रेहन पर रग्घू / खंड 1 / भाग 8 / काशीनाथ सिंह

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को।

पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदलनी पड़ती थी - बस! लेकिन साल दो साल से आना उसने एकदम से कम कर दिया था! इसलिए कि सरला को लगता था कि उसके आने पर माँ बाप खुश होने के बजाय चिंतित और परेशान हो उठते हैं, जैसे बेटी नहीं, समस्या आ गई हो; जैसे कह रही हो - लो, देख लो! बुढ़िया तो हो गई, अब भी नहीं तो कब करोगे शादी?

रघुनाथ गाजीपुर आजमगढ़ होते हुए सुबह ही लौटे थे!

वे अपनी ओर से मन बना कर आए थे - दोनों में से एक; जिसे शीला और सरला 'हाँ' कर दें। वे दोनों के बारे में शीला से बात कर चुके थे। खर्च के मामले में दोनों महज बीस उन्नीस की शादियाँ थीं! आठ से दस लाख के बीच। वे साल भर से लगे हुए थे इनके पीछे और अब 'फाइनल' करने का समय आ गया था।

आजमगढ़ का लड़का 'सेल्स टैक्स अफसर' । फिलहाल इलाहाबाद में कार्यरत। खानदानी कुलीन स्वतंत्राता सेनानी वीर कुँवर सिंह का रिश्तेदार। पिता काशी ग्रामीण बैंक में खजांची। 'ईमानदारी' और 'मददगार' की छवि बनाए रखने के साथ पाँच साल के अंदर आजमगढ़ शहर में दुमंजिली कोठी! लड़के के दो छोटे भाई और दो छोटी बहनें। माँ जीवित। लड़का कुछ नहीं तो कम से कम एडीशनल कमिश्नर हो कर रिटायर करेगा। उसने अनौपचारिक रूप से लड़की देख ली थी और पसंद की थी।

लड़के की तरफ से मामला फँसा हुआ था लड़की की नौकरी को ले कर - कि दोनों में से नौकरी कोई एक ही करेगा। लड़की अगर नौकरी करना भी चाहे तो तब करे जब बच्चे स्कूल जाने लायक हो जाएँ! यह शर्त ऐसी थी जिसे सरला मानेगी - इसमें संदेह था रघुनाथ को।

कुछ बातों को ले कर शीला भी असमंजस में थी - लड़का सबसे बड़ा बेटा। दो देवर होंगे और दो ननदें। देवरों को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ सकती है भाभी को! ननदें स्वभाव से ही किचकिची होती हैं - जलनेवाली और एक न एक बखेड़ा खड़ी करनेवाली! झंझटिया! बड़ी होने के कारण उनके शादी ब्याह में कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा! सास भी अभी मरी नहीं है - झगड़ालू और हर बात में मीन-मेख निकालनेवाली हुई तो भारी मुसीबत! हो सकता है, बुढ़ौती बड़ी पतोह के साथ काटने की सोचे! सरला अलग नौकरी करती रहे तब भी ये झंझटें कम नहीं होनेवाली। उसने तय किया था कि बेटी से समझ बूझ कर ही फैसला करना ठीक होगा!

दूसरी शादी गाजीपुर की। इससे उलट। लड़का इलाहाबाद में पाँच साल से कोचिंग करते हुए लोक सेवा आयोग की परीक्षाएँ दे रहा था! आई.ए.एस. की भी और पी.सी.एस. की भी! पिछली बार इंटरव्यू तक जा कर छँटा था! गोरा, लंबा, खूबसूरत। देर सबेर कहीं न कहीं चयन निश्चित था। रघुनाथ दुबारा वह गलती नहीं दुहराना चाहते थे जो एक बार कर चुके थे। दो साल पहले! जब लड़का कंपटीशन दे रहा था तो शादी मुफ्त थी, बेरोजगार समझ कर नहीं की इन्होंने लेकिन जब तीन महीने बाद ही 'सेलेक्ट' हो गया तो कीमत पचास लाख! हाथ से निकल गई शादी।... तो इसे कुछ न कुछ बनना ही है देर सबेर! पिता जीवन बीमा निगम में उपप्रबंधक! बेटा इकलौता - न भाई, न बहन! पिता के एक बड़े भाई - वह भी नावल्द! उनकी भी संपत्ति इसी को मिलनी है!

शीला का झुकाव इसी शादी की ओर था! इससे भी छोटा परिवार क्या मिल सकता है किसी को ? न ननद की झंझट है, न देवर की। जहाँ चाहो, वहाँ रहो। जैसे चाहो, वैसे रहो! जो चाहो, वह करो। न कोई देखनेवाला, न रोकनेवाला। नर्सिंग होम और अस्पताल की जरूरत हुई तो सास हाजिर! बुढ़ऊ को छोड़ कर सास न जा पाए, तो माँ है ही! जितनी ससुराल, उतना ही मायका - दोनों तुम्हारे।

रघुनाथ का नजरिया कुछ और था! उन्हें आजमगढ़वाले की पक्की नौकरी और भरा-पूरा परिवार ज्यादा आकृष्ट कर रहा था! लेकिन उन्होंने निर्णय सरला पर छोड़ रखा था!

सरला ने पिता को देखा - इन्हीं चंद दिनों में कितने बदल गए पिता? गंजे हो गए हैं। सिर से बाल उड़ गए हैं - कनपटियों को छोड़ कर। सामने के दो दाँत जाने कब उखड़ गए! ठोकर बैठ गया है! थोड़ा और झुक गए हैं और बूढ़े की तरह चलने लगे हैं।

पिता ने भी बेटी को देखा - वह भी बदली-बदली-सी लग रही जाने क्यों? अबकी उन्हें वह कोई लड़की नहीं, युवती दिखाई पड़ी। उसे समीज-सलवार में देखने की आदत पड़ गई थी उन्हें - शायद! लेकिन उसका जो चेहरा इतना उदास और सूखा रहता था, वह इतना हरा-भरा और प्रसन्न क्यों? यही नहीं, दुबले-पतले शरीर में भी भराव और आकर्षण आ गया था। ऊबड़-खाबड़ समतल सीने पर गोलाइयाँ उभार के साथ पुष्ट नजर आ रही थीं! रघुनाथ का अनुभव बता रहा था कि ऐसा किसी मर्द के संसर्ग और हथेलियों के स्पर्श के बगैर संभव नहीं लेकिन मन कह रहा था कि ऐसा खाने-पीने की सुविधाओं और निश्चिंतताओं के कारण है! उन्होंने साड़ी-ब्लाउज में खड़ी अपनी बेटी को आजमगढ़वाले की नजर से देखने की कोशिश की।

सरला उन दोनों शादियों के बारे में गंभीरता से सुनती रही! देर तक।

'हाँ बोलो, इनमें से कौन पसंद है तुम्हें?' रघुनाथ ने अंत में पूछा।

'कोई नहीं! उनसे कहिए वे जहाँ चाहे, वहाँ करें मुझे नहीं करनी!'

'क्या?' रघुनाथ अवाक्‌! उनकी आँखे फटी रह गईं। वे एकटक देखते रहे - 'सात सालों से यही सुनने के लिए दौड़ता रहा?'

रघुनाथ निखहरी खटिया पर बैठे थे और शीला, सरला बगल में पड़ी प्लास्टिक की कुर्सियों पर। संध्या की छाया आँगन में उतर आई थी। सरला माँ-बाप की सबसे प्यारी दुलारी बेटी थी और मुँहलगी भी! रघुनाथ ने बेटों से दूरी बनाए रखी थी, लेकिन बेटी से नहीं! जो बातें किसी से नहीं कर पाते थे, वे भी बेटी से कर लेते थे। बेटी बाप का लिहाज तो करती थी लेकिन कुछ कहने-सुनने में संकोच नहीं करती थीं!

'मैंने तो कभी नहीं कहा कि आप दौड़ें! फालतू में दौड़ा करें तो इसके लिए मैं क्या करूँ? पूछिए माँ से, कई बार कहा है कि मुझे नहीं करनी शादी!'

'नहीं करनी है तो क्या अकेले रहना है - इसी तरह?'

'मैंने यह कब कहा है? मैंने सिर्फ यह कहा है कि मुझे ऐसी शादी नहीं करनी है जिसमें लेन-देन और मोल-भाव होता हो?'

'कौन सी शादी है जिसमें यह सब नहीं होता? क्या संजय में नहीं हुआ?'

'उसकी बात छोड़िए, वह तो शादी नहीं, सौदा था!'

'तुम कहना क्या चाहती हो आखिर?' रघुनाथ ने आँखें तरेर कर उससे पूछा और चुप देख कर खटिया पर पसर गए ! थोड़ी देर शांत रह कर उन्होंने कहा - 'शीला, समझाओ इस लड़की को! शहर में रह कर इसका दिमाग खराब हो गया है!'

शीला सिर झुकाए शुरू से ही लोर बहा रही थी। अपना नाम सुनने के बाद तो हिचकियाँ लेने लगी - 'तुम्हीं ने सिर चढ़ाया है, तुम्हीं भुगतो! जब इसने बी.ए. किया था तभी मैंने कहा था कि कर दो इसकी शादी! तो नहीं, अभी पढ़ेगी। एम.ए. किया तो फिर कहा कि बहुत हो गया, अब कर दो! तो नहीं, अपने पैरों पर खड़ी होगी हमारी बेटी! नौकरी करेगी। अब देखो इसका रंग-ढंग? मैंने कहा था तुमसे कि दुनिया का चक्कर लगाने से पहले पूछ लो अपनी लाड़ली से एक बार। नहीं पूछा, अब भोगो!'

'पापा, नाराज न हों तो मैं कुछ कहूँ।' सरला सहज थी। परेशान माँ-बाप थे, सरला नहीं - 'आप और माँ मेरी आँखें हैं जिनसे मैंने दुनिया देखना शुरू किया था। उन्हीं से मैंने देखा कि मर्द एक बैल है जिसे मुश्तकिल खूँटा चाहिए - अपने विश्राम के लिए! वह खूँटा आपके लिए माँ थी और सच-सच बोलिए, क्या माँ आपके लिए विवशता नहीं थी?'

'बंद करो यह बकवास?'

'पापा, मैंने आपकी वह जिंदगी भी देखी है जो सबने देखी है लेकिन मैंने थोड़ी- बहुत वह जिंदगी भी देखी है जो आपने चोरी से जी है। शायद हर आदमी इस तरह की दो जिन्दगियाँ जीता हो - एक वह जिसे दुनिया देखती है, दूसरी वह जिसे सिर्फ वह देखता है। चोरी की जिंदगी - जिसे केवल वही देखता और जानता है! मुझे लगता है कि आदमी की असल जिंदगी वही होती है जिसे वह चोरी से जीता है, दिखावेवाली नहीं। ... आज इतने दिनों बाद मैं समझ सकी हूँ कि जब मैं हाई स्कूल में थी तो मिसेज रेखा मैडम क्यों मुझे इतना प्यार करती थीं और आपके लिए चिंतित रहती थीं।' यह अंतिम वाक्य अंग्रेजी में और धीमे से बोली थी सरला जिसे शीला ने तो नहीं समझा या सुना लेकिन रघुनाथ गुस्से में उठ बैठे - 'बकवास बंद करो, साफ-साफ बताओ तुम्हें शादी करनी है या नहीं?'

'जब करनी होगी तो कर लूँगी, आप क्यों परेशान है?'

'इसलिए कि हम जिंदा हैं, मर नहीं गए !'

'आप नहीं कर पाएँगे पापा! हम जानते हैं आपको, इसलिए छोड़िए!'

'जब संजय को बर्दाश्त कर लिया तो तुम्हें भी कर लेंगे, बोलो तो!'

सरला थोड़ी देर चुप रही और रघुनाथ को देखती रही - 'किसी सुदेश भारती की याद है आपको?'

'एक तो वही है तुम्हारे मिर्जापुर का एस.डी.एम.!'

'कोई दूसरा भी है?'

रघुनाथ ने दिमाग पर जोर डाल कर कहा - 'एक कोई भारती भारती करके था जो तुम्हारे साथ एम.ए. में पढ़ता था।'

'और उसकी तारीफ करते थे आप! वही आपको ले कर बाजार जाता था!'

'हाँ, अच्छा लड़का था। मगर चमार था!'

'मिर्जापुर वाला वही भारती है! जिसे आप अच्छा कहते थे।'

'तो?' रघुनाथ विस्मय से उसे घूरते रहे!

'तो क्या? उसके साथ मेरी शादी करेंगे आप?'

रघुनाथ खटिया पर फिर पसरें, इसके पहले ही शीला फफक कर रोने लगी! रघुनाथ ने आकाश की ओर दोनों हाथ उठाए - 'हे भगवान! यह क्या कर रहे हो मेरे साथ! लाला तक गनीमत थी लेकिन अब? मैं क्या करूँ? किसे मुँह दिखाऊँ?' ... वे पागल की तरह अनाप-शनाप बक-झक करने लगे!

'इससे तो अच्छा है कि कुँवारी ही रह!' शीला ने रोते हुए कहा!

'माँ, ये तो सात साल से लोगों के दरवज्जे=दरवज्जे घिघियाते फिर रहे हैं और इतने ही सालों से वह मेरी आरजू-मिन्नत कर रहा है - पूरे सम्मान और इज्जत के साथ! कोटे में ही सही, लेकिन पी.सी.एस. है। देखने-सुनने में भी किसी से कम नहीं। मेरी नौकरी से भी उसे एतराज नहीं! कभी कोई बदतमीजी भी नहीं की मेरे साथ! कोई ऐसा-वैसा ऐब भी नहीं उसमें! मैंने अब तक 'हाँ' नहीं की है लेकिन सोच लिया है कि करूँगी तो उसी के साथ!'

'उसके बाद लौट कर कभी पहाड़पुर मत आना! अपना थोबड़ा मत दिखाना। यह याद रखो!' रघुनाथ खड़े हो गए - 'अब जाओ यहाँ से! कोई जरूरत नहीं तुम्हारी! मर गए माँ-बाप!'

'रात हो रही है। इस वक्त कहाँ जाएगी?' शीला बोली!

'चाहे जहाँ जाओ, जाओ!'

सरला मुसकराती बैठी रही - 'अभी कहाँ की है? अभी तो रह सकती हूँ।'