रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 5 / काशीनाथ सिंह

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई।

जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर को एक-डेढ़ घंटा छोड़ कर - जब नौकरानी खाना पकाने आए - रघुनाथ पूरी तरह आजाद थे! वे जब चाहें तब, जहाँ चाहें वहाँ, आ जा सकते थे, घूम सकते थे, मिल-मिला सकते थे; कोई पूछने-ताछनेवाला नहीं!

ऐसे भी रघुनाथ घर में रहते हुए एक तरह घर के बाहर ही थे। पिछवाड़े बाउंडरी वाल से लगी हुई एक ईंट की दो दीवारें थीं जिन पर अस्बस्टर पड़ा था! सोचा गया था कि अगर नौकर-चाकर या ड्राइवर हुआ तो उसी में रहेगा! रघुनाथ की व्यवस्था शीला के साथ उसी के कमरे में थी लेकिन उन्हें यह पसंद नहीं आया! घंटे-दो घंटे के लिए तो ठीक, इससे ज्यादा कभी वे बीवी के साथ सोए ही नहीं! आने के दिन ही उन्हें यह जगह जँच गई। इसी के बगल में नल भी था और शौचालय भी! और क्या चाहिए? नाश्ता- खाना घर में, बाकी सब बाहर!

शीला के साथ रघुनाथ के रिश्ते दांपत्य के ही रहे, प्यार के नहीं हो सके! यह भी कह सकते हैं कि वे शीला के साथ सो तो लेते थे, प्यार नहीं करते थे। और मानते थे कि इसकी जिम्मेदार खुद शीला है। वह ऐसी औरत थी जिसे प्रतिदिन प्यार का प्रमाण चाहिए - यह नहीं कि एक बार या दो बार या तीन बार आपने उसे आश्वस्त कर दिया कि आप किसी और को नहीं, उसी को प्यार करते हैं तो वह मान जाए! वह अगले दिन फिर परीक्षा लेना चाहेगी कि वह कहीं आकस्मिक तो नहीं था? यही नहीं, वह अपने प्यार को केवल शिकायतों में ही व्यक्त कर सकती थी - इसके सिवा उसके पास और कोई दूसरी भाषा नहीं थी! इन स्थितियों ने रघुनाथ में सिर्फ चिड़चिड़ाहट ही नहीं पैदा की थी, उन्हें उसकी ओर से उदासीन भी कर दिया था! शीला ने कभी उनकी रुचि या पसंद के हिसाब से अपने को बदलने की भी कोशिश नहीं की! मसलन, वे चाहते थे कि घर में कोई अच्छी बात हो तो शीला खुश हो, उल्लसित हो, उसमें उत्साह और जोश नजर आए, हँसे-गाए, कुछ भी करे! लेकिन उसका चेहरा ऐसा पथरीला था कि उस पर कोई भी कोमल भाव नहीं आ पाता था। यहाँ तक कि रघुनाथ जब खुशी के मारे उछलने-कूदने और बेचैन होने लगते थे तो वह उनका उपहास करती-सी निर्विकार खड़ी रहती थी।

खुशी उसके चेहरे पर उभरती भी थी तो अनचाहे धब्बे की तरह - फिर गायब हो जाती थी।

इसके सिवा उसमें खूबियाँ ही खूबियाँ थीं! वह अपने पति और पुत्रों के पद और प्रतिष्ठा से हमेशा खुद को अलग रखती थी। दूसरों के पास ऐसा बहुत कुछ होता था जो उसके पास नहीं था लेकिन उन्हें देख कर उसमें कभी ईर्ष्या नहीं होती थी! समभाव उसका स्वभाव था। वह तभी विचलित होता था जब वह किसी गरीब गुरबा को जरूरतमंद और कातर देखती थी! वह सब कुछ सह सकती थी मगर किसी की धौंस नहीं!

शीला के जाने के बाद रघुनाथ ने राहत की साँस ली थी! वह उनसे बहू के बारे में कुछ नहीं बोलती थी, इसके बावजूद वे तनाव में रहते थे। इस तनाव से अब वे मुक्त हो गए थे!

शुरू-शुरू में रघुनाथ को 'अशोक विहार' पसंद नहीं आया। उन्होंने इतनी उजाड़ और उदास बस्ती देखी ही नहीं थी! देखना तो दूर, सोचा भी नहीं था। उनसे किसी ने बताया था कि यह पूरा इलाका कभी श्मशान हुआ करता था! हो सकता है, यही वजह हो कि उन्हें हर गली और हर मकान की हर खिड़की से आती हुई हवा में 'मृत्युगंध' घुली हुई लगती थी! यानी इधर से गुजरिए तो, उधर से गुजरिए तो नाक दबा कर या उस पर रुमाल रख कर!

आँखें बंद कर के देखिए तो पूरी बस्ती उस बंदरगाह की तरह थी जहाँ सभी यात्री 'महाप्रयाण' पर निकलने या 'उस पार' जाने की तैयारी में लगे हुए हों!

लेकिन एक सुबह - ऐसी सुबह रोज आती थी और इन्हीं आँखों से रघुनाथ देखा करते थे - उस सुबह ध्यान गया पार्क की ओर आते एक बूढ़े की ओर - लकवे का मारा हुआ, मुँह टेढ़ा, गरदन बेकाबू, बायाँ बाजू झूलता हुआ असहाय, घिसटता हुआ बेबस पाँव, दूसरी गली से निकलता एक दूसरा बूढ़ा जिसकी एक आँख खुली और दूसरी पर हरी पट्टी, उसके पीछे एक और बूढ़ा जिसके गले में कालर यानी, स्पांडिलाइटिस का पट्टा, तीसरी गली से भी एक बूढ़ा आ रहा है पार्क के गेट की तरफ - धीरे-धीरे। उसके एक हाथ में बोतल है और ट्यूब लुंगी के अंदर!

सूर्य जैसे-जैसे ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे हर कोने से खरामाखरामा आनेवाले ऐसे ही बूढ़ों की तादाद बढ़ती जाती है!

रघुनाथ को लगा, ये बूढ़े नहीं हैं - यह जिंदगी की भूख है, जीवन की प्यास है, स्वयं जीवन है - जो बूँद-बूँद करके एक गड्ढे में जमा हो रहा है; वैसे ही जैसे किसी पहाड़ी की कई-कई दरारों से पानी की एक लकीर चलती है और किसी सोते से मिल कर कभी न सूखनेवाला - मीलों तक फुहियाँ उड़ानेवाला, शोर मचानेवाला धुआँधार 'फाल' बन जाती है!

जीवन का यह झरना हर सुबह रघुनाथ को अपनी ओर खींचता है - रग्घू, आओ! सुनो! भीगो! लेकिन रघुनाथ फुहियों में भीगने से बराबर बचते हैं।

क्यों बचते हैं रघुनाथ - इसे वे नहीं समझ पाते।

जब सभी बूढ़े अपनी मृत्यु के विरोध में बड़े मन और जतन से 'बाबा रामदेव' छेड़े रहते हैं, रघुनाथ सिर झुकाए चुपचाप पार्क के बाहर-बाहर से निकल जाते हैं!

उनकी पसंदीदा जगह यह नहीं, नहर थी! अशोक विहार से डेढ़ किलोमीटर दूर। नहर के पार उससे सटी हुई बगिया थी और बगिया के आगे 'संजय विहार' कालोनी। यह भी कोई गाँव रहा होगा जिसकी यह बगिया थी - आँवला, बेल और अमरूद के पड़ों से भरी और घनी। रघुनाथ नहर के पुल पर तब तक बैठते थे जब तक धूप सहने लायक रहती थी, उसके बाद बगिया में!

इसी पुल पर उनकी मुलाकात हुई थी एल.एन. बापट से! बापट बनारस के महाराष्ट्रियन थे! यहीं पढ़े लिखे, यहीं से नौकरी शुरू की और जौनपुर से डिप्टी जेलर हो कर रिटायर हुए थे! काफी मस्त आदमी थे - पुराने फिल्मी गानों के शौकीन। उनके दो ही शौक थे - पीना और गाना! गाते तभी थे जब पीने बैठते थे। उनके कोई संतान न थी - न बेटा, न बेटी। बीवी थी जिसे 'बुढ़िया' बोलते थे। उन्होंने संजय नगर में एक छोटा-सा फ्लैट लिया था जिसमें कभी कभी जबरदस्ती रघुनाथ को ले जाया करते थे! और जब भी ले जाते थे, 'किताबखोर' और 'जाँगरचोर' मास्टरों को गरियाते हुए जरा-सा चखा दिया करते थे।

सूर्य उनका शत्रु था। वे नियम से पाँच बजे शाम को ही पुलिया पर आ जाते थे और उसे गलियाँ देना शुरू कर देते थे - 'रघुनाथ, जरा देखो साले को! जान बूझ कर देर कर रहा है भोंसड़ी के डूबने में!' वे शाम होते ही बेचैन होने लगते थे और घर की ओर ऐसे भागते थे जैसे पुलिस की गिरफ्त से छूटते ही चोर!

हफ्ते भर से ऊपर हो गया था जब बापट रघुनाथ से नहीं मिले - न पुल पर, न बगिया में। वे रोज जाते थे और लौट आते थे!

वे उस दिन जल्दी लौट आए क्योंकि उमस ज्यादा थी और पानी बरसने के आसार थे!

कालोनी के ही मुहाने पर मकान था मन्ना सरदार का। बगैर पलस्तर के ईंटों का। खुला हुआ बड़ा-सा हाता जिसमें एक ओर लंबी-सी खटाल। बँधी हुई चार भैंसें, तीन गाएँ। यहीं सुबह-शाम दूध के बर्तनों की क्यू लगाते थे बूढ़े। यह कारोबार मन्ना सरदार का पोता या नाती देखता है, उनसे कोई वास्ता नहीं।

कहते हैं, यह कालोनी उन्हीं की जमीन पर बसी है।

पचहत्तर-अस्सी साल के मन्ना सरदार अपने जमाने के पहलवान। काले, मोटे, गठे हुए! पेट थोड़ा निकला हुआ। आज भी लाल लंगोट और छींट के गमछे में ही नंगे बदन रहते हैं और नियम से पच्छिम मुँह करके पचास डंड और पचास बैठक पेलते हैं। उन्हें बस एक ही शौक है और एक ही रोग! शौक अपने हाथों भाँग घोंटना, गोला जमाना, ऊपर से एक पुरवा मलाई और रबड़ी खाना और रोग - गठिया! उनसे डाक्टर ने कहा था कि अगर चाहते हो गठिया ठीक हो, तो भाँग छोड़ दो। इन्होंने जवाब दिया था - 'ए डाक्टर साहेब, आप कहोगे तो दुनिया छोड़ देंगे, बाकी भाँग नहीं।'

वे जवानी तक शहर में पक्का महाल या पियरी पर कहीं रहे थे और जो कोई पकड़ में आ जाता था उसे उन दिनों के किस्से सुनाया करते थे।

रघुनाथ उनकी पकड़ में आ गए उस दिन! वे जैसे ही मुड़े, वैसे ही सरदार ने पूछा - 'जै राम जी की मास्टर साहब! किधर के रहनेवाले हैं आप? क्या बताया था उस दिन?'

'धानापुर साइड के!'

'अरे, आपने बताया क्यों नहीं, उसी साइड के तो ग्रू (गुरु) थे।'

'ग्रू कौन?'

'छक्कन ग्रू! आप कैसे नहीं जानते उन्हें? यह तो आश्चर्य की बात है! आइए, बैठिए तो सही! पानी नहीं बरसेगा, चिंता मत कीजिए, देखिए पुरुवैया शुरू हो गई है! ... पीतांबर और खड़ाऊँ - बस यही धज था उनका, चाहे जहाँ रहें। क्या लंबाई थी और क्या छरहरा बदन! कबूतर पाला था उन्होंने। बस एक कबूतर - वह भी सुनहरे रंग का। उसे अपने हाथों किसमिश, बादाम, छुहाड़ा खिलाते थे! एक बार वह गायब हुआ हफ्ते भर के लिए। ग्रू चिंतित! कमबखत बिना बताए गया कहाँ? आठवें दिन लौटा तो चोंच एकदम लाल। हाँफ रहा था! ग्रू बोले - 'बे मन्ना, सूर्य देवता को चोंच मार कर आया है, जीभ और चोंच जल रही है उसकी, देखता नहीं? पहले पानी पिला!' तो ऐसा था ग्रू! एक बार शाम को भाँग घोंटी, उस पार गए, साफा पानी दिया, चंदन के तिलक पर रोली लगाई, कलाई में गजरा लपेटा और डाल की मंडई ( दालमंडी) में घुसे। मुन्नी बाई अपने बारजे से ही देख रही थी कि ग्रू आ रहे हैं। जैसे ही ग्रू उसके कोठे के पास पहुँचे कि वह अपने को सँभाल नहीं सकी और टप्‌ से चू गई। वाह रे ग्रू! ग्रू ने उसे अपने मुसुक ( मुश्क - कंधे और कुहनी के बीच की जगह) पर रोक लिया! देखिए यूँ, इसी पर लोक लिया और वह मुसुक पर खड़ी हो गई! ग्रू बोले - 'मुन्नी, आज इसी पर मुजरा होगा लेकिन इस गली में नहीं, चौक में। अकेले मैं नहीं देखूँगा, सारा नगर देखेगा!' और ग्रू उसे मुसुक पर खड़ी किए सचमुच ले आए चौक में। और फिर जो मुजरा हुआ उसे न पूछिए तो ही अच्छा! और आप को पता ही नहीं कि ग्रू कौन है?'

जब वे उठे तो आसमान साफ हो चला था और जहाँ-तहाँ छिटके तारे दिखाई पड़ रहे थे।