रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 6 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी छुट्टी हो। वरना नौकरानी खाना पका कर चली जाती थी और वह खुद ही निकाल कर खा लेते थे। नाश्ता इनका अलग था, सोनल का अलग। इन्हें अँखुवाये चने और दूध से मतलब था - बस!

शीला की गलतियों से इन्होंने बहुत कुछ सीखा था! ये अपने हिसाब से उसे नहीं चलाते थे, उसके हिसाब सें खुद चल रहे थे। इन्हें 'ससुर' के बजाय 'बाप' बन कर चलना ज्यादा सुविधाजनक लगा था। अव्वल तो तनाव का कोई मसला पैदा ही न होने दो और पैदा भी हो तो गम खा जाओ या टाल जाओ! दो जून खाने और सोने से मतलब - बाकी तुम जानो, तुम्हारा काम जाने! राशन गाँव का, सब्जी पेंशन की। और पेंशन इतनी मिल ही जाती है कि अपनी ही नहीं, दूसरे की भी छोटी-मोटी जरूरत पूरी हो जाए!

बेटे-बहू के साथ जीने का यही सलीका होना चाहिए कि न आप उनके मामले में दखल दें, न वे आपके मामले में! सह जीवन के लिए यह समझदारी जरूरी है!

इसी समझदारी ने ससुर और बहू को एक दूसरे का दोस्त बना दिया था! हो सकता है, इसके पीछे कहीं न कहीं उनका अपना 'अकेलापन' भी हो और 'ऊब' भी!

ऐसे, सोनल ने अपने व्यवहार से उनके भीतर की आशंका खत्म कर दी थी कि अपने पति के सिवा उसकी किसी में रुचि नही है। वह अकसर बातें करती थी - शीला से, सरला से। रघुनाथ को भी बीच-बीच में बात करने के लिए याद दिलाती रहती थी। बनारस से मिर्जापुर की दूरी ही कितनी है - जब चाहे जाओ, जब चाहे आओ! चाहो तो कई चक्कर लगाओ एक ही दिन में। जब सोनल के आग्रह पर पहली बार सरला आई थी 'अशोक विहार', तो वह सोनल के लिए दीदी के साथ ही ननद भी थी! विदा करते समय उसे सोने की चेन और अंगूठी के साथ दो साड़ियाँ उसके लिए और दो मम्मी के लिए दी थीं उसने! उसके बाद भी सरला कई बार आई और हर बार सोनल जो कर सकती थी करती रही - यानी घर की जो चीज सरला को पसंद आ जाए, वह सरला की! यह कभी नहीं सोचा कि सरला बड़ी है - देने का फर्ज उसका है।

शीला को भी अपनी गलती का एहसास हो गया - कि उसने बहू को समझने में भूल की!

यही नहीं, सोनल ने अपनी तरफ से बाप और बेटे - रघुनाथ और धनंजय के बीच की दूरियाँ भी कम करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि वे दूरियाँ घटने के बजाय और बढ़ गईं - लेकिन इसमें उसका दोष कहाँ था?

उसने धनंजय को फोन करके कहा कि भैया, तुम तो हद कर रहे हो! अमेरिका से पैसे मँगाना होता था तो क्या-क्या नहीं बोलते थे? कितनी बातें करते थे कि यह जरूरत है, वह जरूरत है! और यहाँ इतने दिनों से हम आए हैं और एक बार भी देखने नहीं आए कि भाभी कैसी है? पापा को भी ठीक-ठीक पता नहीं कि तुमने एम.बी.ए. किया कि नहीं किया और कर लिया तो अब क्या कर रहे हो? तुम्हारी शादी के लिए आ रहे हैं लोग। पापा-मम्मी परेशान हैं! क्या चाहते हो, बताते तो सही! एक-दो दिन के लिए ही सही, आ तो जाओ!

इसी फोन का नतीजा था कि वह आया मगर ठहरा घर में नहीं, डायमंड होटल में! इसलिए कि अकेला नहीं था, साथ में एक महिला थी अपनी बच्ची के साथ!

सोनल ने उन्हें रात को खाने पर आमंत्रित किया।

जब रघुनाथ को यह खबर मिली तो वे उठे और चुपके से पहाड़पुर चले गए!

धनंजय को थोड़ी देर हो गई थी। वह टैक्सी से आया था। साथ में आनेवाली महिला महिला नहीं, लड़की थी - के. विजया। सोनल की ही उमर की या उससे थोड़ी बड़ी। नाक में हीरे की चमकती हुई कील, कानों में झूलती हुई रिंग, जूड़े में बेले के फूल। एकदम दक्षिण भारतीय लेकिन गोरी और सुंदर! बातों में पता चला कि वह दिल्ली में किसी कारपोरेट कंपनी में नौकरी करती है! उसी कंपनी में उसका पति भी काम करता था पहले से! उससे अच्छे पद और वेतन पर! वह अविवाहित था। इन्होंने शादी की और नोएडा में डुप्लेक्स फ्लैट लिया! बच्ची पैदा होने के कुछ दिनों बाद ही एक सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई! घर, गाड़ी, नौकरी, बच्ची सब कुछ लेकिन वह बेसहारा। भावनात्मक रूप से टूट चुकी थी वह! ऐसे ही में धनंजय से मुलाकात हुई थी।

बच्ची का नाम रत्ना डी. था। वह धनंजय को पापा बोल रही थी!

सोनल सुनते हुए असमंजस में पड़ी रही कुछ देर, फिर इतना कहा - 'तुम लोगों को सीधे घर आना चाहिए था।'

धनंजय ने सफाई दी कि विजय के पास समय नहीं था। उसे बाबा विश्वनाथ का दर्शन करना है, गंगा नहाना है, घाट देखना है, सारनाथ जाना है - समय कहाँ है?

जिस समय अमेरिका के दिनों के अलबम देखने-दिखाने का कार्यक्रम चल रहा था, उसी समय डिनर की तैयारी के बहाने सोनल किचेन में आई और हेल्प करने के लिए धनंजय को बुलाया!

'राजू, इतनी बड़ी बात! न तुमने पापा को बताई, न मम्मी को, न हमें - यह क्या देख रही हूँ?'

'कौन-सी बात?'

'अरे यही कि तुमने शादी कर ली और किसी को खबर नहीं दी?'

'किसने कहा कि शादी कर ली?'

सोनल ने आश्चर्य से धनंजय को देखा - 'तुम दोनों एक ही छत के नीचे रह रहे हो जाने कब से और बच्ची पापा बोल रही है तुमको और शादी भी नहीं की - मामला क्या है?'

धनंजय मुसकराया - 'भाभी, मामला कुछ नहीं है! बात सिर्फ इतनी है कि उसे मेरी जरूरत है, और मुझे उसकी - जब तक जॉब नहीं मिल जाती!'

'क्या उसे इस बात का आभास है कि तुम उसके साथ तभी तक हो जब तक जॉब नहीं मिल रही है?'

'यह मैं नहीं जानता!'

'तुम उसके साथ रह रहे हो, उसका खा रहे हो, पी रहे हो, पहन रहे हो, उसकी गाड़ी और पेट्रोल पर घूम रहे हो, उसकी बच्ची तुम्हें पापा मानती है, तुम्हारे भरोसे घर और बच्ची छोड़ कर नौकरी कर रही है, तुम उसके रिश्तेदार और नौकर भी नहीं हो - फिर कौन-सा नाता है तुम्हारे-उसके बीच?'

झुँझला कर धनंजय ने कहा - 'भाभी, छोड़िए यह सब! चलिए खाया जाए!'

'अरे, ऐसे कैसे छोड़िए! तुम उसे धोखा दे रहे हो और बेवकूफ बना रहे हो! या फिर हमसे झूठ बोल रहे हो और छिपा रहे हो!'

'दिल्ली की लड़कियों को नहीं जानतीं आप? हो सकता है, बच्ची कल से स्कूल जाने लगे तो कान पकड़ कर बाहर कर दे!'

'एकदम कर देना चाहिए तुम्हारी चाल को देखते हुए।' सोनल ने उसकी टोह लेते हुए पूछा - 'एक बात बताओ, तुम्हारी नजर कहीं उसके धन-दौलत और सुख-सुविधा पर तो नहीं है?'

'अच्छा रहने दीजिए! अब आप हद कर रही हैं!'

'मैं इसलिए कह रही हूँ कि अगर हो, तब भी तुम्हें कर लेनी चाहिए! सुंदर है, समझदार है, जॉब में है, तुम्हें जॉब न मिले तब भी कोई हर्ज नहीं! मैं साथ हूँ तुम्हारे। समझा? चलो अब!'

सोनल ने विजया को आवाज दी। सभी किचेन से दोंगे, प्लेटें और तश्तरियाँ डाइनिंग रूम में ले गए - एक-एक कर के! सोनल ने रत्ना डी. को गोद में बिठाया, खाया-खिलाया और साढ़े दस ग्यारह बजे विदा किया!

विदा होने से पहले धनंजय भाभी को अलग ले गया - 'भाभी, क्या यह सच है कि भैया ने वहाँ कोई शादी की है?'

सोनल उसका मुँह देखने लगी!

'आरती नाम की कोई लड़की है क्या वहाँ?'

सोनल बगैर उन्हें विदा किए घर में भाग आई!