रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 4 / काशीनाथ सिंह

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को?

सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के कारण, इस कारण से कि न जाएँ तो बेटा उनके बारे में क्या सोचेगा? कि जिस बेटे के सहारे बुढ़ापा कटना है उसकी औरत की कैसे न सुनें? न सुनें तो वह उनकी क्यों सुनेगा? लोग अपने बच्चों का भविष्य क्यों सँवारते हैं? इसलिए कि उनके भविष्य में उनका अपना भविष्य भी छिपा रहता है! कायदे से देखा जाए तो वे उनका नहीं, अपना ही भविष्य सँवारते हैं! इसी सँवरे हुए भविष्य में कदम रखा था शीला ने और खुश थी! जिस लड़की से कोई पूर्व-परिचय नहीं, कोई रिश्ता-नाता नहीं, यहाँ तक कि न अपनी जात की, न कुल की, न संस्कार की - वह शीला के पीछे मरी जा रही थी - 'मम्मी, चाय पी?' 'मम्मी, नाश्ता किया?' 'मम्मी, नहा लिया?' 'मम्मी, खाना खाया?' 'मम्मी, कोई जरूरत?'

इतना ध्यान उनकी बेटी सरला ने भी नहीं दिया था उनका!

सोनल ने पहले उन्हें पूरा घर दिखाया - ड्राइंग रूम, उससे सटा अपना कमरा, आँगन, फिर वह कमरा जिसमें पापा-मम्मी रहेंगे, फिर किचेन और स्टोर, फिर पिछवाड़े का हिस्सा जिसमें नौकर-चाकर के लिए टिन के शेड का खुला कमरा। फिर ऊपर ले गई छत पर और देर तक मम्मी को टहलाती रही कि लोग देख और जान लें कि वह अकेली नहीं है घर में! यह घर और इस घर में वह सब कुछ था जिसके बारे में शीला ने सोचा नहीं था।

उसे रात भर नींद नहीं आई - कारण जो रहे हों! कारण नई जगह भी हो सकता है, चौड़ा डबल बेड भी, गद्देदार बिस्तर भी! वह सुख भी जो अचानक उसके जीवन में आ गया था। वह घर में आई नहीं थी, 'गृह प्रवेश' किया था। यही कहा था सोनल ने और अच्छी से अच्छी 'डिशेज' तैयार करके खिलाया था। शीला की खुशी बार-बार उसकी आँखों में छलक आ रही थी! और इन आँसुओं में और कुछ नहीं, पहाड़पुर का खपरैलोंवाला घर था, उसके बेटे-बेटी थे और वह दुःख थे जो उसने जीवन भर सहे थे।

सहसा उसे याद आया कि संजय के बारे में न उसने कुछ पूछा, न सोनल ने अपने से कुछ बताया, दूसरी-दूसरी ही बातें करती रही अब तक!

अगले दो-तीन दिनों में शीला ने अपनी दिनचर्या निश्चित कर ली! खाना बनानेवाली महराजिन अब तक नहीं मिली थी और वह बैठे-बैठे करती क्या दिन भर ? सुबह चाय और दोपहर रात का खाना उसने अपने जिम्मे ले लिया था! तकलीफ केवल इतनी थी कि बात करने के लिए अभी तक कोई नहीं मिला था। डी-4 की घटना ने हर कालोनीवासी को अपने-अपने घर में रोक रखा था - वे सभी शायद डरे हुए थे कि कहीं ऐसा न हो कि वे मकान छोड़ें तो लौट कर घुसना मुश्किल हो जाए! इन्हीं वजहों से पार्क भी खाली पड़ा था - न कोई औरत, न कोई मर्द! तीन-चार दिनों तक कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकला - सर्विस करनेवालों को छोड़ कर।

शीला झाड़ू-पोछा करनेवाली महरी के पीछे-पीछे घूमती रहती और बात करती रहती - कितने लड़के हैं? कितनी लड़कियाँ हैं? कितनों की शादी हुई है? दामाद क्या करते हैं? कितनी बहुएँ हैं? कौनवाली साथ रहती है? स्वभाव कैसा है? सेवा करती है या नहीं? बेटे ध्यान देते हैं या नहीं? अभी कोई पोता-पोती है कि नहीं? ... कुछ सुनती, कुछ अपना सुनाती! इस दौरान सोनल अपना काम करती, पढ़ती, लिखती और नहीं तो कंप्यूटर के माउस से ही खेलती या कुछ टाइप करती।

इस बीच शीला दो बार बहू से दुःखी हुई। वह जग जाती थी भोर में चार बजे और सोनल सोती रहती थी आठ बजे तक। उसने उसे जगाने का एक तरीका निकाला। उसने सुबह छह बजे चाय तैयार की और उसे जगाया। सोनल सोई रही और उठने पर ठंडी चाय सिंक में उड़ेल दी। फिर अपने लिए अलग से नींबू की चाय बनाई।

शीला देखती रही।

दूसरे दिन उसने नींबू की चाय बनाई - थोड़ी देर से! यानी सात बजे! उस दिन भी यही हुआ। सोनल ने कहा - 'मम्मी, मेरी चाय रहने दिया करें आप! जब उठूँगी, तब बना लूँगी मैं!'

उसे अच्छा नहीं लगा! अपनी आदत के खिलाफ वह किसी तरह जब्त करके रह गई। यहाँ तक तो गनीमत थी लेकिन एक दूसरे प्रसंग से तो जैसे उसका मन ही उचट गया! होता यह था कि शीला सुबह रात की बची रोटी या पराँठे और सब्जी का नाश्ता करती थी! सोनल ने देखा तो बिगड़ी - 'नहीं मम्मी, यह नहीं चलेगा। आप वह खाएँगी जो मैं खाऊँगी! टोस्ट बटर, दलिया, दूध, फल! वह सब नहीं!' ठीक! शीला के दिमाग में सवाल उठा कि रोज-रोज जो बासी रोटियाँ या पराँठे बच जाते हैं, उनका क्या हो? उसे महरी गीता की याद आई! वह भी आते ही शीला को 'माता जी माता जी' बोलती थी! काम-धाम खतम करके गीता जब जाने लगती थी वह रोक कर उसे खिला देती थी। सब्जी न रहने पर कभी चाय दे देती थी, कभी अचार! सोनल को पता चला, पता क्या चला उसने गीता को एक कोने बैठ कर खाते हुए देख लिया।

'मम्मी।' गीता के जाने के बाद सोनल बोली - 'आप क्यों आदत बिगाड़ रही हैं उसकी?'

शीला ने समझने की गरज से बहू की ओर देखा!

'उसकी शर्तों में चाय-नाश्ता नहीं था! पाँच सौ महीना और साल में दो बार साड़ियाँ - बस!'

'लेकिन मैं चाय नाश्ता कहाँ देती हूँ? जो कुछ बचा-खुचा रहता है, सधा देती हूँ! फेंकने या कुत्ता-बिल्ली को खिलाने से अच्छा है कि किसी के स्वारथ आ जाए!'

'यही तो! कुत्ते-बिल्ली को भले खिला दें, उसे न दें - यही कहना है मेरा?'

'अरे? यह कैसी बात कर रही हो तुम?' फटी आँखों बहू को ताकने लगी शीला!

'नहीं, बुरा मत मानिए। इसे ऐसे समझिए! मान लीजिए कल आप कहीं और चली जायं, यहाँ न रहें। वह हमसे भी यही उम्मीद करेगी और हम नहीं दे पाएँगे तो उसे बुरा लगेगा, ठीक से काम नहीं करेगी। है न?'

'सब ठीक! लेकिन यह बात मेरे गले नहीं उतर रही है कि कुत्ते-बिल्ली को खिला दें लेकिन उसे न खिलाएँ!'

'मम्मी, वह आपकी परजा नहीं है, नौकरानी है - प्रोफेशनल। उसका पेट रोटी पराँठे से नहीं, पैसे से भरेगा! यही नहीं, आप उससे बातें करेंगी और वह सिर चढ़ जाएगी! कल जब आप किसी बात के लिए उसे टोकेंगी, वह लड़ बैठेगी! उसे आप वही रहने दें जो है! आए, अपना काम करे और रास्ता नापे!'

शीला सिर झुकाए चुपचाप सुनती रही और उठ खड़ी हुई - 'लेकिन मैं अन्न का अपमान नहीं होने दूँगी! उसे नहीं खिलाऊँगी तो खुद खाऊँगी!'

'आप बुरा मान गईं। नहीं समझा मेरी बात को!'

'समझ लिया, कोई अपढ़ नहीं हूँ! मैं भी बी.ए. हूँ अपने समय की!'

'ठीक है लेकिन मैं बासी तो न खाने दूँगी! कल ही आप कहेंगी कि मुझको बासी खिलाती थी!'

'तो मेरा भी सुन लो, मैं अन्न को ऐसे फेंकने न दूँगी!'

यह बहस तभी खत्म हो सकती थी जब उन दोनों में से कोई चुप हो जाए या वहाँ से हट जाए!

आखिर सोनल किसी काम के बहाने वहाँ से चली गई!

शीला कुछ देर बैठी रही। उसे लगा कि बहू नकचढ़ी ही नहीं, सिरचढ़ी भी है! पैदा करती, तब उसे अनाज का मोल भी पता चलता। माँ-बाप की इकलौती औलाद, जात की लाला - खेत-खलिहान से मतलब नहीं; उसे क्या मालूम अपनी फसल का सुख-दुःख?

वह घर के पिछवाड़े गई जहाँ रघुनाथ बाहर से घूम कर आए थे और नहाने जा रहे थे! उसने जैसे ही शुरू किया वैसे ही रघुनाथ ने टोका - 'सही कहा उसने! बहू को सुनने और उसके साथ रहने की आदत डालो!'

'क्या? तुम्हारा भी यही कहना है!'

'नहीं, मेरा यह नहीं कहना है। मेरा यह कहना है कि जिसके घर में रहती हो, जिसका खाती हो, पहनती हो, उसे अनसुना मत करो। वह करो जो वह चाहती है!'

'राशन मैं लाई हूँ, चाय-नाश्ता मैं बनाती हूँ, खाना मैं पकाती हूँ, जो कोई आता है, उसे उठाती-बिठाती मैं हूँ - और मेरी कोई वकत ही नहीं?'

'अच्छा जाओ तुम यहाँ से, जो करना है करो!' झुँझला कर रघुनाथ बोले और बाथरूम में चले गए!

'मैं नहीं रहूँगी यहाँ! मुझे गाँव पहुँचा दो और नहीं पहुँचाओगे तो खुद चली जाऊँगी।'

बाथरूम के अंदर से ही रघुनाथ ने हँसते हुए कहा - 'अरे, बहू से तो पूछ लो। अपने से नहीं आई हो तुम, वही लाई है! ... कैसे है वह गाना।' उन्होंने नल खोल दिया और गाना शुरू किया -

अभी न जाओ छोड़ कर , कि दिल अभी भरा नहीं

अभी अभी तो आई हो , बहार बन के छाई हो

अभी जरा बहक तो लूँ , अभी जरा न नू न नू....


शाम को चार बजे के आसपास सरला का फोन आया - बहुत दिनों बाद! काफी दुःखी और शिकायती स्वर में! उठाया शीला ने ही। सोनल कालेज गई थी, घर पर वही थी! इससे पहले उसने दो-तीन बार गाँव पर फोन किया था, उसकी बदकिस्मती से रिसीवर उठाया था रघुनाथ ने और उसका नाम सुनते ही बिना पूछे या बोले रख दिया था! इसका चर्चा भी नहीं किया था शीला से!

'माँ, अब तो आ सकती हो मेरे यहाँ!'

'ऐसे क्यों बोल रही हो, सरला?' शीला रुआँसी हो उठी।

'मैंने शादी नहीं की माँ, पापा से भी बोल देना! चाहें तो वे भी आ सकते हैं।'

'उनकी बात नहीं जानती लेकिन मैं तो तैयार बैठी हूँ। जब कहो तब आ जाऊँगी!'

'ठीक है, अगले दस-पंद्रह दिनों के भीतर कोई व्यवस्था करती हूँ!'

'लेकिन तुमने शादी क्यों नहीं की? हम तो मान चुके थे कि हो गई होगी!'

'माँ, मैंने सोच लिया है! भगवान और ब्याह के बिना भी जिया जा सकता है, रहा जा सकता है! किसी बात की फिकर मत करना! ठीक?'

सरला ने रिसीवर रख दिया था। शीला जहाँ की तहाँ खड़ी! उसकी समझ में नहीं आया कि यह अच्छा हुआ या बुरा! उसने रघुनाथ को सूचना दी! रघुनाथ ने सिर्फ इतना कहा कि इससे तो अच्छा था कि वह शादी ही कर लेती!