रेहन पर रग्घू / खंड 1 / भाग 7 / काशीनाथ सिंह

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने!

बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने।

यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ में आते आते फिसल जाती थी! छह साल हो रहे थे लड़का ढूँढ़ते-ढूँढ़ते! जैसे-जैसे सरला की उमर बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे उनकी परेशानी बेचैनी और दौड़-धूप भी बढ़ती जा रही थी! शुरू किया था आई.ए.एस. और पी.सी.एस. से लेकिन उनके रेट इतने हाई कि जल्दी ही ठंडे पड़ गए! पच्चीस लाख से ले कर एक करोड़ तक - यह रकम उन्होंने सपने में भी नहीं देखी थी। भरोसा था तो अपनी बेटी के रूप-गुण और योग्यता का जिसे न कोई पूछ रहा था, न देख रहा था!

इसी दौड़-धूप में उन्हें तो सिर्फ छह साल लगे थे लेकिन बेटी तीस से ऊपर चली गई थी! नौबत यहाँ तक आ पहुँची थी कि अब जो लड़के मिल रहे थे, उनकी उमर बेटी से कम।

बेटी उस इलाके की पहली एम.ए., बी.एड.। सर्विस में आ गई थी और जब से आई थी आत्मविश्वास से भरपूर थी! पापा-मम्मी की परेशानी देख कर कभी कभी माँ से मजाक में कहती - 'पापा मेरे लिए लड़का ऐसे ढूँढ़ रहे हैं जैसे कोई गाय के लिए साँड़ ढूँढ़ता है।' एक बार तो उसने माँ-बाप को मुँह लटकाए देख कर सीधे रघुनाथ से ही कहा - 'आप तो बाजार के नियम के विरुद्ध काम कर रहे हैं। जब कोई अपनी जिंस बेचता है तो बदले में खरीदार से उसकी कीमत वसूलता है। और आप हैं कि अपनी जिंस भी बेच रहे हैं और उसकी कीमत भी अदा कर रहे हैं।' जब रघुनाथ ने उसे डाँटा तो उसने कहा - 'पापा, आप खामखाह परेशान हैं, मुझे शादी ही नहीं करनी।'

हर लड़की ऐसा ही बोलती है - कभी माँ-बाप की चिंता देख कर, कभी शालीनता और संकोच में, कभी खिझलाहट में, कभी विवाह में देर होते देख कर - इससे रघुनाथ की परेशानी कम होने के बजाय बढ़ ही जाती थी!

ऐसे ही वक्त पर मैनेजर का प्रस्ताव आया था अपनी बेटी के लिए! जब वे निराश हो चले थे आजमगढ़वाली शादी को ले कर! लड़का सेल्स टैक्स अफसर लेकिन खर्च लगभग दस-ग्यारह लाख! उनके अपने इस्टीमेट से दुगुना। लेकिन मैनेजर की भलमनसाहत और बड़प्पन - कि मेरे रहते चिंता किस बात की? अपने बड़े बेटे के बरच्छा के नाम पर मुझसे दस लाख ले कर पहले बेटी की शादी कर लो, बेटे की बाद में कर लेना। ऐसे भी यह अच्छा नहीं लगता कि जवान बेटी घर में हो और बेटा शादी कर ले!

इसे कहते हैं बड़प्पन और इसी को कहते हैं भाग्य! कहाँ मैनेजर और कहाँ उन्हीं के कालेज के मास्टर रघुनाथ!

पूरे जनपद में फैल गई थी यह खबर और हर आदमी इस मुहूर्त का इंतजार कर रहा था - कि संजय ने सारा कुछ मटियामेट कर दिया!

अब रघुनाथ कौन-सा मुँह ले कर जाएँ मैनेजर के पास ?

उसी बेटे ने - जिस बेटे पर उन्हें भरोसा और गुमान था - उसी बेटे ने उनकी जुबान काट कर उस सक्सेना को दे दी जिससे उनकी न जान थी, न पहचान थी!

किसी तरह से साहस जुटा कर रघुनाथ गए मैनेजर के घर।

बँगले के सामने बने अपने नए कॉटेज में बिस्तर पर अधलेटे मैनेजर किसी से फोन पर बातें कर रहे थे! उन्होंने रघुनाथ की ओर कोई ध्यान नहीं दिया! मैनेजर आधे घंटे तक कभी इससे कभी उससे बातें करते रहे, फिर नहाने चले गए!

नहा-धो और पूजा-पाठ करके दो घंटे बाद आए तो रघुनाथ को बैठे हुए देखा।

'आए कैसे?'

'अपने स्कूटर से!'

'क्यों? कार कहाँ गई?'

'कार कहाँ है?'

'क्यों? उसे अमेरिका ले गया क्या बेटा?' हँसते हुए मैनेजर सोफा पर बैठ गए और टाँगें मेज पर फैला दीं - 'मास्टर, शादी तुम्हारे बेटे ने की, बधाइयाँ मुझे मिल रही हैं। सभी बोल रहे हैं कि कितना अच्छा हुआ कि घटिया आदमी का समधी होने से आप बाल-बाल बचे।'

रघुनाथ गुनहगार की तरह सिर झुकाए चुपचाप सुनते रहे।

'मास्टर, जो भी होता है, अच्छा होता है! शुरू से ही मेरे मन में हिचक थी! जो भी सुनता था, अचरज करता था और आपके भाग्य को सराहता था! कहते थे लोग कि क्या देख कर शादी की सोची है आपने? कोई तो मेल हो? कहीं तो मेल हो? सभी रिश्तेदार, दोस्त मित्र नाखुश! मैंने कहा - नहीं, संकट में है रघुनाथ! चाहे जैसा हो, है तो मेरे ही कालेज का। ऐसे वक्त पर मैं मदद नहीं करूँगा तो कौन करेगा? तो मैंने वह करना चाहा जो मेरे जमीर ने कहा। लेकिन तुम्हारी किस्मत ही खोटी थी तो मैं क्या करता?' वे रुक कर बाहर देखने लगे!

बाहर दरवाजे के सामने ही बोलेरो खड़ी थी और घुर्र-घुर्र कर रही थी! शायद कहीं जाना था मैनेजर को! उन्होंने ड्राइवर को डाँट कर गाड़ी चुप कराई।

बँगले और कॉटेज के बीच टिन का लंबा शेड था जिसके नीचे कार, ट्रैक्टर, ट्राली और मोटरबाइक साइकिलें खड़ी थीं। बोलेरो वहीं से लाई गई थी।

'रघुनाथ, गलती तुम्हारे बेटे ने की लेकिन मुझे क्रोध उस पर नहीं, तुम पर है! इसलिए कि तुमने मुझसे छिपाया। तुम जानते हो मैं कभी किसी का अहित नहीं करता! जहाँ तक बन पड़ता है मदद ही करता हूँ। बराबर ध्यान रखता हूँ कि अपनों को कोई तकलीफ न हो। लेकिन तुमने छिपाया और उसी का दुःख है और क्रोध भी है! तुम्हें बता देना चाहिए था कि तुम्हारा बेटा तुम्हारे कहने में नहीं है। यही नहीं, यह भी कह देने में कोई हर्ज नहीं था कि वह चरित्रहीन और भ्रष्ट है! यह घर की बात थी, मुझे बताने में किस बात का डर और संकोच? मैं तुम्हें खा तो नहीं जाता?'

रघुनाथ नीचे देखते हुए चुप रहे। उनमें यह साहस नहीं था कि कह दें - ये दोनों इलजाम सरासर गलत हैं! लेकिन यह कहने पर अनर्थ हो जाता। मैनेजर का क्रोध क्या रूप लेता, कहना कठिन था! उन्होंने जलील होने में ही अपनी भलाई समझी और मैनेजर उसी रौ में सुनाते रहे।

'अभी तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे साथ क्या किया है? अपनी नासमझी में तुम्हें कितनी मुसीबत में डाल दिया है। तुम्हारी बेटी अभी कुँवारी है। ईश्वर न करे कि कुँवारी ही रह जाए! ऐसा अकारण नहीं कह रहा हूँ! तुम्हें तब पता चलेगा जब बेटी के लिए वर देखने निकलोगे! जहाँ जाओगे, और बातों से पहले लोग यही पूछेंगे कि आपके रिश्ते कहाँ-कहाँ हैं? बताना तो पड़ेगा ही कि बेटे ने कायथ लड़की से शादी की है, समधी लाला है! बताओगे या छिपा जाओगे? ऐसी बातें छिपतीं तो हैं नहीं! तुम छिपाओगे तो वे दूसरे से पता कर लेंगे! जानते ही हो, जो भी रिश्ता करता है, ठोंक-बजा के करता है!'

रघुनाथ उठ खड़े हुए और हाथ जोड़ दिए - ' ठीक है, चलता हूँ।'

'अरे बैठो। ऐसी क्या जल्दी?'

'नहीं, जरूरी काम है, अब देर हो रही है!'

'अच्छा, जाओ।' मैनेजर भी साथ में उठ खड़े हुए - 'अच्छा, यह बताओ, तुम्हारा रिटायरमेंट कब है?'

रघुनाथ चौंके और उन्हें देखने लगे!

'इसलिए पूछा कि प्रिंसिपल साहब ने बताया - तुम्हारा मन नहीं लग रहा है पढ़ाने में। अक्सर क्लास छोड़ रहे हो और बाहर ही रहते हो!'

'ऐसा तो नहीं है! जरूरत पड़ने पर एक्स्ट्रा क्लासेज लेता हूँ और कोर्स पूरा करता हूँ! रिजल्ट कभी खराब नहीं आता मेरे लड़कों का!'

'ठीक है! मगर मैं दो बार गया इस बीच और दोनों बार पाया गैरहाजिर! खैर, यह आप और प्रिंसिपल साहब के बीच की बातें हैं, हमसे क्या मतलब?' कहते हुए मैनेजर बोलेरो में बैठ गए!

रघुनाथ कुछ कहना चाहते थे लेकिन चुप रहे!

गाड़ी के स्टार्ट होने के पहले मैनेजर ने नौकर को आवाज दी - 'भोलू! मास्टर साहब खाना चाहें तो खिला देना, हमें देर हो सकती है!'

रघुनाथ लौट पड़े। उन्हें बार-बार लग रहा था कि आ कर उन्होंने गलती की - नहीं आना चाहिए था!