रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 3 / काशीनाथ सिंह
पहलवान माने छब्बू पहलवान।
पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ गए, पछाड़ कर ही लौटे इनाम के साथ। 'टँगड़ी' और 'धोबियापाट' उनके प्रिय दाँव थे। लंबाई ही नहीं, बला की ताकत और फुर्ती भी थी उनमें! किसी को पकड़ लें तो छुड़ाना मुश्किल, दाब दें तो उठना मुश्किल, पट पड़ के मिट्टी पकड़ लें तो चित करना मुश्किल। भैंस को केहुनी से मार दें तो पसर जाए और उठ न सके!
लेकिन उनके बड़े भाई - जिनके चलते वे पहलवानी कर रहे थे - जब असमय ही अचानक चल बसे तो उन्होंने लंगोट खूँटी पर टाँग दिया और घर की जिम्मेदारी सँभाल ली!
छब्बू की शादी नहीं हुई थी। जब उम्र थी तब की नहीं अखाड़े के जोश में और जब करनी चाही, तो उमर नहीं रही! कोई आया भी नहीं! इस तरह परिवार के नाम पर उनके दस साल का भतीजा था और बेवा भौजी! भौजी रातदिन पूजा-पाठ और धरम-करम में लगी रहतीं और भतीजा स्कूल आता-जाता। खेती-बारी छब्बू सँभालते और सँभालते क्या - हलवाहे झूरी के जिम्मे छोड़ कर निश्चिंत रहते!
लेकिन यह निश्चिंतता उनकी किस्मत में नहीं थी! एक दिन उनकी नजर पड़ गई झूरी की औरत ढोला पर! दो बच्चों की माँ लेकिन सिर्फ कहने को। वह कलेवा ले कर आई थी अपने मरद के लिए! छब्बू ने उसे पहले भी देखा था - जाने कितनी बार! लेकिन अबकी नजर पड़ी नहीं, गड़ी! उन्होंने उसे आते हुए देखा, बैठते हुए देखा, चलते हुए देखा - क्या छरहरा बदन, क्या लोच, क्या गदराए कूल्हे। गड़ गई आँखों में! कहाँ यह हड़ियल झूरी और कहाँ यह गाँजे की कली! बस एक सुट्टा लग जाए तो उड़ जाओ आसमान में और फिर उड़ते ही रहो। जमीन पर लौटने की नौबत ही न आए!
और फिर इसके बाद ही शुरू हुई छब्बू पहलवान के सुट्टा मारने की कहानी!
लेकिन कहानी रफ्तार पकड़ती इसके पहले ही भौजी को अंदेशा हो गया। भतीजे मुन्ना ने माँ से बताया कि उसने चच्चा और ढोला को दालान में छुपाछुपी खेलते हुए देखा था! भौजी रोने लगी। उसने छब्बू से कहा - 'छब्बू! मेरी एक बिनती है! भैया तो रोकने-टोकने के लिए हैं नहीं, तुम करोगे अपने मन की ही। लेकिन चाहे जो करो, करो घर के बाहर! इसे साफ-सुथरा रहने दो!' इशारा समझ गए छब्बू! इसके बाद से ही छब्बू की चमटोल में आवाजाही बढ़ी!
हलवाही के लिए हो या रोपनी कटिया के लिए - बुलाने के लिए चमटोल में जाना ठाकुर अपनी बेइज्जती समझते थे! जरूरी ही हुआ तो वे बच्चों को भेजते थे! लेकिन छब्बू ऐसे मान-अपमान से परे थे। अगर वे गाँव में नहीं दिखाई पड़ते, बगीचे और नहर पर भी नहीं दिखाई पड़ते, खेत-खलिहान में भी नहीं दिखाई पड़ते तो लोग मान लेते कि वे चमटोल में होंगे - ढोला के संग! यह चमटोल भी जानती थी और गाँव भी! गुस्सैल इतने थे कि उनसे सीधे कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी!
सभी अगड़ों ने बारी-बारी से मिल कर घराने के सबसे मानिंद बब्बन कक्का पर दबाव बनाया कि वे अपने स्तर पर जो कुछ कर सकें, करें। समझाएँ या घौंस दें या जात बाहर करें। ऐसा कहनेवालों में अगल-बगल के गाँवों के लोग भी थे! शिकायतों से तंग आ कर कक्का ने छब्बू को बुलवाया। छब्बू ने उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनीं और अंत में बोले - 'बात तो ठीक है कक्का मगर किसको-किसको निकालिएगा जात बाहर? किसी-किसी का ढँका-तुपा है और किसी-किसी का जगजाहिर! लेकिन बचा तो कोई नहीं है मेरी जानकारी में! अगर कोई है तो बताइए उसका नाम? फिर मैं बताऊँ उसके बारे में! रही मेरी बात तो आप से छिपाऊँगा नहीं? मैं सब कुछ करता हूँ लेकिन मुँह से मुँह नहीं सटाता! अपने धर्म और जात को नहीं भूलता!'
कक्का सिर झुकाए बैठे रहे, कुछ नहीं बोले!
छब्बू थोड़ी देर बाद उठ कर चले गए!
लोग मजाक में कहा करते थे कि सिवान में झूरी पहलवान का खेत जोतता है और पहलवान चमटोल में उसका खेत!
और झूरी का यह था कि जब वह खेत जोत कर लौटता तो छब्बू घर में; बुवाई करके आता तो छब्बू घर में; बाजार से लौटता तो छब्बू घर में! वह उनके होने की आहट मिलते ही उलटे पाँव वापस!
उसने एक बार हिम्मत की। हाथ जोड़ कर कहा - 'मालिक! मेरी नहीं तो कम से कम अपनी इज्जत का तो खयाल कीजिए। लोग क्या-क्या कहते हैं आपके बारे में?' इसका नतीजा यह हुआ कि वह पखवारे भर हल्दी-प्याज बदन पर पोत कर घर में पड़ा रहा!
बेबस ढोला। मुहाल हो गया जीना! नरक हो गई थी उसकी जिंदगी! रात भर झूरी की छाती से लग कर सुबकती रहती और गुस्से में फनफनाती रहती!
सबसे बड़ी बात यह कि ग्राम प्रधान चमटोल का, उसी की जाति का, पहलवान के साथ गाँजे का सुट्टा लगाता था और जब कहो तो बोलता था - 'कलेजा कड़ा रखो, बस थोड़ा इंतजार करो!' कब तक इंतजार करो!
सावन शुरू हो गया था! इसी महीने में पचैयाँ (नागपंचमी) पड़ती थी! पहाड़पुर में पचैयाँ छब्बू पहलवान का पर्व था! उस दिन तीन बाल्टियों में भिगोये हुए चने लाए जाते, परात भर के मिठाइयाँ आतीं, बताशे आते, बजरंग बली की पूजा की जाती, छब्बू पहलवान लंगोट पहन कर अखाड़े की मेड़ पर बैठते और अपने चेलों की कलाइयों में रक्षा बाँधते! वे उस्ताद के आशीर्वाद के साथ अखाड़े में उतरते! उनकी कई जोड़ियाँ होतीं और दोपहर बाद तक पट्ठे अखाड़े में जोर आजमाइश करते रहते! सबसे आखिर में छब्बू उतरते - बड़ों के पाँव छू कर और छोटों को हाथ जोड़ कर। यह प्रदर्शन कुश्ती होती। वे अपने दाँव और करतब दिखाते - पहलवानी छोड़ देने के बावजूद!
इस अवसर पर चमटोल से डफले और नगाड़ेवाले भी आते और झूम कर बजाते! अहिरान के बनेठीवाले भी होते और एक-दूसरे से खेलते हुए पसीने-पसीने हो जाते!
दूसरे गाँवों में पचैयाँ मात्र धार्मिक त्यौहार रह गई थी लेकिन पहाड़पुर में अभी चल रही थी - रस्म के रूप में ही सही! लेकिन यह भी सब जानते थे कि यह तभी तक है जब तक छब्बू हैं! ऐसे भी ठाकुरों की नई पीढ़ी के लिए देह बनाना, वर्जिश और रियाज करना, कुश्ती लड़ना फालतू चीज थी। एकदम मूर्खता! तमंचा के आगे मजबूत से मजबूत कद-काठी का भी क्या मतलब? इसीलिए उनके चेलों में ज्यादातर अहिर, कहार, लुहार, गड़रिया थे, ठाकुर-बामन नहीं।
लेकिन अबकी बुरा हाल था पचैयाँ का। पानी सुबह से ही बरस रहा था - कभी मद्धिम, कभी तेज! अखाड़ा एक दिन पहले ही गोड़ कर तैयार किया था खुद छब्बू ने। यह काम चेलों में से किसी को नहीं करने देते थे वे! लेकिन वह कीचड़ हो चुका था - धान के खंधे की तरह! मिठाइयाँ और बताशे आ चुके थे। चने फूल कर अँखुआ गए थे! इंतजार था बारिश थमने का! छब्बू बोल गए थे कि तुम लोग तैयारी रखना; जैसे ही मौसम ठीक होगा, मैं आ जाऊँगा!
मगर न मौसम ठीक हुआ, न छब्बू लौटै!
बारिश तब थमी जब शाम ढली। आसमान साफ हुआ और जहाँ-तहाँ छिटपुट तारे नजर आए! इसी वक्त पुलिस की जीप आई गाँव में और पता चला - छब्बू का कतल हो गया है! जनपद के सबसे दिलेर और बहादुर और ताकतवर आदमी का कतल!
यह खबर नहीं, बिजली थी जो बदरी छँटने के बाद तड़तड़ा कर ठाकुरों के टोले पर गिरी थी! वह चाहे जो था, जैसा था - ठाकुर था और उसके रहते किसी में इस टोले की तरफ आँखें उठा कर देखने की हिम्मत नहीं थी! और अब?
अब, चमटोल के बाहरी हिस्से में एक झोंपड़े के आगे कीचड़ में चारों खाने चित पड़ा था वह। मरा हुआ। खुले आसमान के नीचे। एक लालटेन उसके सिर के पास थी, दूसरी पैरों की ओर। दोनों ईंटों की ऊँचाई पर - ताकि लाश पर नजर रखी जा सके। लाश खुद कीचड़ और माटी में लिथड़ी पड़ी थी। पैर इस तरह छितराए हुए पड़े थे जैसे बीच से चीर दिए गए हो! जननांग काट दिया गया था और उसकी जगह खून के थक्के थे जिन पर मक्खियाँ छपरी हुई थीं, उड़ और भिनभिना रही थीं। पुलिस परेशान थी उस जननांग के लिए - कटा तो गया कहाँ? वह लाश के आसपास कहीं नहीं था। वह लालटेन और टार्च की रोशनी में उसे ढूँढ़ रही थी! जमीन समतल नहीं थी - गड्ढा-गुड्ढी बहुत थे और सबमें पानी भरा था! उसे जहाँ कहीं संदेह होता, लाठी से कुरेद कर देख लेती, भले वह माटी का ढेला हो। एक डर भी था कहीं भीतर कि ऐसा न हो कि कुत्ते आए हों और माँस का लोथड़ा समझ कर किसी दूसरी जगह ले गए हों या खा गए हों!
यह खोज देर रात तक चलती रही!
पुलिस अपनी तरफ से पूरी तैयारी के साथ आई थी लेकिन जिस आशंका से आई थी, वैसा कुछ नहीं हुआ - न कोई बलवा हुआ, न चमटोल फूँकी गई, न बदले की कार्रवाई हुई!
झूरी के झोंपड़े के बाहर ताला लटक रहा था और चमटोल में सन्नाटा था। एक भी मर्द नहीं। सारे मर्द बस्ती छोड़ कर जाने कहाँ चले गए थे। पुलिस के आने के पहले से ही! सिर्फ औरतें और बच्चे थे जो अपने घरों में बंद थे।
हत्या एक ऐसे आदमी की हुई थी जिसके घर कोई एफ.आई.आर. दर्ज करानेवाला भी नहीं था। हत्या किसने की, कब की, कैसे की, क्यों की - इसका कोई चश्मदीद गवाह भी नहीं था।
कयास जरूर लगाए जा रहे थे लेकिन वे कयास भर थे - कि छब्बू सुबह-सुबह अपनी देह की आग बुझाने झूरी के घर पहुँचे! आहट लगते ही झूरी दूसरी कोठरी में छिप गया। ढोला चाँचर खोल कर उन्हें अंदर ले गई! बेसब्र छब्बू लुंगी खोल कर जैसे ही उसके साथ सोने को हुए कि वह उनका फोता पकड़ कर झूल गई! वे उसे मारते-पीटते चीखते-चिल्लाते हुए बेहोश हो कर गिर पड़े। उसी समय झूरी हँसुआ ले कर आया और उसने उनका जननांग काट कर फेंक दिया। दोनों बाहर आ गए कोठरी बंद करके और उनके तड़पने-छटपटाने और मरने तक इंतजार करते रहे! बाद में घसीट कर बाहर कर दिया।
कि वे धान का बीज छीटने बीयढ़ में गए थे उन दोनों के साथ। मारा वहीं, लेकिन केस (बलात्कार) बनाने के लिए दरवाजे के सामने ला पटका।
कि निहत्थे होने के बावजूद पहलवान दो-चार को तो कच्चा चबा जाएँ! दो-चार के मान के नहीं थे वे। चमटोल को पता था कि वे किधर दिसा फरागत होने जाते हैं। पूरी चमटोल ने उधर ही घेर कर अरहर के खेत में मारा जैसे वे सुअर को चारों ओर से घेर कर मारते हैं और झूरी के घर के आगे ला कर फेंक दिया! सिवान में चीखे-चिल्लाएँ भी तो किसे सुनाई दे बादलों की गड़गड़ाहट में ?
इस तरह के चर्चे। अलग अलग कयास, अलग अलग आदमी के! सच्चाई का किसी को पता नहीं। लाश के पास कोई फटका ही नहीं तो पता कैसे? पुलिस ने ही फटकने नहीं दिया!
लेकिन एक बात धीरे-धीरे साफ हुई कि जो कुछ हुआ था, 'अचानक' और 'संयोगवश' नहीं हुआ था। इसके पीछे महीनों से चल रही तैयारी थी! इस तैयारी में अकेले पहाड़पुर की चमटोल नहीं, आस-पास के बीस-पच्चीस गाँवों की चमटोलें शामिल थीं। कतल से पहले और बाद खर्चे ही खर्चे हैं - थाने के सी.ओ. को चाहिए, मुंशी को चाहिए, पोस्टमार्टमवाले डाक्टर को चाहिए, पैरवीकार को चाहिए, वकील को हर तारीख पर चाहिए, गवाहों को चाहिए - ढेर सारे खर्चे। यह कहाँ से करेगा झूरी? सो, सभी चमटोलों के हलवाहों ने चंदे जुटाए थे! दूसरे, उन्हें इंतजार था अपनी जाति के किसी पुलिस अधिकारी का जो धानापुर थाना सँभाले और आ गए थे दो महीने पहले भगेलू यानी बी. राम। साथ ही अक्टूबर में चुनाव था विधान सभा का और कोई ऐसी पार्टी नहीं जिसे अनुसूचित जातियों के वोट की दरकार न हो! तीसरे, चमटोलें जानती थीं कि छब्बू के मसले पर ठाकुर बिरादरी बँट जाएगी, कभी एक न होगी!
और जल्दी ही यह साबित हो गया।