रेहन पर रग्घू / खंड 1 / भाग 9 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई।

रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से मिले - यह उनकी समझ से बाहर था। संजय को कोई नहीं मिली - न ठाकुर, न बामन, न भूमिहार; मिली तो लाला की लड़की! फिर भी वे इस लायक थे कि मुँह दिखा सकें! लेकिन यह सरला? वे किसे मुँह दिखाएँगे! कहाँ मुँह दिखाएँगे?

लड़की के अपने तर्क थे जिन्हें वह जाते-जाते सुना गई थी! जो भी गलत काम करता है, उसके पक्ष में तर्क गढ़ लेता है! उसने भी गढ़े थे - आप दूसरों की शर्तों पर शादी कर रहे थे, यहाँ मैं करूँगी लेकिन अपनी शर्तों पर; आप मेरी 'स्वाधीनता' दूसरे के हाथ बेच रहे थे, यहाँ मेरी 'स्वाधीनता' सुरक्षित है; आप 'अतीत' और 'वर्तमान' से आगे नहीं देख रहे थे, हाँ मैं 'भविष्य' देख रही हूँ जहाँ 'स्पेस' ही स्पेस है।

स्पेस ही स्पेस, हुँह! स्पेस माने क्या? 'आरक्षण' और 'कोटा' के सिवा भी इसका कोई मतलब है? यही न कि न होता आरक्षण तो यही भारती किसी न किसी का हल जोत रहा होता या पढ़ने-लिखने के बावजूद नगर में रिक्शा खींच रहा होता! तुम्हीं कहती थीं कि एकदम गधा है, कुछ नहीं समझता। आज पी.सी.एस. हो गया तो उस जैसा कोई नहीं?

वे अपने मन की भड़ास निकालने के बाद हलका महसूस कर ही रहे होते कि पीछे से किसी की आवाज सुनाई पड़ती - 'अरे मास्साब! दामाद जी का क्या हाल है?' और धीरे-धीरे उन्हें लगता कि यह आवाज सिर्फ पीछे से नहीं, आगे से भी - बाएँ-दाएँ से भी, ऊपर-नीचे से भी आ रही है! चारों ओर से! गाँव-घराना, पास-पड़ोस, जान-पहचान का हर आदमी उनके दामाद के लिए चिंतित है और उनसे मसखरी कर रहा है! इसी बीच जाने किधर से किसी बच्चे की किलकारी सुनाई पड़ती और वह चहकता हुआ उनकी ओर अपनी नन्ही-नन्ही बाँहें फैला देता - 'नाना! यह देखो, क्या है?' वे उसके हाथ से एक कागज लेते जो उनकी गैरहाजिरी में चमटोल से झूरी दे गया था। यह निमंत्रण-पत्र था झूरी की पोती की शादी का! .... तो अब यही उनकी बिरादरी और भवद्दी है! न्यौता-हँकारी और खान-पान अब उन्हीं के साथ होना है, गया अपना कुनबा।

निश्चय किया रघुनाथ ने कि अब वे 'वालंटरी रिटायरमेंट' ले लेंगे! उन्होंने शीला से अपनी यह इच्छा जाहिर की कि अब इसकी - नौकरी की - जरूरत नहीं! यह नहीं बताया कि उन्हें 'वी.आर.एस.' और 'सस्पेंशन' में से एक चुनना है और इनमें से यही ठीक है जो वे करने की सोच रहे हैं।

चाँदनी रात थी अगहन की।

आकाश साफ था। आधा आँगन चाँदनी में था, आधा उसकी छाया में। चाँद सीधे रघुनाथ के चेहरे को देख-देख कर मुसकरा रहा था। वे उसके जल्दी खिसक जाने की उम्मीद कर रहे थे लेकिन वह अपनी जगह से हटने का नाम नहीं ले रहा था। वे उसे एकटक देखते रहे और उन्हें लगने लगा - जैसे चाँद दर्पण हो और उसमें दिखाई पड़नेवाले धब्बे उन्हीं के चेहरे की झाइयाँ!

गाँव के छौरे के पार से ही शुरू हो जाते थे ईख और अरहर के खेत जहाँ से सियारों ने एकसाथ हुआँ-हुआँ शुरू किया।

गाँव से कुत्तों ने भी उसी भाव से जवाब दिया और बता दिया कि वे भी सोए नहीं हैं।

शीला की खटिया रघुनाथ के बगल में ही थी और वह सो रही थी!

पिछले कई दिनों से - कहिए रातों से यही हो रहा था। रघुनाथ रतजगा करते थे और शीला बातें करते-करते सो जाती थी।

रघुनाथ उठ कर बैठ गए। अँजोरिया में उसके चेहरे को देखा! भरा-भरा गोल गोरा चेहरा और नाक की कील पर चमकती हुई चाँद की किरन। इससे पहले उन्होंने उसे हमेशा लेटते हुए देखा था, सोते हुए नहीं। वे एकटक निहारते रहे उसे। वह करवट लेटी थी और उसका चेहरा उन्हीं की ओर था! उनसे सात साल छोटी, मगर उम्र ने उसे भी नहीं छोड़ा था। उनके भीतर प्यार उमड़ आया - हाँ, अब भी खूबसूरत थी उनकी पत्नी! उन्हें लगा, उन्होंने कभी ठीक से प्यार नहीं किया उसे। जब भी जरूरत हुई, उसके साथ लेटे जरूर लेकिन प्यार नहीं किया कभी! उन्होंने हाथ बढ़ा कर उसके ब्लाउज का एक बटन खोला - चुपके से, फिर दूसरा, फिर तीसरा। सोई हुई छातियाँ जैसे नींद से जाग गईं, कुनमुनाईं और उन्हें घूरने लगीं! बिस्तरे पर झुकीं-झुकीं! उनमें जान बाकी थी।

वे उठे और उसके बगल में लेट गए! शीला ने जगह बनाई उनके लिए और आँखें बंद किए-किए खुद को उनके हवाले कर दिया! आँखें खोलने की जरूरत ही नहीं थी, उनकी उँगलियाँ देह के हर कोने-अँतरे से परिचित थीं। वे बहुत देर तक एक-दूसरे की देह के अंदर उस 'चीज' को ढूँढ़ते रहे जो जाने कब अपना बसेरा छोड़ कर चली गई थी! रघुनाथ को लग रहा था कि नहीं, कहीं नहीं गई है - कहीं न कहीं इस या उस देह में है जरूर - मगर अगर वह सचमुच होती तो और कहाँ जाती? परेशान हो कर, थक कर उन्होंने अपना मुँह शीला की छातियों के बीच धँसा दिया और शांत पड़ गए।

'मन न कर रहा हो तो छोड़ो।' शीला फुसफुसाई!

थोड़ी देर तक रघुनाथ कुछ नहीं बोले, फिर एक हिचकी ली!

शीला को महसूस हुआ कि उसकी बाईं छाती से सरकती हुई जो गरम चीज बिस्तर पर टपक रही है, वह आँसू है। रघुनाथ के आँसू! उसने उनकी नंगी पीठ सहलाई - आहिस्ता!

'मन तो कर रहा है, शरीर ही साथ नहीं दे रहा है!' टूटी साँसों के साथ रघुनाथ ने कहा!

'तो इसमें दुःखी होने की कौन-सी बात है? होता है ऐसा कभी-कभी!'

'नहीं, यह कभी-कभी जैसी बात नहीं लग रही है, शीला!'

'बहुत तनाव में रहे हो इस बीच! इसलिए ऐसा है!'

'नहीं! नहीं, झूठी तसल्ली मत दो! मैं उस पगडंडी को पहचान गया हूँ जिससे चल कर वह देह में घुसता है।'

'कौन वह?'

'बुढ़ापा।' रघुनाथ बोले और फूट-फूट कर रोने लगे!

शीला ने उन्हें पकड़ कर बिठाया और सांत्वना में कहा - 'ऐसा कुछ नहीं है दिमागी फितूर के सिवा। बेमतलब सोचते रहते हो रात-दिन! मैंने कोई शिकायत की है कभी? और क्या चाहते हो? हमेशा जवान ही रहोगे? ऐसे, यह सब बेटी-बेटों के लिए छोड़ो। हमारी-तुम्हारी उमर थोड़े ही है यह सब करने की?'...

अगले चौथे या पाँचवें दिन शाम जब रघुनाथ कालेज से लौटे तो शीला ने खबर दी कि टेस्ट दे कर धनंजय आ गया है! ऐसे, अगर वह खबर न देती, तब भी बरामदे में खड़ी बाइक देख कर वे समझ गए थे! कपड़े बदल कर जब वह बाहर आए तो धनंजय को देखा! पूछा - 'अब की कैसे हुए पर्चे?'

'बहुत अच्छा। निकाल लूँगा इस बार!'

'पाँच साल से यही सुन रहा हूँ! हर बार निकाल लेते हो!'

'एस.सी., एस.टी.कोटा और घटी सीटों पर तो मेरा बस नहीं। उसके लिए मैं क्या करूँ!'

रघुनाथ ने उसका कोई जवाब नहीं दिया। इसी बीच शीला बाप-बेटे के लिए चाय ले कर आई। चुपचाप चाय पीते रहे! चुप्पी तोड़ी राजू ने ही - 'सुना है, आप समय से पहले ही 'रिटायरमेंट' लेनेवाले हैं?'

'लेनेवाले नहीं, ले लिया। आज ही चिट्ठी दे दी!'

'ऐसा क्यों किया आपने?'

'यह मुझसे नहीं, अपने भाई संजय से पूछो!' शीला की ओर देखते हुए रघुनाथ बोले!

'संजय तो है नहीं, हूँ मैं - कोई फैसला लेने से पहले आपको हमसे बताना तो चाहिए था?'

'बताते तो क्या करते तुम?' उनका चेहरा थोड़ी देर के लिए तन गया - 'एक की 'हाँ' देख ली, दूसरे की 'ना' नहीं सुनना चाहता! और अभी वह दिन नहीं आया है कि मैं तुम्हारी सलाह पर चलूँ!'

धनंजय उन्हें देखता रहा! फिर माँ की ओर देखा। शीला सिर झुकाए बैठी रही, कुछ नहीं बोली! 'आपको निर्णय लेते समय मेरे बारे में सोचना चाहिए था। अभी अधर में लटका है मेरा भविष्य!'

'यही सोचते-सोचते मैं बूढ़ा हो गया। तुम बालिग हो अब, अपना खुद देखो!' रघुनाथ ने बहुत बेरुखी से कहा।

इस उत्तर से धनंजय कसमसा कर रह गया! उसने इस उम्मीद में माँ की ओर देखा कि शायद वह कुछ कहें।

'आपको यह बुद्धि दीदी और संजय के समय क्यों नहीं आई थी, मेरे ही समय क्यों आ रही है?' शीला को बुरा लगा। उसने टोका - 'चुप रह राजू, कब क्या बोलना चाहिए, समझते नहीं क्या?'

'सब समझता हूँ माँ, इतना नासमझ नहीं हूँ! पता नहीं क्यों, मुझसे ही चिढ़े रहते हैं ये! तुम जानती हो कि टेस्ट का कोई भरोसा नहीं, यही सोच कर मैंने नोएडा के एक 'मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट' का पता किया। इंस्टीट्यूट तो और भी कई हैं लेकिन उनके रेट बहुत हाई हैं। यही है जो अच्छा भी है और अपनी सीमा का भी! दूसरों से डोनेशन तीन लाख लेकिन मुझसे ढाई ही ले रहा है! सब मिला कर एक साल का खर्च छह लाख पड़ रहा है! और अब? जब मेरा मामला आया है तो ये रिटायर हो कर घर बैठ रहे हैं! अपने को मेरी स्थिति में रख कर सोचो ना?'

रघुनाथ सुनते हुए चुपचाप बैठे रहे!

शीला ने उन्हें देखा और उन्होंने शीला को। कोई किसी से नहीं बोला।

रघुनाथ उठ कर अंदर गए और थोड़ी देर बाद नोटों की गड्डियों के साथ बाहर आए।

'ये लो साढ़े चार लाख! बाकी के छह महीने में ले जाना!' उन्होंने गड्डियाँ उसके आगे फेंक दीं और वहाँ से हट गए!

रेहन पर रग्घू खंड 1 समाप्त