रेहन पर रग्घू / खंड 1 / भाग 6 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने!

वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल की अध्यापिकाएँ रहती थीं - बाईं तरफ मीनू तिवारी और दाईं तरफ बेला पटेल। मीनू स्कूल की वाइस-प्रिंसिपल थी और वह उसका अपना फ्लैट था - खरीदा हुआ! उसी ने सरला को अपने बगल में दिलवाया था किराए पर!

मीनू बलकट्टी थी - कंधों तक छोटे-छोटे बाल! एकदम लाल मेहँदी से रँगे! उम्र चालीस से ऊपर। स्वभाव से सीरियस और रिजर्व्ड। एक हद तक असामाजिक! किसी के शादी ब्याह में तो नहीं ही जाती थी, आयोजनों में भी शामिल होने से बचती थी। घर से स्कूल, स्कूल से घर, बस यही आना-जाना था। मजबूरी में ही हँसती थी। सहेली भी नहीं थी कोई जिसके साथ उठना-बैठना हो! उम्र के बावजूद उसका गोरा सुडौल बदन आकर्षक था।

वह कुमारी थी। अकेली रहती थी। उसके दो पामेरियन कुत्ते थे - एक काला, दूसरा सफेद! बेटे या बेटियाँ कहिए - ये ही थे। इन्हें ले कर वह दिन में दो बार बाहर निकलती थी, टहलाने या नित्य कर्म कराने। पिंजरे में एक तोता भी था जो किसी के घर में घुसने और जाने के समय बोलता था। उसके इस टें टें को वह 'सुस्वागतम' और 'टा टा' बताती थी। उसकी सारी चिंताएँ इन्हीं को ले कर थीं। 'क्या बताएँ, आज पम्मी दिन भर से गुमसुम है!' 'आज टूटू की नाक बह रही है।' 'पम्मी का पेट खराब है।' 'दोनों में बातचीत बंद है।' 'टूटू पम्मी से किस बात पर नाराज है, बता नहीं रहा है!' 'दोनों मेरे पास सोने के पहले झगड़ा करते हैं, पता नहीं क्यों?' इसी तरह की चिंताएँ। कातिक के पहले से ही वह उनके लिए परेशान होना शुरू हो जाती थी और तब तक रहती थी जब तक पिल्ले नहीं हो जाते थे और जब हो जाते थे तो कई रोज सोहर के कैसेट बजाती थी और फिर नई परेशानियाँ ......

मीनू के घर बाहर से आने वाले सिर्फ दो मर्द थे - एक उसका भाई। वह मीनू से बड़ा था और वकालत करता था! वकालत चलती थी या नहीं - ठीक-ठीक नहीं मालूम! वह हर महीने के पहले सप्ताह में आता था और जब आता था तो देर तक भाई-बहन में चख-चख होती थी। उसके जाने के दो तीन दिनों बाद तक मीनू का मूड खराब रहता था!

दूसरे थे पशुओं के डाक्टर। वे मीनू की ही उमर के या उससे थोड़े बड़े थे। काफी टिप-टाप से रहते थे, बाल डाई करते थे और सफारी सूट पहनते थे! वे गर्मी की छुट्टियों में दोपहर में आते थे जब प्रायः लोग बाहर निकलने से बचते हैं। वे आते और शाम पाँच बजे से पहले चले जाते! जाड़े के मौसम में कभी-कभी मीनू के घर रात के भोजन पर आते। जब वे जाने लगते तो मीनू बालकनी पर खड़ी हो कर देर तक हाथ हिलाती रहती!

इसी बालकनी के बगल में सरला की बालकनी थी जहाँ कभी-कभी खड़ी हो कर दोनों पार्क का नजारा लेती थीं। मीनू की इच्छा के अनुसार सरला उसे स्कूल में मैडम कहती थी और घर पर दीदी! दीदी उसे सल्लो बोलती थी!

वे बालकनी में खड़ी हो कर जो देख रही थीं, वह हफ्ते भर से देख रही थीं!

हर शाम छह बजे के करीब सोलह-सत्तरह साल का एक लड़का पार्क में आता था - गुलदाउदी का बड़ा-सा खिला हुआ फूल ले कर और बैठ कर उसकी पँखुड़ियों पर कुछ लिखता था और इंतजार करता था बी ब्लाक की बालकनी में एक लड़की के आने का! वह शायद दक्षिण भारतीय लड़की थी! वह ब्लाउज और स्कर्ट में आ कर खड़ी हो जाती - लहरदार बालों में एकदम फ्रेश जैसे नहा कर निकली हो! लड़का घूमता, पीठ उसकी तरफ करता और उछल कर पैर से ऐसी किक मारता कि फूल उसकी बालकनी में गिरता! लड़की लाल पोलीथिन में लिपटा फूल उठाती और अपनी गोलाइयों के बीच ब्लाउज के अंदर रख लेती!

घास पर चित गिरा लड़का उठता और उसकी ओर 'किस' उछालता!

जवाब में लड़की मुसकराती, लजाती और होंठों से चुंबन लहरा देती!

'सल्लो! बहुत दिन हो गए तुम्हें काफी पिलाए! आओ न!' एक दिन मीनू ने सरला से कहा! यह वह दिन था जब लड़की ने चुंबन के उत्तर से ही संतोष नहीं किया, गुनगुना कर भी जवाब दिया किन्हीं वक्तों के गाने से - 'छोटी सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल।'

सरला जब पहुँची तो मीनू किचेन में थी। वह थोड़ी देर बाद काफी के दो मग के साथ ड्राइंग रूम में आई - चुप और संजीदा! गई और एक शीशी भी ले आई ब्रांडी की जिसे डाक्टर छोड़ गए थे उसके लिए। उसने एक चम्मच इसमें और एक चम्मच उसमें ब्रांडी डाली और उसका लाभ बताया। इसी समय टूटू आई और मीनू की गोद में बैठ गई। मीनू उसे देर तक सहलाती और प्यार करती रही - 'देखना, एक न एक दिन मार दिया जाएगा यह लड़का! इतना प्यारा लड़का!'

'यह कैसे कह सकती हैं आप?'

मीनू चुप रही, फिर सुबकने लगी - 'नहीं, सल्लो, यही होता है - यही होगा!'

'यह भी तो हो सकता है कि लड़की किसी दूसरे के घर चली जाए या लड़का किसी और को घर बिठा ले! और यह भी तो हो सकता है कि दोनों शादी कर लें।'

'यह तो और बुरा होगा!'

'क्यों?'

'अपने ही बगल में बेला को देख लो! उसने प्रेम विवाह ही किया था न उस पटेल से? पी.सी.ओ. चलाता था और रहता ऐसे था जैसे लाट साहब का नाती! उस पर पागल हो गई थी बेला! ऐसा भी सुना है कि शादी के लिए जहर खाया था उसने! शादी हुई और देखो - रोज-रोज किच-किच, गाली-गलौज, मार-पीट, रोना-पीटना। किसी मर्द से कहीं हँस कर बोल-बतिया ले तो जीना मुश्किल! स्कूल भी देखे, तीनों बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाए और पटेल को भी खुश रखे! देखा होता पाँच-सात साल पहले उसे, क्या फिगर थी और क्या निखार था!'

'सिर्फ एक बेला के आधार पर तो यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता दीदी!'

'एक बात गाँठ बाँध लो सल्लो, तुम दोनों एक साथ कर ही नहीं सकतीं। यह समाज ही ऐसा है। प्रेम करो या विवाह करो। और जिससे प्रेम करो उससे ब्याह तो हरगिज मत करो! ब्याह की रात से ही वह प्रेमी से मर्द होना शुरू कर देता है। अगर मुझसे पूछो तो मैं हर पत्नी को एक सलाह दे सकती हूँ। वह अपने पति को अपने से बाहर - घर से बाहर - अगर वह पति का प्यार पाना चाहती है तो - घर से बाहर प्रेम करने की छूट दे; उकसाए उसके लिए! क्योंकि वह कहीं और किसी को प्यार करेगा, तो उसके अंदर का कड़वापन रूखापन भरता रहेगा और इसका लाभ उसकी बीवी को भी मिलेगा! बीवी ही नहीं, बच्चों को भी मिलेगा! समझी?'

'और पत्नी भी ऐसा ही करे तो?'

'तो जीवन भर नर्क भोगने के लिए तैयार रहे! पति तो पति, बच्चे तक माफ नहीं करेंगे इसके लिए!'

सरला कहीं न कहीं इन बातों के आईने में अपने भविष्य का रास्ता ढूँढ़ रही थी, मीनू को नहीं मालूम!

'रुको जरा एक मिनट।' मीनू उठी, 'मिट्ठू देर से टाँय-टाँय कर रहा है। उसके डिनर का समय हो गया है!' उसने कटोरी से भिगोए चने, हरी मिर्च, रोटी का टुकड़ा लिए और पिंजड़े में डाल दिए। तोता मारे खुशी के उछलता और शोर मचाता रहा इस बीच। पम्मी और टूटू ने सिर उठा कर एक बार देखा और फिर अपनी अपनी कुर्सी पर सो गए!

'बैठो, जा कहाँ रही हो?' सरला को खड़ी देख कर मीनू बोली!

'बैठ कर क्या करूँगी, आप बताएँगी तो है नहीं!'

'क्या?'

'यही कि आपने शादी क्यों नहीं की? इस उमर में भी जब आप ऐसी हैं तो पंद्रह साल पहले? सिर्फ सुनती हूँ लोगों से - तरह-तरह की बातें....'

'छोड़ो, जाने दो। कुछ नहीं रह गया है बताने को।' मीनू सिर झुकाए बुदबुदाई। गले से एक लंबी साँस निकली, और आँखों के सहारे छत के पंखों पर जा टिकी। वह हलके से मुसकराई और सूनी आँखों सरला को घूरती रही - 'प्यार कोई क्यों करेगा? क्या करेगा? जब तक जाति और धर्म है तब तक कोई क्या करेगा प्यार? इसी नासमझी का नतीजा भोगा मैंने। लेकिन अपने को रोकना अपने वश में था क्या? हम छह लड़कियाँ थीं और एक साथ किराए पर कमरे ले कर रहती थीं। एक कमरे में दो दो। वहीं से जाती थी कालेज पैदल! बीच में पड़ता था एक मिशनरी हास्पिटल! उसी के गेट के पास खड़ा रहता था माइकेल कर्मा। लंबा पतला। ताँबई रंग। नीग्रो जैसे उभरे कूल्हे और चीते जैसी कमर। टी शर्ट और जींस में। ठोढ़ी पर थोड़ी-सी दाढ़ी और सिर पर खड़े बाल! नगर में सबसे अलग।'

उसने फिर उसाँस छोड़ी और अपने पैरों की - फर्श की तरफ देखने लगी - चुप! उसकी आँखें भर आईं - 'मर्द की देह का भी अपना संगीत होता है। राग होता है! उसके खड़े होने में, मुड़ने में, चलने में, देखने में। बोले न बोले, सुनो तो सुनाई पड़ता है! उस राग को तुम्हारा मन ही नहीं सुनता, तुम्हारे ओठ भी सुनते हैं, बाँहें भी सुनती हैं, कमर भी, जाँघें भी, नितंब भी - यहाँ तक कि छातियाँ भी। 'निपुल्स' कभी-कभी ऐसे क्यों अपने आप तन जाते हैं जैसे कान लगा कर सुन रहे हों - बिना उसकी देह को छुए? वह तीन महीने तक वहीं खड़ा रहा मेरे आते-जाते समय! और जैसे सुबह सुबह अचानक पत्ते पर ओस की बूँद थरथराती और चमकती दिखाई पड़ती है, वैसे ही मैं थी पत्ते की तरह! कब इतनी ओस गिरी कि मैं भीग कर तरबतर हुई - मुझे पता नहीं! सिर्फ इतना पता है कि मैं तो सिर्फ भीगी थी, माइकेल तो डूब चुका था!'

एक दिन सहसा मैंने खुद को उसकी मोटरबाइक के पीछे बैठा पाया। पूछा - 'कहाँ जा रहे हो?' उसने कहा - 'मालूम नहीं!' मैं बैठी नहीं थी, उड़ रही थी उसके डैनों के सहारे! वह आदिवासी - जंगल का पत्ता-पत्ता उसे जानता था, हर पगडंडी उसे पहचानती थी। उसने एक बाजरे के खेत में बाइक खड़ी कर दी - 'उतरो, मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ।' मैं कुछ कहूँ, रोकूँ-टोकूँ इसके पहले ही उसने मेरी साड़ी खोल दी। बोला - 'ब्लाउज खोल दो, नहीं तो बटन टूट जाएँगे।' ब्रा उसी ने खोले - हठ करके! 'बस हिलो मत!' दो कदम पीछे हट गया उलटे पाँव और ऊपर से नीचे तक देखा। मैं अपने हाथों से खुद को ढँकने की कोशिश किए जा रही थी लेकिन बेकार! 'कहो तो छू भी लूँ जरा-सा।' हालत ऐसी थी कि कौन कहे और कौन सुने? थोड़ा-सा झुक कर उसने अपने ओठों से छातियों की खड़ी घुंडियों को बारी-बारी से दबाया, चूमा और सहलाया जीभ से और कहा - 'चलो, पहनो अब?'

'अब कहाँ?' उसने उत्तर दिया - 'विंढम फाल! कोई नहीं होगा इस वक्त! वहीं नहाएँगे!'

'कपड़े कहाँ लाए हैं?'

'नहाने के लिए कपड़ों की क्या जरूरत?'

मीनू बोलती भी रही, लजाती भी रही। कभी चेहरा लाल होता, कभी स्याह पड़ता। कभी आँखें झुकतीं, कभी खुलतीं, कभी बंद होतीं! वह आगे बताने से पहले हिचकिचाई थोड़ी - 'बाइक कहाँ छोड़ी, झरने के मुहाने पर कैसे पहुँचे - एक रहस्यलोक था मेरे लिए और वहाँ एक दिन एक रात रुक कर क्या-क्या किया, क्या-क्या हुआ यह न पूछो। वह सब जैसे पिछले जन्म की बातें हों। माइकेल के साथ ही हम आदिवासी नहीं, आदिमानव हो गए थे। आदमजात नंगधड़ंग। जंगलों में, नदियों के किनारे। पेड़ों के गिर्द गिलहरियों की तरह दौड़ते-भागते रहे। खरगोशों की तरह उछलते-कूदते रहे। झरने में मछलियों की तरह तैरते नाचते रहे। धारा के बीच पत्थरों पर मगर घड़ियाल के बच्चों की तरह धूप सेंकते रहे! क्या क्या नहीं किया हमने? कहते हुए शर्म आ रही है मुझे कि दूसरे दिन दोपहर से पहले ही उसी के शब्दों में कहूँ तो मेरा सोता रिसने लगा लेकिन उस हालत में भी नहीं छोड़ा उसने। इसे ऐसे समझो कि जब मैंने ही नहीं छोड़ा तो माइकेल क्यों छोड़ता? ..... तो वह एक दिन एक रात! बस वही मेरी जिंदगी है।'

सरला सिर झुकाए सुनती रही। मीनू के चुप हो जाने के बाद पूछा - 'फिर?'

'फिर क्या? गए तो दो बार और, लेकिन पिकनिक के सीजन में - भीड़भाड़ में और वही गलती हुई। जाने कैसे खबर लग गई पिता जी को। एक दिन वे आए और कहा - 'अब बहुत कर लिया बीएड., घर चलो!' रो-धो कर किसी तरह इम्तहान दिया और यही भाई था मेरा बाडीगार्ड, जो हर महीने रंगदारी टैक्स ले जाता है!'

'लेकिन शादी क्यों नहीं की उससे?'

'शादी जब पिता जी ने करनी चाही, तब मैंने नहीं की और जब मैंने करनी चाही तब काफी देर हो चुकी थी! और यह भाई! अगर कर लेती तो इसकी आय के स्रोत का क्या होता? नहीं होने दी इसने किसी न किसी बहाने।'

'नहीं, मैं यह पूछ रही हूँ कि माइकेल से क्यों नहीं की?'

'माइकेल!' वह उदास हो गई, 'सोचा था कि अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद करूँगी। और खड़ी भी हो गई पैरों पर! उसकी मानसिक हालत मुझसे भी बुरी थी और जल्दी मचा रहा था। हमने योजना बना ली, तारीख तय कर दी - पहले मंदिर, फिर चर्च, कि सुना - विंढम में उसने काफी ऊपर से छलाँग लगा ली! लोग छलाँग लगाते हैं स्विमिंग पूल में, नदी में, तालाब में - नुकीले चुखीले पत्थरों से पटे झरने में छलाँग लगाते कभी किसी को नहीं सुना! वह इतना मूर्ख भी नहीं था। यह रहस्य छोड़ गया वह जाते जाते कि वह छलाँग ही थी या कुछ और?'

'मान लीजिए अगर वह जीवित रहता और उससे शादी कर लेतीं तो?'

'तो?'

'तो संतुष्ट रहतीं, सुखी रहतीं?'

'देखो सल्लो, सवाल तो बेवकूफाना है। यह कौन बता सकता है कि ऐसा होता तो कैसा होता? जो हुआ ही नहीं, उसके बारे में क्या कहना? हाँ, यही सवाल पहले कभी किया होता तो उत्तर शायद दूसरा होता। समय के साथ सोच भी बदलती जाती है। आज मैं यही कह सकती हूँ कि प्यार को प्यार ही रहने दो। उसे ब्याह तक न ले जाओ या ब्याह का विकल्प मत बनाओ। अपने ही बगल में बेला पटेल से पूछो। उसने जिसे प्यार किया उसी से शादी की। अब पाँच साल बाद फिर प्यार के लिए क्यों बेचैन है?

'सुनो, प्यार एक अनवरत खोज है। खोज किसी और की नहीं, खुद की! हम स्वयं को दूसरे में ढूँढ़ते हैं, एक बिछड़ जाता है या छूट जाता है तो लगता है जिंदगी खत्म। जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता! आँखों के आगे शून्य और अँधेरा! हर चीज बेमानी हो जाती है। लेकिन कुछ समय बाद कोई दूसरा मिल जाता है और नए सिर से अँखुआ फूट निकलता है! यह दूसरी बात है कि दूसरा भी स्वयं को ढूँढ़ते हुए टकराता है! सच कहो तो प्यार की खूबसूरती हर बार उसके अधूरेपन में ही है! उसकी यानी प्यार की उम्र जितनी ही छोटी हो उतनी ही चमक और कौंध! अगर लंबी हुई तो सड़ाँध आने लगती है! यह जरूर है कि इसे छोटी या लंबी करना हमारे वश में नहीं होता।'

सरला का दिमाग चकराने लगा। बहुत देर से बैठे-बैठे या सुनते-सुनते जबकि शुरू इसी ने किया था। मीनू ने भाँपा और पूछा - 'क्या बात है? क्या सोच रही हो?'

सरला दयनीय हँसी के साथ बोली - 'कुछ नहीं! आपने बढ़ा दी मेरी उलझन!'