रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 8 / काशीनाथ सिंह

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल!

कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न हो तो जीना भी न हो!

यही सोता रघुनाथ का जीवन था! जब अमेरिका से लौटने के बाद सोनल ने उनसे कहा कि पापा, मुझे लग रहा है, संजय वहीं बस जाना चाहता है। इंडिया आएगा तो जरूर लेकिन रहने के लिए नहीं, 'विजिट' के लिए। तो रघुनाथ उस पर व्यंग्य से मुस्कराए थे - कितना जानती हो संजय को? बाप यहाँ, माँ यहाँ, भाई यहाँ, बहन यहाँ, और तो और बीवी यहाँ। कितना जानती हो संजय को? उन्होंने कहा कुछ नहीं, सिर्फ मुसकराए थे - कि उसने बाप की दीनता और दरिद्रता देखी है। उन्हें दुखी और परेशान देख कर कभी-कभी बोलता था कि चिंता न करें, इतना कमाऊँगा - इतना कमाऊँगा कि घर में रखने की जगह नहीं रहेगी। लेकिन कमाने के इस रहस्य को न वे समझ पाए, न सक्सेना! आज उन्हें लग रहा था कि उसने सोनल से शादी सोनल के लिए नहीं, अमेरिका के लिए की थी!

रघुनाथ! जो जिंदगी तुम्हें जीनी थी, वह जी चुके! अब अपनी फजीहत कराने के लिए जी रहे हो!

यह कोई कह नहीं रहा था लेकिन उनके कान सुन रहे थे और यह मूक स्वर उनके दिल तक पहुँच रहा था!

वे भोजन के बाद घर के पिछवाड़े अपने ढाबे में नहीं गए थे उस शाम, ड्राइंग रूम में बैठे रह गए! सारी रात ऐसे ही काट दी - बैठे-बैठे! नींद आई ही नहीं! तरह-तरह की आशंकाएँ आ-जा रही थीं जिनमें सबसे प्रबल यह कि कहीं यह लड़की आवेश में कुछ कर-करा न ले!

यह कहने की जरूरत नहीं और इसमें भी दो राय नहीं कि इस समाचार से उन्हें एक तरह का 'खल सुख' मिला था - कि उससे विवाह करने के पहले तुमने मुझसे पूछा था? तुम्हारे बाप ने तो बात तक करने की जरूरत नहीं महसूस की थी? यहाँ तक कि निमंत्रण भी औपचारिकता के नाते दिया था। अब भुगतो! जो किया है, उसी का दंड मिला है यह। अब रो क्यों रही हो? मैं या दूसरा कोई क्या करेगा इसमें? ... लेकिन यह 'खल सुख' थोड़ी देर के लिए था। ऐसा सोचना उसके प्रति निष्ठुरता और अमानवीयता होती! उस हालत में तो और भी जब उसने अपने व्यवहार से उनका दिल जीत लिया था! ऐसा खयाल ही अपने आप में नीचता था। ऐसे वक्त में उसे हमदर्दी और प्यार चाहिए।

बिजली ड्राइंग रूम में भी जल रही थी और सोनल के कमरे में भी!

रघुनाथ को जरा सी-आहट मिलती तो दबे पाँव जाते और उसके कमरे में झाँक आते कि सब ठीक-ठाक तो है!

रात के डेढ़-दो के करीब सोनल हँसते हुए ड्राइंग रूम में आई - 'पापा, आत्महत्या नहीं करूँगी, निश्चिंत रहिए! जाइए, सो जाइए मम्मी के कमरे में या अपने ढाबे में!'

रघुनाथ शरमा गए - 'मैं इस डर से थोड़े बैठा हूँ भाई! मुझे नींद ही नहीं आ रही है!'

सोनल का ध्यान ड्राइंग रूम में टँगे उस बड़े फोटो पर गया जो उसके विवाह का था। शायद 'रिसेप्शन' के समय का! संजय-सोनल दो ऊँची मखमली - फूलों से सजी - कुर्सियों पर बैठे हैं और दोनों के सिर पर हाथ रखे सक्सेना साहब पीछे खड़े हैं!

'पापा, एक प्रार्थना है आपसे!'

'बोलो!'

'यह बात घर में ही रहे! आप, मम्मी और सरला दीदी के बीच! मेरे पापा को न मालूम हो!'

'क्यों?'

'वे बर्दाश्त न कर पाएँगे! दो बार अटैक हो चुका है उन्हें!'

रघुनाथ कुछ कहना चाहते थे लेकिन चुप रह गए! वे सोनल को बोलने देना चाहते थे - चाहते थे कि उसके मन में जो कुछ है, उड़ेल कर हलकी हो जाए। यही अच्छा है कि वे सिर्फ सुनें!

'पापा, मैं चाहूँ तो उसे कोर्ट में घसीट सकती हूँ, जलील कर सकती हूँ। मैं भाग कर नहीं आई हूँ, उसे छोड़ कर भी नहीं आई हूँ! आई हूँ उसकी रजामंदी से। मैं ही नहीं, वह भी चाहता था कि मैं 'हाउसवाइफ' न रहूँ। नौकरी करूँ और वह भी अपने देश में! और यहाँ आने के बाद भी तुम मीठी-मीठी बातें करते रहे। एक बार भी नहीं बताया कि तुम्हारे मन में क्या है? ऐसा भी नहीं कि मुझे बुलाया हो और मैंने आने से इनकार किया हो।'

'हद है!' सोनल क्रोध से बिफर उठी - 'तुम समझते क्या हो अपने आपको? अरे, तुमने डाइवोर्स के लिए पूछा होता, 'हाँ' कर देती मैं। तुम नहीं देते, कहते तो - मैं दे देती! पूछा तक नहीं, इशारा तक नहीं किया! बगैर डाइवोर्स के शादी कर रहे हो? अपमानित करके मुझे? बिना किसी गलती के, कसूर के? और बेशर्मी यह कि पूछने पर मुसकराते हुए बताते हो कि हाँ, भई! कर ली! करनी पड़ी! मूर्ख समझते हो मुझे? जैसे मैं तुम्हें जानती ही न होऊँ? जैसे तुम्हारी हरकतों से अनजान रही हूँ? मैं तो बच्चू, तुम्हारी खटिया खड़ी कर देती लेकिन क्या बताऊँ? लोग यही समझेंगे कि मैं यह सब गुजारा भत्ता के लिए कर रही हूँ जबकि मैं थूकती हूँ तुम्हारी कमाई पर! ... क्या समय हो रहा है पापा? चार? साढ़े चार? रुकिए, आप को चाय पिला रही हूँ!'

वह उठी और किचेन में चली गई!

ठंड ज्यादा थी! रघुनाथ पाँव समेटे रजाई में लिपटे सोफे पर पड़े थे! उन्हें यह तो अच्छा लग रहा था कि सोनल का मूड बदल गया है लेकिन यह अच्छा नहीं लग रहा था कि वह उनसे ऐसे बात करे जैसे वही संजय हों! गलती उनके बेटे ने की थी लेकिन अपराधबोध से ग्रस्त वे थे! वह भीतर से डरे और सहमे हुए भी थे!

वे कहते किसी से नहीं थे लेकिन गाँव उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गया था! बेटों को गाँव गए कई साल हो गए थे। उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गई थी गाँव में! घराने के लोग सनेही को ठीक से काम नहीं करने दे रहे थे! तारीख पहले 'बुक' करने के बावजूद जसवंत उनके खेत तब जोतता जब सबके जुत जाते और यही हाल सिंचाई का था। सनेही के खड़े होने और रोकने के बावजूद उसकी नाली बंद कर पानी पहले अपने खेत में ले जाते थे लोग। उसकी खेती हर बार पिछड़ रही थी! बाहरी आदमी - लोगों से झगड़ा मोल ले कर एक दिन भी टिकना मुश्किल था! रघुनाथ खुद कहते थे हर बार - गम खा जाओ, सह लो, मगर झंझट न करना! दयादों की नजर उनके खेतों पर आ लगी थी - यह बात उनसे छिपी नहीं रही! गाँव जाने पर उनका सम्मान सभी करते थे लेकिन यह 'सम्मान' उन्हें काफी रहस्यपूर्ण लगता था।

नरेश ने अपने घर के आगे उनकी जमीन में खूँटा गाड़ कर भैंस बाँधना फिर शुरू कर दिया था। रघुनाथ देख कर भी अनदेखा करके चल देते थे! कौन रोज-रोज किचकिच करे?

इस बार तो सनेही ने जो सूचना दी, उससे वे और भी हदस गए! एक दिन - उनके गाँव जाने के तीन दिन पहले की बात है यह - मोटरसाइकिल से दो लड़के आए थे उनके दरवाजे। पैंट-शर्ट में। वे उतरे और बरामदे में पड़ी खटिया पर लेट गए! सनेही को बुलवाया, पूछा कि मास्टर रघुनाथ का यही घर है? फिर पूछा - वे कब-कब आते हैं? कितने दिन रहते हैं? कब जाते हैं? शहर में कहाँ रहते हैं - तरह-तरह के प्रश्न! जाते-जाते यह भी कहा कि उनका दिमाग तो ठिकाने है? सनेही ने बताया कि वे अच्छे लड़के नहीं थे! इससे पहले उन्हें कभी देखा नहीं था! जो चुप था और लेटा था उसके शर्ट के नीचे पिस्तौल या रिवाल्वर जैसी चीज थी! सनेही की रिपोर्ट का असर यह हुआ कि उन्होंने झुटपुटा होते ही घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था! वे कारण समझने की कोशिश करते रहे थे लेकिन नहीं समझ सके!

शीला की तरह रघुनाथ का भी अजब हाल था! वे यहाँ रहते तो गाँव के लिए चिंतित रहते, वहीं की बातें करते और लौटने का बहाना ढूँढ़ते रहते लेकिन अबकी जैसे संकेत मिले थे, उससे वहाँ के बारे में सोचने से भी डरने लगे थे! अबकी आते वक्त ही उन्होंने तय कर लिया था कि बहुत जरूरी हुआ तो बात दूसरी है, वरना अपने अशोक विहार का ढाबा ही बहुत है! वह बना रहे, उन्हें और कुछ नहीं चाहिए! मगर यहाँ? यहाँ संजय ने उनके लिए एक दूसरी ही समस्या खड़ी कर दी थी! अब वे पूरी तरह से सोनल की मर्जी पर थे। वह चाहे तो रहने दे, चाहे तो निकाल बाहर करे! भई, आप तभी तक मेरे ससुर थे जब तक आप का बेटा मेरा पति था! जब वह पति नहीं, तो आप ससुर कैसे? किस बात के? यह कोई सराय या धर्मशाला है कि पड़े-पड़े रोटी तोड़ रहे हैं? मुफ्त की? चलिए यहाँ से, अपना रास्ता नापिए!

उन्हें भलमनसाहत यही लग रही थी कि वह कुछ कहे, इसके पहले वही कहें कि बेटी, बहुत हो गया, अब आज्ञा दो!

(यह वह समझते थे कि यह कहने का लाभ उन्हीं को मिलेगा। हो सकता है, वह पिघल जाए और मना कर दे)

सोनल चाय ले कर आ गई - दो बड़े मग! एक मग उनके आगे रखते हुए बोली - 'पापा, आपने ऐसा बेटा क्यों पैदा किया जो वह नहीं देखता जो उसके पास है; हमेशा उधर ही देखता है जो दूसरे के पास है - लार टपकाते हुए! पता है, उसने आरती गुर्जर से क्यों की शादी?'

रघुनाथ ने चाय सुड़की! वे किसी और सोच में डूबे थे!

'इसलिए कि वह इकलौती संतान है करोड़पति एन.आर.आई. व्यवसायी की! एक्सपोर्ट-इंपार्ट कंपनी 'आरती इंटरप्राइजेज' के मालिक की!'

'बेटा, हम यह सब नहीं सुनना चाहते! हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि अपने पापा को बुला लो और अब मेरी छुट्टी करो।'

'क्या? क्या कहा आपने? जरा फिर तो सुनूँ?' सोनल की आवाज सहसा ऊँची हो गई!

रघुनाथ बिना उसकी ओर देखे चाय सुड़कते रहे! सोनल ने उनके हाथ से मग छीन लिया - 'जी नहीं, कान पकड़िए और कहिए कि ऐसी बात फिर कभी नहीं करूँगा!'

रघुनाथ ने कातर और निरीह आँखों से उसे देखा!

वह रोती हुई रघुनाथ की गोद में लुढ़क गई - 'पापा! संजय ने छोड़ दिया, कोई बात नहीं; आप तो मुझे न छोड़िए!'