 'बहुत कुछ? सुनो तब तो!'

वे दिल जो अब तक खँडहर के पीछे गुटर गूँ कर रहे थे, कुकड़ू कूँ करने लगे थे भरी दुपहरिया में! कौशिक सर ने सरला की पीठ के पीछे से हाथ बढ़ा कर उसकी सुडौल गोलाई मसल दी! सरला के पूरे बदन में एक झुरझुरी हुई और वह शरमाती हुई उनकी गोद में ढह गई!

अबकी कौशिक सर ने जरा जोर से मसला।

चिहुँक कर सीत्कार कर उठी सरला और आँखें बंद कर लीं - 'जंगली कहीं के!'

कौशिक सर ने सिर झुका कर उसकी आँखों को चूम लिया!

'यह क्या हो रहा है चाचा?' अचानक यह कड़कती आवाज और सामने खड़ा ऐतिहासिक धरोहर का पहरेदार या सिपाही खाकी वर्दी में!

दोनों के चेहरे फक्क्‌। काटो तो खून नहीं। कौशिक सर ने झटपट आँचल के नीचे से हाथ खींचा और सरला उठ बैठी - बदहवास। उनकी समझ में नहीं आया कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया? जरा-सी भी आहट मिली होती तो यह नौबत न आती!

घबड़ाए हुए कौशिक सर उस पहरेदार को ताकते रहे!

'देख क्या रहे हो, उठो; यह रंडीबाजी का अड्डा नहीं है! आओ!' वह मुड़ गया।

सरला आँचल में मुँह ढाँप कर रो रही थी! कौशिक सर ने किसी तरह उसे खड़ा किया और अपने पीछे आने का इशारा किया।

'अरे उधर नहीं, इधर! थाने पर!'

'थाने पर क्यों, ऐसा क्या किया है हमने?' हिम्मत जुटाई - कौशिक सर ने!

'वहीं पता चलेगा चाचा कि क्या किया है तुमने? कहाँ से फाँसा है इस लौंडिया को?'

अब तक 'चाचा' और 'रंडीबाजी' - ये अपमानजनक शब्द थे जो कौशिक सर के कानों में गूँज रहे थे लेकिन अब यह 'थाना' - 'थाना' माने बहुत कुछ! जलालत। हवालात। अखबारों की सुर्खियाँ। युनिवर्सिटी में चर्चे। समाज का कोढ़। नौकरी से सस्पेंशन। किस मुँह से परिवार में जाएँगे? और यह सरला? इसका क्या होगा? किस मुसीबत में आ फँसे उसके चक्कर में?

सरला सुबकना बंद कर के एक किनारे खड़ी थी और पहरेदार हाते के गेट के पास! थाना ले चलने की मुद्रा में। चौकीदार और माली भी उसके पास आ गए थे और रोक रहे थे - अरे, छोड़ो भई। जाने दो! उमर देखो चाचा की। काहे पानी उतार रहे हो एक बुर्जुग का! कह भी रहे थे और मजा भी ले रहे थे।

कौशिक सर घबड़ाये हुए सरला के पास आए - 'परेशान न हो! अभी देखते हैं। सब ठीक हो जाएगा।' सरला गुस्से में। उसकी नजरें पहरेदार और मालियों पर टिकी थीं।

कौशिक सर गेट पर खड़े पहरेदार को अलग ले गए और फुस फुस बातें करने लगे। बीच बीच में वह उखड़ जाता और हाथ छुड़ा कर भागने लगता! कौशिक सर ने उसे सौ सौ के दो नोट पकड़ाए जिन्हें उसने फेंक दिया और मालियों की ओर इशारा करते हुए पाँच उगलियाँ दिखाईं - 'नहीं चाचा, नहीं होगा इससे। थाने चलिए?'

'बस्स! बहुत हो चुका यह नाटक!' सरला लगभग दौड़ती हुई उन दोनों के पास पहुँची - 'कैसे ये रुपए? तुम हमसे बात करो अब?'

उसने अचकचा कर कौशिक सर को देखा - 'इनका सुनो चाचा।'

'चाचा होंगे तुम्हारे, मेरे दोस्त हैं, प्रेमी हैं। हमने प्रेम किया, चूमा अपनी मर्जी से। किसी ने किसी के साथ बलात्कार नहीं किया, किसलिए थाने?'

'चलो तो वहीं बताते हैं।' वह चल पड़ा।

आगे खड़ी हो गई सरला रास्ता रोक कर - 'कोई नहीं जाएगा थाने-वाने! न तुम, न हम। एस.पी., कलक्टर, आई.जी. - जिसे बुलाना हो यहीं बुलाओ! समझ क्या रखा है तुमने?'

वह हक्का-बक्का। ताकता रहा कभी कौशिक सर को, कभी सरला को। माली और चौकीदार भी आ गए इस बीच।

'किसने देखा इश्क लड़ाते हुए? यह चौराहा है? बाजार है यह जहाँ रेप हो रहा था? फँसाना चाहते हो रुपयों के लिए? तुम हमें क्या ले जाओगे, हम ले चलेंगे तुम्हें!'

मामले के इस नए पेच को देखते हुए माली बीच-बचाव में आए और उन्होंने निष्कर्ष दिया कि गलतियाँ इनसान से ही होती हैं इसलिए छोड़िए, हटाइए और अपना-अपना काम देखिए!

कौशिक सर जब तक गिरे हुए रुपए उठाते रहे तब तक सरला टैक्सी में बैठ चुकी थी! कौशिक सर उसके बगल में बैठते हुए बोले - 'मैं नहीं जानता था कि इतनी बहादुर हो तुम?'

'मैं भी नहीं जानती थी कि इतने डरपोक और कायर हैं आप!'

टैक्सी वापस लौटी। दोनों एक दूसरे से रास्ते भर नहीं बोले।

यह एक डरावना दुःस्वप्न था - जिसने एक लंबे समय तक पीछा नहीं छोड़ा सरला का।

दुःस्वप्न में पहरेदार का चेहरा ही नहीं था केवल, हथेलियों की छुअन और मसलन भी थी।