रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 5 / काशीनाथ सिंह

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे!

'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

दो-दो मुस्टंड बेटे और दोनों परदेश!

एक भी यहाँ नहीं जो बाप के बगल में खड़ा होता!

रघुनाथ ने जिन अंडों को से कर बड़ा किया था, वे कोयल के नहीं कौवे के थे। वे खुद कौवा थे, वरना समझ गए होते।

वे अब तक जिस घर में रहते आए थे खपरैलों का था! मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारों का। पुश्तैनी घर! पीछेवाली जमीन जान बूझ कर बँटवारे में ली थी उन्होंने - कि जब पैसा और सौंहर होगा तो पक्का घर बनाएँगे - छोटा-सा ही सही! यह जरूरी था - उनके लिए नहीं, बेटों के लिए। घर ही नहीं रहेगा तो वे आएँगे क्यों? आएँगे तो रहेंगे कहाँ? और जब आएँगे ही नहीं, रहेंगे ही नहीं तो गाँव घर को जानेंगे क्या? फिर बाप दादा की जमीन जायदाद का क्या होगा? कौन देखेगा-ताकेगा? खपरैल का घर तो ढह रहा है! कब बैठ जाएगा, कोई नहीं जानता!

तो पिछले दिनों जब 'प्रोविडेंट फंड' के पैसे मिले थे तभी नए घर में हाथ लगाने का फैसला कर लिया था उन्होंने! अब यह नई मुसीबत!

उन्हें छब्बू की कमी खल रही थी - लगातार!

ये नई नस्लें पैदा हुई थीं गाँव में - तभी से जब से गाँव में बिजली के खंबे, केबुल, ट्यूबवेल, पंपिंग सेट, दवाखाने आए थे, जातियों की पार्टियाँ आई थीं, हर तीसरे घर से फौज में किसी न किसी की भर्ती हुई थी। सवर्णों में एक नस्ल रिसर्च और कोचिंग करनेवाले लड़कों की थी जो शहर से या किसी फौजी के घर से बोतल हासिल करते और रात पंपिंग सेट पर बिताते!

दूसरी नस्ल नरेश और उसके भाइयों की थी! नरेश बिजली मैकेनिक था! सरकारी कर्मचारी था! लेकिन खंबे से तार खींच कर घरों में अवैध कनेक्शन देता था और अच्छी खासी कमाई करता था। उसके तीनों भाइयों की दिलचस्पी पालिटिक्स में थी! देवेश सपा का कार्यकर्ता था, रमेश बसपा का, और महेश भाजपा का। यही पार्टियाँ पिछले बीस सालों से सत्ता में आ जा रही थीं और क्षेत्र में विधायक और सांसद भी इन्हीं पार्टियों के हो रहे थे! तीनों ने बड़ी समझदारी से किसी न किसी नेता को पकड़ रखा था! वे अपने अपने नेता के साथ रहते, घूमते, खाते-पीते और जनता की सेवा करते - यानी ट्रांसफर करवाने या रुकवाने का काम करते! छोटी-मोटी नौकरी से यह बड़ा और सम्मान का धंधा था! लोगों पर रौब भी रहता और दबदबा भी! इनके पास हर मंत्री के साथ उठने-बैठने और खाने-पीने के किस्से होते!

वे जब कभी चार-पाँच दिन गायब रह कर गाँव आते तो सीधे लखनऊ से या किसी महारैली से या 'हल्ला बोल' से ही आते!

इन भाइयों की पहुँच और पैसे की ताकत का बोध रघुनाथ को तब हुआ जब उन्हें दस बारह दिन दौड़ना पड़ा - कभी लेखपाल के पास, कभी थाने पर, कभी एस.डी.एम. के ऑफिस में। कुर्सी सबने दी, सम्मान सबने किया, ध्यान से सुनी उनकी बातें और अंत में कहा - 'मास्साब! आप विद्वान हैं, शरीफ हैं, आपकी सब बातें सही हैं लेकिन किस झमेले में अपने को डाल रहे हैं? वे सब अच्छे आदमी हैं क्या?' मुँह से बोल कर तो कुछ नहीं कहा, इशारों से जरूर समझा दिया कि कर तो सकते हैं कुछ न कुछ, लेकिन बातों से तो सिर्फ बातें ही कर सकते हैं न।

उसी दौरान उन्हें यह भी पता चला कि घराने के आठों परिवारों में से हर परिवार को चुप रहने के लिए नरेश ने दो-दो हजार दिए थे!

रघुनाथ दौड़ लगाते-लगाते थक गए थे! यह उमर भी ऐसे कार्यों के लिए नहीं रह गई थी। अब पहले जैसा दमखम भी नहीं रह गया था। घुटनों में भी दर्द रहता था और गरदन में भी। शीला अलग मरीज थी दमा और गैस की! जब भी रघुनाथ के सामने आती, डकार लेती हुई ही आती। और पिछले दिनों की घटना और पति की परेशानी ने तो उसे और भी नर्वस और निराश कर दिया था।

रघुनाथ दोपहर के खाने के बाद नीम के नीचे लेटे थे और सोच रहे थे कि अब क्या करें ? एकमात्रा रास्ता उन्हें दिखाई पड़ रहा था - कचहरी! लेकिन वह रास्ता बहुत लंबा था। वह जानते थे कि तारीख पर तारीख पड़ती जाएगी। इसी तरह एक दिन वे आते-जाते मर जाएँगे और फैसला नहीं होगा!

इसी बीच शीला आई। उसने कहा - 'अजीब आदमी हैं आप? अकेले चिंता में मरे जा रहे हैं, जिन्हें यह सारा कुछ सँभालना है, उनसे सलाह क्यों नहीं ले रहे हैं? पूछिए तो उनसे?'

'किनसे - बेटों से?'

'हाँ, माना कि एक दूर है लेकिन दूसरा तो पास है!'

'बिल्कुल सही कह रही हो।' उन्होंने राहत की साँस ली - 'बताओ भला! इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था!'

वे उठे और शीला के साथ फोन पर जुट गए। शीला उन्हें बार-बार हिदायत देती रही कि धकियाने, पटकने, मारने-पीटने की बात का जिक्र नहीं करना है वरना परेशान हो जाएगा और पढ़ाई छोड़ कर बीच में ही चल देगा! लाइन मिली रात को दस बजे के बाद! स्वर पर संयम रखते हुए, रघुनाथ ने विस्तार से सब कुछ बताते हुए उससे राय माँगी। यह भी कहा कि यहाँ से केलिफोर्निया की लाइन नहीं मिलती, संजू से भी सलाह ले कर बताना!

राजू ने सुनते ही बीच में टोक कर कहा - 'क्यों मरे जा रहे हैं जमीन को ले कर? छोड़िए उसे और सुनिए, भाभी बनारस से आ गई हैं अशोक नगर में। ज्वाइन कर लिया है यूनिवर्सिटी में। आप माँ को ले कर चले जाइए और वहीं रहिए और सुनिए .....'

सुनने से पहले ही फोन रख दिया रघुनाथ ने! वे माथा पकड़ कर वहीं बैठ गए!

'क्यों, क्या हुआ?' शीला ने पूछा!

'हुआ क्या? अब सँभालो उसे। उड़ कर आ रहा है हवाई जहाज से! आते ही गोली मार देगा नरेश को! वह सब बर्दाश्त कर लेगा, बाप की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेगा....'

'अरे रोको, रोको उसे!'

'उसे तो रोक देंगे, संजय को कैसे रोकेंगे? वह तो वहीं से मिसाइल मारेगा उसके घर पर?'

शीला को संदेह हुआ अपनी समझ पर और वह चुप हो कर उन्हें देखने लगी!

'सालो!' कहते कहते उन्होंने सिर उठा कर शीला को देखा - 'मुझे डर था इसीलिए मैं बात नहीं कर रहा था लेकिन तुम्हारे कहने पर की। मैं इतना बेवकूफ नहीं था कि मेरे दिमाग में न आया हो। लेकिन तुम्हारी जिद पर किया! जाने कहाँ से इतने नालायक और निकम्मे लड़के पैदा हो गए - साले! पिछले जनम के पाप! .... मैंने तीस पैंतीस साल नौकरी की, लाखों कमाए और आज हाथ में एक पैसा नहीं! इस हाथ आए, उस हाथ गए। पूछो कि कहाँ गए तो नहीं बता सकता। और यह जमीन? आज भी जहाँ की तहाँ है! रत्ती भर भी टस से मस नहीं हुई अपनी जगह से! इसने तुम्हारे आजा को खिलाया, दादा परदादा को खिलाया, बाप को खिलाया, तुम्हें खिलाया, यही नहीं, तुम्हारे बेटों और नाती पोतों को भी खिलाएगी! तुम करोड़ों कमाओगे लेकिन रुपैया और डालर नहीं खाओगे। भगवान न करे कि वह दिन आए जब बैंक चावल दाल के दाने बाँटे।' उन्होंने जाँघ पर मुक्का मारा शीला की ओर ताकते हुए - 'साले, तुम लोग बड़े हुए हो अपनी माँ का दूध पी कर। और तुम्हारी माँ की महतारी है यह जमीन। चावल, दाल, गेहूँ, तेल, पानी, नमक इसी जमीन के दूध हैं। और बोलते हो कि हटाइए उसे? छोड़िए उसे?'

गुस्से में रघुनाथ क्या-क्या बोलते रहे, उन्हें खुद कुछ पता नहीं।

किसी तरह शीला ने उन्हें सँभाला और पकड़ कर आँगन में ले गई - 'जाओ, सो जाओ। सोचो मत।'