रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 1 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर के कारण - जहाँ चिड़ियों की चहचहाहट और गायों-भैंसों के रँभाने और बैलों की घंटियों की टनटनाहट से बस्तियाँ गूँजती रहती थीं लेकिन अब पेड़ कट गए थे, बँसवार साफ हो गई थी और पोखर धान के खंधों में बँट गई थी! बगीचे के बीच से एक नहर गई थी जिसके किनारे प्राइमरी स्कूल खुल गया था। उसी के बगल में दवाखाना के लिए जमीन भी घेर ली गई थी।

आंबेडकर गाँव हो जाने के बाद पहाड़पुर तेजी से बदल रहा था! गाँव में बिजली आ गई थी, केबुल की लाइनें बिछ गई थीं, अखबार ले कर हाकर आने लगे थे। कुछ घरों में टी.वी., पंखे और फोन भी लग गए थे! छौरे पर खड़ंजा बिछा दिया गया था। खपरैलों के कुछ ही मकान रह गए थे, बाकी सब पक्के थे। जो पक्के नहीं थे, उनके आगे ईंटें गिरी नजर आती थीं।

रघुनाथ खुद को टी.वी. और अखबार में व्यस्त रखते थे। शौक तो उपन्यास पढ़ने का था लेकिन उपन्यास कालेज के पुस्तकालय में थे जहाँ जाना उन्होंने बंद कर दिया था! हाँ, वे ही उपन्यास दुबारा पढ़ रहे थे, जिन्हें कभी पढ़ चुके थे! महीने में एकाध बार नगर में पेंशन आफिस का चक्कर जरूर लगा लेते थे।

गाँव में वे न किसी के यहाँ जाते थे, न उनके यहाँ कोई आता था। वे लड़कों- बच्चों की लिखाई-पढ़ाई के ही काम के आदमी समझे जाते थे, बाकी मामलों में फालतू। मगर सम्मान सब करते थे - छोटे-बड़े सभी। बल्कि अगड़ों से ज्यादा पिछड़े और दलित! इसलिए कि रघुनाथ उनके किताब-कापी से ले कर दाखिले और फीस माफी तक जो भी कर सकते थे, अब भी करते थे! वे गाँव घर के प्रपंचों और लफड़ों से निर्लिप्त बड़े सीधे, सरल और सज्जन आदमी के रूप में सबके प्रिय थे!

लेकिन वे सबके प्रिय नहीं थे। ठकुरान के - जिसे वे अपना घराना बोलते थे उसके, लड़के उन्हें नापसंद करते थे और इसके कारण थे -

एक तो, जब 'मंडल आयोग' लागू किया गया था तो उसका स्वागत करनेवालों में कालेज में अकेले अगड़े अध्यापक रघुनाथ थे!

दूसरे, जब-जब चमटोल के हलवाहे हड़ताल की धमकी देते थे, वे मानते थे कि यह वाजिब है और उनका हक है!

'उपाय क्या है, यह बताओ!'

'उपाय है! या तो उनकी माँगों पर सहानुभूति के साथ विचार करें या फिर एक ट्रैक्टर खरीदें! और चूँकि हममें से कोई एक इस हैसियत में नहीं है कि अकेले खरीद सके इसलिए हल पीछे दाम बाँध दें। सब लोग मिल कर खरीदें!'

ये बातें हुई थीं बब्बन कक्का के दरवाजे पर जब घराने के सभी बड़े-छोटे जुटे थे!

'चलाएगा कौन? ड्राइवर के साथ हेल्पर चाहिए, खलासी चाहिए......'

'अपने ये लड़के जो पिछले सात-आठ साल से कंपटीशन के नाम पर गाँव से नगर और नगर से गाँव मोटरसाइकिल पर मटरगश्ती कर रहे हैं! जब नौकरी का कोई ठिकाना नहीं तो यही करें।' रघुनाथ बोल तो गए लेकिन उन्हें तुरंत एहसास हुआ कि गलती हो गई!

लड़कों के चेहरे तमतमा उठे! आँखे लाल हो गईं! लेकिन सामने बुजुर्ग थे - वे कसमसा उठे! उनमें से कुछ रिसर्च कर रहे थे, कुछ कोचिंग कर रहे थे, कुछ के अंतिम चांस थे कंपटीशन के, कुछ कंपटीशन के इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थे - वे बीच में किसी तरह की कोई बाधा नहीं चाहते थे! इस तरह का प्रस्ताव ही अपमानजनक था उनके लिए! यह तो कोई नहीं जानता कि किसके भाग्य में क्या लिखा है? और क्या कहेंगे लोग कि यही ट्रैक्टर चलाने के लिए किया था एम.ए. और एम.एस.सी. और पीएच.डी.? इन्हें जो कहेंगे सो तो कहेंगे - आप को क्या कहेंगे? आप तो बाप हैं! सब लाज-शरम घोल कर पी गए हैं क्या?

लेकिन उनमें से कोई बोले, उसके पहले ही आहत स्वर में बब्बन कक्का ने कहा - 'रग्घू! जाने दो, क्या कहें तुमसे? तुम्हारे बेटे इनकी हालत में होते तो आज ऐसा न बोलते!'

रघुनाथ उठे और घर चले आए - चुपचाप!

उन्हें दुःख यह था कि उन्होंने वहाँ वही बात की थी जो उन लड़कों के बाप खुद उनसे या आपस में या अपने बेटों से ही झल्ला कर कहते थे - निठल्ले! कामचोर! यह भी किसी से छिपा नहीं था कि 'कोचिंग', 'फार्म', 'टेस्ट' उनमें से कइयों के लिए नगर के दोस्तों से मिलने-जुलने के बहाने थे! इसे रघुनाथ ही नहीं, उनके गार्जियन भी समझते थे कि 'कोटा' या 'आरक्षण' एक ऐसा कवच मिल गया है उन्हें, जिसका इस्तेमाल वे अपनी असफलताएँ छिपाने के लिए करते हैं! लेकिन इन्हीं मुश्किलों का हल उन्होंने सुझाया तो बेटे ही नहीं बाप भी बुरा मान गए!

इसके बाद से न तो कभी किसी ने रघुनाथ को बुलाया, न उनसे पूछा और न उन्होंने सलाह दी! हाँ, उनके यहाँ एकमात्र आनेवाले रह गए थे छब्बू पहलवान। वे क्यों आते थे और वह भी शुरू से - इसका उत्तर न छब्बू के पास था, न रघुनाथ के पास! किसी के पूछने पर बस इतना कहते थे - 'अच्छा लगता है', 'शांति मिलती है' । वे जब भी आते थे - आते थे गाँजा, भीगी साफी, चिलम, रस्सी के टुकड़े और माचिस के साथ! अकेले इतमीनान से दम लगाते और खटिया पर लेट रहते! इधर कुछ सधुआ गए थे। जबतब बोल उठते - 'मास्टर कक्का, पता नहीं काहें अब जीने का मन नहीं करता!' एक बार उन्हें चुप और उदास देख कर रघुनाथ ने पूछा - 'क्या बात है छब्बू! इस तरह क्यों लेटे हो?' छब्बू ने आँखे बंद किए हुए ही कहा - 'कक्का, आज भोरहरी में सपने में बजरंगबली आए थे। बोले, छब्बू! तुम जो पाप कर रहे हो, उसका प्रायश्चित भी तुम्हीं को करना होगा, दूसरे को नहीं।'

'जब तुम जानते हो कि पाप है तो क्यों करते हो?'

'मैं देखते ही बेबस हो जाता हूँ मास्टर कक्का, क्या बताऊँ आपसे?'

रघुनाथ दिसा फरागत के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे, बोले - 'लेकिन छब्बू, मैं एक बात तुमसे कह रहा हूँ, याद रखना। जब तक उनकी हड़ताल चल रही है तब तक भूल कर भी चमटोल में कदम मत रखना! कोई भरोसा नहीं है किसी का!'

'बात तो सही कह रहे हैं कक्का, लेकिन एक बात मेरी भी सुन लीजिए! अगर ढोला बुलाएगी तो पत्थर पड़े चाहे बज्जर गिरे, मैं न सुनूँगा, न देखूँगा - चल दूँगा!'

'जब तुम्हें किसी की मानना ही नहीं, तो जो इच्छा हो, करो!' रघुनाथ बड़बड़ाते हुए सिवान की तरफ चले गए जिधर बब्बन सिंह का पपिंग सेट था!

यह हड़ताल का सातवाँ दिन था!

असाढ़ शुरू हो गया था और अबकी पानी जम कर बरसा था।

हलवाहों ने हड़ताल की थी ऐसे ही वक्त पर - खेत के जोत, बन्नी और केड़ा को ले कर। हड़ौरी ( हल जोतने की मजूरी) और खलिहानी को ले कर। बाबा आदम के जमाने से चले आ रहे रेट पर काम करने से इनकार कर दिया था हलवाहों ने। बीच-बीच में भी हड़तालें की थीं उन्होंने, लेकिन ठाकुरों ने थोड़ा-बहुत बढ़ा कर और उन्हें समझा-बुझा कर ठीक कर लिया था। लेकिन अबकी आर-पार की लड़ाई थी! इसमें गोबर पाथनेवाली उनकी औरतें और लड़कियाँ भी शामिल थीं। नतीजा यह कि खेतों से लेव का पानी सूखने लगा था, चरनी पर बँधे मवेशी गोबर-मूत में ही उठ-बैठ रहे थे और पूरा ठकुरान गंदगी से बजबजा रहा था!

इस बार की हड़ताल को समझने में ठाकुर गच्चा खा गए थे! हलवाहे न थक- हार कर आए, न गिड़गिड़ाए, न उनके चूल्हे बुझे। जरूरत भी पड़ी तो अहिरान गए, इधर नहीं आए! पूरे इलाके की चमटोलों का भविष्य पहाड़पुर की हड़ताल पर टिका था - इसे वे समझ गए थे!

ठाकुर रात भर बब्बन सिंह के दरवाजे पर पंचाइत कर रहे थे और मुंसफ, जज, मजिस्ट्रेट, कलक्टर, एस.पी., इंजीनियर, डाक्टर न हो सकनेवाले उनके बेटे उन्हीं के पंपिंग सेट पर बैठक! वे रोज शाम को सात-आठ बजे वहीं जुटते, कभी गाँजे का दम लगाते, कभी दारू की बोतलें खोलते और चमटोल को हमेशा-हमेशा के लिए ठीक कर देने की योजना बनाते। कैसे ठीक किया जाए, कब ठीक किया जाए, ठीक करने का तरीका क्या हो - ये सारी समस्याएँ थीं जिनके बारे में वे गंभीरता से विचार करना शुरू करते और तीसरे गिलास तक पहुँचते ही कोरस गाने लगते - 'गाए चला जा, गाए चला जा, एक दिन तेरा भी जमाना आएगा!' जैसे ही यह खत्म होता वैसे ही 'इंटरनेशनल' शुरू हो जाता - 'मन में है विश्वास! हो हो मन में है विश्वास! हम होंगे कामयाब एक दिन!'

इस दौरान राम भरोसे दुबे - जो पड़ोसी गाँव के थे और भंग के लती थे और उसे छोड़ कर इस मंडली के नियमित सदस्य बने थे - पंचांग खोल कर मुहूर्त देखते रहते कि ठीक करने की तिथि कौन-सी हो? उन्होंने समय तो बता दिया था - कृष्णपक्ष की अमावस्या की रात; लेकिन किस महीने की अमावस्या हो, इस बारे में वे आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे!

इधर हड़ताल खिंचती हुई चली जा रही थी और खरीफ के फसल की उम्मीदें खत्म हो रही थीं। कि इसी दरम्यान एक दिन नहर के रास्ते एक ट्रैक्टर धड़-धड़ करता हुआ आया और अहिरान में दशरथ राउत के दरवाजे पर खड़ा हो गया!

उसे ले कर आनेवाला और कोई नहीं, जसवंत था - दशरथ का बेटा!

दशरथ के चार बेटे थे - दो गाँव पर और दो मध्य प्रदेश के कोरबा में। गाँववाले दूध और खोवा का व्यवसाय करते थे और कोरबावालों में बलवंत कोलियरी में ठेके पर लेबर सप्लाई करता था और जसवंत देसी दारू की भट्ठी चलाता था!

जसवंत जब तक गाँव पर था, लुच्चा, लफंगा और लतखोर माना जाता था। भागा भी था तो बाप से मारपीट करके। शुरू-शुरू में मध्य प्रदेश से पुलिस भी आई थी एक- दो बार उसे ढूँढ़ते हुए लेकिन बाद में सुधर गया था धीरे-धीरे। इधर जब भी गाँव आता था, 'भैया', 'बाबू', 'कक्का' से नीचे किसी को बोलता नहीं था। कहा करता था कि परदेश में सब कुछ है, इज्जत नहीं है! चाहे जितना कमा लो, रहोगे दो नंबर के ही आदमी। दो नंबर माने दो कौड़ी। अब वह सारा कुछ छोड़-छाड़ कर गाँव-जबार की सेवा करना चाहता था। संयोग ही ऐसा था कि वह पिछले एकदो बार से जब-जब आया, गाँव हड़ताल की ही चपेट में रहा। वह न इधर था, न उधर! उसका उठना-बैठना दोनों के बीच था - ठाकुरों के भी, हलवाहों के भी। उसने अपनी ओर से दोनों के बीच सुलह-समझौते की पूरी कोशिश की, लेकिन नजदीक आने के बजाय दोनों एक-दूसरे के खिलाफ और दूर होते चले गए!

जसवंत ने उन दोनों को जवाब दिया ट्रैक्टर ला कर, जो चिढ़ाते रहते थे कि अहीरों की बुद्धि उनके घुटनों में होती है (शायद इसलिए कि वे घुटनों के बीच बाल्टी दबा कर गाय या भैंस दुहते हैं)।

ट्रैक्टर खलिहान में खड़ा था - ट्राली, कल्टिवेटर, हार्वेस्टर और थ्रेशर के साथ! गेंदे की मालाएँ पहने। उसके बगल में खटिया पर डंडे के साथ दशरथ बैठे थे। गाँव के बच्चे उसे घेरे थे - कुछ छू कर देखना चाहते थे, कुछ ट्राली पर चढ़ना चाहते थे। दशरथ खीझ रहे थे और डंडा पटक-पटक कर उन्हें भगा रहे थे!

जब तक कथा और हवन नहीं हो जाता तब तक लोगों की नजर से बचाए रखना था इसे!

भगवंत उर्फ भग्गू के जिम्मे दूसरा काम था। वे कापी और कलम के साथ इधर से उधर भाग दौड़ कर रहे थे। किसानों के लिए सबसे मुश्किल और परेशानी के थे ये महीने! अगहनी के खेत तैयार थे, खेती पिछड़ रही थी, जल्दी से जल्दी जुताई और बुवाई करनी थी, इसके बाद तो रबी का नंबर लगना था। बड़े मौके से आया था ट्रैक्टर। तारीखों की लूट मची थी, भाड़ा चाहे जो लो - बीघे के हिसाब से! और भाड़ा भी क्या लेना था - वही जो रेट बाँध दिया था दो कोस दूर इकबालपुर के काशी सिंह ने अपने ट्रैक्टर का!

कथा के अभी तीन दिन बाकी थे कि अगले तीन महीने के लिए सारी तारीखें बुक!

दशरथ जिन्हें कभी कोई पूछता तक नहीं था, उनकी 'बल्ले-बल्ले' थी! उन्हें पूछनेवाले वे थे जो नए घर और दुआर बनवा रहे थे - माटी और खपरैल के मकान गिरा कर! जब बिजली आ गई थी तो उसके स्टैंडर का घर चाहिए - दीया-बाती और लालटेनवाला नहीं। ऐसे लोगों में सिर्फ पहाड़पुर के ही नहीं, पास-पड़ोस के भी थे। किसी को ईंटें चाहिए, किसी को सीमेंट, किसी को बालू, किसी को गिट्टी, किसी को लोहा-लक्कड़। गन्ने भी तैयार हो रहे थे शुगर मिल के लिए। जब ट्राली थी तो सौ काम थे!

दशरथ सबकी सुनते और सब्र रखने के लिए कहते - सब होगा! धीरे-धीरे होगा! लेकिन सबका काम होगा!

ठाकुर भौंचक! सदमे में थे! वे हमेशा उन्हें अपने से नीचा समझते थे लेकिन अब उनकी चिरौरी के दिन आ गए थे! उन्हें अफसोस हो रहा था कि यही बात जब रघुनाथ ने कही थी तो उन्होंने क्यों नहीं सुनी तब ?