रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 1 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था।

बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहार और कालोनियाँ नहीं। इनका निर्माण शुरू हुआ 1980-1990 के आसपास जब पूर्वांचल और बिहार में भू-माफियाओं और बाहुबलियों का उदय हुआ! उन्होंने नगर के दक्खिन, पच्छिम और उत्तर बसे गाँव के गाँव खरीदे और उनकी 'प्लाटिंग' करके बेचना शुरू किया! देखते-देखते पंद्रह-बीस वर्षों के अंदर गाँव के वजूद खत्म हो गए और उनकी जगह नए-नए नामों के साथ नगर, कालोनियाँ और विहार बस गए!

यह नया बनारस था - महानगरों की तर्ज का।

मुहल्लों में रहनेवाले मुहल्लों और महलों में ही रहे - अपने पुश्तैनी काम-धंधों, दुकानों, रोजगारों और घाटों के साथ लेकिन इन कालोनियों में बसनेवाले ज्यादातर नए नागरिक थे!

ये बाहर से आए थे। आसपास के जनपदों से! जिलों से! सौ पचास किलोमीटर की दूरी से! इनके अपने गाँव थे, थोड़ी बहुत जमीन थी, खेती बारी थी। उन्हें समय-समय पर बनारस आना ही पड़ता था - कभी कोर्ट कचहरी के काम से, कभी अस्पताल के काम से, कभी तीरथ-बरत के लिए, कभी शादी ब्याह की खरीददारी के लिए, कभी बच्चों के ऐडमीशन और पढ़ाई के लिए। बार-बार आ कर लौटने से बेहतर था कि यहाँ ठहरने और रुकने का एक स्थायी ठिकाना हो, एक डेरा हो।

लेकिन ऐसा सिर्फ उन्हीं के लिए संभव था जिनके पास अपनी कोई छोटी मोटी नौकरी हो; और अगर वह नौकरी काफी न हो तो बेटों में से कम से कम एक बाहर कमा रहा हो जिसके बच्चे गाँव में बोर होते हों और वहाँ नहीं रहना चाहते, शहर के आदी हो गए हों और अपना हित उधर ही देखना चाहते हों।

हालाँकि गाँव में वह सब पहुँच रहा था धीरे धीरे, जो शहर में था - बिजली भी, नल भी, फ्रिज भी, फोन भी, टी.वी. भी, अखबार भी लेकिन वह मजा नहीं था जो शहर में था। मजा था भी तो उनके लिए जिनके पास ट्रैक्टर था, थ्रेशर था, पंपिंग सेट था, बोलेरो या सफारी थी, जो खेती पेट के लिए नहीं, व्यवसाय के लिए कर रहे थे, जो एक नहीं, एक ही साथ सभी राजनीतिक पार्टियों के हमदर्द और मददगार थे!

ऐसे लोगों की कालोनियाँ भी दूसरी-दूसरी थीं - लंबे चौड़े प्लाटोंवाली!

लेकिन 'अशोक विहार' उनकी कालोनी थी जो अध्यापक थे, बाबू थे, दोयम दर्जे के सरकारी गैर-सरकारी कर्मचारी थे और इससे भी खास बात यह कि जो या तो रिटायर हो चुके थे या निकट भविष्य में रिटायर होनेवाले थे!

न तो अखबारों में कोई विज्ञापन था, न किसी नुक्कड़ पर इस आशय की होर्डिंग कि इस कालोनी के प्लाट उन्हीं को बेचे जाएँगे जो पचास-पचपन से ऊपर के होंगे और जल्दी ही रिटायर होंगे लेकिन जाने यह कैसे हुआ कि जब कालोनी तैयार हुई तो पाया गया कि यह बूढ़ों की कालोनी है! ऐसे बूढ़े-बूढ़ियों की जिनके बेटे-बेटी अपनी बीवी और बच्चों के साथ परदेस में नौकरी कर रहे हैं - कोई कलकत्ता है, तो कोई दिल्ली, कोई मुंबई तो कोई बंगलौर और कइयों के तो विदेश में।

इनका दुःख अपरंपार था। इन्होंने बेटे-बेटियों के लिए अपने गाँव छोड़े थे - अपनी जन्मभूमि - कि यह हमारे लिए तो ठीक, चाहे जैसे रह लें लेकिन उनके लिए नहीं। न बिजली, न पानी, न लिखने-पढ़ने, न आने-जाने की सुविधा! घर हो तो ऐसी जगह जहाँ से खेती-बारी पर भी नजर रखी जा सके और बेटों-बेटियों को भी असुविधा न हो! वे अपनी जगह-जमीन, रिश्ते-नाते, संगी-साथी, बाग-बगीचे, ताल-तलैया छोड़ कर जिन संतानों के लिए आए, वे ही बाहर। इतने तक तो गनीमत थी। लेकिन अब हालत यह है कि जो जहाँ सर्विस कर रहा है, वह उसी नगर में रम गया है और वहाँ से लौट कर यहाँ नहीं आना चाहता। अगर वह आना भी चाहता है तो उसके बच्चे नहीं आना चाहते!

लीजिए यह नई मुसीबत!

जिनके लिए बेघर हुए उन्हीं के अपने अलग घर!

यह नई मुसीबत न उन्हें जीने दे रही थी, न मरने दे रही थी। गाँव पर पुश्तैनी जमीन-जायदाद। बाप-दादों की धरोहर। न देखो तो कब दूसरे कब्जा कर लें, कहना मुश्किल। पुरखों ने तो एक-एक कौड़ी बचा कर, पेट काट कर, जोड़-जोड़ कर जैसे-तैसे जमीनें बढ़ाई ही, चार की पाँच ही कीं - तीन नहीं होने दीं और यहाँ यह हाल! जरा-सा गाफिल हुए कि मेड़ गायब! महीने दो-महीने में कम से कम एक बार गाँव का चक्कर लगाते रहो। देख लें लोग कि नहीं हैं; ध्यान है। हाल-चाल लेते रहो, कुशल-मंगल पूछते रहो, खुशी-गमी में जाते रहो, सब से बनाए रखो। अधिया या बँटाई पर खेती करो तब भी। दिया-बाती और घर-दुआर की देख-रेख के लिए कोई नौकर-चाकर रखो तब भी!

उनके बेटों के बचपन गाँव में बीते थे। नगर में पढ़ाई के दौरान भी वे आते-जाते रहते थे गाँव पर। उन्होंने खेती भले न की हो लेकिन उन्हें इतना पता था कि उनके खेत कहाँ-कहाँ हैं, कौन-कौन से हैं - धान के, गेहूँ के, दलहन के? उन्हें थोड़ी-बहुत जानकारी थी। खेल या कुतूहल में ही सही, बाप-चाचा के साथ लगे रह कर उन्होंने अगोर की थी, बुआई-कटाई देखी थी। लोग भी जानते थे कि यह फलाने का बेटा या भतीजा है। गाँव-घर से माया-मोह के लिए इतना कम नहीं था लेकिन उनके बच्चे? वे तो दादा-दादी को छोड़ कर पहचानते ही किसको हैं? और दादा-दादी को भी कितना पहचानते हैं? चिंता उसकी होती है जिससे मोह होता है, प्रेम होता है; जिससे प्रेम ही नहीं, परिचय और संबंध ही नहीं, उसकी क्या चिंता? खेत भी उसे पहचानते हैं जो उनके साथ जीता- मरता है। वे खेतों को क्या पहचानेंगे, खेत ही उन्हें पहचानने से इनकार कर देंगे!

ये सारी बातें बेटों की नजर में 'बुढ़भस' थीं। आप माटी में ही पैदा हुए और एक दिन उसी माटी में मिल जाएँगे! कभी उससे छूटने या ऊपर उठने या आगे बढ़ने की बात ही आपके दिमाग में नहीं आई - क्योंकि उसमें भी गोबर नहीं तो माटी ही थी। क्या कर लिया खेती करके आपने? कौन सा तीर मार लिया? खाद महँगी, बीज महँगा, नहर में पानी नहीं, मौसम का भरोसा नहीं, बैल रहे नहीं, भाड़े पर ट्रैक्टर समय पर मिले, न मिले, हलवाहे और मजूरे रहे नहीं - किसके भरोसे खेती करो? और खेती भी तब करो जब हाथ में बाहर से चार पैसे आएँ? क्या फायदा ऐसी खेती से?

असल चीज पैसा है! अगर हाथ में पैसा हो तो वे सारे जिंस बिना कुछ किए बाजार में मिल जाते हैं जिनके लिए आप रात दिन खून पसीना एक करते हैं। बिना कुछ किए, बिना कहीं गए।

सारी जिच और सारा झगड़ा और सारा बवाल बेटों से उनका चल ही रहा था गाँव को ले कर, कि अब एक नई मुसीबत - 'अशोक विहार' के मकान का क्या होगा? वे जहाँ हैं, वहाँ से आना नहीं चाहते!

ये हैं कि इनसे न गाँव छूट रहा है, न अशोक विहार - दुनिया भले छूट जाए!