रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 2 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था।

ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ महसूस कर रहे थे क्योंकि चमटोल में किसी तरह की कोई बेचैनी नहीं थी! फर्क आया था तो यह कि हलवाहे अब गाँव में और गाँव के रास्ते आने-जाने लगे थे - सिर झुकाए, आराम से, बिना बोले और दुआ-सलाम के! ठाकुरों को लगता कि वे छाती उतान करके उन पर हँसते हुए आ जा रहे हैं।

रघुनाथ सोने के पहले बत्ती गुल करने ही जा रहे थे कि सर पर बोरा रखे पानी में भीगता गनपत बरामदे में आया! गनपत उनका हलवाहा था, हलवाही के सिवा घर-दुआर के काम भी देखता था! रघुनाथ ने उसके बेटे को अपने कालेज से बी.ए. कराया था, उसके बाद उससे एक फार्म भरवाया था जिसके कारण वह 'बाट माप इंस्पेक्टर' बना था! इस एहसान को गनपत कभी नहीं भूलता! इस समय उसका वह बेटा एम.राम मिर्जापुर में पोस्टेड था!

- 'अरे गनपत तुम? किसी ने देखा तो नहीं?'

'नहीं मास्टर साहेब!' उसने बोरा खंबे के पास रखा और मचिया खींचा - 'एक बात बता दें। मैं आपको छोड़ूँगा नहीं, भले आप छोड़ दें! हाँ, यह समय थोड़ा खराब है!'

'जानता हूँ, आए कैसे, यह बोलो!'

'गया था मगरू के यहाँ मिर्जापुर! सोमारू भी तो वहीं है न! मगरू उसे आटाचक्की पर वहीं काम दिला दिया है और वह पक्का हो गया है इस काम में!'

'तो?'

'तो मगरू कहा कि जाँता ओखरा, मूसर, ढेंकी, चक्की तो कोई चलाता नहीं आज और आटा पिसाने के लिए जाना पड़ता है लोगों को एक डेढ़ कोस दूर - डेढ़गावाँ या कमालपुर; ऐसे में अगर गाँव पर आटाचक्की बिठाई जाए तो कैसा रहेगा? सोमारू काफी है सँभालने के लिए!'

'बिठाओगे कहाँ?'

'सरकार चमटोल और गाँव के बीच में जो ऊसर जमीन दिया है न, उसी पर! और किसी काम की तो है नहीं वह!'

रघुनाथ कुछ देर सोचते रहे।

'पूछना यह भी था कि ठाकुरों के लिए छूत तो रोटी और भात में ही है, आटा और चावल में तो है नहीं?'

रघुनाथ हँसने लगे - 'यह सब मत सोचो! शुरू में भले बिदकें, देर-सबेर सब जाएँगे और पिसाएँगे! यही नहीं, आस-पास के गाँवों से भी आएँगे लोग। जब चक्की गाँव में ही रहेगी तो उतनी दूर कौन जाएगा? बस देर मत करो! ... और बताओ, कै दिन रहे मिर्जापुर?

'रहे दस दिन! एक दिन तो पूछते-पाछते गुड़िया बेटी के इस्कूल चले गए थे। बड़ी खुस हुईं! घर ले गईं। अपने हाथ से खाना पकाया, खिलाया, आपका और मालकिन का हाल-चाल पूछती रहीं, चलने लगा तो बीस ठो रुपैया भी जबरदस्ती पकड़ाय दिहिन! बिल्कुल नहीं बदली हैं।'

'बहुत दिन रह गए मगरू के पास?'

'नहीं मास्टर साहेब, सब दिन वहीं नहीं रहे! तीन दिन तो फूआ के हियाँ रहे! फूआ का जो सबसे छोट बेटवा है, वह उहाँ का डिपटी मजिस्टरेट है - यस.डी.यम.! बहुत बड़ी कोठी है, उसके सामने बगीचा भी बहुत बड़ा है। जीप है, पुलिस है, ड्राइवर है, नौकर-चाकर है। ऊ साधारण आदमी थोड़े हैं? इजलास लगाता है। सब कोई नहीं मिल सकता! फूआ से ही कई कई दिन भेंट नहीं होती! हम तो देखे ही नहीं थे उत्ता बड़ आदमी? वहीं रह गए तीन दिन! फूआ रोक लीं!'

रघुनाथ थोड़े गंभीर हो गए - 'नाम क्या है उनका?'

'हम लोग तो सुद्धू सुद्धू बोलते हैं लेकिन नाम सुदेस भारती है! राम नहीं लिखते।'

रघुनाथ को काटो तो खून नहीं। यही वह सुदेश भारती था जिसका जिक्र सरला ने किया था! इसी से उसने शादी करने की बात की थी! अगर वह सचमुच कर ले तो गनपत जो उनका हल जोतता है और उनके आगे खड़ा रहता है या मचिया पर बैठता है, उनका रिश्तेदार होगा! खरपत जो गनपत का बाप है, उनका समधी होगा और गले मिलेगा! उनके साथ खटिया पर बैठेगा और दामाद के बाप की हैसियत से ऊँचा होगा उनसे! उनका मन हुआ कि शीला को आवाज दे कर बुलाएँ और कहें कि सुनो, गनपत क्या कह रहा है?

'बाकी सबके अपने अपने दुःख हैं मास्टर साहेब! उसका बियाह छुटपन में ही हो गया था! वह अपनी मेहर को छोड़ दिया है। उसका लफड़ा चल रहा है आजकल किसी मास्टरनी से! वह ऊँची जात की है। कभी कहती है कि बियाह करेंगे तो तुम्हीं से, कभी कहती है - नहीं करेंगे। माँ-बाप नहीं चाहते। इसी में उसे लटकाए चल रही है! फूआ बड़ा दुःखी रहती है।'

'तुम जाओ, देर हो रही है!'

'ऊ मास्टरनी के साथ इहाँ-उहाँ जाता है, होटल भी जाता है, दूसरे सहर में भी घूमता है, खूब ऐयासी करता है बाकी फूआ से नहीं मिलाता। फूआ बोलीं भी कि हमको दिखा दो एक बार, हम बतियाएँगे उससे कि काहे नहीं कर रही बियाह? लेकिन मिलाए तब न?'

'कहा न जाओ, नींद आ रही है! और वह बत्ती बुझा दो!'

'अच्छा साहेब!' गनपत उठ खड़ा हुआ, 'लेकिन साहेब, एक बार समझा देते उसे कि मेहर को छोड़ के काहें ऐसा कर रहा है? मेहरिया तो कहीं चली जाएगी या किसी न किसी को रख ही लेगी, लेकिन बदनामी किसकी होगी? उसी की न?'

'तुम जाओगे कि नहीं, दिमाग मत चाटो!'

'आप नहीं जाना चाहें तो कहिए किसी बहाने हमी उसे ले आएँ!'

रघुनाथ क्रोध से काँपने लगे। उन्होंने उठ कर झटके से बत्ती बुझा दी और उसे ठेल कर बाहर कर दिया! गनपत ने सिर पर बोरा रखते हुए कहा - 'साहेब, जो कहने आया था, वह तो भूल ही गया।' सहसा उसकी आवाज फुसफुसाहट में बदल गई, 'देखिए रहे हैं कि हवा खराब है। नहीं, एक बात कह रहे हैं। ऐसी कोई बात नहीं है लेकिन पहलवान को समझा दें कि जब तक हवा खराब है चमटोल की ओर न देखें। और देखना क्या, जाएँ ही नहीं उधर।...'

रघुनाथ का ध्यान ही नहीं था उसकी फुसफुसाहट की ओर! उनकी चिंता और बेचैनी का कारण दूसरा था - कि कहीं इसे सरला और भारती के संबंधों की जानकारी न हो? जब रिश्तेदार हैं तो कभी न कभी मगरू जरूर मिलता होगा भारती से, हो सकता है भारती ने चर्चा की हो? और न भी की हो तो मगरू ने दोनों को कभी साथ देखा हो? जब एक ही शहर है तो कैसे संभव है कि उसे पता ही न चला हो अब तक?

'शीला!' आखिरकार उनसे रहा न गया और उन्होंने दूसरी हाँक लगाई - गुस्से में।