रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 2 / काशीनाथ सिंह

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी।

तीन साल बाद।

उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्होंने, हफ्ते भर रह कर घर ठीक-ठाक किया, उसे सजाया, सँवारा, सुबह-शाम बेटी को चाय पिलाई, उसकी दिनचर्या निर्धारित की और विदा होने से पहले उसे सलाह दी - 'संजू के पापा-मम्मी को बुला लो, वे काम आएँगे। घर भी देखेंगे और तुम्हारी भी मदद होगी!'

यही कहा था संजय ने भी अमेरिका से विदा करते समय - 'हम दोनों भाई बाहर हैं, पापा-मम्मी गाँव पर अकेले हैं। इस उमर में उन्हें सहारे की जरूरत है, उन्हें साथ रखना!'

यह पहली रात थी जब वह घर में अकेली थी। देर तक वह अपने बेडरूम में संगीत सुनती रही - एक कैसेट के बाद दूसरा कैसेट। शास्त्रीय से ऊबती तो अर्धशास्त्रीय, इससे भी ऊबती तो फिल्मी गाने! पढ़ती भी रहती, सुनती भी रहती! बिजली गुल करके सोने की आदत थी! बेडरूम को छोड़ कर बाकी कमरों की बत्तियाँ जली छोड़ दीं और लेट गई।

सन्नाटे की भी अपनी आवाज होती है और वह सुहानी कम, डरावनी ज्यादा होती है! यही नहीं, ये आवाजें सुनाई ही नहीं, दिखाई भी पड़ती हैं। उसके घर के सामने ही पार्क था - बड़ा-सा। पूरे मुहल्ले या कह लो, कालोनी का। जब से आई थी, तब से सुबह-शाम देख रही थी! वह तीन साल से ऐसी दुनिया में रह कर आई थी जहाँ अँधेरा नहीं होता था, जहाँ बूढ़े नहीं रहते थे, जहाँ हर चीज दौड़ती-भागती उछलती-कूदती नजर आती थी, जिसमें लपक चमक और कौंध थी, जहाँ जवान और जवानियाँ और तरह-तरह के रंग थे, जहाँ कुछ भी अपनी जगह खड़ा और स्थिर नहीं दिखाई पड़ता था - और अब यह पार्क और यह कालोनी?

बूढों, अपंगों और विकलांगों का यह विहार!

फरवरी के इस महीने में खिड़कियों और दरवाजों पर थाप देती बसंती हवा और पार्क में घिसटते, उड़ते सूखे, झड़े, बेजान पत्तों की मरमर-चरमर!

मान लो, किसी के घर में कोई चोर घुस आए - किसी के क्या, मेरे ही घर में चोर घुस आए और वह भी अकेले, बिना किसी साथी के, औजार के; डाकू घुस आए बिना राइफल-बंदूक के अकेले, रात-बिरात तो छोड़ो, खड़ी दोपहर में; कोई बलात्कारी ही घुस आए दिन दहाड़े और मुझे उठा कर ले जाए पार्क में और मैं चिल्लाऊँ कि बचाओ! बचाओ! तो कौन सुनेगा? (ज्यादातर बूढ़े या तो बहरे हैं या ऊँचा सुनते हैं), कौन दौड़ेगा (ज्यादातर घुटनों और जोड़ों के दर्द से परेशान हैं), कौन देखेगा (ज्यादातर मोतियाबिंद का आपरेशन कराके आँख पर हरी पट्टी बाँधे हैं), यह सब न कर सकें तो खड़ा हो कर चिल्लाएँ तो सही (ज्यादातर की कमर झुकी है और मुँह में दाँत नहीं है, वे गुगुआ तो सकते हैं, चिल्ला नहीं सकते)।

इन खयालों से सोनल के रोंगटे खड़े हो गए! वह किसी अनजाने डर से सिहर-सी उठी!

फिर सहसा ध्यान गया कुत्तों की ओर! कुत्ते बहुत थे कालोनी में - हर सड़क पर, प्रायः गेट के बाहर बैठे या घूमते दिखाई पड़ते थे लेकिन - यहाँ भी एक 'लेकिन' था। इतने दिनों में उसने किसी को भूँकते हुए नहीं सुना। उसी के मकान डी-१ के गेट पर ही एक भूरा बैठा रहता है लेकिन जब भी आओ, कहीं से आओ - गेट से चुपचाप हट जाता है और दूसरी जगह थोड़ी दूर पर बैठ जाता है!

कालोनी के बाशिंदों के सिवा किराएदार भी हैं - प्रायः हर घर में! नीचे मालिक, ऊपर किराएदार! कुछ में देसी, कुछ में विदेशी - ज्यादातर जापानी, कोरियाई या थाई। विद्यार्थी या टूरिस्ट अपने काम से काम रखनेवाले। इनके सिवा वे सरकारी कर्मचारी हैं जिनका किसी भी समय तबादला हो सकता है! यानी वे जिनके दिमाग में मकान कब्जा करने की बात न आए! ऐसे लोगों को मुहल्ले के लोगों से क्या लेना-देना, उन्हें खुद से ही फुरसत नहीं।

इस तरह तो उसी का घर क्यों, कालोनी का कोई भी घर - यहाँ तक कि कालोनी की कालोनी दिन-दहाड़े लूट के कोई ले जाए, रोकने-टोकनेवाले नहीं मिलेंगे।

सोचते-सोचते उसे लगा कि यह सिर्फ एक खयाल नहीं है - एक 'हॉरर' फिल्म है जो उसकी आँखें देख रही हैं! वह खुद पार्क में फटते चिथड़ा होते जा रहे साड़ी ब्लाउज में इधर से उधर भाग रही है - चीख चिल्ला रही है लेकिन कोई भी अपने घर से नहीं निकल रहा है! किसी को सुनाई ही नहीं दे रहा है तो निकलेगा कहाँ से?

उठ कर झटके से उसने बत्ती जलाई और फिल्म खत्म। राहत की साँस ली उसने और कैसेट लगाया। बदकिस्मती से कैसेट वह निकला जिसे न वह सुनना चाहती थी, न सुने बगैर रहना चाहती थी -

वक्त ने किया , क्या हसीं सितम

तुम रहे न तुम , हम रहे न हम

यह कैसेट सोनल को समीर ने प्रजेंट किया था - तीन साल पहले। शादी के रिसेप्शन के दिन। तब उसने न इसे देखने की जरूरत महसूस की थी, न सुनने की! उसने हमेशा इसे अपने साथ रखा लेकिन कभी नहीं सुना। आज सुनते हुए उसे लगा कि कितना बदल गया है उसी गाने का मतलब आज? उसने संजय की कोई चर्चा नहीं की अपने डैडी से जान-बूझ कर। वे दिल के मरीज, उन्हें ठेस लगती! अगर विश्वविद्यालय की सर्विस न मिली होती और वह अमेरिका में ही रह गई होती तो क्या होता?

गलती कहाँ हुई और किससे हुई - वह समझ नहीं सकी!

आरती गुर्जर - उसके लैंडलार्ड की बेटी। उसी काल सेंटर में काम करती थी जिसमें संजय करता था! साथ आना-जाना उसी की कार से होता था। दिन-रात का साथ! आश्चर्य यह था कि आरती के माँ-बाप उन्हें एक दूसरे के करीब आते देख रहे थे फिर भी चुप थे! आश्चर्य यह भी था कि उसकी भी आँखों के सामने वे छेड़छाड़ करते थे - बेशर्मी की हद तक - और टोकने पर हँसने लगते थे। और इससे भी बड़ा आश्चर्य यह था कि आरती का पति जब कभी न्यू यॉर्क से आता था तो वह अपनी पत्नी से उसके 'ब्यायफ्रेंड' के बारे में बातें करता था और उन्हें डिनर पर ले जाता था! जाती तो साथ में वह भी थी - लेकिन उसे हमेशा लगता था कि न जाती तो ज्यादा अच्छा रहा होता!

वह एक ऐसे समाज में आ गई थी जिसमें डालर को छोड़ कर किसी और चीज जैसे प्यार के लिए ईर्ष्या करना पिछड़ापन और गँवरपन था!

वह जब भी संजय से उसकी हरकतों की शिकायत करती, वह खीझ उठता - 'तुम देश और काल के हिसाब से अपने को बदलना सीखो, चलना सीखो। न चल सको तो चुपचाप बैठो या लौट जाओ!'

'लौटूँगी तो अकेले क्यों? तुम्हें साथ ले कर!'

'मैं तो डियर, परदेस को ही अपना देस बनाने की सोच रहा हूँ!' मुसकराते हुए उसने आँख मार कर कहा - 'तुम भी क्यों नहीं ढूंढ़ लेती एक ब्यायफ्रेंड?'

'अच्छा लगेगा तुम्हें?' उसने सीधे संजय की आँखों में देखा!

'अच्छा की कहती हो? निश्चिंत हो जाऊँगा हमेशा के लिए! हा हा हा...'

सोनल ने संजय की आँखों में गौर से देखा - वे आँखे ही थीं या दिल? यह बात उसने जबान से कही थी या दिल से? वह कहीं सोनल से सचमुच की मुक्ति तो नहीं चाह रहा है? वह देख रही थी कि अमेरिका आने के बाद से उसमें तेजी से बदलाव आया है - एक-दो सालों के अंदर! यह उसकी तीसरी नौकरी है! वह एक शुरू करता है कि दूसरी की खोज में लग जाता है - पहले से उम्दा, पैसों के मामले में। उसमें सब्र नाम की चीज नहीं है। वह जल्दी से जल्दी ऊँची से ऊँची ऊँचाइयाँ छूना चाहता है! जैसे ही एक ऊँचाई पर पहुंचता है, थोड़े ही दिनों में वह नीची लगने लगती है! इसे वह महत्वाकांक्षा बोलता है! अगर यही महत्वाकांक्षा है तो फिर लालच क्या है?

लालच ? आरती गुर्जर के साथ संजय की दोस्ती के पीछे सिर्फ आरती गुर्जर है या उसके एन.आर.आई. माँ-बाप जिनका 'गुजराती हस्तशिल्प' का चमकदार व्यवसाय है, जिनकी वह इकलौती संतान है? आरती से संजय का रिश्ता उसकी समझ से बाहर था!

यहाँ रहते हुए सोनल भी कमाई कर सकती थी! किसी विश्वविद्यालय में, कालेज में, लाइब्रेरी में, कहीं भी! कंप्यूटर में भी अच्छी-खासी गति थी! लेकिन संजय ने जब भी सोचा, खुद के बारे में सोचा, सोनल के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं थी! उसने सोनल को 'हाउसवाइफ' से ज्यादा नहीं होने दिया और वह भी तो बनारस के इंतजार में 'आज कल परसों' करती रह गई थी।

सोनल की आँखें भर आई थीं। उसी दम उसने निर्णय लिया था कि अब नहीं रुकना यहाँ! वह बहाने की खोज में ही थी कि राँची से पापा का ई-मेल - तुरंत आ जाओ, 15 को तुम्हारा इंटरव्यू है! उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा! यह उसकी आत्मा की पुकार थी जो विश्वविद्यालय तक पहुँची थी!

आज भोर के उजाले में खिड़की से फिर पुकार आ रही थी सोनल की आत्मा - संजय को नहीं, समीर को - सुनो, और चले आओ!