रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 9 / काशीनाथ सिंह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोताजा रहते थे! फिर यह लंबाई घटनी शुरू हुई - आठ मील, फिर छह मील, फिर चार मील, फिर एक मील और अब वह ढाबे में आ कर सिमट गई थी! अगर कहीं निकलना भी होता था तो अब दो पैर काफी नहीं होते थे, एक तीसरा पैर भी लगाना पड़ता था और वह तीसरा पैर था - छड़ी!

अब वह तिपहिया मनुष्य थे!

संतोष था तो यही कि उनकी तरह के तिपाए-चौपाए मनुष्यों से कालोनी भरी पड़ी थी। जीने का सबब यही संतोष था कि वे अकेले नहीं हैं। उनके जैसे बहुत हैं! कई तो उनसे भी बदतर हैं। जिन्होंने जमीनी हिस्सा किराए पर दिया है और खुद रहने के लिए पहली मंजिल चुनी है, वे वहीं अटके पड़े हैं। किसी तरह बालकनी में आते हैं और वहीं बैठे-बैठे पूरे दिन लोगों को आते-जाते देख कर अपने जीवित होने का एहसास करते हैं।

रघुनाथ किसी तरह पार्क और नहर तक तो हो आते थे, गाँव नहीं जा पाते थे। यहाँ से थ्री व्हीलर या टेंपो लेना, बस अड्डे जाना, बस में धक्कामुक्की के बीच चार घंटे बैठे रहना, नहर पर उतरना, फिर वहाँ से पैदल डेढ़-दो किलोमीटर गाँव जाना मुश्किल हो गया था। जोड़ों में दर्द भी रहने लगा था अब। लेकिन जैसे-जैसे गाँव जाना कम होता गया था, वैसे-वैसे वहाँ की जमीन-जायदाद की चिंताएँ बढ़ती ही गई थीं!

सोनल ने उन्हें ढाबे से हटा कर घर के 'गेस्ट रूम' में रख दिया था! वे ठंड से तो बच गए थे लेकिन खिड़की के पास बैठ कर रात भर अपने गाँव और खेतों में घूमते रहते और सनेही को सलाह देते रहते! थक जाते तो बाकी समय यह सोचने में लगाते कि आखिर सोनल उनकी कौन है - न बहू, न बेटी - कि उसके घर में बैठे हुए हैं? जो उनके हैं, वे जाने कहाँ कहाँ हैं? उन्हें तो फिकर भी नहीं है इनकी! पूरा कुनबा - जिसकी एक-एक ईंट उन्होंने जोड़ी थी - बिखर चुका है! शीला - यहाँ तक कि शीला को भी अपनी बेटी के घर बैठ कर झाड़ू लगाना और खाना बनाना मंजूर, लेकिन बहू के यहाँ मंजूर नहीं! और अब तो यह बहू भी कहाँ रह गई है? शीला या जिसे भी पता चलेगा, दस बात उन्हीं को सुनाएगा उलटे कि किस हैसियत से वहाँ हैं आप?

यही बेचैनी एक सुबह उन्हें कालोनी के शर्मा पी.सी.ओ. ले गई! उन्हें सर्दी-जुकाम था! कई दिनों से बाहर नहीं निकल रहे थे! सोनल ही नहीं निकलने देती थी! लेकिन अपने दोनों बेटों से फाइनल बातें करने के इरादे से खिसक आए थे - चुपचाप!

सबसे पहले संजय को उन्होंने फोन किया - यही आठ-साढ़े आठ का समय होता था जब सोनल कंप्यूटर पर बैठती थी!

हलो, मैं बनारस से रघुनाथ!

(संजय)

अपने पास रखो यह चरण स्पर्श! शर्म आती है अपने को बाप कहते हुए मुझे! जो कमीनापन दिखाया तुमने, उसमें मुझे बात नहीं करनी चाहिए, लेकिन....

(संजय)

बकवास बंद करो! सुनो, मैं अशक्त हो गया हूँ! जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं, कब क्या हो? अब खेती मुझसे नहीं होगी। या तो आ कर सँभालो या बताओ क्या करूँ गाँव की जमीन-जायदाद का?

(संजय)

धनंजय से तो पूछूँगा ही, लेकिन बड़े हो तुम! मालिक हो! तुम क्या कहते हो?

(संजय)

नहीं, नहीं, हम वह सब करेंगे जो आप कहेंगे। कहिए तो। सुझाव दीजिए अपना!

(संजय)

हूँ। तो सब बेच दें! उस पैसे से एक-डेढ़ कमरे का बनारस में फ्लैट ले लें। बाकी जमा कर दें और उसके सूद से दोनों परानी जिएँ खाएँ!

(संजय)

हाँ-हाँ, पेंशन तो रहेगी ही! लेकिन सुनिए, यह काम अपने माँ-बाप के लिए आप ही कीजिए! यह मुझसे न होगा!

(संजय)

इसलिए कि यह पाप मैं अपने हाथों नहीं करूँगा! इसलिए कि वह पुरखों की चीज है, उनकी धरोहर है। दूसरे की चीज बेचने का हक मुझे नहीं है!

(संजय)

नहीं, मैं बिल्कुल सेंटिमेंटल नहीं हूँ। लेकिन मेरे खेत जमीन नहीं है। इन्हें जिंस या माल मानने के लिए तैयार नहीं हूँ! और सुनो, अपनी सलाह अपने पास रखो! साले! नमकहराम!

उन्होंने फोन रख दिया!

कुछ देर सोचते रहे कि दूसरा फोन करें या नहीं! आखिरकार लगा ही दिया नंबर!

हलो, धनंजय है क्या?

(महिला स्वर)

मैं रघुनाथ! उनका पिता!

(धनंजय)

हलो राजू, तुम बनारस आए लेकिन गाँव पर नहीं आए। मैं इंतजार ही करता रह गया।

(धनंजय)

मौका नहीं मिला तो नहीं मिला जाने दो। ऐसा है बेटा कि मैं अब किसी लायक नहीं रहा। काम-धाम होता नहीं। समस्या है खेतों की! उनका क्या करूँ?

(धनंजय)

नहीं, वह तो ठीक है लेकिन सनेही कब तक देखेगा? उसे लोग करने नहीं दे रहे हैं। उनकी आँखें लगी हैं हमारे खेतों पर!

(धनंजय)

लेकिन फायदा आज बेचने में नहीं है! अभी भाव चढ़ रहे हैं जमीन के! समझो पाँच साल में ही दुगुने हो जाएँगे!

(धनंजय)

तो अभी रुक जाएँ ? मान लो, रुक जाएँ लेकिन उसके पहले ही मैं चल बसूँ तो? संजय भी बाहर, तुम भी बाहर, फिर कौन...

(धनंजय)

ठीक है, बेच देता हूँ लेकिन उतने पैसों का कुछ करना पड़ेगा न? क्या करूँ उनका?

(धनंजय)

आधा-आधा बाँट दूँ तुम दोनों भाइयों में ? फिर मेरा और तुम्हारी माँ का क्या होगा? हम क्या खाएँगे? अच्छा सुनो, यह बताओ तुम क्या कर रहे हो इन दिनों?

(धनंजय)

अब तक नहीं मिली नौकरी? कितने दिन लगेंगे अभी? तुम्हीं क्यों नहीं आ जाते? मैनेजमेंट के ज्ञान का उपयोग खेती के ही बिजनेस में नहीं हो सकता?

(धनंजय ने फोन काट दिया)

'हरामखोर!' रघुनाथ पी.सी.ओ. के बाहर आ गए! साले, डोनेशन से पढ़ोगे तो पूछेगा कौन? न काबिलियत है न सिफारिश - चले हैं मैनेजर बनने!

वे घर न जा कर सीधे पार्क में गए और लकड़ी की बेंच पर बैठ गए!

पार्क के बगलवाली लेन में घर था पारसनाथ शर्मा का और तीन-चार नौकरानियाँ उनसे उलझी हुई थीं! हफ्ते में एक-दो बार कालोनी के किसी न किसी घर के सामने ऐसे सीन हो जाते थे! क्यों होते थे ऐसे सीन, इसे सब जानते थे इसलिए उसे महत्व भी नहीं देते थे!

था यह कि हर घर में बांग्लादेशी नौकरानियाँ थीं - सोलह-सत्तरह की उमर से ले कर पैंतीस-चालीस साल की! बूढ़ों में से किसी न किसी की 'बुढ़िया' अपने बेटे-पतोह के पास बाहर चली जाती थी कुछ महीनों के लिए। रहती भी थी तो राग-द्वेष से मुक्त हो चुकी होती थी या बुढ़ऊ को इतनी-सी छूट दे रखती थी! बूढ़ों में शायद ही ऐसा कोई बूढ़ा था जिसे अपने जवान होने का भ्रम न हो और वो समय-समय पर यह 'परीक्षण' न करना चाहता रहा हो कि उसमें अभी 'कुछ' बचा है कि नहीं? तृष्णा का मारा हर बूढ़ा प्यार, दुलार, पुचकार के नाम पर ऐसी छूट ले लेता था और नौकरानियाँ भी साबुन, तेल, नेलपॉलिश, लिपस्टिक या पंद्रह-बीस रुपए बख्शीश पा कर संतोष कर लेती थीं। वे उनके यहाँ काम करते हुए अकुंठ भाव से सुरक्षित महसूस करती थीं। समस्या वहाँ खड़ी होती थी जहाँ बूढ़ा अपनी नौकरानी की सेवा के मुताबिक बख्शीश देने में आनाकानी करता था! यह प्रणय कलह जैसा मामला होता था जिसमें किसी तीसरे को दखल देने या बीच-बचाव करने की जरूरत नहीं पड़ती थी! (विस्तृत जानकारी के लिए पत्रकर सुशील त्रिपाठी की 'स्टोरी' पढ़िए - आखिर 'अशोक विहार' के ही प्रवेश द्वार पर 'मर्दाना कमजोरी एवं सिसनोत्थान की समस्या निवारण का जड़ी बूटियों वनौषधियों से शर्तिया इलाज' का पीला तंबू साल भर क्यों तना रहता है?)

इस कलह कोलाहल से निरपेक्ष रघुनाथ बेंच पर धूप सेवन कर ही रहे थे कि उन्हें खोजते हुए पुराने मित्र जीवनाथ वर्मा आ पहुँचे! उनके साथ ही रिटायर हुए थे और रसायनशास्त्र के अध्यापक थे! नगर में बेटे-बहू के साथ साकेत विहार में रहते थे!

कार्यकाल के दिनों में कुछ लोग उन्हें पागल समझते थे और कुछ जीनियस! चना-चबेना पर जीवित रहनेवाली भारत की अस्सी प्रतिशत जनता उनकी चिंता का विषय थी! वे भी शौकीन थे भूँजा (भरसाँय में भुने गए चने, मटर, लाई, चूड़ा, भुट्टे) के। भारी मुसीबत थी आम आदमी की! कड़ाही जुटाओ, बालू या नमक का बंदोबस्त करो, चूल्हा जलाओ, उसके गरम होने और धधकने का इंतजार करो तब कहीं भूँजा तैयार हो! ऐसा नहीं हो सकता कि यह सब झंझट न पालनी पड़े? वर्षों के चिंतन-मनन के बाद उन्होंने एक प्रयोग किया! चूँकि यह राष्ट्रीय स्तर की समस्या थी जिसका समाधान उन्होंने ढूँढ़ा था इसलिए उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उद्घाटन वैज्ञानिक ए.पी.जे.अब्दुल कलाम करें। लेकिन अड़ंगा लगाया रघुनाथ ने। उन्होंने कहा कि प्रयोग अभी प्रक्रिया में है इसलिए आयोजन स्थानीय स्तर पर हो!

काफी खर्च किया वर्मा ने! घर के आगे तंबू लगाया, तीस अध्यापकों के लिए तीस कुर्सियाँ मँगवाईं, कैटरर से चालीस तश्तरियाँ मँगवाई, माइक लगवाया! सभी अध्यापकों की तश्तरी में चार-चार चने रखे, प्रिंसिपल जिन्हें उद्घाटन करना था, उनकी तश्तरी में पाँच! तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रिंसिपल ने मुँह में पाँचों चने डाले और कूँचते ही थूक दिया। माइक पर सिर्फ एक वाक्य बोले - 'ये चने लोहे के हैं और जहर हैं।'

सभी अध्यापकों ने चखे बगैर ही प्लेटें फेंक दीं और चले गए!

उनके अनुसार वर्मा ने उनका अपमान किया था और वर्मा के अनुसार उन्होंने वर्मा का!

प्रयोग यों तो गोपनीय था, उसके बारे में बताया भी नहीं जा सकता था लेकिन रघुनाथ को जो जानकारी थी, वह यह - वर्मा ने झाड़-पोंछ कर जमीन पर एक किलो चना फैलाया, उस पर स्पिरिट छिड़का, तीली जलाई, लपक उठी और चने भुन गए! (छिलके जल गए, गूदे ज्यों के त्यों कच्चे रह गए)

यही भूँजा फेमवाले वर्मा कुछ देर दूर से उन्हें घूरते रहे और धीरे से बुदबुदाए - 'रघुनाथ!' रघुनाथ ने जब सिर उठाया तो वे लपके - 'अरे! यह सचमुच तुम हो? यार, क्या हो गया तुम्हें? ठोकर बैठ गया है, गाल धँस गए हैं, दाँत झड़ गए हैं, आँखें अंदर चली गई हैं - ऐसा कैसे हो गया? पहचान में ही नहीं आ रहे तुम!'

रघुनाथ हँसे, खड़े हुए, उन्हें बँहों में लिया और अपने साथ बिठाते हुए बोले - 'कैसे इधर?'

'कुछ नहीं यार, गए थे कल पेंशन आफिस। जब लौटने लगे तो बड़े बाबू ने पूछा - 'रघुनाथ जिंदा हैं कि गुजर गए?' मैंने पूछा - 'ऐसा कैसे बोल रहे हो?' उसने कहा - 'फाइल बंद पड़ी है उनकी! मई से पेंशन नहीं चढ़ी है।' 'क्यों?' उसने कहा कि उन्होंने 'लाइव सर्टिफिकेट' नहीं दिया है! तो मैं आज यही देखने आ गया कि मामला क्या है?

'बहुत अच्छा किया, इसी बहाने तुमसे भेंट हो गई!'

' लेकिन दिया क्यों नहीं तुमने? उसमें कुछ करना तो है नहीं! फारम भर कर रजिस्ट्रार को देना है। वह दस रुपए लेगा और प्रमाणित कर देगा। फिर साल भर की चिंता खतम!'

रघुनाथ ने बड़े बुझे मन से कहा - 'जीवनाथ! मुझे दस रुपए के जीवन में कोई रुचि नहीं है।'

वर्मा ने बड़ा मायूस हो कर रघुनाथ को देखा - 'यार, क्या बात है? तुम ऐसे तो न थे!'

'चलो घर! जाना ही हो तो शाम को जाना!' रघुनाथ के एक हाथ में छड़ी और दूसरे में वर्मा का कंधा - घर लौटे!