रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 10 / काशीनाथ सिंह

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो!

यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता है क्या? क्या बेटे अपने नहीं थे? बेटी अपनी नहीं थी? बीवी अपनी नहीं थी? खेत-खलिहान अपने नहीं थे? यह जरूर है कि इनमें से हर एक अपने लिए उनका जीवन चाहता था। किसी को इस बात की परवाह नहीं थी कि वे जी रहे हैं या मर रहे हैं? उसकी अपनी जरूरत सबसे ऊपर होती थी और नहीं चाहता था कि कोई उस पर सवाल उठाए! आप उसे अपने रास्ते जाने दें और जाने देने में मदद करें तो आप से अच्छा कोई नहीं!

लेकिन क्या उनकी जिंदगी ही रघुनाथ की अपनी जिंदगी थी?

नहीं; होनी चाहिए थी अपनी अलग से जो नहीं हुई! नहीं रही! और जीवनाथ वर्मा यह तब कह रहे हैं जब कान सुन नहीं सकते, आँखें देख नहीं सकतीं, जबड़े चबा नहीं सकते, कमर सीधी नहीं हो सकती! और यह सारा कुछ अपनों के प्रति पिता और पति के कर्तव्य की भेंट चढ़ गया! वे यह मानने के लिए हरगिज तैयार नहीं कि वे 'अपनों' के वेश में दूसरे थे! वे कहीं से टपके नहीं थे, अनचाहे भी नहीं थे। रघुनाथ स्वयं कृतज्ञ भाव से शीला को दूसरे के घर से लाए थे; यह उसका उन पर उपकार था कि उन्हें न जानते-पहचानते हुए भी उनके साथ आई थी और एक नई दुनिया रचने में उनका साथ दिया था।

आखिर किस उम्मीद से रघुनाथ शीला ने मिल कर रची थी यह दुनिया? वे इतने निःस्पृह और निःस्वार्थ तो नहीं थे और उनकी उम्मीद भी उनसे अलग नहीं थी जो गाँव- घर के थे। कि जब वे अशक्त हो जाएँगे तो ये बच्चे उनकी आँखें बनेंगे, उनके हाथ-पाँव बनेंगे। कि वे बीमार होंगे तो यही बच्चे उनकी सेवा करेंगे, दवा-दारू करेंगे, अस्पताल में भर्ती कराएँगे। कि मरने लगेंगे तो मुँह में गंगा जल, तुलसी दल डालेंगे, अर्थी सजाएँगे, श्मशान ले जाएँगे, क्रिया कर्म करेंगे!

लेकिन देखो तो इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है? अरे, मरने के बाद सड़ो- गलो, कौवे-चील खाएँ या कुत्ते - क्या फर्क पड़ता है?

लेकिन यही दुनिया का और दुनिया के चलते रहने का कायदा रहा है - कि जीना तुम्हारा कर्तव्य है। किसी ने यह नहीं पूछा खुद से कि किसके लिए जीना है! वह पैदा होने के बाद से जब तक जी रहा है, जीता रहता है! मरने के दिन तक। मरने के दिन बाप बेटे के हाथ वह सारा कुछ सौंप जाता है जो उसके पास रहता है कि लो, सँभालो अब। मैं चला!

रघुनाथ के पास गाँव की जमीन के सिवा कुछ नहीं था और उस जमीन को वे अनमोल समझते थे। बेटे उसे 'कैश' में भुना कर देखते थे और कह रहे थे कि इससे ज्यादा तो मेरी एक महीने की इनकम है।

संजय की इस टिप्पणी ने रघुनाथ के भीतर का सारा जीवन रस चूस लिया था। वे अपने कमरे में खिड़की के पास बैठे हुए कदंब के पत्तों के पार वह आसमान देख रहे थे जो सूर्यास्त के बाद मटमैला पड़ा था। वहाँ उनकी आँखों के सामने एक मद्धिम तारा था जो हिलते पत्तों की ओट कभी छिप जाता, कभी झाँकने लगता! यह तारा नहीं था उनके पिता थे जो उन पर मुसकराते थे और छिप जाते थे!

'अरे जीवनाथ सुनो, सुनो! अपने दिन तो नहीं बचे जीने के लिए लेकिन जिया है मैंने अपने लिए भी।' वे सहसा चिल्लाए जैसे जीवनाथ अभी गेट के बाहर खड़े हों।

तारा का तुक लारा। तारा ने उन्हें लारा की याद दिला दी, उस लारा की जो उनकी नितांत अपनी जिंदगी का गोपनीय हिस्सा थी।

जिन दिनों रघुनाथ अपने 'कैशोर्य' में दाखिल हो रहे थे उन्हीं दिनों उनसे टकरा गई थी लारा चड्ढा। एक अल्हड़ और मासूम-सी लड़की। अंडाकार चेहरेवाली सलोनी साँवली लड़की। सपनीली आँखें। नाक की नोक पर शरारत। ओठों के कोनों पर मुसकान। लहरों की देह पर जैसे हवा में थर-थर बुलबुले। कमी थी तो बस दो डैनों की जिनके सहारे वह जब चाहे तब उड़ सके।

रघुनाथ मामा के घर रह कर पढ़ाई कर रहे थे और वह सामने रहती थी बँगले में। बड़ी बहन हास्टल में थी और वह माँ-बाप के साथ! रघुनाथ से एक क्लास ऊपर थी! वह जब-तब शाम को बल्ब की रोशनी में पापा के साथ बैडमिंटन खेलती थी तो रघुनाथ अपने दरवाजे पर खड़े हो कर देखा करते थे!

एक दिन जब लारा के माँ-बाप किसी समारोह में बाहर गए थे; उसने इशारे से रघुनाथ को बुलाया। वह घर की ड्रेस में थी - स्कर्ट और ब्लाउज में। वह रघुनाथ के साथ कैरम खेलने बैठ गई और कुछ देर खेलती रही! कि अचानक उठी, दौड़ कर लान में गई, पीले गुलाब के फूल के साथ लौटी और बालों में लगा कर खड़ी हो गई - 'अब बोलो, कैसी लग रही हूँ?' भौंचक रघुनाथ देखते रहे और धीरे से बोले - 'अच्छी!'

'अरे, सिर्फ अच्छी?' लारा की आँखें फटी रह गईं।

रघुनाथ की समझ में नहीं आया कि आगे क्या बोलें?

लारा ने पैर से ठेल कर बोर्ड को एक किनारे किया और हाथ पकड़ कर खड़ा कर दिया रघुनाथ को! उसकी आँखें छलछला आईं, बोली - 'गोबर कहीं के! चाहती हूँ कि अच्छी सिर्फ तुम्हारी आँखें नहीं, तुम्हारे ओठ, तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारी पूरी देह बोले!' वह एक-एक करके उनकी कमीज और पैंट के बटन खोलती गई - 'अपना भी मैं ही खोलूँ कि तुम भी कुछ करोगे?' शरमाते हुए उनके कान में बुदबुदाई!

जैसे-जैसे वस्त्र उनकी देह से अलग होते गए, वैसे-वैसे एक अजानी, अदेखी, अकल्पित दुनिया खुलती चली गई उनके आगे - धीरे-धीरे! लेकिन यह 'धीरे-धीरे' असह्य हो गया रघुनाथ को! वे बेसब्र और बर्बर हो उठे! वे लारा के संयम पर चकित भी थे और मुग्ध भी! उसने उन्हें आहिस्ता बिछाया और उन्हीं पर बिछ गई - फूलों से रची हुई गाछ की तरह। उन्हें अपने अंदर लेने से पहले उनके कान में फुसफुसाई - 'बुद्धूराम! कभी मिटाना मत!' और उन्हें ढँके हुए जीभ की नोक से दाईं छाती पर लिखा - 'एल.ए.' जब बाईं छाती पर 'आर' लिख रही थी उसी समय 'कालबेल' बजी!

वह उछल कर खड़ी हो गई, बोली - 'पहनो और भागो पीछे से!'

फिर तो महीने भर बाद ही चड्ढा साहब का तबादला हो गया और वह चली गई!

इस बात को या तो रघुनाथ जानते हैं या लारा - तीसरा नहीं! ऐसी बहुत-सी बातें हैं उनकी जिंदगी की जिसे सिर्फ वही जानते हैं! क्या यह अपने लिए जीना नहीं था?

किसी को नहीं पता कि शुरू से ही रघुनाथ ने एक चोरी की जिंदगी जी है जो उनकी नजर आनेवाली जिंदगी से कहीं ज्यादा असली और अपनी रही है! न माँ-बाप को पता, न बीवी को, न बेटे-बेटियों को! इसी जिंदगी के भीतर एक दूसरी जिंदगी! जिसे लोग देखते और समझते रहे हैं, वह दूसरों के लिए और दूसरों के काम की भले रही हो - उनकी अपनी जिंदगी नहीं थी! मजे और जोखम उस जिंदगी में थे जो उनकी निजी थी और जो प्यार की खोज में गुजरी। जमाने से बच-बचा के, लोगों की आँखों से चुरा के, अपनों की आँखों में धूल झोंक के, उन्हें धोखा दे के। जिसे उनके सिवा सिर्फ उसे पता है जो उसमें भागीदार रहा है। उसकी भनक भले मिली हो किसी को, मुकम्मल जानकारी किसी को नहीं। बेटी को अलबत्ता रही है लेकिन हलकी-फुलकी।

मुकम्मल जानकारी तो तुम्हारे कमीनेपन की भी नहीं है किसी को रघुनाथ? वह भी चोरी का ही जीवन था तुम्हारा! तुम हास्टल में थे उन दिनों! तुम्हारा जिगरी दोस्त श्रीराम तिवारी भेंट करने आया था तुमसे! आया था तो अस्पताल अपनी माँ को ले कर - उसकी हालत सीरियस थी। माँ को अपने भाई के जिम्मे छोड़ कर तुमसे मुलाकात करने आ गया था! जब वह जाने लगा तो उसकी जेब से गिरे हुए धागे में बँधे नोट तुमने देखे और चुप रहे! बाद में गिने तो एक सौ तीन रुपए! माँ को दिखा कर घंटे भर बाद फिर आया - चिंतित, परेशान और घबड़ाया! आते ही वह - जहाँ बैठा था वहाँ, फिर चौकी के नीचे, मेज पर और उसके नीचे, कमरे में चारों ओर - देखता रहा! समझने के बावजूद तुमने उससे पूछा - 'क्या बात है?' 'कुछ रुपए थे दवा के लिए, मिल नहीं रहे! और कहीं तो गया नहीं। तुमने तो नहीं देखे?' और तुमने जवाब दिया था - 'अस्पताल की भीड़-भाड़ में सँभल कर रहना चाहिए था! वहाँ जितने पेशेंट आते हैं उतने ही चोर और जेबकतरे भी! यह आम शिकायत है!' 'नहीं यार, और कहीं गया ही नहीं। गिरा होगा तो यहीं और कहीं गिरने या जेब कटने का सवाल ही नहीं है!'

'तो देखो न! कहाँ है यहाँ पर?'

तो रघुनाथ! यह भी तुम्हीं थे! वही तुम्हारी निजी जिंदगी! अगर यह जिंदगी लोगों को पता चल गई होती तो तुम इतने 'आदरणीय' और 'गण्यमान' रह गए होते या नहीं, खुद सोचो!

रघुनाथ ने सोचा और वर्मा की 'अपने लिए जियो' की सलाह पर अविचलित रहे! कि इस दगाबाज 'आदर' और 'प्रतिष्ठा' के मुकाबले आत्मा का यह नंगापन और खुलापन कहीं ज्यादा अच्छा है। अपने लिए भी और समाज के लिए भी! यह सिर्फ आदमी का नहीं, समाज की विसंगतियों का चेहरा है जो ढँका-तुपा है! समाज जाने कि अगर मैं कमीना हूँ तो इस कमीनेपन का गुनहगार अकेला मैं नहीं हूँ, वह भी है बल्कि कहिए कि उसी की वजह से मैं हूँ।

'पापा!' सोनल ने दरवाजे से आवाज दी - 'आप अभी तक अँधेरे में लेटे हैं?' उसने स्विच ऑन किया और कमरा रोशन हो गया!

रघुनाथ की आँखें चौंधियाईं, फिर फैल गईं - पहली बार सोनल के साथ एक नौजवान। लंबा, खूबसूरत, आँखों पर नहीं, माथे पर चश्मा, कंधे पर झोला, खादी के कुर्ते और जींस की पतलून में। एक हाथ में लिपटा हुआ अखबार! रघुनाथ उठ कर बिस्तर पर आ गए!

'पापा, यह है समीर! दैनिक भारत का उप-संपादक!'

रघुनाथ के पैर छुए समीर ने!

'मेरा कजिन है! मैंने बताया था आपको, भूल गए होंगे! जिन दिनों पटना में रिसर्च कर रही थी, उन दिनों यह भी वहीं था! आज अचानक सेमिनार में मिल गया। ले आई अपने साथ!'

'कहाँ रहते हो, बेटा?'

'यहीं पास में ही। संजय नगर में!'

'अरे, वहाँ तो मैं गया हूँ। अपने दोस्त बापट के यहाँ!'

'मैं उन्हीं के फ्लैट के नीचे रहता हूँ! अब तो उनके फ्लैट में उनका बेटा आ गया है बीवी-बच्चे के साथ!'

चौंके रघुनाथ - 'उनका बेटा? बेटा कहाँ था उनके?'

समीर ने सोनल को देखा! सोनल ने बताया कि उन दिनों पापा गाँव गए थे। उन्हें कुछ नहीं पता!

समीर ने कहा - 'पापा जी, क्या आप को खबर है कि बापट का मर्डर हो गया पिछले दिनों? नहर में उनकी लाश मिली थी? और आप आश्चर्य करेंगे कि एफ.आई.आर. इसी बेटे के नाम दर्ज हुई है। पेपर में आया था यह समाचार! इस बेटे को उन्होंने अनाथालय से एडाप्ट किया था जब वह बच्चा था! पढ़ाया-लिखाया था, कोई नौकरी भी दिला दी इसको। चूँकि इसका चाल-चलन अच्छा नहीं था इसलिए निकाल दिया था उन्होंने घर से! यह चाहता था कि अपने रहते फ्लैट उसके नाम लिख दें! शायद लिखवा भी लिया था इसने; इस शर्त पर कि वह इसमें तभी आएगा जब वह नहीं रहेंगे! ... कहना मुश्किल है कि कैसे क्या हुआ?'

रघुनाथ काठ की तरह बैठे रहे - बिना हिले-डुले! थोड़ी देर बाद चश्मा उतारा, गले में लिपटे मफलर से पोंछा, फिर लगा लिया! जैसे वे बापट को देखना चाहते हों। इस नगर में आने के बाद जो आदमी अकेला दोस्त हुआ था उनका वह बापट थे। उनके मुँह से आश्चर्य की तरह नहीं, एक 'आह' की तरह निकले ये वाक्य - 'यह क्या होता जा रहा है लोगों को! यह कैसी होती जा रही है दुनिया! हम बहुत अच्छे नहीं थे लेकिन इतने बुरे तो नहीं थे!'

'पापा, समीर से कह रही हूँ कि इसी नगर में जब अपना घर है तो वहाँ क्यों है? ऊपर तो एक कमरा खाली ही पड़ा है!'

रघुनाथ ने कातर हो कर हाथ जोड़े - 'जो करना हो करो, मुझे अकेला छोड़ दो! प्लीज!'

रघुनाथ ने बिना खाए-पिए रात गुजारी। नींद ही नहीं आई! वे कमरे की बत्ती बुझा कर सोते थे, लेकिन आज जलती हुई छोड़ दी। एक बजे रात तक उनकी आँखों के आगे बापट का चेहरा घूमता रहा और कानों में उनके गाने - हाये हाये ये जालिम जमाना । लेकिन इसके बाद - इसी के बाद उनके दिल ने कान में 'धक्‌-धक्‌' के बजाय 'कत्ल-कत्ल' धड़कना शुरू कर दिया तो रोशनी का रंग पीला से लाल होने लगा। फिर तो वे जिधर नजरें घुमाते, उधर ही फावड़ा, कुल्हाड़ा, हँसिया, चाकू, कटार, ईंट, पत्थर, तमंचा, उछलते-कूदते ललकारते दिखाई पड़ने लगे। थोड़ी ही देर में बल्ब से रोशनी नहीं जैसे खून के फव्वारे छूटने लगे और चारो दीवारें लाल हो गईं! वे उठ कर बैठ गए और खुद से बुदबुदाए - 'इसी दुनिया में कभी हरा रंग भी होता था भाई, वह कहाँ गया?'