रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 8 / काशीनाथ सिंह

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन!

इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ!

बहुत सोच-विचार कर उन्होंने फैसला किया कि रुकी हुई पेंशन हो या आबादी की जमीन जब इन दोनों की जड़ में मैनेजर ही हैं तो उनसे एक बार मिल लेने में हर्ज ही क्या है ? अगर इतने से ही उनका 'इगो' तुष्ट होता हो तो यह कहने में क्या बुरा है कि आज हम जो कुछ हैं, आप के ही कारण हैं, नौकरी न दी होती तो जाने कहाँ होते? जब बनाया है तो बिगाड़िए मत।

अब स्थितियाँ भी बदल गई थीं। मैनेजर की बेटी की शादी हो चुकी थी वन मंत्री के ठेकेदार बेटे से। वे पड़ोस के जिले के थे। मैनेजर से ऊँचे स्टेटस के। अब रघुनाथ से शिकायत की कोई वजह भी नहीं रह गई थी! वे मिठाइयों के पैकेट और सेब, संतरे और अंगूर के साथ जब पहुँचे तो मैनेजर - जिन्हें लोग 'सरकार' बोलते थे - अच्छे मूड में थे। रघुनाथ को देखते ही उन्होंने चुहल के अंदाज में कहा - 'मास्टर! तुम्हारी सेहत देख कर लगता है, तुम्हें शुरू से ही तनख्वाह न ले कर पेंशन ही लेनी चाहिए थी! जवानी तो अब आई है तुम पर!'

'सरकार!' रघुनाथ के मुँह से निकला और वे रो पड़े!

'क्यों? क्या हुआ? अब तक 'नो ड्यूज' क्लियर नहीं किया क्या?' मैनेजर ने चौंक कर पूछा और प्रिंसिपल को फोन किया, फिर कहा - 'जाइए, चिंता मत कीजिए, हो जाएगा? और कुछ?'

रघुनाथ ने नरेश और बब्बन सिंह का पूरा किस्सा बताया! वे चुपचाप सुनते रहे। थोड़ी देर बाद बोले - 'जब ये आपके घर के थे तो बँटाई पर इन्हें न दे कर बाहर के आदमी को क्यों दिया? गलती तो आप की भी है!'

रघुनाथ कुछ नहीं बोले। उनसे यह बताना बहुत मुनासिब नहीं लगा कि बाहर के आदमी को तो कभी भी हटाया या भगाया जा सकता है लेकिन इन्हें मुश्किल होता! उन्होंने इतना भर कहा - 'हाँ, गलती तो हो गई! अब कुछ किया भी तो नहीं जा सकता!'

'आप समस्याएँ खड़ी करते रहिए और मैं निपटारा करता रहूँ, यही न?' मैनेजर ने एस.डी.एम. को फोन किया और इशारे से कुछ समझाया!

रघुनाथ इस दौरान सिर झुकाए बैठे रहे!

'अब किस सोच में हैं? जाइए और बब्बन सिंह को भेज दीजिएगा!' वे उठे और बाथरूम में चले गए! जाते-जाते कहा - 'हो सकता है, एस.डी.एम. आफिस दौड़ना पड़े कुछ एक बार! दौड़ाए और आपसे कुछ कहे तो उसके आगे बहुत सिद्धांतवादी बनने की जरूरत नहीं है! सबकी कुछ न कुछ मजबूरियाँ होती हैं। ठीक?'

बीस-पच्चीस दिन के जद्दोजहद के बाद एक दिन एस.डी.एम. दो सिपाहियों और लेखपाल के साथ आया - जरीब और गाँव का नक्शा ले कर और सबके सामने जमीन की पैमाइश की! अबकी जमीन का वह हिस्सा भी रघुनाथ के हक में निकला जिसमें नरेश का घर-दुआर था! इसका मतलब था कि रघुनाथ चाहें तो नरेश का घर-दुआर गिरा दें या रहने दें या उतनी जमीन की कीमत वसूल करें।

इसे रघुनाथ की भलमनसाहत पर छोड़ दिया गया!

यह उनकी बड़ी सफलता थी - निश्चिंतता भी! पापड़ तो बहुत बेले लेकिन सम्मान लौट आया! अब वे बनारस जा सकते थे महीने दो महीने के लिए। अगर मन वहाँ लग गया तो संदेश और फोना-फोनी से भी काम चल जाएगा!

उन्होंने जाने की तैयारियाँ शुरू कर दीं और तैयारियाँ क्या करनी थीं - राशन फिलहाल के लिए चला ही गया था। दो छोटी-छोटी बोरियों में अलग-अलग आलू और प्याज! चार बजे की बस के लिए इसी की तैयारी कर रहे थे कि बाहर डाँट डपट की आवाज सुनाई पड़ी!

निकले तो देखा - जगनारायण यानी जग्गन। काफी उखड़े हुए और नाराज। उनके एक हाथ में कल्लू का कान है और दूसरे हाथ में दो अधपके आम! डरे हुए कल्लू को पकड़े हुए वे सनेही के झोंपड़े के आगे खड़े हैं - 'सनेही? सनेहिया रे!'

अंदर से सनेही की औरत निकली - 'क्या है मालिक?'

'तुम औरत जात! तुमसे क्या बात करें? सनेही को भेजो!'

उसने झपट कर कल्लू को खींचा, दो लप्पड़ और मुक्के मारे और धकियाते हुए अंदर ठेल दिया। वह चीखता-चिल्लाता अंदर चला गया!

मामला समझते देर नहीं लगी रघुनाथ को! घराने में सबके दरवाजों के आगे नीम के पेड़ हैं, अकेले वही हैं जिनके दरवाजे के सामने आम का पेड़ है। टिकोरे लगने से ले कर उसके पकने तक जिसकी नौबत शायद ही कभी आती हो - घराने के लड़के बच्चे हाथ में ढेले छिपाए उसके इर्द-गिर्द मँडराते रहते हैं और जग्गन तब तक उसके नीचे खटिया डाले पड़े रहते हैं जब तक गर्मी बर्दाश्त के लायक रहती है! घराने भर की चटनी-अचार का काम - उनके लाख एहतियात के बावजूद उसी से चलता है! इधर से ढेले चलते हैं, उधर से जग्गन पकड़ने की घात में रहते हैं। एक को पकड़ते हैं, तीन मौका पा जाते हैं। उनकी और बच्चों की यह व्यस्तताएँ कभी कभी डेढ़ दो महीने तक चल जाती हैं।

'आओ आओ जग्गन! हमसे बताओ क्या बात है?'

'काकी हैं ही नहीं, आएँ तो क्या आएँ आपके यहाँ?'

'आओ तो, बैठो तो सही!' उन्होंने जग्गन को सामने की खटिया पर बैठने का इशारा किया और आवाज दी झोंपड़े के आगे खड़ी सनेही की औरत को - 'जग्गन को सतुए का घोल तो पिलाओ। सुराही के पानी में बनाना!'

जग्गन थोड़े सहज हुए और बैठ गए, फिर अपनी लुंगी के फेंटे से सुर्ती की डिबिया निकाली और मलने लगे। बोले - 'मास्टर कक्का, आपने यह भारी गलती की! कोइरी-कहार को अपने बीच में बसा के आपने भारी गलती की!'

'इसमें गलती क्या है?'

'अरे? आपको दिखाई ही नहीं पड़ती है? इसी रास्ते हम दिन रात-आते-जाते हैं, ये बैठे हैं तो बैठे हैं; लेटे हैं तो लेटे हैं। बड़ों के बीच रहने का सहूर नहीं! और इनके बच्चे?...'

बीच में ही रघुनाथ ने टोक दिया - 'देखो जग्गन, फालतू हैं ये बातें। समय बहुत बदल गया है! आज मानसिक रूप से विकलांग ही ऐसी बातें करते हैं। किस बात के बड़े हैं हम-तुम? पुरखों की जमीन और जाति के भरोसे? छब्बू की हत्या के बाद भी यह भ्रम पाले हो तो पाले रहो! पिछले दिनों तुमने ही अपने खेत बेचे। ठाकुरों में ही किसी ने क्यों नहीं खरीदा? चाहते तो यही थे तुम, लेकिन तुम्हें नगद चाहिए था बेटी की शादी के लिए; क्यों नहीं खरीदा? खरीदा तो आखिर जसवंत ही ने! आज भी हमारी तुम्हारी खेती उसके भरोसे होती है, ट्रैक्टर उसके पास है, रुपए उसके पास हैं! विधायक उसके हैं, सांसद उसके हैं, सरकार उसकी है, वे आते भी उसी के पास हैं, किसी काम के लिए सिफारिश भी करवानी होती है तो आप उसी के पास जाते हैं। फिर भी बड़े हैं आप? ऐसी गलतफहमी पालनी है तो पाले रहो! हाँ, यह जरूर है कि वह दूसरे गाँव का है, पराया है, अधिया पर देना ही था तो उसके बजाय किसी अपने को देना चाहिए था। अब तुम्हीं बताओ, कौन अपना है जिसे देता?'

जग्गन पसोपेश में चुप रह गए। रघुनाथ का निकटतम पड़ोसी था नरेश - उन्हीं के भाई का बेटा जिसकी नजर बराबर पिछवाड़े की जमीन पर थी।

थोड़ी देर इंतजार के बाद रघुनाथ फिर बोले - 'देखो जग्गन, 'परायों' में अपने मिल जाते हैं लेकिन 'अपनों' में अपने नहीं मिलते। ऐसा नहीं कि अपने नहीं थे - थे लेकिन तब जब समाज था, परिवार थे, रिश्ते नाते थे, जब भावना थी! भावना यह थी कि यह भाई है, यह भतीजा है, भतीजी है, यह कक्का है, यह काकी है, यह बुआ है, भाभी है। भावना में कमी होती थी तो उसे पूरी कर देती थी लोक लाज कि यह या ऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? धुरी भावना थी, गणित नहीं, लेन देन नहीं!' इसी बीच सत्तू का घोल दे गई सनेही की औरत, रघुनाथ चुप हो गए। उसके जाने के बाद फिर शुरू किया - 'अब तुम्हीं बताओ, नरेश से अधिक कौन अपना था? सोचा था, उसको दे कर निश्चिंत हो जाऊँगा। हालांकि उसकी नीयत पर शक था - बहुत पहले से। और उसे न दे कर अच्छा ही किया वरना वह दिन भी आता जब अपने खेत में क्या, गाँव में ही मुझे घुसने न देता। और कहने की जरूरत नहीं कि उस वक्त तुम भी मेरा नहीं, उसका साथ देते! ... हाँ, सनेही को मैं जानता हूँ। वह अपने काम से काम रखनेवाला आदमी है। तुम्हें या किसी को कोई शिकायत हो तो बताना! मौका ही नहीं देगा, बताओगे क्या?'

रेहन पर रग्घू खंड 2 समाप्त