रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 7 / काशीनाथ सिंह

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद!

यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहरा होटल में। माना कि साथ औरत थी - 'काशी दर्शन' के लिए आई होगी कि यह लड़के का गृहनगर है, आसानी होगी। करना यह था कि उसे होटल में ठहरा के तुम अपने घर आ जाते, यहीं रुकते लेकिन नहीं। रघुनाथ नाराज हुए, उन्हें दुःख भी हुआ। ये बातें वे बहू से नहीं कह सकते थे! दूसरी बात थी बाप का 'इगो'! देखना चाहते थे कि जो बेटा दिल्ली से बनारस आ सकता है, वह बाप से भेंट करने के लिए बनारस से डेढ़-दो घंटे दूर पहाड़पुर आ सकता है या नहीं!

शिकायतें तो उन्हें अपने बड़े बेटे संजय से भी थीं लेकिन परदेस की दूरी और उसके 'अकेले' पड़ जाने की कल्पना ने उनकी कठोरता को कम कर रखा था! वह ऐसे देश में था जहाँ माँ नहीं, पिता नहीं, पत्नी नहीं। उसकी क्या हालत होती होगी, ऐसे में - जब इनके लिए हूक उठती होगी! वे भूले नहीं थे कि अपने मन से विवाह करने के बावजूद उसने पिता की जरूरतों को याद रखा था! यही नहीं, वह जो डी-1 अशोक विहार में इतने दिनों से चैन की बंशी बजा रहे हैं और खटिया तोड़ रहे हैं - उसी के चलते! उसे उनकी एक और एकमात्र इच्छा की भी जानकारी है - एक तरह से पिता की अंतिम इच्छा कि वे आखिरी साँस पहाड़पुर में बने नए घर में छोड़ें! उन्होंने गाँव के पी.सी.ओ. से शुरू में दो-चार बार फोन कर के याद भी दिलाया कि कुछ भेजो, जितना बन पड़े उतना ही सही, कम से कम ढाँचा तो अपने रहते खड़ा कर दें। उसने भी आरंभ में उत्साह दिखाया लेकिन आखिरी बार झल्ला कर कहा कि रुपए क्यों बरबाद करने पर तुले हुए हैं, उसके सदुपयोग के बारे में सोचिए! उसके बाद से ही रघुनाथ रूठ गए! न इन्होंने फिर फोन किया, न उसने बात की!

सोनल जरूर बातें करती है - कंप्यूटर के आगे बैठ कर, कान में ईयर फोन लगा कर। महीने में कभी एक बार, कभी दो बार! रघुनाथ से भी कहती है कि पापा, आ जाएँ। आप भी बतिया लें! लेकिन जब संजय ही नहीं कहता तो सोनल के कहने और चाहने से क्या? इस तरह उनका रूठा रहना जारी है - वही बाप का 'इगो'! इतना जरूर है कि जब कभी संजय का फोन आता है - जो कम ही आता है, वे बुलाए जाने का इंतजार करते हैं जिसकी नौबत कभी नहीं आई!

संजय एक बार बोल गया था - झटके में। तब उसका भाई भी उसके साथ था। वह राँची में पढ़ रहा था उन दिनों! रघुनाथ मास्टर आदमी! किसी प्रसंग में 'कृतज्ञता' का मतलब समझा रहे थे उन्हें कि कोई तुम्हारे लिए जरा-सा भी कुछ करता है तो उसे भूलो मत, याद रखो और अवसर मिले तो उसके लिए जो कुछ कर सकते हो, करो। इसी जन्म में उऋण हो जाओ। इससे बड़ा सुख दूसरा नहीं! जब रघुनाथ चुप हो गए तो संजय बोला था - 'पापा, इसका तो मतलब हुआ कि तुम जहाँ हो, वहीं खड़े रह जाओ! बार-बार पलट कर देखोगे तो आगे कब बढ़ोगे? आप कृतज्ञ होने के लिए कह रहे हैं कि पैरों में बेड़ी पहनने के लिए!...' यह बात आई-गई हो गई लेकिन रघुनाथ के दिमाग से गई नहीं!

रघुनाथ भी चाहते थे कि बेटे आगे बढ़ें! वे खेत और मकान नहीं हैं कि अपनी जगह ही न छोड़ें! लेकिन यह भी चाहते थे कि ऐसा भी मौका आए जब सब एक साथ हों, एक जगह हों - आपस में हँसे-गाएँ, लड़ें-झगड़ें, हा-हा हू-हू करें, खायें-पिएँ, घर का सन्नाटा टूटे। मगर कई साल हो रहे हैं और कोई कहीं है, कोई कहीं। और बेटे आगे बढ़ते हुए इतने आगे चले गए हैं कि वहाँ से पीछे देखें भी तो न बाप नजर आएगा, न माँ!

कभी-कभी उन्हें लगता कि वे बापट की तरह बेऔलाद होते तो कहीं ज्यादा अच्छा होता। वे भी उनकी तरह दारू छान कर गाते हुए मस्त रहते!

गाँव से लौटने के बाद उन्होंने बहू से धनंजय के बारे में कुछ नहीं पूछा! बहू खुद ही उदास और बीमार लग रही थी! यह सोच कर कि 'औरतों को बहुत-सी ऐसी बीमारियाँ होती हैं जिनके बारे में न पूछना ही ठीक।' चुप लगा गए!

उनके बीच बातें होती थीं रात को खाने की मेज पर। रघुनाथ गाँव की स्मृतियों में जीते रहते थे, वे वहीं की बातें करते थे, बहू विश्वविद्यालय की, अपने विभाग की, लड़के-लड़कियों की, प्रशासन की। उसको अन्यमनस्क देख कर रघुनाथ ने ही शुरू किया पहाड़पुर में होनेवाले 'ग्रामसभा' चुनाव को ले कर - 'समझो, ऐसे वक्त पर गया था जब गहमागहमी थी चुनाव की। पहाड़पुर की ग्राम सभा है आरक्षित कोटे की! लड़ते हैं दलित जबकि निर्णायक होते हैं ठाकुर वोट जिनकी संख्या है साठ! ये साठ वोट जिसे चाहें उसे सभापति या प्रधान बना दें। खड़े हैं सोमारू राम और मगरू राम - मैं जिस दिन पहुँचा, उसी दिन शाम को ठाकुरों की बटोर थी बब्बन कक्का के यहाँ! तय हुआ कि यही मौका है जब वे पकड़ में आए हैं और यही मौका है बदला लेने का! जितना ऐंठना हो, ऐंठ लो वरना फिर हाथ नहीं आनेवाले! विचार हुआ कि दुनिया और देश इक्कीसवीं सदी में चला गया है और पहाड़पुर में मंदिर ही नहीं, जल चढ़ाने के लिए बस महादेव की पिंडी है! मंदिर बनवाने के लिए मतदान से पहले ही उनसे पैसे ले लिए जाएँ। कहा जाए कि जो एक लाख देगा, वोट उसी को दिए जाएँगे!

'अगर इसके लिए दोनों ही तैयार हों तब?' किसी ने बीच में टोका!

इस पर दो मत सामने आए! एक ग्रुप का कहना था कि ऐसी हालत में बोली बढ़ाते जाइए। एक का डेढ़, डेढ़ का दो - ऐसे। जो अधिकतम दे, वोट उसे दिये जाएँ! दूसरे ग्रुप का कहना था कि नहीं! यह मोल भाव है, नीलामी जैसी चीज है, अपनी जबान से पलटना है, हमारी प्रतिष्ठा और मर्यादा के अनुकूल नहीं है! दोनों से ही एक-एक लाख ले लिया जाए और वोट आधे-आधे बाँट दें! तीस एक को, तीस दूसरे को! बताया दोनों को न जाए। वे मान कर चलें कि साठों हमीं को जा रहे हैं!

नई पीढ़ी इन दोनों से असहमत थी! उसका कहना था कि आप लोग अपने मंदिर और महादेव को ले कर चाटिए, हमें हमारी दारू और मुर्गा चाहिए!

रघुनाथ को यह सब सुनाते हुए मजा आ रहा था लेकिन वे देख रहे थे कि सोनल न तो सुन रही है, न रस ले रही है। उसका मन कहीं और है। खाना खा चुकने के बाद जब वे हाथ धो कर आए तो देखा कि सोनल अपने बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ी है और सुबक रही है। रघुनाथ उसके कमरे में खड़े हो कर कुछ देर समझने की कोशिश करते रहे - 'बेटा सोनल, क्या बात है?'

सोनल फफक पड़ी।

'बेटा, बोल तो सही, बात क्या है?' रघुनाथ ने खुद को सँभालते हुए पूछा!

'संजय ने दूसरी शादी कर ली, पापा!' सोनल ने हिचकियों के बीच कहा - 'मैंने कल फोन पर बात की, तब बोला। कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता!'