रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 4 / काशीनाथ सिंह

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे!

जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देखते - मास्टर साहब हैं या नहीं? हैं तो खाली बैठे हैं या काम कर रहे हैं? अगर रघुनाथ खाली होते तो छब्बू आ कर बैठ जाते! बोलते कुछ नहीं, बस बैठे रहते! पूछने पर बोलते कि कोई काम नहीं, बस आपके पास कुछ समय बिताना अच्छा लगता है मुझे! अच्छों की सोहबत मिलती ही कहाँ है?

वे जाते हर जगह, लेकिन बैठते यहीं।

वे रघुनाथ के कहे बगैर उनके हित-अहित का अपने आप ही ध्यान रखते। यह उनकी भावना थी जिसके पीछे कोई कारण नहीं था! ऐसा रघुनाथ दूसरों से ही सुनते, छब्बू से नहीं! अभी साल भर पहले की बात है - रघुनाथ के पिछवाड़े उनके चचेरे भाई का घर-दुआर है जिसके आगे तीन बिस्से के करीब उनकी जमीन है! उनकी यानी रघुनाथ की! भाई तक तो गनीमत थी। वे बँटवारे का सम्मान करते थे लेकिन भतीजों की नीयत खराब होने लगी। उन्हीं के घर के सामने दूसरे की जमीन! वे चार भाई थे और सब बालिग! बड़े को रघुनाथ ने ही पढ़ाया था और बिजली विभाग में नौकरी भी दिलाई थी! वह समय-समय पर कब्जा करने की तरकीबें और बहाने ढूँढ़ता रहता! उसने एक बार रात भर में रघुनाथ के पिछवाड़े एक ईंट की दीवार खड़ी कर दी और उनका रास्ता बंद कर दिया। रघुनाथ को सबेरे तब मालूम हुआ जब हल्ला-गुल्ला सुनाई पड़ा! वे पहुँचे तो देखा कि छब्बू लाठी लिए हुए दीवार गिरा रहे हैं और गलियाँ बरसाते हुए नरेश को ललकार रहे हैं - 'घरघुस्से, बाहर निकल और हिम्मत हो तो खड़ी कर दीवार! हम भी देखें! मास्टर को अकेला समझा है क्या? खसरा-खतौनी भी कोई चीज है कि नहीं?'

नरेश और उसके भाई घर में ही घुसे रहे, उनमें से किसी की हिम्मत नहीं हुई कि बाहर आए और छब्बू से लोहा ले!

सच्चाई यह है कि रघुनाथ को नौकरी जाने का जितना दुःख था उससे कम दुःख छब्बू के जाने का नहीं था! क्योंकि छब्बू थे तो रघुनाथ भी थे और उनके लिए पहाड़पुर भी! अब किसके बूते वे रहेंगे ?

छब्बू के मारे जाने के पहले गनपत ने रघुनाथ को इशारों में बता दिया था कि पहलवान कभी आप के यहाँ आएँ तो समझा दीजिए - चमटोल से दूर ही रहें! यह हम दोनों के बीच की बात, किसी तीसरे को न पता चले! बस दूर रहें! रघुनाथ ने एक बहाने से कहा भी था कि - 'छब्बू! अब बहुत हो गया, जाने दो!' छब्बू ने कहा - 'मास्टर साहब! छोड़ तो दूँ, लेकिन जाऊँ कहाँ? गाँव में तो सभी बेटियाँ हैं, बहुएँ हैं! और कहाँ जाऊँ?'

रघुनाथ ने उन्हें तरह-तरह से समझाने की कोशिश की लेकिन बेकार!

उन्होंने भी सोचा था कि अधिक से अधिक क्या होगा - यही होगा कि छब्बू बेइज्जत किए जाएँगे और झूरी-ढोला से संबंध हमेशा के लिए खतम! लेकिन यह तो छब्बू के दुश्मनों ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा। वे यह कहते घूमते रहे कि यह एक ठाकुर की हत्या नहीं, पूरी बिरादरी की मर्दानगी को चुनौती है, उसे ललकारा गया है - लेकिन इस घटना को भुलाना और इसकी चर्चा न करना ही बेहतर समझा सबने!

थोड़ा वक्त लगा ठकुरान (ठाकुर टोला) को बदले हुए समय को समझने और उसके हिसाब से अपने को ढालने में! कई दिनों तक दुआर कूड़ा और कचड़े का ढेर बना रहा, कई दिनों तक चरनी और नाद के आसपास की जगहें गोबर से बजबजाती रहीं, कई दिनों तक बैल खूँटे से बँधे उठते-बैठते रहे, गाएँ-भैंसें रँभाती और पगुराती रहीं! लेटे-लेटे खटिया तोड़नेवाले ठाकुर कभी कोने में पड़ी कुदाल की ओर देखते, कभी फरसा की ओर, कभी फरुही, कूँचा और झाड़ू की ओर - और थक कर अंत में उस छौरे की ओर जिधर से हलवाहे आते थे!

लेकिन हलवाहे जो चमटोल से फरार हुए, वे नहीं लौटे!

एक हफ्ता बीता।

फिर दूसरा हफ्ता बीता।

फिर तीसरा हफ्ता बीता।

उनके जाने से ठाकुर जितने परेशान थे, दशरथ यादव उतने ही खुश! उनके बेटे जसवंत ने इस गाढ़े वक्त में ठाकुरों को सँभाल लिया था। उसने उन्हें हलवाहों की कमी खलने नहीं दी। उसने सबके खेत जोते भाड़े पर। एक दिन भी उसका ट्रैक्टर बैठा नहीं रहा। सबके हल जुआठ धरे रह गए! उसने सबको एहसास करा दिया कि बैल सिरदर्द और बोझ हैं, फालतू हैं, दुआर गंदा करते हैं, उन्हें हटाओ! उनके गोबर भी किस काम के? उनसे उपजाऊ तो यूरिया है!

कुछ बातें बाद में पता चलीं, उस समय नहीं। मसलन, जैसे उसने ठाकुरों को सँभाला, वैसे ही उसने चमटोल को भी सँभाल लिया! कुछ हलवाहे तो शहर चले गए - रिक्शा खींचने के इरादे से या दिहाड़ी पर काम करने के इरादे से लेकिन ज्यादा बड़ी संख्या कोरबा गई - जसवंत के छोटे भाई बलवंत के पास जो दिहाड़ी मजूरों का ठेकेदार था। उसने सबको खदान में काम दिलाया। और यह भी कि गाँव-घर का होने के कारण वह दूसरों से जितना लेता था, उससे कम लिया इनसे!

यही नहीं, जसवंत ने उनकी भी मदद की जो चमटोल में रह गए थे - खास तौर से औरतें! राशन-पानी की गरज से अनाज के लिए उन्होंने ठकुरान में जाना बंद कर दिया था और सूद पर जसवंत से या अहिरान से रुपए लेने लगीं! वे अब सीधे गज्जन साव की दुकान पर जातीं, नगद पैसे देतीं और सौदा-सुलुफ लेतीं!

गाँव धीरे-धीरे पहलेवाले ढर्रे पर लौटने लगा - नए बदलाव और नई व्यवस्था के साथ। फर्क इतना ही आया कि जो हलवाहे बाहर नौकरी करते थे और गाँव लौटते थे, वे ठकुरान में न जा कर अहिरान में जाना उठना-बैठना पसंद करते थे! शायद उन्हें वहाँ बराबरी का एहसास होता था।

रिटायरमेंट के बाद लोगों की देखा-देखी रघुनाथ ने भी अपनी खेती-बारी की दूसरी व्यवस्था की! उन्होंने अपने खेत सनेही को अधिया पर दे दिए! सनेही उनके कालेज का चपरासी था और सात मील दूर अपने गाँव से कालेज आता जाता था। जात का कोइरी! उसकी समस्या उसकी औरत और बाल-बच्चे थे! रघुनाथ ने उसके परिवार के लिए बरामदे का एक हिस्सा और बाहर का झोंपड़ा दे दिया! इस तरह वे भी खेती के झंझटों से निश्चिंत हो कर कहीं आने-जाने लायक हो गए! और कहीं आना-जाना भी क्या, मैनेजर और प्रिंसिपल ने पेंशन लटका रखी थी और वे उसी में लगे हुए थे। वे उसी चक्कर में दो-तीन दिन के लिए शहर गए हुये थे कि इधर उनके भतीजे नरेश ने घर के पिछवाड़े की जमीन दुबारा घेर ली - अबकी कँटीले तारों से।

इतना ही नहीं, नरेश ने पुरानी नाद उस जमीन पर गाड़ी और भैंस बाँध दी! चारों तरफ गोबर और कंडे फिंकवा दिए, जहाँ-तहाँ सनई और पुआल के पूले रखवा कर यह साबित करने की कोशिश की कि पिछले कई सालों से यह उसी के कब्जे में है।

गाँव में घुसते ही छौरे से रघुनाथ ने देख लिया और सीधे वहीं पहुँचे जहाँ नरेश भैंस को सानी दे रहा था। उसने हाथ पोंछ-पांछ कर चाचा के पैर छुए!

'यह सब क्या है?'

नरेश ने आश्चर्य से उन्हें देखा - 'कुछ भी तो नहीं, है क्या?'

क्रोध से थरथरा उठे रघुनाथ - 'गुंडई करते हुए - और वह भी अपने चाचा से - जरा भी शर्म नहीं आई तुम्हें? हटाओ यह सब खूँटा-सूँटा, तार-फार!'

नरेश के तीनों भाई भी घर के अंदर से बाहर आ गए! पड़ोसियों में से कोई नहीं आया। सभी अपने दरवाजे पर बैठे देख-सुन रहे थे!

'वह तो नहीं हटेगा चाचा। हमारे घर-दुआर के आगे की जमीन हमारे मसरफ की है और फालतू में फँसाए हैं आप! जबकि आपकी है भी नहीं, गाँव समाज की है!'

इतना सुनना था कि रघुनाथ के तन-बदन में जैसे आग लग गई। वे फनफना उठे और एक लात मारी नाद पर - 'ऐसी की तैसी तेरी और तेरे गाँव समाज की!' अभी मिट्टी कच्ची थी नाद की, वह एक तरफ लुढ़क गई!

इसी बीच गुस्से में तमतमाया और गलियाँ देता हुआ नरेश का छोटा भाई देवेश दौड़ा और धक्का मार कर रघुनाथ को गिरा दिया। वे सँभलें, इसके पहले ही उनकी छाती पर बैठ कर चीखा - 'साले बुड्ढे! टेंटुआ पकड़ कर अभी चाँप दें तो टें बोल जाओगे! हम जितनी ही शराफत से बात कर रहे हैं, उतना ही शेर बन रहे हो! जा, जो करना है, कर ले!' उठते हुए उसने उनकी कमर पर एड़ जमाई - 'साला बुड्ढा हरामजादा!'

रघुनाथ ने उठने की कोशिश की मगर नहीं उठ सके!

नाद के बगल में पड़े-पड़े उन्होंने चारों तरफ नजर दौड़ाई! घराना देख रहा था और अपने-अपने दरवाजे पर बैठा हुआ था!

थोड़ी देर बाद नरेश ने उन्हें खड़ा किया और घर की ओर ठेल दिया!

'पीस कर लगाने के लिए हल्दी-प्याज न हो तो कहना, भिजवा देंगे!' देवेश चिल्लाया!

क्या हो गया है गाँव को?

यहीं पैदा हुए, पले-बढ़े, पढ़े-पढ़ाया, सबकी मदद की - कभी किताब कापी से, कभी फीस माफी से, कभी रुपए पैसे से; कितने रिश्ते नाते हैं और रहेंगे - आज भी, कल भी, क्या हो गया गाँव को?

क्या इसलिए कि वे घराने की इस या उस पार्टी में नहीं रहे ?

क्या इसलिए कि रिटायर कर गए और किसी काम के नहीं रहे ?

क्या इसलिए कि कभी किसी के झगड़ों और झमेलों में नहीं पड़े ?

क्या इसलिए कि बेटे ने जात बाहर शादी की ?

क्या इसलिए कि बेटा अमेरिका में डालर कमा रहा है ?

क्या इसलिए कि दूसरा बेटा भी नोएडा में एम.बी.ए. कर रहा है ?

क्या इसलिए कि बँटाई पर खेती सनेही को दी - बाहरी आदमी को, इन्हें नहीं?

क्या हो गया अपने ही घराने को? रघुनाथ समझने में नाकाम रहे!